Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलफचम्पूकाव्ये पलस्यास्म किपि वैराग्यकारणमभूत् । ममानिच्छन्त्या एव हि पुरणयं महति स्वातम्ध्ये स्थापिता। अतिप्रसक्त स्त्रीपु स्वातन्त्र्यं करपत्रमिव परयुनाधिवाय हृदयं विरमति । कषितं च मे खायोपायनविनियुक्तमा रसायनसिद्धेमर्माहानसिकस्य सुतया प्रियंवनया यथा--अम्बादेवि, तष स्नुषायाः प्रणयपर इव दृश्यते तस्मिन् फुजे- दृष्टिपिमिपाता।' (प्रकाशम् ।। वत्स, कामच लक्ष्मीविलासहसाभिनवसमागमसरस्यान वयसि चतुर्थपुरुषायंप्रार्थनोख्यासु कथामु गत. सृष्णमपि षष्णमिवाय ते प्रतिभाति चेतः। वयनच्छायाप्यन्यर्थच ते वयते। यपुरपि मलिनं कमममिवासीव ते विधायम् । श्वासा अपि होमधुमोगमा इष तयाघरदलं मलिनयन्तो वीर्घतरमापच्छन्ते। लोचने अपि सान्त्रनिनोक
विने शत्रुफुलमिव ले मन्दस्पन्वे । मदारम्भे सामम इव मुहर्महरायासमायासि नम्भितेषु । कर्मणि विनियुक्तस्तुरग इव न स्थिरस्तिष्ठसि चासने । राजा--(स्वगतम् ।) अहो, प्रारम्भ देवस्य महतो खलु कार्यघटनासु तत्परता, मातुश्च मपि संप्रश्नेषु । (प्रकाशम् 1) अम्र, विनापयामि स्वोपनपथमुत्थितं कथयामास । मातापि निशम्यनम्
यातु द्विवरपक्षमदः समीक्षितु प्रतीक्ष्यलक्ष्मीस्त्वमिहोवितास्चिरम् ।
महीं घ रत्नाकरवारिमेखलां समं स्तुषानप्तृजनेन रखतात् ।। ३६ ॥ जो स्त्रीजनों की अनुकूलता को स्वयं विनश्वरता के आरम्भ से गाढ़ है, मेरे पुत्र का यह मन विशेष संलग्न कैसे हो गया? मैं ऐसा सोचती हूँ कि महादेवी के गह में प्राप्त हुए मेरे पुत्र को निश्चय से क्या कोई वैराग्यकारण नहीं हुमा ? अपि तु अवश्य हुआ है। क्योंकि न चाहती हुई ही मेरे पुत्र ( यशोधर । ने इसे विशेष स्वाधीनता में स्थापित कर दिया है। क्योंकि विशेष मात्रा में प्राप्त हुई स्त्रियों की स्वाधीनता, तलवार की धार-सरीखी पति-हृदय को बिना विदीर्ण किए विश्राम नहीं लेती । 'रसायनसिद्धि' नाम के रसोईये की प्रियंवदा नाम को पुत्री ने, जो कि मुझे लाडू-आदि भंट लाने के अधिकार में नियुक्त की गई है, मुतसे कहा थायथा-है माता ! आपकी पुत्रवधू ( अमृतमति महादेवी ) को दृष्टि उस प्रसिद्ध 'अष्टवत' नामके निकृष्ट महा स्नेह करने में तत्पर हई-सरीखी देखी जाती है।' फिर चन्द्रमती माता ने मुझसे स्पष्ट कहा-हे पुत्र! इस युवावस्था में, जो कि लक्ष्मी-भोग रूपी हंस के नवीन समागम में सरोवर-सी भी है, मोक्ष पुरुषार्थ को आकाङ्क्षा का उत्थान करनेवाली धर्म-कथाओं में, अभिलाषा-रहित हुआ भी तेरा मन, इस समय तृष्णायुक्त-सरोखा किस प्रकार प्रतिभासित हो रहा है ? हे पुत्र! तेरी मुख-कान्ति भी दूसरी-सरीखी ( म्लान) दिखाई देती है। तरा शरीर भी मलिन वामल-जंसा विशेष कान्ति-हीन दृष्टिगोचर हो रहा है । तेरे श्वांस भी होम संबंधी धुएँ को उत्पत्ति-सरोखे तेरे ओण्ठदलों को मलिन करते हुए विस्तृत रूप से निकल रहे हैं। है पुत्र ! वेरे दोनों नेत्र भी विशेष निद्रा की अधिकता से आच्छादित हुए शत्रुसमूह-सरीखे मन्द स्पन्द ( ईषच्चलन) युक्त हैं । अर्थात्-जिसप्रकार तेरा शत्रु समूह मन्दस्पन्द (अल्पव्यापार ) युक्त है। हे पुत्र! तुम बार-बार
भाई लेने में मद के आरम्भ में हाथो-जैसे कष्ट प्राप्त कर रहे हो । हे पुत्र ! तुम गमनादि क्रिया में अधिकृत होते हुए सिंहासन पर घोड़े-सरीखे निश्चल होकर नहीं बैठते । फिर यशोधर महाराज अपने मन में निम्न प्रकार विचार करते हैं-'आश्चर्य है देव ( पुराकृत कर्म ) को निस्सन्देह प्रारम्भ में कार्य करने में विशेष एकापता है
और माता की मेरे विषय में शिष्टतापूर्ण अनुसन्धान करने में विशेष एकाग्रता है।' इसके बाद यशोधर महाराज ने स्पष्ट निवेदन किया-हे माता ! "विज्ञापित करता हूँ। ऐसा कहते हुए उसने अपने द्वारा कल्पना किये हुए मागंवाला स्वप्न में प्राप्त हुआ वृत्तान्त कहा । माता ने भी स्वप्न में प्राप्त हुए वृत्तान्त को सुनकर सर्वरूप से रक्षा करने के लिए निष्ठीबन । थूक ) सम्बन्धी विन्दुओं को भय सहित व कम्पित हृदय पूर्वक एवं दयालुता के उदय-सहित नाना प्रकार से क्षरण करके निम्नप्रकार मुझे समझाया।
हे पुत्र ! यह दुःस्वप्न शत्रुपक्ष पर गिरे। पूज्य राज्यलक्ष्मीवाले आप, इस भूमण्डल पर दोघंकाल