Book Title: Sitaram Chaupai
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान भारती प्रकाशन कविवर समयसुन्दर कृत सीताराम चौपाई सम्पादकअगरचन्द नाहटा मॅवरलाल नाहटा A परश . ज्ञानी U PI स्टीक्ष्य माइल राजा स्यानी . . शिसव बीकानेर प्रकाशक : सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर प्रथम संस्करण ] सं० २०१६ मूल्य १) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक :लालचन्द कोठारी सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट वीकानेर मुद्रक सुराना प्रिण्टिग वर्क्स, ४०२, अपर चितपुर रोड, __ कलकत्ता-७. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काजकीय श्री सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ में बीकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री के० एम० पणिक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी वहादुर द्वारा संस्कृत, हिन्दी एवं विशेषतः राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी। भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानो एवं भापाशास्त्रियो का सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य हमे प्रारभ से ही मिलता रहा है । संस्था द्वारा विगत १६ वर्षों से बीकानेर मे विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियां चलाई जा रही हैं, जिनमे से निम्न प्रमुख हैं१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश , इस संबंध में विभिन्न स्रोतो से सस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दो का संकलन कर चुकी है। इसका सम्पादन आधुनिक कोशो के ढंग पर, लवे समय से प्रारभ कर दिया गया है और अब-तक लगभग तीस हजार शब्द सम्पादित हो चुके हैं । कोश मे शब्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उसके अर्थ, और उदाहरण आदि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाए दी गई हैं। यह एक अत्यत, विशाल . योजना है, जिसकी सतोषजनक क्रियान्विति- के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की, आवश्यकता है । आशा है राजस्थान सरकार की ओर मे, प्रार्थित द्रव्य-साहाय्य उपलब्ध होते ही निकट भविष्य में इसका प्रकाशन प्रारंभ करना सभव हो सकेगा । २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश- राजस्थानी भाषा अपने विशाल शब्द भडार के साथ मुहावरो से भी समृद है। अनुमानत पचास हजार से भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग मे लाये जाते हैं। हमने लगभग दस हजार मुहावरो का, हिन्दी मे अर्थ और राजस्थानी मे उदाहरणों सहित प्रयोग देकर सपादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का प्रवंच किया जा रहा है.। यह भी प्रचुर द्रव्य और श्रम-साध्य कार्य है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] यदि हम यह विशाल संग्रह साहित्य-जगत को दे सके तो यह सस्या के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दी जगत के लिए भी एक गौरव की बात होगी। ३ आधुनिकराजस्थानीकाशन रचनओं कान इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है१. कळायण, ऋतु काव्य । ले० श्री नानूराम संस्कर्ता २ आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले० श्री श्रीलाल जोशी । ३ बरस गाठ, मौलिक कहानी सग्रह । ले० श्री मुरलीधर व्यास । 'राजस्थान-भारती' मे भो आधुनिक राजस्थानी रचनाम्रो का एक अलग स्तम्भ है, जिसमे भी राजस्थानी कविताये, कहानिया और रेखाचित्र आदि छपते रहते हैं। ४ 'राजस्थान-भारती' का प्रकाशन इस विख्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है। गत १४ वर्षों से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानो ने मुक्त कठ से प्रशसा की है । बहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एव अन्य कठिनाइयो के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन सम्भव नहीं हो सका है। इसका भाग ५ अङ्क ३-४ 'डा. लुइजि पिनो तैस्सितोरी विशेषांक' बहुत ही महत्वपूर्ण एव उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है । यह अङ्क एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य-सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है । पत्रिका का अगला ७वां भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है । इसका अङ्क १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड का सचित्र और वृहत् विशेषाक है । अपने ढग का यह एक ही प्रयल है । पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के सम्बन्ध मे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन मे भारत एवं विदेशो से लगभग ८०' पत्र-पत्रिकाएं हमे प्राप्त होती हैं। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशो मे भी इसकी मांग है व इसके ग्राहक हैं। शोधकर्तायो के लिये 'राजस्थान भारती' अनिवार्यत: सग्रहणीय शोधपत्रिका है । इसमे राजस्थानी भाषा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखो के अतिरिक्त संस्था के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्रीनरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचन्द नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसधान, सम्पादन एवं प्रकाशन हमारी माहित्य-निधि को प्राचीन, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियो को सुरक्षित रखने एव सर्वसुलभ कराने के लिये सुसम्पादित एव शुद्ध रूप मे मुद्रित करवा कर उचित मूल्य मे वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है। सस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रंथो का अनुसघान और प्रकाशन सस्था के सदस्यो की ओर से निरतर होता रहा है जिसका सक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है६. पृथ्वीराज रासो पृथ्वीराज रासो के कई सस्करण प्रकाश मे लाये गये है और उनमे से लघुतम सस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अश 'राजस्थान भारती' मे प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध सस्करण और उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान-भारती मे प्रकाशित हुए हैं। ७. राजस्थान के अज्ञात कवि जान (न्यामतखा) की ७५ रचनाओ की खोज की गई। जिसकी सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान-भारती' के प्रथम अक मे प्रकाशित हुई है । उसका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक.