Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै
प्रतिक्षणं संशयितायुषो ये न येण्यपेक्षास्ति च कार्यवावे । त एव मन्त्रेऽधिकृता नृपाणां न ये जलौका समवृत्तयश्च ॥ २०५ ॥
कि च ।
प्रजाविलोपो नृपतीच्या स्मात्प्रजेच्या चाचरिते स्वनाशः । न मन्त्रिणां श्रेषविधायिनीवत्सुखं सर्वयोभयतः समस्ति || २०६ || तपाप्य मौभिः कुशलोपदेशंर्भाव्यं नृपे दुर्नयचेष्टितेऽपि । अन्धः स्वचद्यपि धात्मदोषावाकधकं तत्र शपन्त लोकाः ॥२०७॥ मतो पार्थ बदतां नराणामात्मभ्यः स्थास्परमेक एव ।
राष्ट्रस्य राजो ध्रुवमात्मनश्च मिथ्योपदेशस्तु करोति नाशम् ॥२०८॥
तदेतदित्थं मम हुनंमेन दुर्मन्त्रिणां संश्रयणेन चैव यथायथं कार्यमिदं प्रयतं देवोऽपि शक्तो घटनाय नास्य ॥ २०९ ॥ गविष्ठिरस्यापि मया पुरस्तादिकचित्प्रतिज्ञा विषयीकृतं च । सत्यस्युतानां किमु जीवितेन राज्येन वा लोकविगहितेन ॥ २१ ॥
से पैसा कल्याण करनेवाली बुद्धि से युक्त हो सकता है ? जैसे सर्पों के साथ क्रोडा करनेवाला पुरुष क्या कल्याण करनेवाली बुद्धि से युक्त होता है ? || २०४ || जो मन्त्री, प्रत्येक क्षणमें अपने जीवन को संशय में डालनेवाले होते हैं ! अर्थात- 'यह राजा हमको मार डालेगा इसप्रकार भयभीत चित्तवाले होते हैं, एवं जिनके मन्त्रोपदेश में घन ग्रहणकी लालसा नहीं पाई जाती तथा जो गोंच-सरीखी चेष्टावाले नहीं है। अर्थात्--जैसे गाँव स्तनपर लगाई हुई रक्त पीती है किन्तु दूध नहीं पोती वैसे ही जो मन्त्री दोषों को ही ग्रहण करते हैं और गुणों का उपदेश नहीं देते, ऐसे गुणोंको छोड़कर केवल दोष-ग्रहण करनेवाले जो नहीं हैं । वे ही मन्त्री, राजाओं के मन्त्र में अधि कारी हैं ॥। २०५ || जब मन्त्रीलोग राजाकी इच्छानुसार राजकार्य करते हैं तब प्रजाका नाश होता है । अर्थात् अधिक टेक्स आदि द्वारा प्रजा पीडित होती है। जब मंत्रीलोग प्रजा को इच्छानुसार राजकार्य करते हैं तो घन का क्षय होता है, क्योंकि प्रजा राजा के लिए धन देना नहीं चाहती, इससे राजकोश खाली हो जाता है । इस कारण दोनों प्रकार से राजा की इच्छानुसार व प्रजा को इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाले मन्त्रियों को सदेव बैसा सुख नहीं है जैसे कुल्हाड़ी या घण्टा मस्तक पर धारण की हुई घट्टन से दुःखी करती है और मुख पर स्थापित की हुई मुखभङ्ग करती है ।। २०६ ।। तो भी अन्याय करनेवाले राजा के प्रति इन मन्त्रियों को कल्याण कारक उपदेश देनेवाले होने चाहिए। जैसे- अन्धा पुरुष यद्यपि अपने नेत्र -दीप से गिरता है तो भी लोग उसके खोचनेवाले मनुष्य को ही दोषी कहते हुए चिल्लाते हैं, अर्थात् वैसे ही जब राजा अन्याय करता है तब प्रजा मन्त्री को ही दूषित करती है* ॥ २०७ ॥ क्योंकि जब मन्त्रीगण सत्यवादी होते हैं तब उनके मध्य केवल मन्त्री ही मरता है, परन्तु झूठा मन्त्र ( कर्तव्य- विचार ) तो देश, राजा व मंत्रों का निस्सन्देह विध्वंस कर देता है । भावार्थ - मन्त्रियों का कर्त्तव्य है कि वे राजा को ठीक परामर्श दें, चाहे इससे राजा उनसे कुपित ही क्यों न हो जाय; क्योंकि राजा के कुपित होने से एक मंत्री की ही मृत्यु की सम्भावना है परन्तु मृत्यु भय से झूला मंत्र देने पर तो राजा, राष्ट्र और मंत्री सभी का नाश हो जाता है। अभिप्राय यह है कि मंत्रियों को सदेव उचित परामर्श देना चाहिए" ।। २०८ ।। उस कारण पूर्वोक्त यह कार्य अपनी इच्छा से मेरी दुर्नीति के कारण व दुष्ट मन्त्रियों के आश्रय से नष्ट हो गया, अब इसे प्रयत्नपूर्वक सफल बनाने के लिए देवता भो समर्थ नहीं है ॥ २०९ ॥
मैंने 'गविष्ठिर' नाम के मन्त्री के सामने कुछ वचनों (महादेवी के गृह पर जाना व भोजन करना )
१. काकु वक्कोमत्यलंकारः । २. उपमालंकारः । ३. उपमालंकारः । ४. दृष्टान्तालंकारः । ५. समुचयालंकारः । ६. समुच्चया ंकारः ।