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भगवती सूत्र - श. १ उ. १ चलमाणे आदि प्रश्न
पदों के व्यञ्जन भिन्न-भिन्न हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है ।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् ने फरमाया है कि 'चलमाणे चलिए' आदि चार पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा एकार्थक हैं, एवं नाना वर्ग वाले व नानाघोष वाले हैं। आगे के पांच पद भिन्नार्थक, भिन्न घोष और भिन्न व्यञ्जन वाले हैं ।
'चलमाणे चलिए' आदि चार पदों का अर्थ उत्पाद पर्याय की अपेक्षा एक है, क्योंकि क्रमयुक्त होते हुए भी ये चारों एक सरीखे काल वाले होते हैं । एक ही अन्तर्मुहूर्त में चलन क्रिया, उदीरणा क्रिया, वेदनाक्रिया और प्रहीण क्रिया भी हो जाती है । इन चारों स्थिति एक ही अन्तर्मुहुर्त है । इस प्रकार तुल्य काल की अपेक्षा से भी ये चार पद एकार्थक हैं । अथवा ये चारों पद एक ही कार्य को उत्पन्न करते हैं, अर्थात् केवलज्ञान को प्रकट करते हैं । इसलिए एक कार्य के कर्त्ता होने से वे एकार्थक कहे जाते हैं ।
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इन नौ पदों में कर्म का विचार किया गया है और कर्म का नाश होने पर दो फल उत्पन्न होते हैं-पहला केवलज्ञान और दूसरा मोक्ष प्राप्ति । पहले के चार पद मिलकर केवलज्ञान को उत्पन्न करते हैं । ये चारों पद आत्मप्रदेशों से कर्मों को हटा देते हैं । कर्मों के हट जाने से क्षय हो जाने से केवलज्ञान प्रकट होता है । केवलज्ञान की उत्पत्ति पक्ष को लेकर ही इन चारों पदों को एकार्थक बतलाया गया है। इनमें पहला पद 'चलमाणे चलिए ' है । वह केवलज्ञान की प्राप्ति में यह काम करता है कि इससे कर्म उदय में आने के लिए चलित होते हैं । कर्म का उदय दो प्रकार से होता है -स्थिति परिपाक से और उदीरणा से । स्थिति परिपाक होने पर कर्म जो अपना फल देता हैं वह उदय कहलाता है । और अध्यवसाय विशेष से या तपस्या आदि क्रियाओं के द्वारा जो कर्म-स्थिति परिपाक से पहले ही उदय में लाये जाते हैं, उसे उदीरणा कहते हैं । दोनों ही जगह उदय तो समान ही है, - किन्तु एक जगह स्थिति का परिपाक होता है और दूसरी जगह नहीं । उपरोक्त दोनों प्रकार से उदय में आये हुए कर्मों के अनुभव को 'वेदन' कहते हैं । जिस कर्म के फल का अनुभव हो गया वह कर्म नष्ट हो जाता है, अर्थात् आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाता है । इसे कर्म का 'प्रहीण' होना कहते हैं ।
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इस प्रकार ये चारों पद कर्मों को आत्म प्रदेशों से हटा देते हैं, तब केवलज्ञान प्रकट होता है । केवलज्ञान के इस उत्पन्न पक्ष को ग्रहण करके ही इन चारों पदों को एकार्थंक कहा है।
किन्हीं आचार्यों का अभिप्राय इस प्रकार है कि ये चारों पद स्थिति बन्ध आदि विशे
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