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Oहिंसक भाव = आत्मघाती कदम
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{56) कषायवशगः प्राणी हन्ता स्वस्य भवे भवे। संसारवर्धनोऽन्येषां भवेद्वा वधको न वा॥ परं हन्मीति संध्यातं लोहपिण्डमुपाददत् । दहत्यात्मानमेवादौ कषायवशगस्तथा ॥
(ह. पु. 61/102-103) ___ दूसरे का अपकार करने वाला पापी मनुष्य , दूसरे का वध तो एक जन्म में कर पाता ॥ है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म-जन्म में करता है। यह प्राणी दूसरों का वध कर
सके अथवा न कर सके, परन्तु कषाय के वशीभूत हो अपना वध तो भव-भव में करता है 卐 तथा अपने संसार को बढ़ाता है। जिस प्रकार तपाये हुए लोहे के पिण्ड को उठाने वाला ॥ मनुष्य पहले अपने-आपको जलाता है पश्चात् दूसरे को जला पाता है अथवा नहीं भी जला
पाता। उसी प्रकार कषाय के वशीभूत हुआ प्राणी दूसरे का घात करूं- इस विचार के उत्पन्न ।
होते ही, पहले अपने आप का (स्वयं की आत्मा का) घात करता है, बाद में वह दूसरे का 卐 घात कर भी सकता है, या नहीं भी कर सकता है।
{57) स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान्। पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः॥
(ह. पु. 58/129) प्रमादी आत्मा अपनी आत्मा का अपने-आपके द्वारा पहले ही घात कर लेता है, पीछे दूसरे प्राणियों का वध कर भी पाता है और.नहीं भी कर पाता।
{58) व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम्। म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ।। यस्मात्सकषायःसन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनाऽऽत्मानम्। पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥
(पुरु. 4/11/46-47)
अहिंसा-विश्वकोश।17]