काव्य 'क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है। ८. राजस्थान के जैन सस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निबघ राजस्थान भारती में प्रकाशित किया जा चुका है। ६. मारवाड क्षेत्र के ५०० लोकगीतो का सग्रह किया जा चुका है। बीकानेर एव जैसलमेर क्षेत्र के सैकडो लोकगीत, घूमर के लोकगीत, वाल लोकगीत, लोरिया और लगभग ७०० लोक कथाएँ सग्रहीत की गई हैं। राजस्थानी कहावतो के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं । जीणमाता के गीत, पाबूजी के पवाडे और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम ‘राजस्थान-भारनी' मे प्रकाशित किए गए हैं। १० वीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखो का विशाल सग्रह 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप मे प्रकाशित हो चुका है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] ११. जसवत उद्योत, मुहता नैणसी री ख्यात और अनोखी पान जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रथो का सम्पादन एव प्रकाशन हो चुका है। १२ जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविवर उदयचंद भडारी की ४० रचनाओ का अनुसंधान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी की काव्य-सावना के सवध मे भी सबसे प्रथम 'राजस्थान-भारती' में लेख प्रकाशित हुआ है । १३. जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखो और 'भट्टि वश प्रशस्ति' आदि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित ग्रथ खोज-यात्रा करके प्राप्त किये गये हैं। १४. बीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानसारजी के ग्रथो का अनुसघान किया गया और ज्ञानसार ग्रथावली के नाम से एक ग्रय भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दर की ५६३ लघु रचनायो का सग्रह प्रकाशित किया गया है । १५. इसके अतिरिक्त सस्या द्वारा- ., (१). डा० लुइजि पिनो तैस्सितोरी, समयसुन्दर, पृथ्वीराज, और लोकमान्य तिलक, आदि साहित्य-सेविवो के निर्वाण दिवस और जयन्तिया मनाई जाती हैं। (२) साप्ताहिक साहित्यिक गोष्ठियो का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमे अनेको महत्वपूर्ण निवध, लेख, कविताएँ और कहानिया आदि पढी जाती हैं, जिससे अनेक विध नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है । विचार विमर्श के लिये गोष्ठियो तथा भाषणमालारो आदि का भी समय-समय पर आयोजन किया जाता रहा है। १६. वाहर से ख्यातिप्राप्त विद्वानो को बुलाकर उनके भापण करवाने का आयोजन भी किया जाता है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, डा० कैलाशनाथ काटजू, राय श्री कृष्णदास, डा० जी० रामचन्द्रन्, डा० सत्यप्रकाश, डा० डब्लू० एलेन, डा० सुनीतिकुमार चाटुा, डा० तिवेरिप्रो-तिवेरी आदि अनेक अन्तर्राष्ट्रीय स्याति प्राप्त विद्वानो के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भापण हो चुके हैं । गत दो वर्षों से महाकवि पृथ्वीराज राठोड आसन की स्थापना की गई है। दोनो वर्षों के आसन अधिवेशनो के अभिभापक क्रमशः राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, बिसाऊ और पं० श्रीलालजी मिश्र एम० ए०, हूंडलोद, थे। - इस प्रकार संस्था अपने १६ वर्षों के जीवन-काल मे, सस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरंतर सेवा करती रही है। आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह संभव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लड़खड़ा कर गिरते पडते इसके कार्यकर्तामो ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एवं प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की चाधामो के वावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरंतर चलता रहे। यह ठीक है कि सस्था के पास अपना निजी भवन नही है, न अच्छा संदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्य को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन ही हैं, परन्तु साधनो के अभाव मे भी सस्था के कार्यकर्ताओ ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश मे आने पर सस्था के गौरव को निश्चय ही बढा सकने वाली होगी। राजस्थानी-साहित्य-भडार अत्यन्त विशाल है। अब तक इसका अत्यल्प अंश ही प्रकाश मे पाया है। प्राचीन भारतीय वाङमय के अलभ्य, एव अनर्घ रत्नो को प्रकाशित करके विद्वज्जनो और साहित्यिको के समक्ष प्रस्तुत करना एव उन्हे सुगमता से प्राप्त कराना संस्था का लक्ष्य रहा है। हम अपनी इस लक्ष्य पूर्ति की ओर धीरे-धीरे किन्तु दृढता के साथ अग्रसर हो रहे हैं । - यद्यपि अब तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तको के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना मी अभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना सभव नहीं हो सका। हर्ष की बात है कि , भारत सरकार के वैज्ञानिक सशोध एव सास्कृतिक कार्यक्रम मत्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी माधुनिक भारतीय भापायो के विकास की योजना के अंतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये रु० १५०००) इस मद मे राजस्थान सरकार को दिये तथा राजस्थान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर कुल रु० ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु इस संस्था को इस वित्तीय वर्ष में प्रदान की गई है। जिससे इस वर्ष निम्नोक्त ३१ पुस्तको का प्रकाशन किया जा रहा है ।। १. राजस्थानी व्याकरण श्री नरोत्तमदास स्वामी २. राजस्थानी गद्य का विकास (शोध प्रवव) । डा० शिवस्वरूप शर्मा अचल ३. अचलदास खीची री वचनिका श्री नरोत्तमदास स्वामी ४. हमीराय पु-~ श्री भवरलाल नाहटा ५. पद्मिनी चरित्र चौपई " " " ६. दलपत विलास श्री रावत सारस्वत ७. डिंगल गीत " " , ८. पवार वश दर्पण डा० दशरथ शर्मा ६. पृथ्वीराज राठोड़ ग्रंथावली श्री नरोत्तमदास स्वामी और श्री बद्रीप्रसाद साकरिया १०. हरिरस श्री बद्रीप्रसाद साकरिया ११. पीरदान लालस ग्रथावली श्री अगरचन्द नाहटा १२. महादेव पार्वती वैलि श्री रावत सारस्वत १३. सीताराम चौपई श्री अगरचन्द नाहटा १४. जैन रासादि संग्रह श्री अगरचन्द नाहटा और डा० हरिवल्लभ भायारणी १५. सदयवत्स वीर प्रवन्ध प्रो० मंजुलाल मजूमदार १६. निनराजसूरि कृतिकुसुमाजलि श्री भंवरलाल नाहटा १७. विनयचन्द कृतिकुसुमाजलि " " " १८. कविवर धर्मवर्टन ग्रंथावली श्री अगरचन्द नाहटा १६. राजस्थान रा दूहा-- श्री नरोत्तमदास स्वामी २०. वीर रस रा दूहा-~ " २१. राजस्थान के नीति दोहा-- श्री मोहनलाल पुरोहित २२. राजस्थान व्रत कथाएं२३. राजन्यानी प्रेम कथाएं " " " २४. चंदायन-- श्री रावत सारस्वत Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] २५ भड्डली श्री अगरचन्द नाहटा म:विनय सागर २६. जिनहपं ग्रंयावली श्री अगरचन्द नाहटा २७. