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चतुर्थं आश्वास
देवेषु चाप्येषु विचारचक्षुपंथार्थवता कि जिन्दकः स्यात् । एवं न चेतहि यथायंदर्शी भानुः प्रोपोऽपि च निन्दकः स्यात् ।। १३४ ॥ यो भाषते दोषमविद्यमानं सतां गुणानां ग्रहणं च मूकः । स पापभावस्यात् विनिन्दकरण यज्ञोवधः प्राणिवधात् गरीयान् ॥ अमाप्तः पर एव न स्यादेवंविधो रहगणोऽपरस्तु परः पुनः किंगुण एव देवः संसारदोषानुगतो गुणाः कुतस्तस्य भवन्ति गम्याः शास्त्रात्प्रणीतारस्वयमेव तेन । बने परोक्षेऽपि पतत्रिसायें वृष्टो ब्वनेस्तत्र विनिश्चयो हि ॥ १३७ ॥ सर्गस्थितिप्रत्ययहारवृत्तेहिमातपाम्भः समयस्थितेर्वा आद्यन्तभावोऽस्ति यथा न लोके तथैव मुक्तागममालिकायाः ।। १३८ ।। श्रुतात् देवः श्रुतमेतदस्माविमो हि बोजाङ्कुरवत्प्रवृत्ती । हिताहितले स्वयमेव देवाकि पुंसि जातिस्मरयत्परेण ।। १३९ ।।
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६९.
१३५ ॥
न यो हि ।। १३६ ।।
दूसरे गुरु आदि के विषय में विचार चक्षु ( ज्ञाननेवाला ) है और दिगम्बर होकर यथार्थबक्ता (सत्यवादी ) है माता ! क्या वह निंदा का पात्र हो सकता है ? यदि वह निन्दा का पात्र है तब तो यमार्थं वस्तु को प्रकाशित करनेवाला सूर्य व दीपक भी निन्दा का पात्र हो जायगा || १३४|| जो पुरुष दूसरे के गैरमौजूद दोष कहता है व साधुओं के ज्ञानादि गुणों में मूक रहता है, वह पुरुष पापी व निन्दा का पात्र है, क्योंकि किसी को कीति का घात करना उसकी हिंसा करने से भी महान होता है || १३५ ॥ | यदि 'रुद्र लक्षणवाला देव ही आप्त ( ईश्वर ) है और निश्चय से अर्हन्त ईश्वर नहीं है' ऐसा आप कहते हैं तो बापके द्वारा माने हुए ग्यारह रुद्रों में तो ईश्वर होने योग्य वीतरागता व सर्वज्ञता आदि गुण नहीं है, इसलिए ईश्वर होनेलायक गुणों से युक्त दूसरा रुद्रगण होना चाहिए। यदि आप पूँछें कि फिर यह ईश्वर होने योग्य दूसरा रुद्रगण किन गुणों से युक्त होना चाहिए ? तो उसका उत्तर यह है, कि जो सांसारिक क्षुधा व तृपा आदि अठारह दोषों से व्याप्त नहीं है — वीतराग है - वही देव ( ईश्वर ) है | अभिप्राय यह है कि आपके द्वारा कहे हुए ग्यारह रुद्रों में ईश्वर होने योग्य गुण नहीं है, अतः राग, द्वेष रहित जिनेन्द्र ही देव है ।। १३६ ।।
जैनों द्वारा माने हुए ईश्वर के गुण किससे जानने योग्य हैं ? उस आप्त गुरु द्वारा स्वयं कहे हुए शास्त्र से वे गुण जानने योग्य हैं। उस शास्त्र का निश्चय किसप्रकार होगा ? इसका समाधान यह है कि शास्त्र की ध्वनि । शब्दों का वाचन ) से शास्त्र का निश्चय होगा। जिसप्रकार वन के परोक्ष ( दृष्टि द्वारा अगम्य ) होनेपर भी पक्षी समूह का निश्चय उसको ध्वनि - शब्द से होता है । जिस पक्षी की ऐसी ध्वनि है, वह पक्षी अमुक होगा, उस ध्वनि से ही पक्षी जाना जाता है, उसीप्रकार जिस देव ने यह शास्त्र कहा है उस शास्त्र से ही उसके दोपवान् व निर्दोष होने का निश्चय होता है ॥१३७॥ जिसप्रकार लोक के मध्य में सृष्टि (उत्पत्ति), स्थिति संहार ( विनाश ) की प्रवृत्ति का आदि | शुरू ) व अन्त - अखीर नहीं है, अर्थात् - सृष्टि आदि अनादि काल से चले आ रहे हैं व अनन्त काल तक चले जायेंगे । एवं जिसप्रकार शीत ऋतु उष्ण ऋतु व वर्षा ऋतु की प्रवृत्ति अनादि काल से चली आ रही है व अनन्त काल तक चली जायगी । उदाहरणार्थ- उत्पत्ति के बाद विनाश होता है व विनाश के बाद उत्पत्ति होती है एवं शीत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु होती है और ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु होती है, उसके बाद शीत काल होता है । अर्थात्एक से एक सदा होता है उसीप्रकार मुक्त परम्परा व श्रुतपरम्परा की शुरू व अखीर नहीं है । अर्थात्ईश्वर व श्रुत भी अनादि हैं । उदाहरणार्थ- मुक्त ( ईश्वर ) से आगम ( द्वादशाङ्ग श्रुत) होता है और आगम ( शास्त्र ) से मुक्त होता है || १३८ | उसी का निरूपण - आगम ( शास्त्र ) से वह जगत्प्रसिद्ध तीर्थकर अहंस