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आश्वासः पांशुलक्षणेन, 'खरकिरणफरमिवारण एवाहं प्रभवामि न पुमरापात चण्डे यमवण्डे' इति विषेष भूवि निपतितमातपत्रेण, * भवतीयं सा परागसंततियस्माभिः शक्यते निवारयितुम् । एषा स्त्रपरं यनिवारणं न कुशलः प्रलयकाला निलोऽपि इति चिन्तयेव विकणं विसिनीफरेम्पश्चामरनिवहेन, 'महापुरुष, एवमशुभाभिनिवेशेषु युथमावृशेषु न चिरमस्मावृशैः कल्याणपरम्पराचिह्न विनिवेशः सह समागम:' इति प्रकटितसाचिभ्येनेव फुटिलितं पताकासंतानेन सर्ववा महोत्सवपुरारिणामerri fhaniणि कर्मणि विनियोगो युक्त:' इति स्वदुःखनिषेदनाविव परिसमातोद्यवार्थन, 'यद्यपि देवः कामश्रोघाम्यामज्ञानेन वाद्यान्यथाभावः संजातः, तथापि न खलु भवत्प्रसादाशि रत्तर श्रीषिलासप्रकाशानामस्मा वृशानामुपेक्षितुमुचितम्' इति बुद्धद्येव निपत्य पुरस्तियंम्भूतं तोरणेन, 'शितिप, अद्यापि न किचिद्विनश्यति । तदावासमनुसृत्यापर मेव ffer शिवकर प्रतिष्ठान मनुष्ठानमाचरितथ्यम्' इत्युपदिशतेव पृष्ठतः शब्दितं दधिमुखेन हे महीपाल, कि कोऽपि परोपरोधावात्मन्ययासि कुर्वन्नवलोकितोऽस्ति येनेत्थमकत्थने पथि प्रस्थितोऽसि' इत्युपहसते बापाचीनतया बासितमादित्यसुतेन, एवमन्यैरपि सद्योबुरन्त फलप्रापि सङ्गतंस्ता लिङ्गेरभावि, तथापि 'नियतिः केन लङ्घते' इति सस्यता नयमिव त्रिशूलिनीतिमनुजगाम ।
'है पृथिवीपति यशोधर महाराज ! आप इसप्रकार निश्चय से जानों कि यह कर्तव्य ( मुर्गे का वध ) का उपाय निश्चय से उत्तरकाल में सुख के लिए नहीं है, अतः इस कर्तव्य के उपाय में आग्रह करना निरर्थक है। यतः लौटकर गृह पर जाइए।' छत्र पृथिवी पर गिरा। इससे जो ऐसा प्रतीत होता था मानों मैं ( छत्र ), सूर्य किरणों के रोकते में ही समर्थ हूँ, न कि दुःख से भी निवारण के लिए अशक्य भरणकाल के रोकने में समर्थ हूँ इसप्रकार को बुद्धि से ही मानों - वह पृथिवी पर गिरा एवं वेश्याओं के करकमलों से चमर-समूह नानाप्रकार से यहाँ वहाँ गिरे। इससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों - निम्नप्रकार की चिन्ता से ही वे यहाँ वहाँ गिरे है- 'ग्रह वह रेणुमण्डली नहीं है, जो कि हमारे ( चमरों ) द्वारा रोकने के लिए शक्य है, यह योगी महा पुरुषों द्वारा प्रत्यक्ष को हुई दूसरी ही ( पापरूपो ) रेणुमण्डली है, जिसे रोकने में कल्पान्त ( प्रलय ) काल का वायुमण्डल भी समर्थ नहीं है ।' ध्वजा-समूह कुटिल हो गया। जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों - जिसने निम्नप्रकार मन्त्रित्व प्रकट किया है
'हे राजन् ! इसप्रकार का पाप करने यदि जाते हो तो तुम्हीं जाली हम नहीं जाते। क्योंकि ऐसा जीवसंबंध पापकर्म का अप्रियाय वाले आप- सरीखे पुरुषों का हमसरीखे पुरुषों के साथ समागम, जिनका स्थापन बहुत से कल्याणों (पुत्रजन्म आदि महोत्सवों) के चिह्न के लिए है, चिरकाल तक नहीं होता ।' 'हे राजन् ! ऐसे विपरीत स्वभाव वाले जीववधरूप पापकर्म में पुत्र जन्म-आदि महोत्सवों में अग्रेसर रहनेवाले हमलोगों का अधिकार क्या युक्त है ? अपितु नहीं है। ऐसा दुःख-निवेदन करने से ही मानोंबाजों की ध्वनि कुत्सित शब्द करती हुई । 'यद्यपि राजा राग, द्वेष अथवा अज्ञान से इससमय विपरीत परिणाम वाला हो गया है तो भी हमको, जिनके लिए आपके प्रसाद से निरन्तर लक्ष्मियों के भोग उत्पन्न होते हैं, निश्चय से आपके विषय में अनादर करना योग्य नहीं है । अर्थात् - हम राजा को महल के मध्य में ही रोकना चाहते हैं, जाना नहीं देना चाहते।' ऐसी बुद्धि से ही मानों - तोरण, आगे गिरकर तिरछा हो गया। फिर गधे ने रैंकना शुरू किया। इससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों निम्नप्रकार उपदेश
दे रहा है
'हे राजन् ! अब भी कुछ अशोभन नहीं है, उससे राजमहल में जाकर आपको ऐसा कोई दूसरा ही कर्तव्य आचरण करना चाहिए, जिसका मूल इस लोक व परलोक में कल्याणकारक है ।' एवं कोए ने प्रतिकूलता से कर्णकटू शब्द किया । इससे ऐसा मालूम पड़ता था— मानों वह निम्नप्रकार उपहास कर रहा है
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