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चतुर्थ आश्वासः स्वयं स कुष्ठी पदयोः फिलाः परेषु रोगातिहरवन्ध चित्रम् ।
अजा परेषां विनिहन्ति वातं स्वयं तु दातेन हि सा प्रियेत ॥ १४ ॥ मासा-(स्वगतम् ।) गतः कालः खलु यत्र पुत्रः स्वतन्त्रमस्या हक्येप्सितानि । कार्याणि कार्यत हठायेन भयेन वा फणंचपेटया वा ।।१४६।। युवा निजादेशनिशितधीः स्वयंप्रभुः प्राप्तपवप्रतिष्ठः । शिष्यः सुतो धात्महितसाद्धि न शिक्षणीयो न निवारणीपः ॥१४७।। (प्रकाशम् ।) तवोपदेशः जल कि नु कुर्याविनीतचित्तस्य बहुश्रुतस्य । को नाम घोमालवणासुराशेरुपायनार्थ लवणं नयेत ॥१४॥ विचक्षणः किं तु परोपदेशे न यस्य कार्य सफलोऽपि लोकः । नेत्रं हि रेऽपि निरीक्षमाणमात्मावलोके त्वसमर्थमेव ॥१४९।।
निम्नन्ति निःसंशयमेव भूपाः पुत्रं च मिनं पितरं च बन्धम् ।
स्वस्य निये जीवितरक्षणाय राज्यं कुतः भान्तिपरायणानाम् ॥१५॥ सदस्य वःस्वप्नविधः शमा संरक्षणार्थ निजजीवितस्य । दुर्वासना वत्स विहाय जो विहि मकं कूलदेवतायाः ॥१५॥ ___किमङ्गः महामुनि!तमः प्राणत्राणार्पमात्मोपकारिणमपि नामीजङ्घ न जपान । विश्वामित्रः सारमेयम् ।
हे माता ! जब वह विष्णु इस समस्त संसार को अपने उदर के मध्य में धारण करता है तब शूकर, कच्दछप-आदि दश अवतार कैसे धारण करता है ? अर्थात-जो समस्त तीन लोक को उदर के मध्य धारण करता है, वह दश अवतार कहां ठहरकर ग्रहण करता है ? यह बात "शिला पानी में तैरती है' इससे भी विशेष आश्चर्यजनक है, अतः किसप्रकार युक्तिसङ्गत हो सकती है ? अपितु नहीं हो सकती ॥१४॥ वह सूर्य स्वयं तो निश्चय से पादों में कुष्ठ रोगवाला है और भक्तों की रोग-पोड़ा-विध्वंसक है, यह उसप्रकार आश्चर्यजनक है जिसप्रकार बकरी दूसरे लोगों की दुषित वायु नष्ट करती है और स्वयं बात रोग से मृत्यु प्राप्त करती है।।१४५।। अब उक्त वात को सुनकर माता चन्द्रमति अपने मन में निम्नप्रकार चिन्तवन करती है-निश्चय से वह अवसर निवाल गया, जिसमें यशोधर पत्र, मेरी स्वतन्त्र वृत्ति से मनचाहे कार्य कराने के लिए हठ, नीति व भय से अथवा कान उमेठ कर प्रेरित किया जाता था । अर्थात्-अब हटादि से कर्तव्य कराने के लिए समर्थ नहीं रहा ।।१४६॥ इस समय यह जवान है. शिशु नहीं है, जिसने अपनी आज्ञा में लक्ष्मी आरोपित-स्थापितको है एवं स्वयं सब का स्वामी है तथा जिसने राज्य पद में प्रतिष्ठा प्राप्त की है, अतः यह स्पष्ट है कि अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषों द्वारा विद्यार्थी अथवा पुत्र बलात्कार से न शिक्षा देने योग्य है और न रोकने योग्य है ॥१४७॥ हे पुत्र! तुम सब' विषयों में प्रवीण हो, इसलिए निश्चय से बिनय में तत्पर चित्तवाले और अनेक शास्त्रों में निपुणता प्राप्त किये हुए तुम्हें मेरा उपदेश क्या करेगा? उदाहरणार्थ-कौन बुद्धिमान् पुरुष लवण समुद्र को भेंट देने के लिए नमक लाता है ॥१४८|| हे पुत्र ! तुम बुद्धिमान हो, परन्तु सभी लोग दूसरों को उपदेश देने में प्रयोण होते हैं, परन्तु अपने कर्तव्य-पालन में प्रवीण नहीं होते। जैसे चक्षु दुरवर्ती वस्तु को देखनेवाली होती है परन्तु स्वयं अपने को देखने में असमर्थ ही होती है ।।१४९|| हे पुत्र ! राजा लोग अपनी लक्ष्मी व जीवन-रक्षा के लिए निस्सन्देह पुत्र, मित्र पित्ता व भाई को मार डालते हैं। क्योंकि क्षमाशील राजाओं का राज्य किस प्रकार सुरक्षित रह सकता है ? ॥१५०11 अतः हे पुत्र ! इस दुष्ट स्वप्न की शान्ति के लिए व अपनी आयु के संरक्षण के लिए दिगम्बरों का उपदेश छोड़कर पशुओं में कुलदेवता की पूजा करो ||१५१॥