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उज्ज्वल, उज्ज्वल रंग वाला, -ध्वजः श्वेत-ध्वजा । मिवात्मानं समर्थये--श० ७, 2. समर्थन करना, सहाबाला, हनुमान् ।
गता करना, प्रमाणद्वारा सिद्ध करना-उक्तमेबार्थमुअर्णः [ऋ+न] 1. सागवान का वृक्ष 2. (वर्णमाला का) दाहरणेन समर्थयति, समप्रि-संप्र—याचना करना, एक अक्षर।
प्रार्थना करना आदि। अर्णवः [अर्णासि सन्ति यस्मिन् --अर्णस् + व, सलोपः।
अर्थः [ +थन् ] 1. आशय, प्रयोजन, लक्ष्य, उद्देश्य, (फेनयुक्त) समुद्र, सागर (आलं. भी) शोक' शोक
अभिलाष, इच्छा--जाताओं ज्ञानसंबन्धः श्रोतुं श्रोता का समुद्र, इसी प्रकार चिंता, जन जनसमुद्र, संसारा
प्रवर्तते, सिद्ध परिपंथी-मद्रा० ५, समास के उत्तर गंवलंघन-भर्तृ० ३.१० । सम०--अन्तः सागर की
पद के रूप में प्रायः इसी अर्थ में प्रयुक्त होता तथा सीमा,-उद्धवः चन्द्रमा (-वा) लक्ष्मी, (-वम)
निम्नांकित अर्थों में अनुदित किया जाता है :---'के अमृत,-पोतः, ----यानम् किश्ती या जहाज,-मंदिर:
लिए' के निमित्त' 'की खातिर' के कारण' 'के बदले 1. सागर वासी वरुण, जलों का स्वामी 2. विष्णु ।
में'; संज्ञाओं को विशेषित करने के लिए विशेषण के अर्णस् (नपुं०) [ऋ+असुन नुट् च] जल । सम०-दः ।
रूप में भी प्रयुक्त होता है.---सन्तानार्थाय विधये --- - बादल,--भवः शंख ।
रघु० ११३४ तां देवतापित्रतिथिक्रियार्था (धेनम ) अर्णस्वत् (वि.) [अर्णस्+मतुप] बहुत अधिक पानी
२।१६, द्विजार्था यवाग: सिद्धा, यज्ञार्थात्कर्मणोरखने वाला, (पुं०) सागर ।
ऽन्यत्र..-भग०३।९; क्रिया विशेषण के रूप में भी यह अर्तनम् [ऋत्+ ल्युट] निन्दा, फटकार, अपशब्द या गाली।
इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है यथा---अर्थम्, अर्थ या अतिः (स्त्री०) अर्द--क्तिन] 1. पीड़ा शोक, दुःख - अर्थाय; किमर्थम-किस प्रयोजन के लिए, वेलोपशिरोऽतिः सिर-दर्द 2. धनुष का किनारा ।
लक्षणार्थम् --श० ४, तद्दर्शनादभूच्छम्भोभूयान्दारार्थअतिका [ऋत्=ण्बुल्] बड़ी बहन (नाट्य साहित्य में) ।
मादर:-कू० ६।१३, गवार्थे ब्राह्मणार्थे च---पंच. अर्थ (चु० आ०) [अर्थयते, अथित] 1. प्रार्थना करना, ११४२०, मदर्थे त्यक्तजीविता:-भग० १२९, प्रत्या
