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किच
यशस्तलकचम्पूकाव्ये
नास्ति स्त्रीणां पृथग्पो न व्रतं नाप्युपोषितम् । पति शुषमेव तेन स्वर्गे महीयते ।। १८९ ।।
'विशीलः कामवृत्तो वा गुगंध परिवर्जितः । उपचर्थः स्त्रिया साध्या सततं देववत्पतिः ।। १९० ॥ इति ।
तथाच श्रुतिः किल यानप्रस्थभावेऽवि रामस्य सोता सधर्मचारिण्यासीत् । द्रौपदी धनंजयस्य, सुदक्षिणा विलोपस्य लोपामुद्रागस्त्यस्य, अरुन्धती वशिष्ठस्य रेणुका च जमदग्नेरिति । पतिविरहे होकेनाप्यगुष्ठेन तपस्यन्त्यः स्त्रियो भवन्त्यवदयं धिवकारगोचराः । यथा प्रयागे प्रायोपवेशनस्थितापि ब्रह्मबन्धू ब्राह्मणी गोविन्देन परिब्राजा सह किल परीवादभागिनी बभूवेति । सपोग्रहण दिवसे वाम्बावेमा मह मदीये निलये प्रवहणं कर्तव्यमिति वाम्यध्ये विरते तस्मिन्न मिटवा दियम् अहो सत्ययुधिष्ठिर गविष्ठिर, यदि तसं कर्मणापि कदाचिन्महावेव्याः प्रतिकूलम्ब धरानस्मि तदा त्वमेवात्र साक्षी । तवेषं निवेदय देव्याः - यदाह भक्ती तत्सर्वं देवेन प्रतिपद्मम् । अन्यत्र पूर्वमुत्थापितात्पक्षात् । इति निवेदितेतिकर्तव्ये समहमानं विसर्जिते च तवमा मया चिन्तितम् अहो महावेदयामतीव खल संवीणताबहि. स्थायाम् । किच----
राज्यस्थित मामवहाय यंषा फुन्जेन सार्धं रतिमातनोति । सा मे वनस्थस्य मुमुक्षुते भवेत्सदाचारमतिः किलेति ।। १९१ ।।
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नहीं है और न व्रत है एवं न उपवास भी है। दो फिर क्या है ? जिस कारण उसे पति की सेवा शुश्रूषा करनी चाहिए, जिससे स्त्री स्वर्ग में पूजी जाती है || १८२५|| विशेष यह है - पतिव्रता स्त्री द्वारा पति चाहे वह शीलरहित है, अथवा स्वेच्छाचारी है, अथवा गुणहीन है, निरन्तर ब्रह्मा, विष्णु व महेश आदि देवताओं- सरीखा सेवा करने योग्य है ॥ १९०॥ बंद में भी कहा है-वन प्रस्थान के अवसर पर भी सीता ( जनक पुत्री ) श्रीरामचन्द्र की धर्मचारिणी ( साथ गमन करनेवाली ) हुई। द्रोपदी बन प्रस्थान के अवसर पर अर्जुन की सचारिणी हुई एवं सुदक्षिणा दिलीप राजा की सहगामिनों हुई तथा लोपामुद्रा नाम की अगस्त्य - पत्नी अगस्त्य को सहचारिणी हुई एवं अरुन्धतो नाम की वशिष्-पत्नी वशिष्ठ को सहचारिणी हुई इसी प्रकार रेणुका नाम को कन्या अपने पिता परशुराम का सहचारिणो | नाथ जाने वालो ) हुई ।
पति के वियोग में निश्चय से एक पैर के अंगूठे पर भी स्थित होकर तपश्चर्या करती हुई स्त्रियाँ निश्चय से निन्दा योग्य होती हैं । उदाहरणार्थ - प्रयाग तीर्थ पर प्रायोपवेशनत्रत में स्थित हुई भी 'ब्रह्मबन्धू' नाम की ब्राह्मणी गोविन्द नाम के तपस्वी के साथ निन्दा को प्राप्त हुई। 'दीक्षा ग्रहण के दिन चन्द्रमति माता के साथ मेरे गृह पर आपको गणभोजन करना चाहिए। ऐसी याचना करके जब गविष्ठिर नाम का मन्त्री चुप हो गया तब मैंने उसरी ऐसा कहा - युधिष्ठिर महाराज सरीखे सत्यवक्ता हे गविष्ठिर ! यदि मैंने मनोरञ्जन या हँसी मजाक में भी किसी अवसर पर भी अमृतमति महादेवी का अहित किया हैं तो उस अवसर पर आपही साक्षी हो । उस कारण मेरी प्रियतमा से ऐसा कहो कि जो कुछ भी आपने कहा है वह सब यशोधर महाराज ने अमृतमती महादेवी के शरीर का बलिदान कार्य को छोड़कर, स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार जब महादेव का मन्त्री, जिसने निश्चित कार्य निवेदन किया है, विशेष सन्मान के साथ भेज दिया गया तब मैंने ( यशोधर ने } निम्न प्रकार विचार किया - आश्चर्य है कि अमृतमति महादेवी में आकार-गुप्ति की प्रवीणता अवश्य हो विशेष रूप से वर्तमान है ।
जो बह महादेवी राज्य में स्थित हुए मुझे छोड़कर कुबड़े के साथ रतिविलास करती है, वह क्या वन में स्थित हुए व मोक्षाभिलापी मेरे साथ सदाचारिणी होगी ? ।।१९१ ।। स्त्रीजनों की चित्तवृत्ति, जो कि
१. आपालंकारः ।