Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थ आश्वासः बालस्म मायान्न तपोषिकारो युवा तपस्येवि तत्र वः । कुटुम्बभाराधिकृतश्च मध्यो वृक्षः पुनर्वृविहाय एव ।।५०॥ परोपरोधाश्यमेवमात्मा मिथ्याग्रहास्तमनःप्रतानः । स्वयं विजामन्नपि देवदूतैराकृष्य मोयेत भवभ्रमाय ॥५१॥
चरमोऽपि पक्षः श्रेयानेव । द्विषा खलु प्राणिनामापदो भवन्ति-संभवत्मतीकारा, कालकृमावताराश्च । तत्राधानामुपशमनाय प्रतिस्वप्नविधिः श्रेयःसंनिषेरेव रणाजिरेषु राजव्यम्मनग्याजेन विषद्विपपराणाममयिषवर्षस्य प्रसीकार इन । मध्यमस्तु पक्षोऽतीच मध्यमः।
अहोरानं यथा हेतुः प्रकाशघ्यान्सजन्मनि । तपा महीपतिहेतुः पुण्यपापप्रवर्तने ।। ५२॥ उक्त च रानि धमिपि भामाठाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।। ५३ ।।
इति । भूतसंरक्षण हि क्षत्रियाणां महान् धर्मः। स च निरपराधप्राणियों नितरां निराकुतः स्यात् । नृपतिप्रतिष्ठानि च खल देहिनां व्यवहारतन्त्राणि प्रवर्तन्ते । नृपल्यायताः पुण्यपापहेतवो वर्णाश्रमाणामाचारव्यवस्थाश्च । ते स्थिर नहीं है, किन्तु यौवन-आदि सब क्षणिक ही हैं। यदि मे यौवन-आदि स्थिर होते तो तत्त्वज्ञानियों का तपश्चर्या-प्रयास केवल शारीरिक खेद-निमित्त होता ॥४९||
हे माता ! शिशु को दोक्षा-ग्रहण का अधिकार नहीं है, क्योंकि उसकी प्रकृति हिताहित के विवेक से शून्य होती है। यदि जवान पुरुष तपश्चर्या करे तो उस तपश्चर्या करने में प्रायश्चित्त है, अथवा शरीरदण्डन का कष्ट होता है । इसीप्रकार अर्द्धवृद्ध पुरुष तो कुटुम्ब की उदर-पूर्ति करता है। वृद्ध पुरुप दीर्घकाल में उदर-पूर्ति करता है ॥५०॥ यह जीव माता-पिता-आदि के अनुरोध से असत्य पिशाच-ग्रह से ग्रहण किये हुए मानसिक व्यापारवाला होता है । अतः स्वर्ग विशेष जानता हा भी यमराज के किङ्करों द्वारा खोंचकर संसार-भ्रमण के लिए ले जाया जाता है ॥५१॥ हे माता । यद्यपि धरम पक्ष (शान्तिक पौष्टिक लक्षणवाला अखीर का कथन ) शुभ ही है, परन्तु प्राणिहिसा के कारण कल्याण-कारक नहीं है। निश्चन से प्राणियों की विपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं, १-संभवत्प्रतीकार ( जिनके दूर होने का उपाय हो सकता है ) एवं २यमराज द्वारा उत्पन्न होनेवाली मृत्यु । उन दोनों विपत्तियों के मध्य पहिलो संभवत्प्रतीकारवाली आपत्तियों के उपशमन के लिए स्वप्नशमन-विधान पुण्याचरण से ही होता है, जो कि ( स्वप्न-मन-विधान ), संग्रामाङ्गणों पर राज-चिह्नों के मिप से शवसपों के क्रोधरूप बिष-वर्षग की प्रतिक्रिया ( दूर करने का उपाय-विद्याधरऔषधि, मन्यजल व हवनादि ) सरोखा है। मध्यमपक्ष 'द्रास्वाप्नशङ्का' इत्यादि सो जोवहिंसा के कारण नि:कृष्ट है । जिसप्रकार प्रकाश को उत्पत्ति में दिन कारण है और अन्धकार को उत्पत्ति में रात्रि निमित्त है उसीप्रकार पुण्य-पाप की प्रवृत्ति में राजा कारण है ॥५२॥ अर्थशास्त्रकार 'चाणक्य ने कहा है राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा धर्मात्मा होतो है और राजा के पापी होनेपर प्रजा भी पापी हो जाती है एवं राजा के मध्यस्थ होने पर प्रजा भी मध्यस्थ हो जाती है। प्रजा के लोग राजा का अनुसरण करते हैं। जैसा राजा होता है, प्रजा मी वैसी होती है ।।५३|| हे माता निश्चय से प्राणियों की रक्षा ( प्रतिपालन ), क्षत्रिय राजकुमारों का श्रेष्ठ धर्म है, वह धर्म, निषि प्राणियों के घात करने से विशेष रूप से नष्ट हो जाता है । निश्चय से प्राणियों के व्यवहार शास्त्र राजा के अधीन हैं। प्राणियों के पुण्य व पाप के कारण तथा चार वर्णों ( ब्राह्मणादि ) व चार आश्रमों ( ब्रह्मचारी आदि ) के आचरण व मर्यादाएँ भी राजाधीन प्रवृत्त होती है। वे राजालोग काम, क्रोष
१. जात्यलंकारः।