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EFENEFFFFFFFFFFFFFFF F a से उन सब का हिंसक होता है। परन्तु जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, वह प्रमत्त उनका भी हिंसक ही है; क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन हिंसावृत्ति के कारण सावद्य है, पापात्मा है।
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प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा (तत्त्वार्थसूत्र- 7/13)।
(टीका-) प्रमादः सकषायत्वं तद्वान् आत्मपरिणामः प्रमत्तः। प्रमत्तस्य योगः प्रमत्तयोगः। तस्मात् प्रमत्तयोगाद् इन्द्रियादयो दश प्राणाः, तेषां यथासम्भवं व्यपरोपणं * वियोगकरणं 'हिंसा' इत्यभिधीयते।सा प्राणिनो दुःखहेतुत्वाद् अधर्महेतुः। प्रमत्तयोगात् ॥ ॐ इति विशेषणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाधर्माय इति ज्ञापनार्थम्।।
(सर्वा. 7/13/687) (सूत्र) प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना 'हिंसा' होती है। __ (टीका-) प्रमाद यानी कषाय-सहित अवस्था। इस अवस्था में आत्मा की जो परिणति होती है वह 'प्रमत्त स्थिति' कहलाती है। उसका योग है- प्रमत्तयोग । इस प्रमत्तयोग
से इन्द्रिय आदि दश प्राणों का यथासम्भव वियोग करना 'हिंसा' है। चूंकि इससे प्राणियों को 卐 दुःख होता है, अत: हिंसा अधर्म का कारण है। केवल प्राणों का वियोग करना मात्र 'हिंसा'
नहीं है-ऐसा सूचित करने के लिए 'प्रमत्तयोग से' ऐसा विशेषण 'उपर्युक्त हिंसा- लक्षण' में दिया गया है।
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। सति पाणातिवाए अप्पमत्तो भवति, एवं असति पाणातिवाए पमत्तताए वहगो भवति।
___ (नि. चू. 92) प्राणातिपात होने पर भी, अप्रमत्त साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है।
{44) युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि। न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥
(पुरु. 4/9/45) योग्य-प्रयत्न/सावधानी पूर्वक आचरण करने वाले सन्त पुरुष के यदि रागादि भावों की का अभाव है तो प्राणघात-मात्र से हिंसा कभी भी नहीं होती है। (अर्थात् वह हिंसक नहीं है माना जाता है।) FFFFFFFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश/13]
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