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रथो का विवरण । २८. दम्पति विनोद , २६. हीयाली-राजस्थान का वुद्धिवर्धक साहित्य ३०. समयसुन्दर रासाय श्री भवरलाल नाहटा ३१ दुरसा आढा ग्रंथावली श्री बदरीप्रसाद साकरिया - जैसलमेर ऐतिहासिक साधन संग्रह (संपा० डा० दशरथ शर्मा), ईशरदास ग्रथावली (संपा० वदरीप्रसाद साकरिया), रामरासो (प्रो० गोवर्द्धन शर्मा ), राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचन्द नाहटा), नागदमण (सपा० बदरीप्रसाद साकरिया), मुहावरा कोश (मुरलीघर व्यास) आदि ग्रथो का सपादन हो चुका है परन्तु अर्याभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नही हो रहा है । ___ हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एव गुरुता को लक्ष्य में रखते हुए अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हमे अवश्य प्राप्त हो सकेगी जिससे उपरोक्त संपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रथो का प्रकाशन सम्भव हो सकेगा। ___ इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षाविकास सचिवालय के प्रामारी हैं, जिन्होंने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मंजूर की। राजस्थान के मुख्य मन्त्री माननीय मोहनलालजी सुखाडिया, जो सौभाग्य से शिक्षा मन्त्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एवं पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेष्ट हैं, का भी इस सहायता के प्राप्त कराने मे पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं। राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हम आभार प्रगट करते हैं, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर हमारा उत्साहवर्दन किया, जिससे हम इस वृहद् कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ हो सके । सस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतने थाडे समय मे इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थो का सपादन करके सस्था के प्रकाशन-कार्य मे जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम सभी ग्रन्य सम्पादको व लेखको के अत्यत आभारी हैं। अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर सग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन सग्रह कलकत्ता, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसंधान समिति जयपुर, ओरियटल इन्स्टीट्य ट बडोदा, भाडारकर रिसर्च इन्स्टीट्य ट पूना, । खरतरगच्छ वृहद् ज्ञान-भडार वीकानेर, मोतीचद खजान्ची मंथालय वोकानेर, खरतर आचार्य ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी बंबई, आत्माराम जैन ज्ञानभडार बडोदा, मुनि पुण्यविजयजी, मुनि रमणिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशकर देराश्री, प० हरदत्तजी गोविंद व्यास जैसलमेर आदि अनेक सस्याओ और व्यक्तियो से हस्तलिखित प्रतिया प्राप्त होने से ही उपरोक्त ग्रन्थो का सपादन सभव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। ___ ऐसे प्राचीन ग्रन्थो का सम्पादन श्रमसाध्य है एवं पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है। हमने अल्प समय मे ही इतने ग्रन्थ प्रकाशित करने का प्रयत्न किया इसलिये त्रुटियो का रह जाना स्वाभाविक है । गच्छत: स्खलनक्वपि भवय्येव प्रमाहतः, हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साघवः । ___ आशा है विद्वद्वन्द हमारे इन प्रकाशनो का अवलोकन करके साहित्य को रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावो द्वारा हमें लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुन. मा भारती के चरण कमलो में विनम्रतापूर्वक अपनी पुष्पांजलि समर्पित करने के हेतु पुन. उपस्थित होने का साहस बटोर सकेंगे। निवेदक बीकानेर, लालचन्द कोठारी मार्गशीर्ष शुक्ला १५ . प्रधानमंत्री स० २०१७ सादूल राजस्थानी-इन्स्टीट्यूट दिसम्बर ३,१६६०. बीकानेर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय महोपाध्याय कविवर समयसुन्दर सतरहवीं शती के महान् विद्वान और सुकवि थे। प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी, गुजरातो और हिन्दी मे निर्मित आपका साहित्य बहुत विशाल है। इधर कुछ वर्षों में उसके अनुसन्धान व प्रकाशन का प्रयत्न भी अच्छे रूप मे हुआ है । मौलिक ग्रन्थों के साथ साथ इन्होने बहुत से महत्वपूर्ण एवं विविध विषयक ग्रन्थो पर टीकाएं भी रची है। राजस्थानी भाषा मे रचित इनकी रास चौपाई, स्तवन, सज्झायादि अनेकों पद्यबद्ध रचनाएँ तो है ही पर साथ ही षडावश्यक वालावबोध जैसी गद्य रचनाएँ भी प्राप्त हैं। आपकी पद्य रचनाओं मे सीताराम चौपाई सबसे बड़ो रचना है इसका परिमाण ३७०० श्लोक परिमित है। जैन परम्परा को रामकथा को इस काव्य में गुपित किया है। कई वर्षों से इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रकाशन का प्रयत्न चल रहा था और अनूप संस्कृत पुस्तकालय की सादूल ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करने के लिए लगभग १५ वर्ष पूर्व इसकी प्रेसकापी भी वहीं की एक प्रति से करवा ली गई थी पर उक्त ग्रन्थमाला का प्रकाशन स्थगित हो जाने से वह प्रेसकापी योंही पड़ी रही, जिसे अब सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्य ट द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। प्रस्तुत जैन रामायण (काव्य) का अनेक दृष्टियों से महत्व है। इसका मूलाधार प्राकृत भाषा का सीता चरित्र है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया है। जैन राम कथा का सबसे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ख ] पहला ग्रन्थ विमलमूरि का पउमचरियं हिन्दी अनुवाद के साथ प्राकृत ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ का भी उल्लेख प्रस्तुत सीताराम चौ० मे भी किया गया है पर सीताचरित्र-जिसके आधार से इस चौपाई की रचना हुई का प्रकाशन होना भी अत्यावश्यक है। दोनों ग्रन्थ प्राकृत भाषा मे और प्राचीन है पर कथा एव नामों में कहीं-कहीं अन्तर मी है। प्रस्तुत सीताराम चौ० की कथा को सर्व साधारण समझ सके इसलिए उसका संक्षिप्त सार भी ग्रन्थ के प्रारम्भ मे दे दिया गया है। प्रो० फूलसिंह और डा० कन्हेयालाल सहल के प्रस्तुत ग्रन्थ सम्बन्धी प्रकाशित लेखों को इस ग्रन्थ मे देने के साथ साथ राजस्थानी भाषा की रामचरित सम्बन्धी रचनाएँ और कविवर समयसुन्दर का विस्तृत परिचय भी भूमिका में दिया गया है । अन्त से चौपाई में प्रयुक्त देशी-सूची भी दे दी गई है। शब्दकोष देने का विचार था पर ग्रन्थ बड़ा हो जाने से वह विचार स्थगित रखना पड़ा है। यों कथासार दे देने से ग्रन्थ को समझने में कोई कठिनाई नहीं रहेगी। ___ अनूप संस्कृत लाइब्रेरी की जिस प्रति से पहले नकल करवायी थी उसमे लेखन प्रशस्ति नहीं थी। फिर हमारे संग्रह की सं० १७३१ की लिखित प्रति से प्रेसकापी का मिलान किया गया। अन्त मे अनूप संस्कृत लाइब्रेरी मे ही कवि के स्वयं लिखित प्रस्तुत चौपाई की एक और प्रति प्राप्त हुई, सरसरी तौर से उससे भी मिलान कर लिया गया है । एवं स्व० पूरणचन्दजी नाहर के संग्रह की प्रति का भी इसके संपादन में उपयोग किया गया है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ग ] उस तरह अपनी चिरकालीन इच्छा को फलवती होते देखकर हमें वड़ो प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। राजस्थानी शब्दकोष के निर्माण एवं प्रकाशन का प्रयत्न कई स्थानों मे काफी वर्षों से हो रहा है पर उसमे राजस्थानी जैन रचनाओं के शब्दो का उपयोग जहाँ तक नहीं होगा, वहाँ तक वह कार्य अधूरा ही रहेगा इसलिए ऐसे ग्रन्थों का प्रकाशन बहुत ही आवश्यक है। नेतर राजस्थानी राम काव्यो मे चारण कवि माधोदास का राम रासो विशेष महत्व का है। उसे भी इन्स्टीट्य ट से प्रकाशित करने की योजना थी और डॉ० गोवर्द्धन शर्मा को उसके सम्पादन का काम भी साप दिया गया था पर वह समय पर पूरा नहीं हो सका इसलिए उसे प्रकाशित नहीं किया जा सका है। अगली योजना मे इन्स्टीट्य ट को सरकार से प्रकाशन सहायता मिली तो उसे भी पाठकों की सेवा मे प्रस्तुत किया जायगा। प्रस्तुत ग्रंथ सम्पादन में जिन संग्रहालयों की प्रतियों का व जिन विद्वानो के लेखों का उपयोग किया गया है उनके प्रति आभार प्रदर्शित करना हमारा कर्तव्य समझते हैं। अगरचन्द नाहटा भवरलाल नाहटा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका (१) प्रकाशकीय (२) राजस्थानी का एक रामचरित काव्य - प्रो० फूलसिंह हिमांशु (४) सीताराम चरित्र सार (५) सीताराम चौ० मे प्रयुक्त (६) सीताराम चौपई (३) भूमिका (१) राजस्थानी भाषा मे रामचरित सम्बन्धी रचनाएँ १३ (२) कविवर समय सुन्दर १-८ १-१२ प्रथम खण्ड ढाल ७ द्वितीय खण्ड ढाल ७ तृतीय खण्ड डाल ७ चतुर्थखण्ड ढाल ७ पंचम खण्ड ढाल ७ छठा खण्ड ढाल ७ सातव खण्ड ढाल ७ आठव खण्ड ढाल ७ नवाँ खण्ड ढाल ७ (७) सीताराम चौ० मे प्रयुक्त देशी सूची (८) शुद्धि पत्रक ३१-६० १ - ७८ राजस्थानी कहावता - डा० कन्हैयालाल सहल १-४ १-२२ २३–४३ ४३-६२ ६५-८५ ८५-१०० १२०-१६६ १६६-१६७ १६८-२३५ २३६–२०६ २८०-२८५ २०६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी का एक रामचरित काव्य समयसुंदर रचित सीताराम चौपाई (प्रो० फूलसिह "हिमांशु") कविवर समयसुंदर का यह राजस्थानी रामकाव्य सं० १६७७ से ८३ के बीच रचा गया है इसका कथासार इस प्रकार है : राजा श्रेणिक के पूछने पर गौतम मुनि उन्हें कथा कहते हैंवेगवती एवं मधुपिंगल के जीव रानी वैदेही के गभ से क्रमशः सीता और भामंडल के नाम से उत्पन्न हुये। अयोध्या के राजा दसरथ की रानी अपराजिता से पद्म (राम ) सुमित्रा से लक्ष्मण तथा कैकेयी से भरत और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। राम एवं सीता का परिणय । राम को राज्य दे दशरथ द्वारा जिन दीक्षा ग्रहण के निश्चय पर अपने स्वयम्बर में राजा दशरथ का कौशल से रथ हाँकने पर कैकेयी द्वारा प्राप्त वर को भरत के राज्यतिलक के रूप में मांगना। राम लक्ष्मण का सीता सहित वनवास गमन । दशरथ द्वारा दीक्षा ग्रहण । कैकेयी द्वारा ग्लानि अनुभव । भरत को भेज राम को लौटाने का प्रयत्न । कैकेयी का भी राम के पास प्रायश्चित करने हेतु पहुँचना। किन्तु राम द्वारा समझा कर वहीं भरत का राजतिलक । बनवास - काल में कई कथा-प्रसंग। लक्ष्मण द्वारा कई विवाह। नन्दावर्त के राजा अतिवीर्य और भरत के बीच होने वाले युद्ध में राम-लक्ष्मण द्वारा नट वेश बना, अतिवीर्य को बन्दी बनाना दण्ड Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] कारण्य में जटायु-मिलाप । किसी नदी तट पर स्थायी निवास । लक्ष्मण द्वारा शम्चुक वध । रावण की वहिन चन्द्रनखा (शम्चुक की माता ) द्वारा पुत्र शोक भूल कर राम-लक्ष्मण से प्रणय निवेदन । खरदूषण (चन्द्रनखा का पति ) लक्ष्मण के बीच युद्ध । लक्ष्मण द्वारा विपत्ति का निर्धारित सकेत 'सिंहनाद, रावण द्वारा छल से कर दिये . जाने पर राम की अनुपस्थित में सीता-हरण । जटायु युद्ध । नकली सुग्रीव 'सहसगति' का राम द्वारा वध | राम सुग्रीव मैत्री। हनुमान द्वारा सीता के पास लंका पहुंच राम का सन्देश लेना व लंका उजाड़ना । लक्ष्मण द्वारा कोटिशिला उठाना, नारायण के अवतार की पुष्टि । राम रावण युद्ध मे लक्ष्मण की मूर्छा का विशल्या द्वारा मोचन। इसी बीच रावण द्वारा वहुरूपणी विद्या सिद्ध करना । रावण के चक्र से ही लक्ष्मण द्वारा रावण वध । मन्दोदरी, चन्द्रनखा आदि का जिन दीक्षा ग्रहण करना । विभीषण का राज्याभिषेक । अयोध्याआगमन भरत द्वारा दीक्षा ग्रहण। ___ सीता के सम्बन्ध मे लोकापवाद को सुन कर राम द्वारा गर्भवती सीता को वनवास । वजजंघ द्वारा वहिन मानकर सीता का स्वागत । लव कुश का जन्म | दोनों का विवाह, दोनों का अयोध्या पर आक्रमण। पिता पुत्रों का मिलन । सीता द्वारा अग्निपरीक्षा में सफल होने पर जिन दीक्षा ग्रहण । इन्द्र की प्रशंसा पर दो देवों द्वारा राम लक्ष्मण के भ्रात प्रेम की परीक्षा मे लक्ष्मण की मृत्यु । आगे चल कर राम द्वारा दीक्षाग्रहण तथा केवल्य प्राप्त कर मोक्ष गमन । ग्रन्थान्त में ग्रन्थ महिमा एवं कवि परिचय 'सीताराम चउपई की राम कथा संक्षेप मे यही है। राम कथा से जुड़ी हुई और घटनायें भी ग्रन्थ मे Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३] __ वहुत है सम्पूर्ण रचना नौ खण्डों में विभक्त है। जिनका नामकरण कवि ने प्रत्येक खण्ड के अन्त में किया है। ___ महाकाव्य सर्ग वद्ध किया जाता है। यह रचना अनेक खंडों में । लिखी गई है और बहुत बड़ी है। जीवन का सर्वांगीण चित्रण हमें इसमें मिलता है। नायक स्वयं राम है जिनके वीरत्व में धीरत्व में सन्देह का कोई स्थान नहीं। वृत ऐतिहासिक है ही जिसमें पीछे कवि का महदुद्देश्य राम गुणगान स्पष्ट है। छन्द की विविधता, रसों का पूर्ण परिपाक, यह सब इस रचना को प्रबन्ध काव्य की कोटी में ला खड़ा करते हैं। कवि ने स्वय इस ओर सर्गान्त में संकेत कर दिया है-इति श्री सीता राम प्रवन्धे।" इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ एक चरितात्मक प्रवन्ध काव्य सिद्ध होता है जिसमें अनेक का सम्बन्ध सुत्र नायक (राम) की कथा से जोड़ दिया गया है। चौपाई छन्द की अधिकता के साथ-साथ अन्य छन्द भी प्रयुक्त किये गये हैं अतः चौपाई की प्रधानता होने पर भी एवं प्रबन्ध' के पर्याय के रूप में भी 'चउपई' नाम रखा गया है। ग्रन्थ का प्रारम्भ-ग्रन्थ का प्रारम्भ कवि ने परम्परानुसार मंगलाचरण से किया है। स्वस्तिश्री सुख सम्पदा, दायक अरिहंत देव निज गुरुचरण कमल नमु, त्रिण्ह तत्व दातार समरू सरसति सामिनी, एक करूँ अरदास । