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द्यर्शास्तलकचम्पूकाव्यं
बिपि परलोके त्याज्यमेवाशुभं बुषः । यदि न स्यात्ततः किं । स्यावस्ति चेलालिको हसः ।। ११७ ।। मक्षिकागर्भसंभूतकाला डनिपीडनात्। जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कानलाकृति ।। ११८ ||
तथा च स्मृतिः
सप्तधामेषु यत्पापमननः भस्मसात्कृते । तस्य तद्भवेत्पापं मघुविन्दुनिषेवणात् ॥ ११९ ॥ यथाजनाकूतमयं प्रवृत्तः परस्परार्थप्रतिकूलवृत्तः । विषौ निषेधेन निश्वयोऽस्ति कथं स वेदो जगतः प्रमाणम् ॥ १२० ॥ तथाहि-- मांसं वेदार्घारितुमिच्छसि आवर। किंतु विधिपूर्वकमारितथ्यम् । तदाह
प्रोक्षितं भक्षमेग्मां ब्राह्मणानां तु काम्यया । यथाविधिनियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये ॥१२१॥ वायं वा हृयुत्पाद्य परोपहृतमेव च । अर्चयित्वा पितॄन वैवान्यादन्मांसं न दुष्यति ।। १२२ ।। मातरि स्वर वा चेत्प्रवतितुमिच्छसि प्रवर्तस्व । किं तु विधिपूर्वक प्रवतितव्यम् । तवाह — गोसवे
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चन्द्र-सूर्य पर्यन्त नहीं निकल सकता ॥ ११६ ॥ स्वगं आदि के संदिग्ध ( सन्देह युक्त ) होनेपर भी विद्वानों को - मांस आदि का भक्षणरूप पाप छोड़ना ही चाहिए। यदि स्वर्गादि नहीं है, तो क्या है ? अर्थात् - मांस आदि के त्यागी का कुछ भी अरुचिर ( बुरा ) नहीं होगा, अपि तु अच्छा ही होगा और यदि स्वर्गआदि हैं तब तो चार्वाक ( नास्तिक) खण्डित हो है ॥११७॥ विद्वान् लोग ऐसे मधु (शहद) का किस प्रकार भक्षण करते है ? जोकि शहद की मक्खियों के गर्भ में उत्पन्न हुए मक्खियों के बच्चों के अण्डों के निचोड़ने से उत्पन्न हुआ है एवं जिसकी आकृति जरायुपटल - सरीखी है ॥ ११८|| स्मृति शास्त्र में भी कहा है-सात ग्रामों को अग्नि से जलाने पर जितना पाप लगता है, उतना पाप पुरुष को मधु की बूंद का आस्वा दन करने से लगता है ।। ११९|| वैदिक-समालोचना - हे माता ! यह वेद (ऋग्वेद-आदि), जो कि मनुष्यों की इच्छानुसार प्रकृतिवाला है । अर्थात्-लोक जिसप्रकार से विपयादि सेवन करना चाहता है वेद भी उसी प्रकार से कहता है । एवं परस्पर पूर्वापर के विरोध सहित होता हुआ प्रवृत्ति को प्राप्त हुआ है तथा जिसमें विधि ( कर्तव्य ) व निषेध का निश्चय नहीं है, संसार को प्रमाणभूत किस प्रकार से हो सकता है ? ॥१२०॥ अब वेद सम्बन्धी उक्त बात का समर्थन किया जाता है-यदि मांस भक्षण करना चाहते हो तो उसका भक्षण करो किन्तु वेद में कही हुई विधि से भक्षण करना चाहिए।
मांस भक्षण की विधि ---
प्रोक्षणादिविधि ( कुवा-दर्भ व मन्त्र जल से पवित्र करना आदि ) से अधिकृत हुआ पुरुष ब्राह्मण इच्छा से कुश व मन्त्र जल से पवित्र किये हुए मांस का भक्षण करें । परन्तु प्राणों के विनाश होनेपर भी प्रोक्षदि विधि के विना मांस भक्षण न करे ||१२|| पितरों ( पूर्वजों ) व देवताओं की पूजा करके एस मांस को खानेवाला दोषी नहीं है, जो कि खरीदकर प्राप्त हुआ है, अथवा जो निश्चय से स्वयं जीव घात किये विना उत्पन्न किया गया है तथा जो दूसरे पुरुष द्वारा लाया गया है ।। १२२|| यदि माता वा बहन के साथ मैथुन करना चाहते हो तो मैथुन करो किन्तु विधि पूर्वक प्रवृत्त होना चाहिए। वह विधि कौन सी है, उसका निरूपण करते हैं— गोसव नाम के यज्ञ में केवल ब्राह्मण ( दूसरा नहीं ) गोवध से यज्ञ करके एक वर्ष के अन्त में माता की मी ( अपि-भी- शब्द से बहिन को भी ) अभिलाषा करता है। माता का सेवन करो और बहिन का सेवन करो। इस प्रकार का वचन एवं इसप्रकार के दूसरे भी विधान वेद में वर्तमान है, के के विधान