याचना करना, गिड़गिड़ाना, मांगना, अनुरोध करना, ख्याता मया तत्र नलस्यार्थाय देवता:--नल० १३।१९, दीन भाव से मांगना (द्विकर्मक)-त्वामिममर्थमर्थयते-- ऋतुपर्णस्य चार्थाय-२३।९; 2. कारण, प्रयोजन, दश० ७१, तमभिक्रम्य सर्वेऽद्य वयं चार्थामहे वसु - हेत, साधन अलुप्तश्च मनेः क्रियार्थ:---रघु० २।५५, महा०, प्रहस्तमर्थयांचके योद्धम् भट्टि० १४।९९, 2. साधन या हेतु 3. अभिप्राय, तात्पर्य, सार्थकता, प्राप्त करने का प्रयत्न करना, चाहना, इच्छा करना, आशय -अर्थ तीन प्रकार का है :-वाच्य ( अभिअभि--मांगना, गिड़गिड़ाना, प्रार्थना करना-इम व्यक्त), लक्ष्य (संकेतित या गौण ) और व्यंग्य सारङ्ग प्रियाप्रवृत्तिनिमित्तमभ्यर्थये---विक्रम० ४, (ध्वनित)-तददोषौ शब्दाथों-काव्य० १, अर्थो अवकाश किलोदवान् रामायाभ्यथितो ददौ--रघु० वाच्यश्च लक्ष्यश्च व्यङग्यश्चेति त्रिधामतः—सा० द. ४।३८, अभिप्र--1. मांगना, प्रार्थना करना 2. चाहना, २, 4. वस्तु या विषय, पदार्थ, सारांश.अर्थों हि प्र---1. मांगना, प्रार्थना करना, याचना, प्रार्थना कन्या परकीय एव-श० ४।२१, जो ज्ञानेन्द्रियों के -तेन भवन्तं प्रार्थयते-१० २, 2. चाहना, आवश्यकता द्वारा जाना जा सके, ज्ञानेन्द्रिय की वस्तु; इंद्रिय - होना, इच्छा करना, प्रबल अभिलाष रखना,--अहो हि० १११४६, कु० ७७१ इन्द्रियेभ्यः पराह्यर्था अर्थेविघ्नवत्यः प्राथितार्थसिद्धयः--श० ३, स्वर्गति प्रार्थ- भ्यश्च परं मन:-कठ. (ज्ञानेन्द्रियों के विषय पाँच यन्ते -भग. ९।२०, भट्टि० ७१४८, रघु० ७५०, हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द) 5. (क) ६४, 3. ढूंढ़ना, तलाश करना, खोज करना-प्रार्थ- मामला, व्यापार, बात, कार्य,-प्राक् प्रतिपन्नोऽयमोंयध्वं तथा सीताम्-भट्टि० ७१४८, 4. आक्रमण ऽङ्गराजाय-वेणी० ३, अर्थोऽयमर्थान्तरभाव्य एवकरना, टूट पड़ना-असौ अश्वानीकेन यवनानां प्रार्थितः कु० ३११८, अर्थोऽर्थानबन्धी --दश, ६७, सङगीतार्थ:
-मालवि०५, दुर्जयो लवणः शली विशल: प्रार्थ्यता- मेघ० ५६, गायन-व्यापार अर्थात् समवेत गान (गायमिति-रघु० १५।५, ९१५६, प्रति -1. (युद्ध के नोपकरण), सन्देशार्थाः ---मेघ० ५, संदेश की बातें लिए) ललकारना, मुकाबला करना, शत्रुवत् व्यवहार अर्थात संदेश (ख) हित, इच्छा (स्वार्थसाधनतत्पर:करना --एते सीताहः संख्ये प्रत्यर्थयत राघवम् – मनु० ४।१९६; द्वयमेवार्थसाधनम् --रघु० १११९, भट्टि० ६।२५, 2. किसी को शत्रु बनाना, सम् - दुरापेऽर्थे ११७२, सर्वार्थचिन्तकः-मनु० ७।१२१, माल1. विश्वास करना, सोचना, खयाल रखना, चिंतन विकायां न मे कश्चिदर्थः--मालवि० (ग) विषयकरना-समर्थये यत्प्रथम प्रियां प्रति-विक्रम०४१३९, सामग्री, विषय-सूची-त्वामवगतार्थ करिष्यति-मुद्रा० मया न साघु सथितम्--विक्रम० २, अनुपयुक्त- । (मैं आपको विषय-सामग्री से परिचित कराऊँगा),
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