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{49) जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे पवुच्चति।
(आचा.1/1/4/33) जो प्रमत्त है, विषयासक्त है, वह निश्चय ही जीवों को दण्ड (पीड़ा) देने वाला 卐होता है।
अयदाचारो समणो छसु वि कायेसु बंधगोत्ति मदो। चरदि यदं यदि णिच्वं कमलं व जलं निरुवलेओ।
(मूला. फलटन संस्क., पंचम अधिकार) प्रमाद-युक्त मुनि षट्काय जीवों का वध करने वाला होने से नित्य बंधक है और जो मुनि यतनाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह, जल में रह कर भी जल में निर्लेप कमल की तरह, कर्मलेप से रहित होता है।
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{51) अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु। समणस्स सव्वकालं हिंसा सातत्तिया त्ति मता ॥
__ (मूला. फलटन संस्क., पंचम अधिकार) जिस साधु की सोने, बैठने, चलने, भोजन करने इत्यादि कार्यों में होने वाली प्रवृत्ति यदि प्रमाद-सहित है, तो उस साधु को हिंसा का पाप सतत लगेगा।
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FO हिंसा के ही विविध रूपः असत्य, चोरी, परिग्रह व अब्रहाचर्य
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जम्हा असच्चवयणादिएहिं दुक्खं परस्स होदित्ति। तप्परिहारों तम्हा सव्वे वि गुणा अहिंसाए॥
(भग. आ. 790) ___ चूंकि असत्य बोलने से, बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण से, मैथुन से, और परिग्रह से 卐 दूसरों को दुःख होता है। इसलिए उन सब का त्याग किया जाता है। अतः सत्य, अचौर्य, 卐
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये सभी अहिंसा के ही गुण (अंगभूत धर्म) हैं।
अहिंसा-विश्वकोश|15]