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चतुर्थं आश्वास
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वे तु पुंसः प्रतिकूलवृत्तौ विवेकितर नव भवद् गुणाय । कि लक्ष्मणस्यास्ति रणेषु भङ्गः सीतामसौ येन मुमोच रामः || २११ ॥ लव दंषमेव शरणम् ।' इति विचिन्त्य किचिन्महासुखमनुभूय प्रव
'कुन्भूपतिमन्दिरेषु करिणामानन्दलीलारसं नासाग्रस्फुरितेन केलिरभसं वाजिव्रजानां बहुन् । कीवालनिकुञ्जकन्दर भुखां वृत्तं वधन के किनामद्यायं किमकाण्ड एव नगरे तूरध्वनिः श्रयते ॥ २१२ ॥ ' बुधप्रबोधं सन्धिविग्रहणमापृच्छमाने, वातायनोपान्ततनी निवत्यं च मेत्रे
“नृत्यैः समं वारविलासिनोनां संगीतकस्यापि महाप्रबन्धः । गृहेषु सर्वेषु च पूर्णकुम्भाः पुष्पाक्षतव्याकुल एवं लोकः ।।२१।' इत्यस्य च हेतुविजातचेतसि मयि देव परिकल्पित निलिन मसितोपचारा सद्धमति महादेवी सपरिवार चण्डिकाचरणालिता प्राप्ता च पुरवीषीमध्यम यतोऽयमारुष्यते महानातोद्यध्वनिः । तदर्थं चंष नगरे पौराणामुद्याद्यमः । तत्र वेवः कालविलम्बनमकृत्वा सज्जीभवतु मज्जनादिषु क्रियासु ।' इत्यागत्य वैकुण्ठभतिना वरिष्ठकेन विज्ञप्ते सबै सहजनं सफलीकृत्य,
करने को प्रतिज्ञा को हैं । उसे यदि नहीं करता है । अर्थात् — महादेवी के महल पर नहीं जाता है, और भोजन नहीं करता हूँ, तो सत्य से च्युत हुए पुरुषों को लोकनिन्दित जीवन से व लोक-निन्दित राज्य से क्या लाभ है' ? || २१० ।। जब पुरुष का भाग्य पराङ्मुख होता है तब उस मनुष्य की चतुरता गुणकारिणो नहीं होती। जैसे—क्या युद्ध भूमि पर लक्ष्मण की पराजय हो रही थी ? जिससे यह श्रीरामचन्द्र श्रीसीता को बन में अकेली छोड़कर लक्ष्मण की सहायता के लिए गए थे ।। २११ । अतः इस चण्डिका देवी के मन्दिर में गमन करना आदि कार्य में देव ( भाग्य ) हो शरण | रक्षक ) है, ऐसा विचार कर कुछ निद्रा के सुख को भोगकर फिर जाग्रत होकर मैंने अपने दोनों नेत्र गवाक्ष ( झरोखे) के निकटवर्ती किये। फिर जब मैं 'युवप्रबोध' नामके महादूत से निम्नप्रकार पूँछ रहा था - [ हे दूस ! ] आज बिना अवसर ही नगर में मेरे द्वारा यह बाजों की क्यों सुनी जा रही है ? जो कि राजमहल के हाथियों में आनन्दलीला के रस को उत्पन्न कर रही है । जो घोणा ( नयने) के स्फुरण से घोड़ों की श्रेणी में क्रीडा करने को उत्कण्ठा उत्पन्न कर रही है और जो क्रीडापर्वतों के लता-आच्छादित प्रदेशों में व कन्दराओं में रहनेवाले मयूरों का नृत्य धारण कर रही है || २१२ ।' 'वेश्याओं के नृत्य के साथ गीत, नृत्य व वादित्र का भी महान प्रघट्टक ( जमाव ) वर्तमान है एवं समस्त गृहों पर पूर्ण मङ्गल कलश स्थित हैं और यह लोक पुष्पाक्षतों के ग्रहण करने में व्याकुल हुआ दिखाई दे रहा है" ।। २१३ ।।' जब में उक्त घटनाओं के कारण-विचार में अपना मन संलग्न कर रहा था तव ' बैकुण्ठमति' नागके क्षेत्रपाल ने आकर मुझे निम्न प्रकार सूचित किया – 'हे राजन् ! चन्द्रमति महादेवी, जिसने समस्त प्रार्थना किये हुए पूर्वजों व देवताओं के निमित्त नैवेद्य का व्यवहार उत्पन्न किया है एवं जो परिवारसहित है, कि देवी की चरण पूजा के लिए गई है और नगर के मार्ग के मध्य में प्राप्त हुई है, जिससे यह महान् बाजों को ध्वनि सुनाई दे रही है । उसी निमित्त से यह नगर में नागरिकों का महोत्सव संबंधी उत्साह हैं। उस देवी को चरणपूजा में राजाधिराज ( यशोधर महाराज ) काल-विलम्ब न करके स्नानादि क्रियाओं में उद्यत होवें। फिर मैंने प्रस्तुत 'वैकुण्ठमति' क्षेत्रपाल के वचन स्नानादि क्रिया द्वारा सफल किये व निम्नप्रकार चिन्तवन करके 'ऐरावण-पत्नी' नामको हथिनी पर सवार होकर चण्डिका देवी के मन्दिर के प्रति चन्द्रमति माता के पीछे प्रस्थान किया ।
१. आपालंकारः । २. दृष्टान्ताक्षेप । ३, जात्मलंकारः । ४, समुच्चयालंकारः ।