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भापा-विचार-प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा शुद्ध मध्य युगीन राजस्थानी है। कवि की भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण बीच-बीच में गुजराती शब्दों का बहुल प्रयोग एवं सिंधी, उर्दू, फारमी आदि के शब्द भी स्वभावतः आ गये हैं चलती बोलचाल की भाषा होने के कारण ग्रन्थ अधिक सरस एवं मधुर हो गया है। शब्दों में लय का उन्मेष है, कर्ण कटुता नहीं । उकारान्त एवं इकारान्त शब्दों का बहुल प्रयोग । है यथा-लीघउ, पामउ, काजरउ, साथ, चालइ, सोहर, माथड आदि। विभक्तियां भी लुप्त ही रही है, यथा- लगि, परि. घरे आदि। ___फारसी आदि के विदेशी शब्द भी आ गये ई यथा-फौज, बलिम, दिलगीर। सम्भवतः कवि के सिन्ध प्रवास का यह प्रभाव है। वर्णन के अनुकूल शब्दावली का निर्माण कवि की अपनी विशेपता है। अनुकरण मूलक शब्द द्वारा भयानकता और भी बढ गई है 'पड़तइ मुवन धरा पिण काँपी, सेपनाग सलसलिया लंका लोक सवल खलभलिया, उदधि नीर ऊछलिया। शैली-ऋवि कवि की शैली सरल है। कथा की दीर्घता के कारण सरल, सीधी सादी पद्धति में कवि कथा को कहता चला गया है। हाँ, जहां उसे वर्णन का थोड़ा भी अवकाश मिला है, वहीं बहुत लाघव से कुछेक शब्दों में वर्णन द्वारा चित्र खड़ा किया गया है जो अपने आप में पूर्ण है, आकर्पक है। ___ कहावत एवं मुहावरो के प्रयोग से शैली और भी आकर्षक बन गई है। सीता के प्रति लोकापवाद के चक्रवात के मूल मे कवि ने Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाण३१ [ ५ ] सहज तर्क पद्धति का आश्रय लिया है जिसकी सत्यता में स्वयं राम भी सन्देह न कर सके थे। भूखो भोजन खीर, विण जिम्या छोडइ नही, इम जाणइ सही रे तरस्यो चातक नीर, सुपडित सुभाषित रसियो किम तजइ रे दरिद्र लाधो निधान, किम छोडइ । जाणइ इम वलि नहिं सपजइ रे तिण तु निश्चय जाणि, भौगविनइ ___ मुकी परी सीता रावणइ रे और तब किसीके द्वारा सीता के सौन्दर्य के कारण राम द्वारा उसको रख लेने की बात कही जाती है तो दूसरा तर्क और भी प्रबल हो सम्मुख आता हैं। 'पेटइ को घालइ नही अति वाल्ही छुरी रे लो।' और सीता को वनवास दे दिया गया। 'आपदा पड्या न को. आपणो, रे लाल कुण गिणइ सगपण घणो, रे लाल कहावत एवं मुहावरों की इस तर्क-पद्धति द्वारा कवि स्वाभाविकता का स्पष्ट स्वरूप खड़ा करने में सफल हुआ है जो इनकी शैली का सहज गुण बन गया है। . वर्णन-वर्णनों का वाहुल्य नहीं है। जहाँ कहीं वर्णन किया है, वहां विलकुल नपे तुले शब्दों में ही.कवि एक चित्र खड़ा कर गया है। एक, दो वर्णन देखिये जो कितने स्वाभाविक बन पड़े हैं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सने नगर का वर्णन। 'गाइ भैसि छटी भमइ, धान चून भत्त्या ठाम गोहनी गोरस सूं भरी, फल फूल भऱ्या ठाम मारिग भागा गाडलां, छुट्या पड़या वलद ठामि ठामि दीसइ घणा, पणि नहिं मनुप सबद्द पुत्र जन्मोत्सव वर्णन 'घर वारि वन्नरमाल बाँधी, कुकूना हाथा धरइ मुझ गूढ गरमा गोरडी ए, पुत्र जायउ इम कहइ सहु मिली सूहव गीत गायई, हीयउ हरखइ गहगह।' प्रकृति-वर्णन-प्रकृति वर्णन में कवि ने कहीं रस नहीं लिया है। दण्डकारण्य बन का वर्णन केवल इन्हीं पंक्तियो में समाप्त कर दिया है। "गिरी बहु रयणे भर्यो, नदी ते निरमल नीर वनखड फल फूले भया, इहाँ बहु सुख सरीर ।' भाव व्यंजना--कवि की पैनी दृष्टि सभी रसों पर गई है। वस्तुतः घटनाओ का इतना विस्तृत धरातल मिल जाने पर ही कवि की प्रतिभा खुल कर ग्रन्थ में आधान्त विखर सकी है रसों का परिपाक देखिये कितना स्वभाविक प्रतीत होता है। शृङ्गार-शृङ्गार के दोनों पक्षों संयोग एवं विप्रलम्भ के बहुत ही आकर्षक एवं मार्मिक चित्र सहज रूप से अंकित हो गये हैं। परम्परागत सीता का नख सिख वर्णन तो शृङ्गार का एक संयत रूप लिए हुए है ही, पर गर्भवती सीता का यह चित्र तो अपने आप मे पूर्ण सजीव है, स्वाभाविक है Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] 'वज्रजघ राजा घरे, रहती सीता नारि गर्भ लिंग परगट थयो, पाडुर गाल प्रकारि थणमुख श्यामपणो थयो, गुरु नितंब गति मद नयन सनेहाला थया, मुखि अमृत रसविंद ।, लंका में राम के विरह में राक्षसो से घिरी सीता की अवस्था में कितनी दयनीयता है 'जेहवी कमलनी हिम वली, तेहवी तनु बिछाय आँखे आँसू नाखती, धरती दृष्टी लगाय केस पास छूटइ थकई, डावइ गाल दे हाथ । नीसासा मुख नाखती, दीठी दुख भर साथ।' वियोग की दसों दशाओं का चित्रण हमे ग्रन्थ में मिलता है निर्वासित सीता के गुणों का स्मरण कर राम विलाप करने लग जाते हैं"प्रिय भाषिणी, प्रीतम अनुरागिनी सधउ घणु सुविनीत नाटक गीत विनोद सह मुक तुझ विण नावइ चीत सयने रम्भा विलास गृह काम-काज । दासी माता अविहड़ नेह मंत्रिवी बुद्धि निधान धरित्री क्षमा निधान ___ सकल कला गुण नेह ऐसी निर्दोपिता होते हुए भी बनवास दे देने के कृत्य पर राम को आत्म ग्लानि हो उठती है Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८] घिग-धिग मूढ़ सिरोमणी हुँ थयो दुख तणी महा खाणि दुरजण सोकि तपो दुरवचने हुइ हासी घर हाणि । वात्सल्य-विप्रलंभ का एक मार्मिक प्रसंग देखिये। रानी वैदेही का, पुत्र भामण्डल के हरण पर यह विलाप मात हृदय की घनीभूत वेदना को हमारे अन्तरतम मे उतारता चला गया है।वीररस-राम रावण युद्ध का एक सजीव चित्र । 'सरणाइ वाजइ सिंधूडई, मदन मेरि पणि वाजइ ढोल दमामा एकल घाई, नादइ अम्बर गाजइ सिंहनाद करई रणसूरा, हाक बुंव हुकारा काने सवद पज्यो सुणियइ नहीं, कीधा रज बंधारा बुद्ध माहोमाहि सवलो लागे, तीर सहासडि लागी जोर करीनई दे मारता, सुभटे तरुयारि भागी और भीषण युद्ध के बाद रक्तकी नदी यह गई। 'बहा रुधिर प्रवाह । नू माया हो। माया माणस तिरजच बहुपरी हो ।' भयानक-राम द्वारा धनुभंग होने पर। धरणी धूजी पर्वत काप्या, शेषनाग सलसलिया गल गरजारव कीधर दिग्गज, जलनिधि जल मछलिया अपचर बीहती जइ आलिंग्या, आप आपण भरतार राखि राखि प्रीतम इम कहती, अम्हनइ तुं आधार करुण-लक्ष्मण की मृत्यु पर रानियों का विलाप, शम्बुक-वध पर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] चन्द्रनखा विलाप, रावण की मृत्यु पर मन्दोदरी आदि रानियो का विलाप बहुत ही करुण बन गया। लक्ष्मण की रानियों का यह रुला देनेवाला विलाप घनीभूत वेदना का,एक अतिक्रमण है। पोकार करता हीयो फाटई, हार बोड़इ आपणा आभरण देह थकी उतारइ, मरई आँसू अति घणा और तब इस तरह की अश्रुधारा में कवि निर्वेद की एक धारा और मिला देता है। शान्त रस-लक्ष्मण पर चक्र व्यर्थ जाने पर रावण आत्मग्लानि के साथ संसार की निस्सारता का समर्थन करने लगता है। 