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पठचम आश्वासः
१०५ प्रणयस्थानमिवापरास्वपि क्रीसासु वरारोहाणां च स्पर्म नखनिस्तुषितमण्डल: कलमतन्दुल: प्रतिनिकायभुपनार्म्यमानः, क्षितिपतिना च तेन अमनावतरेषु स्थहस्तवतितकायः प्रममावल: संभाव्यमानः, तत्र सम्मीविलासाकुले राजकुले सभा. स्सार इव प्रगल्भप्रचारः मुखेनाहमासांचक । इसपास्ति बल विन्ध्यादक्षिणस्यां विशि विशवेशाभयश्रीनिकटः करहाटो नाम जनपदः। यत्र
सस्यसंपत्तिसंक्षिप्तसीमाभुवः, प्रचुरपथिकप्रियापणिसपथिवस्तवः । सत्त्रवापीप्रपारामरम्योचमाः, पग्निनोखण्डताविततोमाशयाः ॥१२॥ श्रीविलासोत्सवस्खलितसुरसमितयः, फुल्मफलपल्लवोल्लासिवनवृत्तयः । पिकवधूस्तमनोहारिसर्वतवः, सकलसंसारसुखसेवितागन्तवः ॥१३॥ समरभरभागिभटभाववादोत्कटाः, खेसबुन्मयधोखाततटिनीसटाः । स्यागमोगप्रभावाद्भुतल्यातयः, शुद्धवर्णाश्रमाचरितविगततयः ॥१४॥
लतावन-सरीखे थे तथा कमलों से अलंकृत हुए सरोवर के जीवन-सरोखे मुम्ल-चुम्बनों से एवं शय्यावृक्ष के क्रीड़ापिच्छों (मोरपंखों) सरीखे केश पाशों से क्रीड़ा किया जा रहा था। मैं मत्त कामिनियों के स्वयं दिये हुए धान्य-तण्डुलों से, जिनका समूह नखों द्वारा भूसी-रहित किया गया है, प्रत्येक गृह में वैसा प्रतिपालन किया जा रहा था, जैसे हित करने के विषय में पुत्र प्रतिपालन किया जाता है, जैसे पर्यटन क्रियाओं में मिन्न सेवन किया जाता है, जैसे दोपोत्सव-मादि में गृह मेसन किया जाना है (माया जाता है, जैसे भुषाविधानों से अमावस्या-आदि पों के समय राजमहल सेवा किया जाता है ( सुसज्जित किया जाता है ) और जेसे नरम-शिक्षाओं से शिष्य सेवन किया जाता है-कला-प्रवीण किया जाता है एवं जैसे दूसरी रमण क्रियाओं से प्रेमपात्र सेवन किया जाता है। यशोमति राजा द्वारा भोजनावसरों में अपने करकमलों से रचे हुए प्रथम प्रासों से सन्तुष्ट किया हुआ मैं उस लक्ष्मी के भाग से परिपूर्ण राजमहल में सभ्य-सरीखा प्रोढ़ प्रवेशवाला होकर सुखपूर्वक स्थित हुआ।
हे मारिदत्त महाराज ! एक पार्श्वभाग में निश्चय से 'बिन्ध्याचल' नामके पर्वत में दक्षिण दिशा में स्वर्ग लक्ष्मी के समीपवर्ती 'करहाट' नाम का देश है। जिसमें ऐसे ग्राम-विन्यास ( समूह । हैं। जिनमें धान्यसम्पत्तियों से श्याप्त हुई सीमाभूमियाँ ( खेत ) वर्तमान हैं। जिनमें बहुत सी पथिक-कामिनियों द्वारा मार्ग में वस्तुएं खरीदी गई हैं। जिनकी उत्पत्तियां या उन्नतियां उपवनों, बावड़ियों, प्याऊओं एवं बगीचों से मनोहर हैं एवं जिनमें कमलिनी-वनों से तडाग नचाए गए हैं ।। १२ ।। जिन्होंने लक्ष्मीभोग-महोत्सबों से देव-समूह तिरस्कृत किये हैं | जहाँपर उद्यान-वृत्तियाँ, फैले हुए फलों व पल्लवों से शोभायमान हैं। जहाँपर समस्त ऋतुएँ (हिम व शिशिर-आदि ) कोकिलाओं के मञ्जुल गानों से मन को हरण करनेवाली हैं एवं जहाँपर पथिकलोग समस्त सांसारिक मुखों से सेवा किये गए हैं ॥५३॥ जो संग्राम-भार को सेवन करनेवाले योद्धाओं के अभिप्राय से उत्पन्न हुए युद्ध से उत्कट हैं। जहाँपर नदियों के तट कोड़ा करनेवाले व हषित हुए बैलों द्वारा गिराए गए हैं । जिनकी प्रसिद्धि लक्ष्मियों के दान व उपभोग के माहात्म्य से आश्चर्य कारिणी है। एवं जहाँपर शुद्ध ( संकरतारहित ) वर्णों ( ब्राह्मणादि ) व आश्रमों ( ब्रह्मचारो-आदि ) के आचरणों से ईतियाँ ( अतिवृष्टि वा अनावृष्टि आदि उपद्रव ) नष्ट हुई हैं।। १४ ॥ जिनमें सरल शरणागतों की रक्षा करने में कुलपरम्परा से चली आई कीर्ति पाई जाती है। जहाँपर धर्म, अर्थ व काम इन तीनों पुरुषार्थों के अनुष्ठान में समाननीति रखनेवाले मानव पाये जाते हैं । अर्थात्-जहाँपर लोग धर्म नष्ट करके धनोपार्जन नहीं करते एवं धन को अन्याय पूर्वक नष्ट करके