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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये असंशयं हेतुविशेषमावाधयोपलः स्यात्कनकं तव । अन्तहिणधास्तसमस्तदोषो ज्योतिः परं स्यादपमेव जीवः ॥१४०॥ अङ्गारवत्तद्धि न जातु शुद्धचेटूपान्तरं वस्तुनि यत्र नास्ति । दृष्टो मणीनां मतसंक्षपेण सेनःप्रभावः पटुभिः कृतेन ॥१४॥
भूता भविष्यन्ति भवन्ति चान्ये लोकत्रयशाः प्रमशः लिप्तीशाः । यथा तथाप्ता यदि को विरोधो ब्रहत्वभन्यत्र च बाढमस्ति ॥ १४२ ।। हरिः पुनः क्षत्रिय एवं कश्चिज्योतिर्गणस्तुल्यगुणोरविश्च ।
देवी स्त एतौ यषि मुनिमायौं प्रश्न सोहन कुतस्मथा न ।। १४३ ॥ अयोषमतापुषा विभति दशावतारेण स वर्तते च । शिला लवावयतिविस्मयाई मातः कथं संगतिमङ्गलीवम् ।।१४४।। देव होता है और उस तीर्थकर देव से आगम की उत्पत्ति होती है, निश्चय से दोनों श्रुत व देव, बीज व अङ्कर को तरह प्रवृत्त होते हैं। अर्थात्-जिसप्रकार वीज से अङ्कर होता है और अङ्कर से दोज होता है । हित ( सुख व सुख के कारण ) व अहित ( दुःख व दुःख के कारण ) को जानने की शक्ति जन्म से स्मरणवाले पुरुष की तरह पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य व पाप से होती है । दूसरे पुरुष से क्या प्रयोजन है ? अपि तु कोई प्रयोजन नहीं । अर्थात्-जिसप्रकार जन्म से स्मरणवाला पुरुष दूसरे से नहीं पूछता किन्तु स्वयं ही जान लेता है उसीप्रकार यह आत्मा, जो कि तीर्थकर होनेवाला है, पूर्वजन्म-कृत पुण्योदय से उत्पन्न हुए ज्ञान द्वारा स्वयं हिताहित को जानता है उसे दूसरे पुरुष ( गुम्-आदि ) की अपेक्षा से कोई प्रयोजन नहीं रहता ॥१३९||
___जिसप्रकार भिन्न भिन्न कारणों ( अग्नि में तपाना व छेदन-आदि साधनों) से सुवर्ण पाषाण, निस्सन्देह सुवर्ण हो जाता है उसीप्रकार यही संसारी जीव ( मानव ), अन्तरङ्ग कारण ( कर्मों का क्षय-आदि ) वहिरङ्ग ( गुरु-आदि का उपदेश-आदि) कारणों से कर्ममल कलङ्कको क्षीण करनेवाला होकर मुक्त । ईश्वर) हो जाता है ॥१४०।। अभव्य पुरुष में रूपान्तर नहीं है, अर्थात्-वह मिथ्यात्व को छोड़कर कभी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकता-कभी शुद्ध नहीं हो सकता । वह अभव्य लक्षणवाला पुरुष, उसप्रकार कदापि शुद्ध नहीं होता जिसप्रकार अङ्गार ( कोयला ) कदापि जलादि द्वारा शुद्ध नहीं हो सकता एवं जिसप्रकार विचक्षण पुरुषों द्वारा किये हुए मल-विनाश से मणियों-रत्नों-में कान्ति का प्रभाव देखा गया है, अर्थात्-उसीप्रकार यह संसारी भव्य मानव, अन्तरङ्ग ( सम्पग्दर्शन-आदि ) व बहिरङ्ग ( गुरु-उपदेश-आदि ) कारणों द्वारा कर्ममल कला का क्षय करता हुआ शुद्ध-मुक्त-हो जाता है' ॥१४।। जिसप्रकार भूतकालीन, भविष्यकालीन व वर्तमानकालीन दूसरे लोकत्रय के जाननेवाले राजा लोग क्रमशः हुए होवेंगे व हो रहे हैं जसीप्रकार यदि अतीत, अनागत व वर्तमानकालीन तीर्थकर परमदेव हुए, होंगे व हो रहे हैं तो इसमें क्या विरोध है ? अपि नु कोई विरोध नहीं। इसीप्रकार तीर्थङ्करों की अधिकता के विषय में भी कोई विरोध नहीं, क्योंकि परमत में भी देवताओं को प्रचुरता अतिशय रूप से है । अर्थात्-जिसप्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नवग्रह, तिथि, देवता व बारह सूर्य इनमें संख्या की अधिकता पाई जाती है उसीप्रकार तीर्थङ्कर परम देवों में भी प्रचुरता समझनी चाहिए।।१४। फिर श्रीनारायण कोई क्षत्रिय ही हैं और सूर्य भी शुक व शनैश्चर-आदि-सरीखा है। जब ये दोनों (श्री नारायण ब सूर्य) मुक्ति का उपाय बलानेवाले देवता हैं तो आदि क्षत्रिय पृथुराजा व चन्द्रमा ये दोनों मुक्ति का उपाय बतानेवाले देवता क्यों नहीं हैं ? अपितु होने चाहिए ॥१४॥
१. तथा चोक्तं समन्तभद्रेण महर्षिणा
दोपावरणयोहनिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । मबधिधथा स्वतुम्मोहिरतिमलक्षयः ॥१॥'
देवागमस्तोत्र से~