'धिग मुम विद्या तेज प्रतापा रावण इण परि करइ पछतापा हा हा ए ससार असारा, बहुविध दुखु तणा भण्डारा हा हा राज रमणी पणि चचल, जौवन उलो जाय नदी जल सोलइ रोग समाकुल देहा, कारमा कुटुम्ब सम्बन्ध सनेहा अलंकार योजना-अलंकारों की ओर कवि का आग्रह नहीं हुआ करता, कविवर समयसुन्दरका भी नहीं है । भाषा और शब्दावली ही ऐसी है कि जब कवि भाव विभोर हो उठता है तो अनुप्रास तथा अलंकार स्वयं खिचे चले जाते हैं। अस्तु, यह अलंकरण बिलकुल स्वाभाविक हुआ है देखिये Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] अनुप्रास(क) “सात क्षेत्र मिलि सामठा, तर सगला सुख होय तिण कारणि कहुँ सातमो, खड सुणो सहु कोय।" (ख) “हिव वीजउ खंड बोलस्यू , विहुँ वाधई बहु प्रेम" (ग) “सीतानी परि सुख लहउ, लाभउ लील विलास ।" उपमा(क) जेहवी कमलनी हिमवली, तेहवी तनु विछाय परम्परागत उपमानों के साथ-साथ नये उपमानों का प्रयोग कवि की सूझ है (ख) झालि पगे पछाडिस्एँ, वस्त्र धोवी धोयइ जेम (ग) मत चालणी सरिखा होज्यो रे उत्प्रेक्षा युद्धभूमी में मरता हुआ रावण ऐसा लगा। जाणे प्रबल पवन करि भागो रावण ताल ज्युं दीसिवा लागो जाणे केतु ग्रह उपरती किंवा त्रुटि पढ्यो ए धरती अतिशयोक्ति (क) हनुमान द्वारा लंका विध्वंस'पड़तइ मुवन धरा पिण कापी शेषनाग सलसलिया लका लोक सवल खलमलिया उदधि नीर ऊछलिया Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] . दृष्टान्त तथा उदाहरण(क) नजरि नजरि बिनो मिली, जिमि साकर सुं दूध मन मन सुं विहुनउ मिल्यउ, दूध पाणी जिम सूध सन्देह (क) के देवी के किन्नरी, के विद्याधर काइ इसी तरह संपूर्ण ग्रन्थ में अलंकारो का समावेश प्रयत्न नहीं, वल्कि स्पष्टतः स्वाभाविक है। छन्द योजना-हमारे आलोच्य ग्रन्थ में अनुष्टुप छन्दों की गणनानुसार कुल ३७०० श्लोक है जिसकी ओर कवि ने स्वयं संकेत किया है त्रिण्ह हजारनइ सातसइ, माजनइ ग्रन्थनो मानो रे सम्पूर्ण ग्रन्थ राजस्थानी लोक गीतों की विभिन्न ढाल रागरागनियो की तर्ज पर अधिकाशतः चौपाई छन्द में लिखा गया है ग्रन्थ में लगभग ५० देशियाँ हैं जिनको प्रत्येक नये पद के प्रारम्भ में कवि ने स्पष्ट कर दिया है एक उदाहण देखिये प्रथम खण्ड की तीसरी ढाल के प्रारम्भ में कवि लिखता है। ढाल त्रीजी सोरठ देस सोहामणउ, साहेलड़ी ए देवा तणउ निवास गय सुकुमालनी, चउढालियानी अथवा सोभागी सुन्दर तुझ बिन घड़ीय न जाय, ए देशी गीत एनी ढाल। * ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण दूहा छन्दमे है और उसके बाद एक ढाल है जिसके बाद पुनः दोहा छन्द प्रयुक्त है। इस तरह ग्रन्थ मे आद्यन्त एक दूहा छन्द के बाद एक ढ़ाल और फिर दूहा छन्द फिर ढाल यह क्रम चलता रहता है प्रत्येक नये खण्ड का प्रारम्भ दूहा छन्द से तथा अन्त सप्तम ढाल के साथ होता है। इस प्रकार नौ खण्डों Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] के इस ग्रन्थ में कुल ६३ ढाले हैं ग्रन्थ का अन्त क्रमानुसार ६३वीं ढाल के साथ होता है। कवि ने अनेक देवी शस्यिों का सहारा लेकर अतिप्राकृत तत्व का भी समावेश किया है। अनेक विद्याओं आदि के प्रयोग से कवि ने मन्त्रमुग्ध की भांति स्तंभित करना स्वेच्छानुसार वेश बना लेना जैसे विद्याधरों के मायावी कौतुकों का वर्णन किया है इस अतिप्राकृत तत्व ने घटनाओं मे कौतुहल की यथेष्ट वृद्धि की है। वस्तुतः कवि की प्रतिभा ने जानी पहचानी जैन राम कथा को भी एक नये आकर्पक रूप में प्रस्तुत किया है। वहुमुखी प्रतिभा के धनी महान गीतकार समयसुन्दर ने अनेक विषयों पर लिखा है जिसमें लगभग दश हजार रास साहित्य ग्रन्थों में से हमारा यह आलोच्य ग्रन्थ अपने विराट रूप मार्मिक प्रसंग एवं सहज सरसता के कारण अपना महान अस्तित्व रखता है सरस सरल भाषा के सांचे में राम कथा को ढ़ाल गाकर सुनाने का कवि का यह प्रयास अनेक दृष्टिकोणों से स्तुत्य है। [मरु भारती वर्ष ७ अंक १ से ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका राजस्थानी भाषा में रामचरित सम्बन्धी रचनाएँ f पुरुषोत्तम राम और कृष्ण भारतीय धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं । दो तीन हजार वर्षो से इनके आदर्श चरित्रो ने भारतीय जनता के जीवनस्तर को प्रगतिमान बनाने मे महत्व का काम किया है । इनके सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के साहित्य का निर्माण हुआ । जिनमें से रामायण और महाभारत भारतीय साहित्य में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । इन ग्रंथों में वर्णित कथाओ एवं प्रसंगों पर और भी छोटे-बड़े सैकड़ों ग्रंथ रचे गये, प्रत्येक भारतीय भाषा में राम और कृष्ण चरित्र पाए जाते हैं। आगे चलकर तो ये महापुरुष, अवतार के रूप में प्रसिद्ध हुए और इनकी भक्ति ने करोड़ों मानवों को आप्लावित किया । भक्तों के हृदयोद्गार के रूप मे जो भक्तिकाव्य व गीत प्रगटित हुए उनकी संख्या भी बहुत विशाल है । पुरुषोत्तम श्री कृष्ण से मर्यादापुरुषोत्तम राम का चरित्र मानव के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने मे अधिक सहायक हुआ है। श्री कृष्ण की लीलाओं से कुछ खरावियां भी आईं, पर राम चरित के आदर्शो ने वैसी कोई विकृति नहीं की । इसीलिए हमारी दृष्टि में राम कथा को आदरणीय * प० शिवपूजनसिंह, सिद्धान्तशास्त्री, विद्यावाचस्पति, कानपुर वेदवाणी वर्ष १३ अक ४ में प्रकाशित कृष्णावतार की कल्पना' नामक लेख में लिखते हैं - " राम व कृष्ण की पूजा सर्वत्र भारतवर्ष में प्रचलित है । रामचन्द्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है क्योंकि वे सर्वत्र मर्यादाओ का पालन करते थे । अपने जीवन में उन्होंने कभी बुरा कर्म नही किया । कृष्णजी के Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] व ऊंचा स्थान मिलना चाहिये। राम राज्य एक आदर्श राज्य माना माना जाता है उसका बखान हर व्यक्ति करता है। महात्मा गांधी ने भी अपने स्वराज्य का आदर्श, रामराज्य ही रखा था। उन्होंने राम नाम की महिमा को भी अद्भुत माना है। गांधीजी और विनोवा जैसे संत सब रोगों के निवारण का इसे अमोघ उपाय मानते है । साधारणतया जनरुचि भोग-विलास की ओर अधिक आकर्षित नजर आती है और उसमें कृष्ण की लीलाओं से बहुत स्फूर्ति और प्रेरणा मिलने से विगत कुछ शताब्दियों से कृष्ण-भक्ति का प्रचार अधिक बढ़ा है। पर इधर ३०० वर्षों में तुलसीदास की रामायण ने जनता को बहुत बड़ी नैतिक प्रेरणा दी है। राम-भक्ति के प्रचार में इस राम चरित का बहुत बड़ा हाथ है। राम कथा का प्रचार भी बहुत ही व्यापक एवं विस्तृत रहा है। इस कथा के अनेक रूप विविध धर्म, सम्प्रदायों एवं देश-विदेशों में प्राप्त हैं। भारत के सभी भाषाओं के प्राथमिक काव्य प्रायः रामचरित्र को लेकर बनाए गए है। वाल्मीकि का रामायण संस्कृत का आदि काव्य माना जाता है। इसी प्रकार विमलसूरि का 'पउम चरिय' भी प्राकृत भाषा का आदि काव्य माना जा सकता है । जैन-ग्रंथों नाम पर आज कितना अनाचार फैला हुआ है। इसे सभी जानते हैं । जिसको धनोपार्जन करना होता है और अपनी काम-पिपासा शात करनी होती है वह अपने को कृष्णावतार घोषित कर देता है। कृष्णजी को योगीराज कहा जाता है। वे वेदमत्रों के प्रचारक, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ और ज्ञानी थे। पर, श्रीमद भागवत एकादश स्कध में उनका जीवन-चरित्र कुछ विकृत रूप में दिया गया है।" