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पञ्चम आश्वासः
समहो महाराज, विटपिनमनिवसति, संस्तः स्वरविहारचरितैरनेकरत्नचिता इव गिरिवरोचिरचपत्ति, यिचिमोट्स मस्तम्बसुबम्बाडम्बरा इय शाखिशिखाः कुर्बाणे. बुमच्यवनचापचापताविता इव दिशो वर्शयति, वारचित्रोल्लेला व मेदिनीपाने, विविषमणिमेचकिता इव सरसोः सज्जयति, वनवेक्ताचामरचतुरा इस लतापहावनीविनिर्माण, फैशपाशपेशाला हवोपवनश्रियः संपावयति, भयरशिबिरशिकण्डमनोचिसकलापे, पुलिसुन्दरीवतंसीकृतघन्टके. वनेश्वरबनिताहितबहवलयविनोदे, नरेश्वरभीलाञ्छनपिम्याग्नि , महामुनिसंयमोपधिनियन्धमाङ्गबहसंकुले. प्रचलाकिना फुलेऽहमवाप्तजन्मा। फवानिनिः वारसासरा सारि पारपर तिमरमशिखण्डमण्ड सोगतिस्खलितकलषरसरम्, किमपि खेपसमप्रमप्रेसरतरणतररविकरनिकरनिरुध्यमानमार्गादयः वशन्तोमान्तातोयमावाया संनातकलापोच्चयोऽम्यागामिसरसंपत्तिवशारप्रवृत्त प्रतीचीनचरणप्रचारः, सच्चरित्रचित्रकस्य दुराचारविश्वणम्य पक्षणपतेः मसजवस्यात्मजेन गजशल्कासमान शरीरखाले च तोनलोक के प्राणियों द्वारा माननीय आचारवान तेरी फलादि सम्पत्तिनी याचा गनों से अनी-सरीखो समझकर यथेष्ट भोगने योग्य होती है ।।१०।।
हे मारिदत्त महाराज ! मैंने कैसे मयूर-कुल में जन्म-धारण किया? जो ( मयूर कुल ), उस वृक्ष पर निवास कर रहा था । जो जन उन प्रसिद्ध इच्छानुसार की हुई पर्यटन की चेष्टाओं से पर्वत की गुफाओं को अनेक रत्नों से रची हुई-गरीखों रच रहा था । जो वृक्षों को शिखरों को विचित्र उत्पन्न हुए गुच्छों के समूह को रचना-वाला कर रहा था। वो दिशाओं को इन्द्रधनुष को चञ्चलता से व्याप्त हुई सरीखी दिग्पा रहा था । जो, पथिवियों को मनोज्ञ चित्रों से महित हुई-मों धारण कर रहा था। जो महासरांबरों को नाना माणिक्यों से रंगविरंगे-से कर रहा था। जो लनामण्डप को भूमियों की वनदेवताओं के चमरों से शोभित हुई-सरोग्यो रच रहा था। जो उपवन की लमियों को केशपाशों से मनोज्ञ-सी उत्पन्न कर रहा था। जिसका पिच्छ-समूह भोल-समूह के मस्तकों के भूपण-योग्य है। जिसके पिच्छों के अनभाग भोलों की सुन्दरियों द्वारा मुकुट किये गए हैं अथवा कर्णपूर किये गये हैं। जिसकी पिच्छरूपी कण-कीड़ा भीलों की स्त्रियों के लिए गुणकारिणी है। जो राजलक्ष्मी के योग्य चिन्ह रूपी पिच्छों से वृद्धि प्राप्त कर रहा था एवं जो महानियों के चारित्रोपकरण ( पीछी । के कारणीभूत पिच्छों में व्याप्त है। इसके बाद है मारिदन महाराज ! किसी अवसर पर मुझे सदाचार के पालन में भारती व पापाचार में आसक्त 'मलङ्गजद' नाम के भीलों के गृहस्वामी के पुत्र गजशाल्मक' नाम वाले ने देखा। कैसे मुझ को ? गशल्यक ने देखा?
जिसने लघु सरोवर के तट से गोसा जल पिया था, जिसकी छोटी-छोटी तरङ्ग-प्रेणियाँ अपनी निःश्वास सम्बन्धी अवसान वायु से प्रेरित की गई हैं एवं जिसकी कलुफ्ता की च्याप्ति दिशेप वृद्धिगत मोर की चोटी-श्रेणी के हिलाने शे वृद्धिंगत हुई है, फिर नहीं उत्पन्न हुए पिच्छकालाप-समूह वाला होने पर भी भविष्य से प्रकट होनेवाली पिच्छ-कलाप-समूह की संपत्ति के कारण जिसका चरण-प्रचार पैरों की प्रवृत्ति) भय से विपरोत (पीछे गमन-युक्त) हया था। जिसके मार्ग का अग्नभाग कुछ अनिर्वचनीय विशेष खेदपूर्वक आगे जानेवाले प्रोड यौवनशाली मौर-समूहों से रोका जा रहा है।
हे मारिदत्त महाराज ! फसे 'गजशल्यक' ने मुझे देखा? जो कि इसी लघु सरोबर के समीप पक्षियों व वायु-सरीखे तेज दौड़नेवाले भूगों को मारने के लिए आया हुआ था। जो मैत्रों की किरणों से, जिनकी कान्ति मदोन्मत्त हाथी के रुधिर से अव्यक्त लालिमाचाले सिंह-कण्ठ के केशों सरोत्री थी, दिशाओं में बन्धन श्रेग्गियों' का विस्तार (फैलाव) करता हुआ-सरोखा शोभायमान हो रहा था | जा, मोरों के नेत्रान्त-सरीखे शुभ्र व विस्तृत १. समासोक्त्युपमालंकार: 1 २. उक्त –वोतं शस्त्रोपकरण बन्धने मृगपक्षिणाम् ।'
सं०टी० पु. १९७ से संकलित-सम्पादक