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पञ्चम आश्वास
२७ हिमालयाद्दक्षिणचिषकपोलः शैलः सुवेलोऽस्ति सताबिलोलः । चकार यः कान्ततयामरीणां वीतस्पृहं नाम नगेषु चेतः ।। ३॥ नभः परिनोत्तुमियोद्यतस्य द्रष्टुं विगन्तानिव विस्तृतस्प । ऊध्वंस्चतिर्यवस्वमहत्यमुच शक्यते यस्य जनेन मातुम् ।।४।। नमेगसंतानकपारिजातमाकन्दमन्दारमनोहरासु । यस्यामराः केलिकृतः स्थलोषु स्मरन्ति नो नन्दनकाननस्य ॥५॥ फलस्सझणाममृतानुकूलमणिप्रकाशश्च दरोनिवेशः । दिवौकसा ससुखानि यत्र लोकः स्थितः प्रार्थयते न जातु । ६।। यसङ्गपृङ्गाविसम्बिनिम्बः पर्यन्तनक्षत्रमणिप्रद्युम्यः । आभाति राकातुहिनांशुमाली प्रसाधितं छत्रमिमाम्बरस्म ॥७॥ यश्चित्रमेषाम्बरमण्डिसाङ्गः समन्ततनामरणसङ्गः । पूषातपत्त्री निगोतकीतिरिन्मोत्सवस्पेव बिभति लक्ष्मीम् ।।८।। एसब पचित्किटिकटकयष्ट्रोत्पाटितानिपुटकिनीकग्ववन्तुरपरवानविन्यासः सानहास इव, पविन्निकटतटतटाकोदरबरदेहबोलेयरुपालसंकुलमेखलः प्रतियन्नकपालिकुल इव, वशिन्निखिलतरूपनीतानेफनेत्रसंततिः शततिरिय, पवित्प्रान्तप्रतापगाप्रवाहविषमवरलनः पचनाशन इव. क्वचित्केसरिकिशोरहरनखरोखातकरिकुम्भस्थलोच्छलन्मुक्ताफलजालजटिल
हिमालय पर्वत की दक्षिण दिशारूपी स्त्री के गालों-सरीखा शोभायमान 'सुवेल' नाम का पर्वत है, जिसमें मन्द-मन्द वायु द्वारा कम्पित होती हुई लताएं वर्तमान हैं एवं जिसने मनोहरता के कारण देवियों के हृदय को दूसरे पर्वतों में इच्छा-रहित किया था' ||शा जिस सुवेल पर्वत की ऊंचाई व दोघंता का महत्व अतिशय रूप से मनुष्यों द्वारा मापने या जानने के लिए अशक्य है। जो विशेष ऊँचा होने से ऐसा प्रतीत होता था-मानों-आकाश को विदीर्ण करने के लिए ऊपर गया है और विस्तृत होने के कारण-मानों-- दिशाओं का अन्त देखने के लिए दीर्घता को प्राप्त हुआ है। जिस पर्वत के उन्नत प्रदेशों पर, जो कि नमेझ, सन्तानक, पारिजात ( देववृक्ष), आमवृक्ष और मन्दार वृक्षों से हृदय को अनुरजित करनेवाले हैं, फ्रीडा करनेवाले देवता लोग नन्दन-वन का स्मरण नहीं करते ।।५।। जिस 'सुवेल' पर्वत पर स्थित हुआ जनसमूह वृक्षों के अमृततुल्य स्वादिष्ट फलों व रत्तकान्ति-युक्त गुफास्थानों के कारण देवविमान संबंधी सुखों की कभी प्रार्थना नहीं करते ॥६॥ जिस सुवेल पर्वत को ऊँची शिखर के उपरितन भाग पर जिसका मण्डल ठहरा हुआ है और जो पर्यन्त भाग पर स्थित हुए नक्षत्ररूपी मणियों को चुम्बन करनेवाला है, ऐसा पूर्णिमाचन्द्र आकाश के सजाये हुए छत्र-सरीखा शोभायमान हो रहा है" ||७11 जो प्रस्तुत पर्वत इन्द्रोत्सन्न की लक्ष्मी धारण करता हुआ-सा शोभायमान हो रहा है। जिसका शरीर नानावर्ण-वाले मेघरूपी वस्त्रों से मण्डित है और इन्द्रोत्सब भी नाना वर्णवाले मेघों का आवास है। जो, चारों ओर से घामरों (चमरी-मृगों के समूह ) से चारुसङ्ग [ सुन्दर सङ्गम-वाला ) है और इन्द्रोत्सब भी च-अमरों ( देवताओं) के सुन्दर संगम से युक्त होता है । सूर्य ही है छत्र जिसका, और इन्द्रोत्सब भी सूर्य-सरीखे तेज से विराजित होता है। इसीप्रकार जिसकी कीर्ति द्विजों ( पक्षियों) द्वारा गान की गई है और पक्षान्तर में जिसकी कीर्ति द्विजों ( ब्राह्मणों) द्वारा गान की गई है, ऐसा होता है | जिस 'सुबेल' पर्वत की गुफाओं का बदन विन्यास, किसी स्थान पर, शूकर-समूह की दाढों द्वारा उखाड़े हुए तरल कमलिनियों के मूलों से उन्नत दन्तशाली है। इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-अट्टहास ही कर रहा है। किसी स्थान पर जिसकी मेखला ( पर्वत-नितम्ब ), तट के निकटवर्ती सरोवरों के मध्य भाग में विदीर्यनाण शरीरबाले कछुओं के पृष्ठ भागों से व्याप्त है। इससे मानों-रुद्र-समूह को अङ्गीकार करनेवाला ही है। किसी स्थान पर जिसके द्वारा अनेक नेत्रों ( वृक्ष-मूलों
१. रूपकातिशयालंकारः। ५. उपमालंकारः।
२, उत्प्रेक्षालंकारः । ६. प्लेषोपमालंकारः ।
३. समुपयातिशयालंकारः।
४. हेतूपमातिशयालंकारः ।
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