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] में राम का अपर नाम "पउम" या पद्म पाया जाता है और यह काव्य उनके सम्बन्धी होने से ही उसका नाम 'पउम चरियं' है। इसी प्रकार अपभ्रंश का उपलब्ध पहला काव्य भी महाकवि स्वयंभू का 'पठमचरिउ' है। कन्नड़ आदि अन्य भारतीय भाषाओं में भी रामकथा की प्रधानता मिलती है। तामिल, तेलुगु, मलयालम, सिंहली कश्मीरी, बंगाली, हिन्दी, उड़िया, मराठी, राजस्थानी, गुजराती, आसामी, के अतिरिक्त विदेश-तिब्बत, खोतान, हिन्देशिया, हिन्दचीन, स्याम, ब्रह्मदेश आदि देशों की भापाओं में रामकथा पाई जाती है। धर्म सम्प्रदाओं को ले तो हिन्दू धर्म में तो इसकी प्रधानता है ही पर जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में भी रामकथा पाई जाती है। जैनों में तो रामचरित मानस सम्बन्धी पचासों ग्रंथ है। हिन्दू धर्म सम्प्रदायों मे तो शैव एवं शाक्त आदि सम्प्रदायों का प्रभाव रामकथा पर पड़ा है। राम कथा की इतनी व्यापकता का कारण उसकी आदर्श प्रेरणात्मकता है। देश विदेश में स्थान स्थान पर प्रचारित हो जाने से इस कथा के अनेक रूप प्रचलित हो गए और प्राचीन कथा के साथ बहुत सी नई वातें जुड़ती गई। बौद्ध-दशरथ जातक आदि में वर्णित राम कथा, जैन परम्परा की राम कथा आदि से हिन्दू धर्म में प्रचलित राम कथा का तुलनात्मक अध्ययन करने से बहुत से नए तथ्य प्रकाश में आते हैं। इन सब बातों की छान-चीन सन् १९५० में भारतीय हिन्दी परिपद, प्रयाग से प्रकाशित रेवरेन्ड फादर कामिल वुल्के लिखित रामकथा (उत्पत्ति और विकाश) में भली भांति की जा चुकी है। सुयोग्य लेखक ने प्रस्तुत शोध प्रबंध की तैयारी में बड़ा भारी श्रम किया है। अन्य शोध प्रवन्धों से इसकी तुलना करने पर, दूसरे Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] निबंध इसके सामने फीके मालूम पड़ते हैं। एक विदेशी व्यक्ति द्वारा भारतीय रामचरित पर इतना विशद प्रकाश डालना वास्तव में बहुत ही प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय कार्य है। इस ग्रन्थ का अभी परिवर्द्धित सस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। राम भक्ति-सम्प्रदायों व उनके साहित्य के सम्बन्ध में दो तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। वाल्मीकि रामायण भारत के सांस्कृतिक इतिहास के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जोधपुर के डा० शांतिस्वरूप व्यास ने 'वाल्मीकि रामायण में भारतीय संस्कृति शीर्पक थीसिस लिखकर सराहनीय कार्य किया है। इस सम्बन्ध में उनके दो महत्वपूर्ण ग्रंथ सस्ता-साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित हो चके है। मैंने कामिल बुल्के के उक्त ग्रन्थ को भी पढ़ा तो देखा कि उसमें गुजराती के एक-दो साधारण रामचरित्र सम्बन्धी ग्रंथों का उल्लेख आया है पर राजस्थानी भाषा के रामचरित सम्बन्धी ग्रंथ उनकी जानकारी में नहीं आए। अतः मैंने इस विषय को अपने शोध का विषय बनाया और हर्प की बात है कि मुझे अच्छी सामग्री प्राप्त हुई। मैं अपने शोध के परिणाम को विद्वानों के सम्मुख उपस्थित कर रहा हूं। यह लेख 'राजस्थानी भाषा में राम चरित' की सामग्री का परिचय देने वाला ही होगा। उन ग्रन्थों का स्वतन्त्र अध्ययन करके विशद विवेचन करना तो एक शोध प्रवन्ध का ही विषय है। डा० कन्हैयालाल सहल ने प्रो० फूलसिंह चौधरी को इस विषय में मार्ग दर्शन लेने के लिए मेरे पास भेजा था और कुछ कार्य उन्होंने किया भी था पर वे अपना शोध प्रबंध पूरा नहीं कर पाये। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] राजस्थानी भाषा की सर्वाधिक सेवा चारणों और जैन यतियों ने की है। इसके पश्चात् ब्राह्मण आदि वैदिक विद्वानों का स्थान आता है। हिन्दी भाषा में भी राजस्थान में रामचरित्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ रचे गये है। राजस्थानी भाषा के रामचरित्र ग्रन्थों का आधार वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण और जैन रामायण है। तुलसीदास की रामायण से भी उन्हें प्रेरणा अवश्य मिली होगी, पर उन रचनाओ में उसका उल्लेख नहीं पाया जाता है। राजस्थान में सन्त कवियो आदि द्वारा जो हिन्दी में रामचरित्र लिखे गए है उन पर तुलसी रामायण का प्रभाव अधिक होना सम्भव है। राजस्थान में गत कई शताब्दियों से रामभक्ति, कृष्ण भक्ति, शैव उपासना और शक्ति साधना का प्रचार कभी कहीं अधिक, कहीं न्यून रूप में चलता रहा है। इसमें राज्याश्रय का भी प्रधान हाथ रहा है। जब जहां के राजाओं ने जिस उपासना को अपनाया व बल दिया तो वहीं की प्रजा में भी उसने जोर पकड़ लिया, क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा उक्ति के अनुसार खास तौर से राज्याश्रित हजारों व्यक्ति तो राजाओं की प्रसन्नता पर ही आश्रित थे। अतः राजस्थान में राजाओं मे रामभक्त अधिक नहीं हुए पर कई सन्त सम्प्रदायों के ही कारण रामभक्ति का प्रचार हो सका है। रामभक्ति का प्रचारभक्तों एवं संतों के द्वारा ही अधिक हुआ और सन्तों का प्रचार कार्य साधारण जनता मे ही अधिक रहा। इसलिए राजाओं में रामभक्त विशेष उल्लेखनीय जानने में नहीं आए। शैव और शाक्त ये राजस्थान के प्राचीन और मान्य सम्प्रदाय है । क्षत्रिय लोक शक्ति के उपासक तो होते ही है। योग माया करणीजी की Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] प्रसिद्धि के बाद शक्ति उपासना का स्वरूप ही कुछ बदल गया। प्राचीन शक्ति रूपिणी देवी सुडा, चामुंडा आदि के प्राचीन मन्दिर' जोधपुर राज्य में प्राप्त हैं। विशेषतः सुंडा लामक पर्वत और ओसिया सोजत आदि के मन्दिर उल्लेख योग्य हैं। ओसियां की चामुंडा, जैन श्रावकों में सच्चिका देवी के रूप में मान्य हुई। कृष्ण भक्ति का भी राजस्थान में अच्छा प्रचार रहा है, राजघरानो व विलासप्रिय जनता की रुचि तो उस ओर होना स्वाभाविक ही थी। राजस्थान के अनेक क्षत्रिय राजवंश अपने को रामचन्द्रजी के, वंशज मानते हैं। सुप्रसिद्ध राठौर सीसोदिया आदि सूर्यवंशी रामचन्द्रजी से अपनी वशावली जोड़ते हैं। राजस्थान का प्रसिद्ध प्रतिहार वंश अपने को रामचन्द्रजी के अनुज लक्ष्मण का वंशज मानता है। इस रूप मे तो राजस्थान में मर्यादा-पुरुपोत्तम रामचंद्र का महत्व बहुत अधिक होना ही चाहिये। किराडू आदि स्थानों में रामावतार की मूर्तियाँ १३वी १४वीं शताब्दी की मिली है। और ११वीं, १२ शताब्दी के देवालयों मे भी रामायण सम्बन्धी घटनाएँ उत्कीर्णित मिलती है और उन से राजस्थान में राम कथा के प्रचार व लोक प्रियता का पता चल जाता है। राजस्थान के लोक गीतों में जो राम कथा सम्बन्धी अनेक गीत मिलते हैं, उनसे भी रामकथा की लोकप्रियता का परिचय मिलने के साथ-साथ कुछ नए तथ्य भी प्रकाश में आते है। उदाहरणार्थ-- सीता के वनवास में उसकी ननद कारणभूत हुई इस प्रसंग के गीत जैसे अन्य प्रान्तों में मिलते है वैसे ही राजस्थान में भी प्राप्त है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] राजस्थानी भाषा में रामचरित सम्बन्धी रचनाओं का प्रारम्भ १६वीं शताब्दी से होने लगता है और २०वीं तक उसकी परम्परा निरन्तर चलती रही है। उपलब्ध राजस्थानी भाषा के रामचरित्र गद्य और पद्य दोनों प्रकार के है। इसी प्रकार जैन और जेनेतर भेद से भी इन्हें दो विभागों में बांटा जा सकता है। इनमें जैन रचनाओं की प्राचीनता व प्रधानता उल्लेखनीय