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प्राभार
પૂર
'सरस्वती' के अगले अक मे वह लेख आ गया। उसके दो-एक महीने बाद प्रेमी जी का एक पोस्टकार्ड मिला, जिसमें लिखा था"मान्यवर मुनि महाराज,
'सरस्वती' मे शाकटायनाचार्य पर लिखा हुआ आपका लेख पढ कर मुझे बडी खुशी हुई । आपने बड़े अच्छे प्रमाण खोज निकाले है। कभी 'जनहितपी' में भी कोई लेख भेजने की कृपा करेंगे तो बहुत अनुग्रहीत हूँगा ।"
बस इसी पोस्टकार्ड द्वारा प्रेमीजी से मेरे स्नेह-सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। प्रेमीजी का यह कार्ड मेरे लिए वहुत ही प्रेरणादायक और उत्साहवर्धक सिद्ध हआ। 'सरस्वती' में प्रकाशित उस प्रथम लेम्व के छापने की स्वीकृति की सूचना देने वाला प० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी का पोस्टकार्ड प्राप्त कर जो मुझे अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त हुआ था, उससे कही अधिक प्रानन्द मुझे प्रेमीजी के इस पोस्टकार्ड से मिला। उससे मुझे विगिष्ट स्फूर्ति मिली, क्योकि मेरा आदर्श प्रेमी जो की तरह जैन-इतिहास और साहित्य के बारे में लिखना था। मुझ में आत्मविश्वास पैदा हुआ।
इमके वाद प्रेमीजी के साथ मेरा पत्रव्यवहार प्रारम्भ हुआ। जैन-इतिहास और साहित्य के विषय में परस्पर विचारो का आदान-प्रदान होने लगा और दोनो के बीच काफी स्नेहभाव बढ़ गया।
सन् १९१६ को जून मे श्री कान्तिविजय जी महाराज के साथ पादभ्रमण करता हुआ मै भी वम्बई में चातुर्मास करने के निमित्त आया। जिस दिन गोडी जी के जैनमन्दिर के उपाश्रय में हमने प्रवेश किया उसी दिन दोपहर को दो वजे प्रेमीजी मुझमे मिलने आये और वही उनसे प्रथम वार माक्षात्कार हुआ।
उम वात को आज लगभग तीस वर्ष पूरे होने जा रहे है। इन तीस वर्षों में हम दोनो का पारस्परिक स्नेह सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन बढता ही रहा है। प्रेमीजी मेरे निकट एक अत्यन्त यात्मीय जन जैसे बन गये है। इस सुदीर्घकालीन सम्बन्ध का सक्षिप्त परिचय देना भी यहाँ शक्य नहीं है। मेरे हृदय में प्रेमी जी का क्या स्थान है और मेरे जीवन के कार्य-क्षेत्र में उनका कौन-सा भाग है, यह सव इस लेख से स्वय स्पष्ट हो जाता है। बम्बई ]
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