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( प्रकाशम् । )
'प्रशस्तिलकचम्पूकाव्ये
नान्येषु पावं मनसा विचिन्त्यं साक्षात्कथं तत्यिते माध । स्वा श्रुताकि तु कथा न लोके सशालिशिक्यस्य वसोः प्रसिद्धा ।। १६७७
पिबेद्विषं यमृतं विश्वित्य जिजीविषुः कोऽपि नरो बराकः । किं तस्य तन्नव करोति मृत्युमिच्छायज्ञान्नव मनोषितानि ।। ९६८ ॥ रजस्तमोभ्यां बहुस्य पुंसः पापं सतां नैव निवर्शनाय । नाप्येनसामा सजतामपेक्षा जाती फुले या रजसामिवालि ।। १६९॥ जाति मृत्युरवामपाद्या नृपेषु धान्येषु समं भवन्ति । पुण्यंजनेयोऽधिकाः क्षितीशा मनुष्यभावे त्वविशेष एव ।। १७० ।। यथा मम प्राणिषधे भवस्था महान्ति दुःखानि भवन्ति मातः । तथा परेषामपि जीवहानी भवन्ति दुःखामि तदस्यिकानाम् ॥ १७१ 11 परस्य जीवन यदि स्वरक्षा पूर्व क्षितीशाः कुत एव मन्त्रः । शास्त्रं तु सर्वत्र यदि प्रमाणं हवकाक मांसेऽपि भवेत्प्रवृत्तिः ॥ १७२ ॥ भवप्रकृत्यावहितो हि लोकः कदापि नेवं जगदेकमार्गम् । यद्धबुद्धधा विपाति पापं तन्मे मनोऽतीव दुनोति मातः ॥१७३॥ लोके विनिन्द्यं परवारकर्म मात्रा सहैतत्किमु कोऽपि कुर्यात् । मांसं जिघत्सेनि कोऽवि लोलः किमागमस्तत्र निवर्शनीयः ।। १७४ ॥
अब यशोधर महाराज ने अपनी माता ( चन्द्रमति ) से निम्नप्रकार स्पष्ट कहा है माता ! जो पाप दूसरे प्राणियों के प्रति मन से चिन्तवन करने योग्य नहीं है, वह गाप इस समय मेरे द्वारा प्रत्यक्ष से किस प्रकार किया जा सकता है ? हे माता ! नूने वसुराजा व शालिसिक्य नाम के मच्छ की लोक प्रसिद्ध कथा क्या नहीं सुनी' ? ॥१६७॥ यदि कोई भी विचारा मानव जीने का इच्छुक होता हुआ जहर की अमृत समझकर पी लेने तो क्या वह जहर उस मनुष्य की मृत्यु नहीं करता ? क्योंकि चाही हुई वस्तुएँ केवल मनोरथ से प्राप्त नहीं होतीं । अर्थात् - उसी प्रकार धर्म बुद्धि से पाप करता हुआ प्राणी क्या पुण्य प्राप्त कर सकता है ? ॥१६८॥ पाप और अज्ञान से अधिकता प्राप्त किये हुए पुरुषों ( गौतम व विश्वामित्र आदि ) का पाप विद्वज्जनों के दृष्टान्त के लिए नहीं होता । अर्थात् जिस प्रकार उन पापियों ने प्राणियों का मांस भक्षणरूप पाप किया उसप्रकार हेयोपादेय का ज्ञान रखनेवाले सज्जन पुरुष नहीं कर सकते । सम्बन्ध प्राप्त करते हुए पापों को उसप्रकार जाति ( मातृपक्ष ) व विषयक वाञ्छा नहीं होती जिसप्रकार धूलियों को जाति व कुल विषयक अपेक्षा ( इच्छा ) नहीं होती । अर्थात् — जिसप्रकार उड़ती हुईं धूलियाँ सभी के ऊपर गिरती हैं, किसो को नहीं छोड़तीं उसी प्रकार बंधने वाले पाप भी किसी को नहीं छोड़ते ' ॥ १६९॥ जन्म, जरा, मृत्यु, और रोग वगैरह दुःख राजाओं व दूसरे प्राणियों में समानरूप से होते हैं। उनमें राजा लोग पुण्यों के कारण मनुष्यों से अधिक होते हैं, राजा लोगों व पुरुषों में मनुष्यता की अपेक्षा कोई भेद नहीं है | ११७०॥ हे माता ! जिसप्रकार मुझे प्राणी के वध होने पर आपको महान दुःख होते हैं उसीप्रकार दूसरे प्राणियों के वघ होनेपर भी उनकी माताओं को विशेष दुःख होते हैं ॥ १७१ ॥ हे माता ! यदि दूसरे जीयों के जीव से अपनी रक्षा होती है तो पूर्व में उत्पन्न हुए राजा लोग क्यों मर गए? यदि शास्त्र सर्वत्र प्रमाण है तो कुत्ता
कौए के मांस के भक्षण में भी प्रवृत्ति होनी चाहिए ॥ १७२॥ हे माता ! [ संसार में | मनुष्य-समूह पाप कर्म में सावधान होकर विद्यमान है। यह संसार किसी भी अवसर पर एकमत में आश्रित नहीं होता । निश्चय से मानवगण जिस कारण धर्म बुद्धि से पाप करता है उस कारण मेरा मन विशेषरूप से सन्तप्त होता है ॥१७३॥ जब परस्त्री-भोग संसार में विशेषरूप से निन्दनीय है तब यह परस्त्री-भोग क्या कोई भी माता के साथ करेगा ? अपि तु नहीं करेगा। इसीप्रकार यदि कोई भी पुरुष जिह्वालम्पट हुआ मांस भक्षण की इच्छा करता है तो उस मांस भक्षण के समर्थन में क्या वेद शास्त्र उदाहरण देने योग्य है ?" ॥१७४॥ इन्द्रिय-लम्पट और लोगों की
१. आपालंकारः । २. आक्षेपालंकारः । ३ उपमालंकारः । ४. जाति: अतिशयालंकारश्च । ५. दृष्टान्तालंकारः । ६. जाति रलंकारः । ७. जातिरियम् । ८. पालंकारः ।