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ययास्तिलफचम्यूकाव्ये यपि च वेदोक्तेन विधिना विधीयमाना हिंसा न भवस्यधर्मसाधनम्, कर्थ तहि मार्यमाणः परेवं संबोध्यते 'अन्धेनं मातानुभन्यतामनुपितानुभ्रातानुसान्धोऽनुसखा सम्पः' इति ।
अय पोषवेयागमवच्चोदनायां विचारे महत्पातकम् । तदाह--
मानवं व्यासबासिष्ठ वधर्म वेवसंपुतम् । अप्रमाणं तु यो पात्स भवब्रह्मघातकः ।। १२९ ।।
पुराणं मानयो धर्मः सालो वेदश्चिकित्सितम् । आशासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ।। १३० ।। इत्येतन्मुग्धभाषितम् ।
बाहच्छेवकषाशुद्ध हेम्नि का शपथक्रिया । वाहन्छेवकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया ॥ १३१ ।। तस्मात् बत्तानुपानं सफलः प्रमाणवण्टेषु तत्वेषु भवत्प्रमाणम् । अन्यत्र शास्त्रं तु सा प्रवृत्य पूर्वापरस्थित्यविरोषनेन ।। १३२ ।। उमापतिः स्कन्दयिता त्रिशूली संध्यासु यो नस्यति चर्मवासाः । भिक्षाशनो होमजपोपपन्नः कर्ष स वेबोऽन्यननेन तुल्यः ॥१३३॥
यदि वेद में कडे हा विधान से की जानेवाली हिसा. अधर्म साधन नहीं है तो माग जानेवाला पश. इसप्रकार से क्यों संबोधन किया जाता है? 'हे पश! इस हिंसक पुरुष के माता-पिता बबन्ध [ दोषी 1 जाना जावे एवं इसका सम्बन्धी और समाह-सहित मित्र दोषी जाना जाय। अब जिसप्रकार पुरुषकृत शास्त्र किया जाता है उसी प्रकार वैदिक वचनों में विचार ( तर्क-वितकं) करने में महान पाप है, जैसा कि कहा है—मनुरचित धर्म शास्त्र और व्यास व वसिष्ठ ऋषि-प्रणीत शास्त्र वेद में कहे हुए-सरीखा प्रमाण है । जो मानव उक्त धर्म शास्त्र को अप्रमाण-असत्य-कहेगा, वह ब्राह्मण-धात के पाप का भागी होगा ।।१२५।। पुराण ग्रत्य ( महाभारत व रामायण-आदि), स्मृति शास्त्र, छह अङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष व निरुक्त ) सहित वेद ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद ) एवं आयुर्वेद ये चारों शास्त्र आज्ञा सिद्ध हैं। अर्थात्-इनके वचन ही प्रमाण माने जाते हैं। ये हेतुवादों ( युक्तियों) द्वारा खंडनीय नहीं हैं ॥१३०॥ उक्त दोनों श्लोकों को कपोल कल्पित-मिथ्या-समझना चाहिए। क्योंकि जब सुवर्ण अग्नि में तपाने, काटने व कसोटीपर कमने आदि की क्रियाओं द्वारा परीक्षण किया हुआ शुद्ध है तब उसमें शपथ-खाना क्या है ? अर्थात्-उक्त क्रियाओं द्वारा परीक्षित-शुद्ध सुवर्ण के विषय में कसम खाने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि उसको शुद्धता प्रत्यक्ष प्रतीत ही है । एवं जन सुवर्ण उक्त क्रियाओं द्वारा परीक्षण किये जानेपर अशुद्ध है तब उसे शुद्ध बताने की कसम खाने से क्या लाभ है ? क्योंकि अशुद्ध वस्तु कसम खाने से शुद्ध नहीं हो सकती ॥१३१।। उस कारण से--
वही शास्त्र, जो कि अविसंवादि होने से स्वीकृत व्यवहारवाला है एवं प्रत्यक्ष व अनुमान-आदि समस्त प्रमाणों द्वारा परीक्षित है, प्रत्यक्ष देखे हए शास्त्रों में सत्यार्थ है। इसके विपरीत जो भास्त्र, प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणों द्वारा परीक्षा किया हुआ नहीं है न स्वर्ग-आदि परोक्ष ( विना देख्ने हए ) विषयों का निरूपण करनेवाला विसंवादी है, यदि वह पूर्वापर के विरोध से रहित है तो प्रमाण होता हआ विद्वानों की प्रवृत्ति-हेतु है ॥१३२।। देव-समीक्षा-बह ( जगत्प्रसिद्ध ) रुद्र ( श्री महादेव ), जो कि उमा--पार्वती-का पति व कार्तिकेय का पिता होने से ब्रह्मचर्य का भङ्ग करनेवाला है। जो त्रिशूल-धारक होने से शत्रुओं से द्वेष करनेवाला है, जो प्रभात, मध्याह्न व सायंकाल में नृत्य करता हुआ मृगचर्म को धारण करनेवाला है, अर्थात् मोह-युक्त है। एवं जो भिक्षा भोजन करने के कारण क्षुधा दोष-युक्त है तथा होम व जप करता है । उक्त बातों के कारण वह रास्तागौर-सरीखा होने से देव ( ईश्वर ) किसप्रकार हो सकता है ? ||१३३।। जो ( ऋषभादि तीर्थङ्कर ) देवों व