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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सिंहः सुखं निवसतापचलोपकण्ट्रे सोत्कष्ठमेणनिश्चयाचरतरत् स्थलोषु ।
सत्याः परेपि विपिने विलसन्वशङ्क नाकं गतोऽयमधुना मनु विश्वकटुः ॥१९॥ इति संशोध्य 'हहो स्वपरजनपरीक्षणमायाकार मायाकार, कार्यन्तामनयो देवसंदोहसाक्षिणीः पितृप्तोकसाहाचारिणोः पायकप्रदानवहायिकाबाहायपुरःसरसमयाः क्रियाः । प्रवाप्पन्सामनयोम्मिा बननीजनकयोरिव सर्वत्र सत्त्रसभामण्डमा. धिपाः प्रपाः' इत्यन्वतिष्ठत् । समस्तप्तस्वसवयहस्य, शुभषामोदय, पुनरस्सि बल खेचरीसंगौतकमुखरचूलिकाचक्रवालासुबेलशलापरविग्वेवताविनोबायतनं शिखण्डिताण्डवमण्डनं नाम धनम् । यबेयं देहिनो वर्णविषयतां नयन्ति।
सपाहि-तुर्जनहृदयमिय दुष्प्रवेशम्, प्रलयकालमिव भयानकम, निगद्यागममिय गहनावसानम्. युद्धापकमियाकारण कुत्ते के समीप आया था, उस कुत्ते ने ( जो कि पूर्वभव में चन्द्रमति का जीव था), जो इस प्रकार मान रहा था कि इस मोर के घात करने में मेरा यह प्रेरणा का उपक्रम ( जानकर मारम्भ करना ) है.यमराज की अधीन अवस्था में ला दिया (मार डाला। फिर वह कुत्ता भी निकटतर जुआ खेलनेवाले व 'इस मोर को छोड़ो-छोड़ो' इस प्रकार से विशेषरूप से वेग-वाले गले के शब्द पूर्वक चिल्लाते हुए राजा द्वारा शतरंज-क्रीड़ा छोड़कर फलक से जिसको मस्तक पर प्रहार की निष्ठुर अवस्था दो गयी है, मरणावस्था को प्राप्त करता हुआ । अथानन्तर यशोमति महाराज ने गले से निकले हुए प्राणवाले इन दोनों मोर व कुत्ते को बिना इच्छा से उत्पन्न हुई मृत्यु जान कर शोकरूपी रोग से व्याप्त हुए शरीरवाला होकर निम्न प्रकार शोक प्रकट किया-हे मयूर ! जब तुम, जो कि राजमहल को अलंकृत करने में शिरज सरीखे हो च रमाणयों का मानारजन करनेवाले हो एवं जिससे क्रीड़ा भूमि पर स्थित पर्वत की शिलातल पर चित्ररचना होती है, मर चुके तब स्त्रियों की क्रीडा से उत्पन्न हुए हस्तताड़न-विधान को, जो कि नृत्य का अनुसरण करनेवाला है, कौन करेगा ? ॥ १८ ॥ यह शिकारी कुत्ता निस्सन्देह स्वर्ग चला गया, अतः अब सिंह पर्वत के समीप सुखपूर्वक निवास करे एवं मृग-समूह उत्कण्ठापूर्वक वनस्थलियों में यथेष्ट विहार करे तथा दूसरे प्राणो भी वन में निःशङ्कतापूर्वक विशेषरूप से क्रोड़ा करें। ॥ १५ ॥ फिर यशोमति महाराज ने इस प्रकार किया अपने व दुसरे लोगों की परीक्षा करने में श्रीनारायण-सरीखे परीक्षक हे द्वारपाल ! इस मयूर व कुत्ते के निमित्त से तुम्हारे द्वारा ऐसी क्रियाएं कराई जावें, जो कि ब्राह्मण समूह के प्रत्यक्ष विषयीभूत हों एवं पितृलोक-सरीखों (मशोध व यशोधर-आदि पूर्वजों-जैसो ) हैं। तया अग्निसंस्कार, वैहायिक व मृत की मासिक क्रिया और पाण्मासिक आदि काल जिनमें वर्तमान है। इसीप्रकार चन्द्रमति व यशोधर महाराज सरोखे इनके उद्देश्य से सर्वत्र विशेषरूप से ऐसो प्याऊँ दान कराई जावें, जिनमें भोजनशाला, गोष्ठीशाला व छत्रादि स्थान, इनके अधिकारी वर्तमान हों।
समस्त प्राणियों में करुणा से व्याप्त मनवाले व पुण्यरूपी तेज के उत्पत्तिस्थान ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! इसके पश्चात्-मोर-पर्याय व कुत्ते की पर्याय के अनन्तर-दूसरा भव वर्णन किया जाता है। विद्यारियों के संगीत से शब्दायमान शिखर-मण्डलवाले सुवेल पर्वत से पश्चिम दिशारूपी देवता का क्रोडा-मन्दिर विखण्डिताण्डवमण्डन' नाम का धन है। विद्वान् लोग जिसका निम्न प्रकार वर्णन करते हैं जो दुष्ट-हृदयसरीखा दुष्प्रवेश ( दुःख से भी प्रवेश करने के लिए अशक्य ) है। जो प्रलयकाल-जैसा भयानक है । जो गणितशास्त्र-सा अवसान ( अखीर ) में गहन (प्रवेश करने के लिए अशक्य व पक्षान्तर में क्लिष्टता से जानने. योग्य ) है। जो आत्मज्ञान-सरीखा अलब्धमध्य संचार है ( जिसके मध्यभाग में पर्यटन प्राप्त करने के लिए अशका १, रूपकाक्षेपालंकारः।
२. हेत्वलंकारः।