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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पुन: पौरुषेयेषु कर्मसु । यत्कमलिनीले
लत्वादतीव निःसारत्वान् । पुरुषोऽपि काय स्त्रियं प्रमाणयन्नवप्रवाहपतितः पावय इस न वि नन्वति । स्त्री तु पुरुषपुष्टिस्थिता खड्गयष्टिरिव साधयत्यभिमतमर्थम् | अभिनिवेशं च पुनः पापपुण्यक्रियासु प्रधानं निधानमामनन्ति मनीषिणः । बाह्यानीन्द्रियाणि तपनतेजांस शुभेष्यशुभेषु च वस्तुषु समं विनिपतन्ति न चंतायतर भवति सर्वाधिष्ठातुः कुशले पाष्टेन संचयः । संकल्पोपपन्न प्रतिष्ठानि च देवसायुज्यभाजि शिलाशकलानि किमत्यासावयन् पुरुषो न भवति लोके महापश्वपालकी सकृदेव प्राशुभसंकल्पमलिने मनसि दुरवाकलुषिते सत्पुरुषचेतसीय दुर्लभाः खलु पुनस्तत्प्रसन्नतायामुपायाः । चिरेणापि
कालेन कृतः कल्याणकर्मणां प्रचयः प्रमादवशेन सकृदपि संजातविभिदुरभिसंधि: पात्रक निक्षेपात्भासाव हव मणेन विनश्यत्यमूलतः । संकल्पेन च भवन्ति गृहमेधिनोऽपि मुनयः । यथा - उत्तरमथुरायां निशाप्रतिमास्थितस्त्रिदिवसूत्रितकलत्रपुत्रमित्रोपद्रवोऽप्येकवत्वमावनमान सोऽहंदासः । मुनयश्च गृहस्थाः । यथा - कुसुमपुरे चिरावारुणित सुतस मरस्थितिरातापनयोगधुतोऽपि पुरुहूतवेषः ।
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स्त्रियां, पति के साथ सुरत ( मैथुन - भोग ) समय में और पुत्रों के पालनपोषण के अवसर पर यथेष्ट गृह कार्यों में छोड़ी हुई व सामु आदि से निर्भय - स्वाधीनता पुर्वक कार्यसम्पादन में समर्थ होनें न कि पुरुषों द्वारा किये जानेवाले कार्यों में। क्योंकि स्त्रियों का मन कमलिनी-पत्तों पर पड़े हुए जलविन्दुसरीखा विशेष चञ्चल
अत्यन्त निर्बल होता है । पुरुष भी गृहकार्य ( भोजन बनाना आदि) को छोड़कर दूसरे कार्यों में स्त्री को प्रमाण मानता हुआ नदीप्रवाह में पड़े हुए वृक्ष सरीखा चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता एवं स्त्री तो पुरुष की मुट्ठी में स्थित हुई - पुरुष से परतन्त्र हुई - उसप्रकार अभिलषित प्रयोजन सिद्ध करती है जिसप्रकार उत्तम खगयष्टि (तलवार) योग्य पुरुष की मुष्टि में स्थित हुई अभिलपित प्रयोजन ( विजयश्री सिद्ध करती है। विद्वान् लोग चित्त की आसक्ति को ही पाप-पुण्य कियाओं का मुख्य स्थान कहते हैं। क्योंकि यद्यपि चक्षु-आदि इन्द्रियों पुण्यजनक व पापजनक कार्यों में सूर्य प्रकाश सरीखों एककाल में ही प्रवृत्त होती है, परन्तु इतने मात्र से-- केवल दर्शनमात्र से ही दर्शन व स्पर्शन करनेवाले मानव को पुण्य व पाप से संबंध नहीं होता । उदाहरणार्थ - मानसिक संकल्प द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले व देव ( ईश्वर ) की समानता को प्राप्त हुए पाषाणखण्डों (पाणमयी देवमूर्तियों) की आसादना (तिरस्कार ) करता हुआ मानव क्या लोक में महापच पातको " ( स्वामी द्रोह व स्त्री-चब-आदि का करनेवाला) नहीं होता ? जब मन एकचार भी पापपरिणाम से दूषित ( मलिन ) हो जाता है तब निश्चय से उसे निर्मल करने के उपाय वेसे दुर्लभ होते हैं जैसे निन्दा से मलिन हुए सत्र के चित्त को निर्मल बनाने के उपाय दुर्लभ होते हैं। जैसे अग्नि डालने से गृह नष्ट-भस्म हो जाता है वैसे ही चिरकाल से संचय किया हुआ पुण्यकर्म-समूह भी, जिसमें असावधानी से एक बार भी नष्ट अभिप्राय उत्पन्न हुआ है, क्षणभर में समूल नष्ट हो जाता है। पुण्यपरिणाम से गृहस्य भो मुनि-सरीखी मान्यता प्राप्त करते हैं । जैसे उत्तर मथुरा में रात्रि में ध्यानस्य हुआ बर्हदासनामका सेठ, देवविशेष द्वारा किया गया है स्त्री, पुत्र व मित्र का उपद्रव जिसका, ऐसा होनेपर भी एकत्व भावना के चिन्तदन में मग्नचित्त हुआ मुनिसदृश मान्यता को प्राप्त हुआ । एवं मुनि भी पापपरिणाम से गृहस्थसरीखे हो जाते हैं । उदाहरणार्थ – जिस प्रकार
१. उस च शमिद्रोहः स्त्रीवधी बालहिंसा विश्वस्तान घात निभेदः । प्रायेणैतत्वकं पातकानां कुर्यात्सद्यः प्राणिनः प्राप्तदुःखान् ॥ १ ॥'
२. अहंदास की कथा -- उत्तर मथुरा में जब अर्हदास नाम का सेठ चतुर्दशी भूमिवर ध्यानस्थ होकर एकत्व भावना में लीन था तब उसके व्रत को अनेक उपद्रव किये, तथापि उसे जरा भी मानसिक क्षोभ नहीं हुआ, जिससे उसे मुनिसदृश मान्यता प्राम हुई ।
का उपवास किये हुए रात्रि में पान नष्ट करने में तत्पर हुए वनदेवताओं में