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पञ्चम आवास:
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पाताले पाबमूलोपविलसदहिग्यूहवासान्तकान्तस्तियंकप्रारभारभागाअयशवरवधूबन्धुराधित्यकान्तः । अपं गन्धर्वरामारतिरमसभरोल्लोलचूलाकरालालोक्यालोक्यलक्ष्मीजयति गिरिरचं मेरुलीलासरालः ॥९॥
तस्य नुरसुन्दरीसमाजसेवितसकामेखलायाघलस्पेशान्यां दिशि निसर्गादफवल्यामुपत्यकायामस्ति भो भूवनश्यीयवहाराग्नितागण्यगफ्यपुण्यजनानवानापः पादपः । यः ल्वनेकर्शिकरकुलफामिनोनिशिनशिसोल्लेखनखमुख
है । जो अनात्मवान् हो करके भी सचेतक है, अर्थात् जो जितेन्द्रिय न होकर के भी आत्मज्ञानी है। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, चयोंकि जो जितेन्द्रिय नहीं है, वह आत्मज्ञानी कैसे हो सकता है ? उसका समाधान यह है कि जो अगात्मवान् । अचेतन-जड़) है और सचेतक ( हरीतकी-वृक्ष-सहित ) है । जो 'अवीभत्सु' होकर के भी कपिध्वर्जाचह्न है । अर्थात्-जो अर्जुन न होकर के भी वानर के चिह्नवाली ध्वजा मे सहित है। यहाँपर विरोध मालग होता है क्योंकि जो अर्जुन नहीं है, वह वानर के चिह्न वाली ध्वजा से घुक्त केसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अवीभत्सु ( अकर ) हैं एवं जिसके चिह्न कपि ( वानर ) व ध्वजा (वृक्ष) है।
जो अमझशरासन ( रुद्र-रहित ) होकर के भी सद्गं . पार्वती-सहित ) है यहाँपर विरोध मालूम पड़ता है, क्योंकि जो रुद्र-रहित होगा, वह पार्वती परमेश्वरी से सहित कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जहाँपर अमेम ( नमेरु यक्ष), शर । बाणतण, अमन ( सर्जक वृक्ष व प्रियाल वृक्ष ) वर्तमान हैं ओर जो निश्चय में सदुर्ग ( विषम-ऊबड़-खाबड़ प्रदेश सहित है। जो अमनसिजरस ( काग-राग रहित ) होकर के भी संजातभोगिनीराङ्ग ( जिसको भोगने योग्य स्त्रियों के साथ संग उत्पन्न हुआ है ) है । यहाँपर भी विरोध मालम पढ़ता है; क्योंकि कामवासना से अन्य पुष स्त्री-संगम नहीं कर सकता। उसका समाधान यह है, कि पर्वत के कामवासना नहीं होती, क्योंकि वह जड़ है। अतः जो काम-राम-रहित है एवं निश्चय से संजात भोगिनी सङ्ग ( जिसको सपिणी का सङ्गम उत्पन्न हआ है। है। जो अरेवतीपति होकर के भी लाललाग्छन है । अर्थात्-जो बलभद्र न होकर के भी ताडवृक्ष के चिह्नवाली ध्वजा से ज्याप्त है। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है क्योंकि जो बलभद्र नहीं है, उसके तालवक्ष के चिह्नवाली ध्वजा कैसे हो सकती है। उसका समाधान यह है कि जो रेवतो के एवं उपलक्षण से दूसरों के क्षेत्रों ( खेतों से रहित है, क्योंकि "शिलायाँ सस्यं न भवति' अर्थात्-चट्टानों पर धान्य उत्पन्न नहीं होती एवं निश्चय से तालवृक्षों से सहित है।
जो अवैवधिक होकर के भी विङ्गिका-अध्यासित स्कन्ध है । अर्थात् जी वैवधिषा ( काबड़ी-- वहगीधारबा) न होकर के भी विङ्गिका (वहगी) से समाधित स्कन्ध वाला है। यहीं पर भी विरोध प्रतीत होता है कि जो वहगीधारक नहीं है, वह बहंगी से आश्रित स्वाध चाला कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है जिसमें वैधिक (ताराओं का सम) नहीं है और निश्चय से जिसका तट प्रदेश बिहशिकाओं-पक्षिणियों-में आश्चित है। और जो अकुसुमायुध हो करके भी सपुष्पवाण है । अर्थात-जो कामदेव न हो करके भी मुल्यों के घाण वाला (कामदेव) है। यहां पर भी विरोध है क्योंकि जो कामदेव नहीं है, वह कुसुमशर-- कामदेव-बोर हो सकता है ? उसका समाधान यह है कि जो 'अकु:-सुमः-आ-युधः' है। अर्थात्-जो अकु: (भूमि-रहित), व सुभः (उत्तम शोभा-युक्त) एवं जिसमें चारों ओर से सिंह व हाथियों का युद्ध वर्तमान हे और निश्चय या जिसमें पुष्पों से व्याप्त हुए दाण वृक्ष वर्तमान हैं।
विशेषता यह है-मुमेपर्वत की शोभायाला यह सुमेझ-सा सर्वोत्कर्ष रूप से वर्तमान है । जो अघो