________________
*$$$$$$555555555555
卐
事
编卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 (45)
जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स ।
सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥
जो तनावान् साधक आन्तरिक विशुद्धि से युक्त है, और आगमविधि के अनुसार
आचरण करता है, उसके द्वारा होने वाली विराधना (हिंसा) भी कर्मनिर्जरा का कारण है।
(46)
जीवन्तु वा म्रियन्तां वा प्राणिनोऽमी स्वकर्मतः । स्वं विशुद्धं मनो हिंसन् हिंसकः पापभाग्भवेत् ॥ शुद्धमार्ग मतोद्योगः शुद्धचेतोवचो वपुः । शुद्धान्तरात्मसंपन्नो हिंसकोऽपि न हिंसकः ॥
( ओघ. नि. 759 )
( उपासका 21/250-251)
ये प्राणी अपने कर्म के उदय से जीवें या मरें, किन्तु अपने विशुद्ध मन की हिंसा 馬
करने वाला (अर्थात् मन में कलुषता / मलिनता रखने वाला) हिंसक है और इसलिए वह पाप
का भागी है। जो शुद्ध मार्ग में प्रयत्नशील है, जिसका मन, वचन, और शरीर शुद्ध है, तथा
जिसकी अन्तरात्मा भी शुद्ध है, वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं है।
(47)
विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा ।
तत्थ वि अज्झत्थसमा, संजायति णिज्जरा ण चयो ।।
अप्रमत्त संयमी (जागृत साधक) चाहे जानते हुए (अपवाद स्थिति में ) हिंसा करे
(बृह. भा. 3939)
या अनजाने में, उसे अन्तरंग शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बन्ध नहीं ।
(48)
प्रमत्तो हिंसको हिंस्या द्रव्यभावस्वभावकाः । प्राणास्तद्विच्छिदा हिंसा तत्फलं पापसञ्चयः ॥
编卐
[ जैन संस्कृति खण्ड / 14
卐卐卐卐卐卐卐卐
प्रमाद से युक्त आत्मा हिंसक है । द्रव्यात्मक अर्थात् पुद्गल की पर्यायरूप और
(सा. ध. 4/21 )
भावात्मक अर्थात् चेतन का परिणामरूप प्राण हिंस्य है । उन द्रव्यभावरूप प्राणों का वियोग
करना हिंसा है और उस हिंसा का फल है पापसंचय अर्थात् दुष्कर्म का बन्ध ।
。$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$