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FFFFFFFFFFFFEEEEEEEEEEN ॐ रागादि भावों के वशीभूत होकर अयतनाचार रूप प्रमाद अवस्था में, भले ही कोई
जीव जीव मरे या न मरे, हिंसा तो निश्चित रूप से आगे ही दौड़ती है (अर्थात् हिंसा-दोष तो
होता ही है), क्योंकि जीव कषायभाव से युक्त होने के कारण, प्रथम तो अपने आप अपना 卐 घात (आत्मा को कलुषित) तो करता ही है, बाद में भले ही दूसरे जीवों की हिंसा कर सके है 卐या न भी कर सके।
ॐॐॐॐॐ
{59) तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मण्णसि। तुमंसि नाम तं चेवजं अज्जावेयव्वं ति मण्णसि। तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मण्णसि।
(आचा.1/5/5/170) जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही 卐 है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। (अर्थात् दूसरे को मारना या पीड़ित करना 卐 स्वयं को मारना या पीड़ित करना है।)
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O हिंसा से जुड़ी क्रियाएं' : आगग के आलोक में
[कर्म-बन्ध की कारणभूत हिंसात्मक चेष्टा को अथवा दुर्व्यापार-विशेष को 'क्रिया' कहा जाता है। ॐ आगमिक वचनों के परिप्रेक्ष्य में इन क्रियाओं का निरूपण यहां प्रस्तुत है:-]
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{60) कति णं भंते! किरियाओ पण्णत्ताओ?
मंडियपुत्ता! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- काइया अहिगरणिया पाओसिया पारियावणिया पाणातिवातकिरिया।
(व्या. प्र. 3/3/2) [प्र.] भगवन्! क्रियाएं कितनी कही गई हैं?
[उ.] हे मण्डितपुत्र! क्रियाएं पांच कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं- कायिकी 卐 आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया।
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[जैन संस्कृति खण्ड/18
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