Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थ आश्वासः आपस्नान प्रतस्नानं मन्त्रस्नानं तव च । पापस्नान गृहस्यस्य वसमम्प्रेस्तपस्विनः ॥ १० ॥ में स्त्रीभिः संगमी यस्य यः परे ब्रह्मणि स्थितः । तं शुचि सर्वर प्रादूर्मावलं च हताशनम् ॥ १०१ ।।
इति। ऋयः सामान्यथर्वाणि यजूण्यङ्गानि भारत । इतिहासः पुराणं च त्रयीचे सर्यमुच्यते ॥ १०२ ।। देताश्च श्रुतिस्मृतिम्पामतीच पाहोऽधत्वेनाईसमये कार्य नाम ज्योतिषागे वचनमियमुक्तम्---
समग्र शनिना वृष्टः क्षपणः कोपितः पुनः । ततस्तस्य पोसायो तावे परिपूजयेत् ।। १०३ ॥ सांस्यं योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी । तस्यां च व्यावस्ति स्यान्नास्तीति नग्नश्रमणक इति वृहस्पतिराखायलस्य पुरस्तं समयं कथं प्रत्यवतस्ये। प्रजापसिसोक्तं च चित्रकर्मणि--
यमणं तललिप्ताङ्ग नभिभित्तिभिर्युतम् । मो लिखेस्स लिखेत्सर्वा पृथ्वोमपि सप्तागराम् ॥ १०४ ।।
में से जल स्नान गृहस्थ का होता है और प्रत व मन्त्रों द्वारा स्नान तपस्वो का होता है ।।१०।। विद्वानों न उस पुरुप को, जिसका स्त्रियों के साथ संगम नहीं है, एवं जो आत्म भावना में लोन हैं, सदा शुचि कहा है एवं वायु तथा अग्नि का सदा पवित्र कहा है ||११|| ऋग्वेद-वाक्य, सामवेद-वाक्य, अथर्वण वेद के मन्त्र, पजुद वाक्य (काण्डी) और निम्न प्रकार वेद की सन्न अङ्ग । शिक्षा, कन्म साकरण, मन्द ज्योतिष व निरुक्त । तथा इतिहास ( महाभारत व रामायण ), पुराण, मोमांसा व न्याय शास्त्र इन १४ विद्यास्थानों को त्रयी विद्या कहते हैं ॥१०॥
___ अब जेमवर्म को प्राचीनता सिद्ध करते हैं-हे माता! आपके कहे अनुसार जन्त्र जेन दर्शन वेद व स्मृति से विशेष बहिर्भूत है एवं अभी कलिकाल से ही उत्पन्न हुआ है तब ज्योतिष शास्त्र में, जो कि वेदाङ्ग है, यह निम्न प्रकार वचन कैसे कहा ? 'जो पुरुष पूर्ण रूप से पानश्चर द्वारा देखा गया है। अर्थात्जो सप्तम स्थान में स्थित हुए शनैश्चर ग्रह द्वारा देखा गया है और जिसने दिगम्बर साधु को कुपित किया है, जिससे जब उसे शनैश्चर ग्रह सम्बन्धी व दिगम्बर मुनि सम्बन्धी पीड़ा (शारीरिक कष्ट ) उपस्थित हुई है, तब उस पीड़ा के निवारण के लिए उसे शनिभक्त व दिगम्बर भक्त होते हुए शनैश्चर व दिगम्बर साधु की ही पूजा करनी चाहिए न कि उक्त पीड़ा के निवारणार्थ अन्य देवता की पूजा करनी चाहिए' ||१०३|| सांख्य, नेयायिक व चार्वाक ( नास्तिक ) दर्शन ये तीनों आन्वीक्षिकी ( अध्यात्मविद्याएँ ) हैं । अर्थात्अध्यात्म विद्या के प्रतिपाइक दर्शन है। एवं उसी आन्वीक्षिकी { अध्यात्म विद्या) में अनेकान्त ( प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा सद्रूप ( विद्यमान है और परचतुष्टय की अपेक्षा असद्रूप ( अविद्यमान) है-इत्यादि ) के समर्थक वचन को दिगम्बर साधु कहता है । अर्थात् -- वक्त आन्वीक्षिकी विद्या में जैन-दर्शन भी अन्तर्मत है।' इसप्रकार वृहस्पति ( सुराचार्य) ने इन्द्र के समक्ष उस अनेकान्त-समर्थक जैनदर्शन को कैसे प्रतिपादन किया ? अर्थात्-यदि जैनदर्शन नवीन प्रचलित होता तो वृहस्पति ने इन्द्र के समक्ष उसे आन्वीक्षिकी विद्या में कैसे स्वीकार किया? इसीप्रकार हे माता ! यदि जेन धर्म अभी का चला हुआ होता तो प्रजापति द्वारा कहे हुए चित्रशास्त्र में निम्न प्रकार वचन कैसे कहे गए-जो चित्रकार, करोड़ सूर्य-शरोखे तेजस्वी व नब भित्तियों ( कोट, बंदी-आदि नौ भित्तियों) ने संयुक्त श्रमणतीर्थकर परमदेव को चित्र में लिखता है--चित्रित करता है-.बह असंख्यात समुद्र-सहित पृथिवी को भी चित्र में लिखता है। अर्थात्उसे पृथिवी, पाताल व स्वर्ग लोक को चित्र में चित्रित करने का प्रचुर पुण्य होता है ।।१०४।। इसीप्रकार सूर्यसिद्धान्त में निम्न प्रकार अर्हत्प्रतिमा-सूचक वचन किसप्रकार कहे गये हैं? वे तीर्थङ्कर परमदेव, जो कि