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प्रथम शत्रुंजयतीर्थ का स्मरण करे पश्चात् आहार त्यागके निमित्त नोकारसी, पोरिसी, पुरिमड्ड, एकाशन, आंबिल, छड, अट्ठम, दशम ( चार उपवास ), दुबालस ( पांच उपवास ), मासखमण, अर्धमासखमण ( पन्द्रह उपवास ) आदि पच्चखान करे, वह पच्चखानका परिपूर्ण फल पाता है । शत्रुंजयपर्वतके ऊपर पूजा तथा स्नात्र करनेसे मनुष्यको जो पुण्य उपलब्ध होता है, वह पुण्य अन्यतीर्थों में चाहे कितना ही स्वर्ण, भूमि तथा आभूषणका दान देने परभी नहीं प्राप्त हो सकता । कोई प्राणी शत्रुंजयपर्वत पर धूप खेवे तो पन्द्रह उपवासका, कपूरका दीपक करे तो मासखमणका और मुनिराजको योग्य आहार दान करे तो कार्तिकमासमें किये हुए मासखमणका पुण्य प्राप्त करता है । जिस प्रकार तालाब, सरोवर, नदियां आदि जलके सामान्यस्थान तथा समुद्र जलनिधि कहलाता है उसीभांति अन्य तो तीर्थ हैं किन्तु यह शत्रुंजय महातीर्थ कहलाता है । जिस पुरुषने शत्रुंजयकी यात्रा करके अपने कर्त्तव्यका पालन नहीं किया उसका मनुष्यभत्र, जीवन, धन, कुटुम्ब आदि सब व्यर्थ हैं । जिसने शत्रुंजय तीर्थको वन्दना नहीं की उसको मनुष्यभव मिलने पर भी न मिलने के समान है, एवं जीवित होते हुए भी उसे मृतक तुल्य समझना चाहिये, तथा वह बहुत ज्ञानी होने पर भी अज्ञानी सदृश्य है । जब कि दान, शील, तप तथा तीव्र धर्म क्रियाएं करना कठिन हैं तो सहज ही में होने