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चतुर्थ आश्वासः आह्मणो गोसवेनेष्ट्या संवत्सरान्ते मातरमप्यभिलषतीति । उपेहि मातरमुपेहि स्थसारमिति । एवमन्येऽपि सन्ति यथालोकाभिप्रायं प्रवृत्तास्ते से विधयः ।
प्रसिद्धिरत एवास्य सर्थसाधारणी मता । को हि नाम भवेन्द्रज्यो लोकन्छन्वानुवर्तनः ।। १२३ ॥ हिताहितावेदि जगन्निसर्गतः परस्परस्त्रीषनलोलमानसम् । तत्रापि यद्यागम एष तन्मनोवशेन वर्तस तवा किमुच्यते ॥१२४॥ 'सुरा न पेया, ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इत्यपि धनमस्ति । 'सोश्रामणो य एवंविधां सुरां पिबति न तेन सुरा पोता भवति' इत्यपि । तथा ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत' इति । अपि च--
___शूवान्नं शूद्रशुश्रूषा शूद्रप्रेषणकारिणः । शूदद्धता च या वृत्तिः पर्याप्त नरकाय ते ॥ १२५ ।।
तथा मांसं श्वचाण्डालव्यादाविनिपातितम् । बाहाणेन गृहीतव्यं हव्यकव्याय कर्मणे || १२६ ।। इत्यपि । सद्यः प्रतिष्ठितोवन्ते सिद्धान्ते परमाग्रहः । कि वोक्तरिमः' (?) वक्तरेत पिङ्गानुपास्महे ॥ १२७ ॥
प्रमाणं व्यवाहारेऽपि जन्तुरेकस्थितिमतः । को नामेत्थं विरुद्धार्थ सावरो निगमे नरः ।। १२८ ॥ लोगों के अभिप्रायानुसार प्रवृत्त हुए हैं। इस कारण से इस वेद को ख्याति सर्वसाधारणी ( समस्त लोगों को सामान्यरूप ) मानी गई है। अर्थान्तर न्यास अलमार द्वारा उक्त बात को दढ़ करते हैं स्पष्ट है कि लोगों के अभिप्रायानुसार प्रवृत्ति करनेवाला कोन पुरुष द्वेष करने योग्य होता है ? अपि तु कोई नहीं ॥१२३।। हे मासा ! यह संसार, जो कि स्वभाव से पुण्य व पाप को जाननेवाला नहीं है और जिसको चित्तवृत्ति एक दूसरे की स्त्री व धन में लम्पट है, इसप्रकार के संसार में यदि यह बेद स्वरूप शास्त्र, जगत् के अभिप्रायानुसार कहता हैप्रवृत्त होता है-उस समय क्या कहा जावे ? अर्थात्-फिर तो संसार परस्पर की स्त्री व धन में विशेषरूप से लम्पट मनवाला होगा ही।।१२४॥ अब वेद में पूर्वापर विरोध दिखाते हैं
'मद्यपान नहीं करना चाहिए, 'ब्राह्मण को नहीं मारना चाहिए' यह बचन भी वेद में हैं, उक वाक्य के विरुद्ध वाक्य-यथा--'जो पुरुष सौत्रामणि नाम के यज्ञ में पैष्टी, गोपी व मावची लक्षणवाली सुरा ( मन पोता है, उस पुरुष द्वारा सुरा पी हुई नहीं 'समझी जाती' यह वाक्य भी थेद में है। इसीप्रकार 'ब्रह्मा ( सृष्टिकर्ता ) के लिए ब्राह्मण ( चारों वेद का ज्ञाता ब्राह्मण विद्वान् ) को मार देना चाहिए' यह वाक्य भी बेद में है। अब मांस बिरुद्ध वाक्य दिखाते हैं--पाद का अन्न, शूद्र की सेवा, और शुद्र की नौकरी करनेवाले एवं शूद्र द्वारा दो गई जीविका यह तेरे लिए पूर्णरूप से नरक में गिराने के हेतु हैं ॥१२५।। अब मांस भक्षण का समयंक वेद वाक्य दिखाते हैं-वेद-पाठक ब्राह्मण को देवतर्पण व पितृतर्पण कार्य के लिए कुत्ता, चाण्डाल,
और व्यायादि द्वारा पशुओं को मारकर लाया हुआ मांस ग्रहण करना चाहिए' ॥१२६॥ यह वचन भी वेद में है। वेद की समालोचना-वेद व स्मृति शास्त्र में, जिसमें तत्काल विषयों को वार्ता स्थापित को गई है यदि आप लोगों का विशेष आग्रह है, तो वेद में, कहे हुए निरर्थक सुभाषितों से क्या प्रयोजन है ? आप लोग आइए हम लोग विटों (जारों-कामुकों) को उपासना करते है, क्योंकि वे लोग भी तत्काल पूंछी हुई विषयों की बात का उत्तर ( व्यभिचार-आदि का ) देते हैं ॥१२७|| जब व्यापार-आदि व्यवहार में भी एक वाक्यताशाली ( पूर्वीपरबिरोध-रहित-सत्य वक्ता ) मानव प्रमाण माना गया है तब कौन पुरुष इस प्रकार ( पूर्व में काहे हुए ) पूर्वापर-विरुद्ध अर्थ फहनेवाले वेद में आदर-युक्त होगा ।।१२८॥ १. किं वैदोनच्यामूक्त' यद्यपि सर्वत्र ह. लि. प्रतिषु मुदितः व्याकरण-विस्वः पाठः समुपलभ्यते परन्तु भन्मते मुधा
इति चेत् सम्यक् स्यात् -सम्पादकः