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{53} हिंसनाब्रह्मचौर्यादि काये कर्माशुभं विदुः। असत्यासभ्यपारुष्यप्रायं वचनगोचरम् ॥
(उपासका. 26/354) हिंसा करना, कुशील सेवन करना, चोरी करना आदि- इन्हें कायसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए। झूठ बोलना, असत्य वचन बोलना और कठोर वचन बोलना आदि ' वचन-सम्बन्धी अशुभ कर्म हैं- ऐसा जानना चाहिए।
(54) मासूयनादि स्यान्मनोव्यापारसंश्रयम्। एतद्विपर्ययाज्ज्ञेयं शुभमेतेषु तत्पुनः॥
(उपासका. 26/355) घमण्ड करना, ईर्ष्या करना, दूसरों की निन्दा करना आदि मनोव्यापार सम्बन्धी अशुभ कर्म हैं। इससे विपरीत कार्य को काय, वचन और मन-सम्बन्धी शुभ कर्म जानना जी चाहिए। अर्थात् हिंसा न करना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना आदि कायिक + शुभ कर्म हैं । सत्य, हित व मित वचन बोलना आदि वचन-सम्बन्धी शुभ कर्म हैं । अर्हन्त ।
आदि की भक्ति करना, तप में रुचि होना, ज्ञान और ज्ञानियों की विनय करना आदि म मानसिक शुभ कर्म हैं।
{55) आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्य-बोधाय॥
___(पुरु. 4/6/42) आत्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणाम के घात होने के कारण, यह सब (असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य व परिग्रह) हिंसा ही हैं। असत्यवचन आदि के भेद तो केवल शिष्यों को समझाने के लिए उदाहरण रूप से कहे गये हैं।
(अर्थात् वास्तव में सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह- ये अहिंसा के ही भेद हैं और असत्य, चोरी आदि 'हिंसा' रूप अधर्म के ही भेद हैं। क्योंकि असत्य आदि के आचरण में आत्मीय शुद्ध स्वरूप का घात (भाव-हिंसा)
होता ही है। आत्मा की स्वाभाविक शुद्ध/ अविकृत परिणति 'अहिंसा' है, और उसकी अशुद्ध/वैभाविक-विकृत CE परिणति 'हिंसा' है। 'असत्य' आदि का उद्भव आत्मा की वैभाविक परिणति- राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि की
पृष्ठभूमि में संभव होता है, अत: हिंसा के वर्णन से ही 'असत्य' आदि का निरूपण हो जाता है, फिर 'हिंसा' से पृथक् - असत्य आदि का निरूपण क्यों किया जाता है? इसका समाधान यह दिया गया है कि शिष्यों को स्पष्ट रूप से तथा 1 विस्तार से 'सत्य' या 'असत्य' आदि के विषय में जानकारी मिल सके, इस दृष्टि से 'सत्य' व असत्य आदि का
पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से निरूपण किया गया है।) EFFEREFERREFFFFFFEREST
[जैन संस्कृति खण्ड/16