________________
चतुर्थ आश्वासः
८५ रथस्य मार्गभूमिरिदात एव पांशुलासि. प्रवीगस्म शिखेवात एव मलिनोवगारासि, वसन्तस्य बनलमोरिघात एव मन्मथकथासमायासि, मलयाचलस्य चन्वनाललेवात एव कदस्वभावासि. गजस्म मदलेखेपात एष कामचारप्रवर्तनासि. हिमगिरेगांगेयात एव नौचानुगतासि, रहनस्य रानतिरिवास एव परमागरितासि । एवमन्यदपि ममाम्ययार्थीपकस्यविषयममिषाय तबस्य सर्वदा राज्यसुखं वायभागिनोव समशितयानुभूयेशामा मेकाम्येवं परमानोपस्थितप्रत्यवायवचनमनीषया या देवः प्रवति । अहं तु पुत्रस्य बियमनुभवन्ती गृत् एव तिष्ठामि । इत्यतीवासंगतमुभयकुलानुनितं विटजनविहित .। न चंचमाक्योरनुष्ठानाधिष्ठितयोः कोऽम्यागर्मायरोधो जनापपावानुबन्धो वा । तपा घोक्तम्
'संत्यज्य प्राम्पमाहार सर्व चच परिच्छवम् । पुत्रेषु वारानिक्षिप्य वनं गच्छेस्सहैव वा ॥ १८॥
यशोधर चिन्तवन करता है कि इसी कारण तू हाटी-सरीखी क्षुद्र-अधिष्ठित है । अर्थात्-हीन बुबड़े से सहित घ पक्षान्तर में क्षुद्र ---व्याघ्रादि-सहित है । मैं आपकी सूर्य की कान्ति-सी सहचरी होऊँगी, यशोधर सोचता है कि इसीलिए तू सन्ताप (दुःखद पक्षान्तर में गर्मी ) देनेवाली है। मैं आपकी वैसी सहचरी होऊगो जैसे रय की मार्गभूमि उसको सहचरी होती है, अगोघर सोचता है, इसी कारण तू मार्गभूमि-सरीखो पांसुला ( कुलटा व पक्षान्तर में धूलि-सहित ) है। मैं आपकी दीपक ज्वाला-शो सहचरी होगी, यशोधर सोचता है, इसी कारण तू दीपक-लौं-मरीखी मलिनोद्गारा ( कपट-पूर्ण बचनों को प्रकट करनेवाली व पक्षान्सर में धुएँ का वमन करनेवाली । है । मैं आपकी बंसी सहचरी होऊँगी जैसे वनलक्ष्मी वसन्त को सहचरी होती है, यशोधर सोचता है इसी कारण तु बनलक्ष्मी-मी कामकथा-संयुक्त है। मैं आपकी वैसी सहचरी होती है जैसे चन्दन वृक्ष की लता मलयाचल की सहचरी होती है, यशोधर सोचता है इसी कारण तू चन्दनलता-सो कटुस्वभाववाली है। मैं आपकी वैसी सहचरी होगी जैसे मदलेन्खा हाथी की सहचरी होती है, यशोधर सोचता है कि इसी कारण त यथेष्ट पर्यटन करनेवाली है। में आपको वैसी सहवरी होऊँगो जैसे गंगा नदी हिमालय पर्वत की सहचरी होती है, यशोधर सोचता है-इसी कारण तू नीचानुगता ( निकृष्ट कुजक के साथ अनुराग करनेवाली व पदान्तर में नीचे बहनेवाली ) है । एवं में आगको वैसो सहचरी होऊँगी जैसे रत्न को तेजोवति उसको सहचरी होती है।
___ यद्योघर सोचता है-इसी कारण तु परभागघटिता (विद् के भाग्य के लिए रची हुई व पक्षान्तर में शोभा से घटित ) है | हे मारिदत्त महाराज ! इसप्रकार गविष्ठिर मन्त्री ने मुझ से अमृतमति महादेवी के दुसरे भी ऐसे बचन कहे, जो कि काकु व वक्रोक्ति अलङ्कार से अलङ्कत थे। फिर उसने निम्न प्रकार वचन कहे उस कारण मैंने अपने प्राणवल्लभ के राज्य मुख को सर्वदा दाय-मामिनी-सरोखी होकर समान भागरूप से भोगा, परन्तु इस समय मेरे प्राणनाथ अकेले ही मोक्ष सुख के इच्छुक होने के कारण अथवा उपस्थित हुए, दोपों का निराकरण न होने की वद्धि से दोश्ना धारण कर रहे हैं और में पुत्र यशोमतिवमार की लक्ष्मी भागती हई गह में हो रह, यह बात अनुचित व दोनों कूलों ( ससर व पिता का वंश के अयोग्य एवं शिष्ट पूरूपों से निन्दित है। परन्तु यदि हम दोनों ( राजा व रानी) चरियपालन में तत्पर हों तो इसमें कोई आगम ( शास्त्र ) से विरोध नहीं है और न लीकानन्दा का हो संबंध है। 'मैं अपने स्वामी की सहचरी होऊँगी इसका शास्त्रप्रमाण द्वारा समर्थन करती है
____ मोक्षाभिलाषी मानव को सर्वलोक साधारण भोजन छोड़ कर अर्थात्-धान्य व फलों एवं पत्तों में प्रवृत्ति करके समस्त परिवार को छोड़कर एवं स्त्रियों को पुत्रों के लिए समर्पण करके तपश्चर्या के लिए वन में जाना चाहिए अथवा स्त्रियों के साथ बन में जाना चाहिए ।।१८।। स्त्रियों के लिए भिन्न कोई यज्ञ