है। रामचरित्र सम्बन्धी राजस्थानी जैन रचनाओं में से कुछ तो सीता के चरित्र को प्रधानता देती है कुछ रामचरित्र को पूर्णरूप में विस्तार से उपस्थित करती है तो कुछ प्रसंग विशेप को संक्षिप्त रूप मे। १-दि० ब्रह्म जिनदास रचित रामचरित्र काव्य ही राजस्थानी __ का सबसे पहिला राम काव्य है । इस रामायण की रचना सं० १५०८ में हुई, इसकी हस्तलिखित प्रति डुंगरपुर के जैन मन्दिर के भण्डार मे है। २--इसके बाद जैन गुर्जर कविओ भाग १ के पृष्ठ १६६ में उपकेश गच्छ के उपाध्याय विनयसमुद्र रचित पद्मचरित का उल्लेख पाया जाता है। यह रामचरित्र काव्य जो सं० १६०४ के फाल्गुनमें बीकानेर में रचा गया है। दोनों अभिन्न ही है। पद्मचरित के आधार से बनाया गया। विनयसमुद्र के पद्मचरित की प्रति गौड़ीजी भंडार उदयपुर में है। " ३-पिंगल शिरोमणि-सुप्रसिद्ध कवि कुशललाभने जैसलमेर के महाराजकुमार हरराजके नाम से यह मारवाड़ी भाषा का सर्व प्रथम छंद प्रथ वनाया है उदाहरण रूप में राम कथा वर्णित है। राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर से प्रकाशित हो चुका है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] ४-सीता चउपई -यह ३२७ पद्यों की छोटी रचना है। इसमें सीता के चरित्र की प्रधानता है, खरतर गच्छ के जिनप्रभसूरि शाखा के आचार्य जिनभद्रसूरि के समय में सागरतिलक के शिष्य समयध्वज ने इसकी रचना संवत् १६११ मे की। श्रीमाल मरदुला और गूजरवंशीय गढ़मल के पुत्र भीषण और दरगहमल्ल के लिए इसकी रचना हुई। इसकी संवत् १७०२ मे लिखित १६ पत्र की प्रति हंसविजय लाइब्रेरी, बड़ौदा में है। ५-सीता प्रवन्ध-यह ३४६ पद्यों में है। संवत् १६२८ रणथंभोर में शाह चोखा के कहने से यह रचा गया। 'जैन गूर्जर कविओ' भाग ३ पृष्ठ ७३३ में इसका विवरण मिलता है। प्रति नाहरजी के संग्रह (कलकत्ते ) मे है। ६-सीता चरित्र-यह सात सर्गों का काव्य पूर्णिमा गच्छीय हेमरत्नसूरि रचित है। महावीर जैन विद्यालय, तथा अनंतनाथ भंडार बम्बई एवं बड़ौदा में इसकी प्रतियां हैं। पद्मचरित्र के आधार से इसकी रचना हुई । रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया पर हेमरत्न सूरि के अन्य ग्रंथ सं० १६३६-४५ में मारवाड़ मे रचित मिलते है अतः यह भी इसके आस पास की ही रचना है। ७-राम सीता रास-तपागच्छीय कुशलवर्द्धन के शिष्य नगर्षि ने इसकी रचना १६४६ में की। हालामाई भंडार, पाटण मे इसकी प्रति है और जैन गुर्जर कविओ भाग १ पृष्ठ २६० मे इसकी केवल एक ही पंक्ति उद्धत होने से ग्रन्थ की पद्य संख्यादि परिमाण का पता नहीं चलता। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] ८-जैन रामायण-राजस्थानी भाषा के विशिष्ठ कवि जिनराज सूरिजी ने आचार्य पद प्राप्ति से पूर्व (राजसमुद्र नाम था, सं० १६७४ में आचार्य पद ) इस रामचरित कथा की संक्षेप में रचना की। इसकी एक मात्र समकालीन लिखित २८ पत्रों की प्रति कोटा के खरतर गच्छीय ज्ञानभंडार में है, पर उसमें प्रशस्ति का अंतिम पद्य नहीं है। -लव कुश रास-पीपल गच्छ के राजसागर रचित, इस रास में राम के पुत्र लव कुश का चरित वर्णित है । पद्य संख्या ५७५ (ग्रंथाग्रन्थ १००) है। संवत् १६७२ के जेठ सुदि ३ बुधवार को थिरपुर में इसको रचना हुई। उपर्युक्त पाटण भंडार में इसकी १२ पत्रों की प्रति है। १०-सीता विरह लेख-इसमें ६१ पद्यो में सीता के विरह का वर्णन पत्र प्रेषण के रूप में किया गया है। संवत् १६७१ की द्वितीय आसाढ पूर्णिमा को कवि अमरचन्द ने इसकी रचना की। जन गूर्जर कविओ भाग १ पृष्ठ ५०८ में इसका विवरण मिलता है। — ११-सीताराम चौपई-महाकवि समयसुन्दर की यह विशिष्ट कृति है। रचनाकाल व स्थान का निर्देश नहीं है पर इसके प्रारम्भ में कवि ने अपनी पूर्व रचनाओ का उल्लेख करते हुए नल दमयंती रास का उल्लेख किया है जो संवत् १६७३ मेडते में रायमल के पुत्र अमीपाल, खेतसी, नेतसी, तेजसी और राजसी के आग्रह से रचा गया। अतः सीताराम चउपइ संवत १६७३ के बाद ( इन्हीं राजसी आदि के आग्रह से रचित होने से) रची गई। इसके छठे खण्ड की तीसरी ढाल मे कवि ने अपने जन्म स्थान साचोर में बनाने का उल्लेख किया है। कविवर के रचित साचौर का महावीर स्तवन संवत् १६७७ के Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] माघ में रचा गया। सम्भव है कि उसीके आस पास सीताराम चउपई की उक्त ढाल भी वहां रची गई हो। इस सीताराम चउपई की संवत् १६८३ की लिखित तो प्रति ही मिलती है, अतः इसका रचनाकाल संवत् १६७३ से ८३ के वीच का निश्चित है। प्रस्तुत चउपई नव खण्ड का महाकाव्य है। नवों रसों का पोपण इसमें किए जाने का उल्लेख कवि ने म्वय किया है। प्रसिद्ध लोक गीतों की देशियों (चाल) में इस ग्रंथ की ढालें बनाई गई, उनका निर्देश करते हुए कवि ने कौनसा लोक गीत कहाँ कहाँ प्रसिद्ध है, उल्लेख किया है। जैसे (१) नोखा रा गीत-मारवाडि ढाडि, माहे प्रसिद्ध छ। (२) सूमरा रा गीत-जोधपुर, मेडता, नागौर, नगरे प्रसिद्ध छ। (३) तिल्ली रा गीत-मेडतादिक देशे प्रसिद्ध छ। “(४) इसी प्रकार "जेसलमेर के जादवा" आदि गीतो की चाल में भी ढालें बनाई गई। प्रस्तुत ग्रन्थ पाठकों के समक्ष उपस्थित है अतः विशेष परिचय ग्रंथ को पढ़कर स्वयं प्राप्त करे। १२-राम यशो रसायन-विजयगच्छ के मुनि केसराज ने संवत् १६८३ के आश्विन त्रयोदशी को अन्तरपुर मे इसकी रचना की। ग्रंथ चार खण्डों में विभक्त है। ढाले ६२ हैं। इसका स्थानकवासी और तेरहपंथी सम्प्रदाय में बहुत प्रचार रहा है। उन्होंने अपनी मान्यता के अनुसार इसके पाठ में रहो-बदल भी किया है। स्थानकवासी समाज की ओर से इसके दो तीन संस्करण छप चुके हैं। पर मूल पाठ आनंद काव्य महोदधि के द्वितीय भाग में ठीक से छपा है। इसका Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] परिमाण समयसुन्दर के सीताराम चौपाई के करीव का है। इसकी २ हस्तलिखित प्रतियां हमारे संग्रह में हैं। १३-रामचन्द्र चरित्र-लोंका गच्छीय त्रिविक्रम कवि ने संवत् १६६६ सावण सुदि ५ को हिसार पिरोजा द्रंग में इसकी रचना की। 'त्रिसष्टि शलाका पुरुष चरित्र' के आधार से नन खण्डों एवं १३५ ढालों मे यह रचा गया है। इसकी १३० पत्रों की प्रति श्री मोतीचन्द जी के संग्रह में है। जिसके प्रारम्भ के २५ पत्र न मिलने से तीस ढाले प्राप्त नहीं है। इस शताब्दी के प्राप्त ग्रन्थों में यह सबसे बड़ा है। १८वीं शताब्दी १४-रामायण-खरतरगच्छीय चारित्रधर्म और विद्याकुशल ने संवत् १७२१ के विजयदशमी को सवालक्ष देस के लवणसर में इसकी रचना की। प्राप्त जैन राजस्थानी रचनाओं मे इसकी यह निराली विशेषता है कि कवि ने जैन होने पर भी इसकी रचना जैन ग्रन्थों के अनुसार न करके वाल्मीकि रामायण आदि के अनुसार की है : वाल्मीक वाशिष्टरिसि कथा कही सुभ जेह । तिण अनुसारे राम जस, कहिये घणो सनेह ।। सुप्रसिद्ध वाल्मीकि रामायण के अनुसार इसमें वालकाण्ड उत्तरकाण्ड आदि सात काण्ड है। रचना ढालबद्ध है। ग्रन्थ का परिमाण चार हजार श्लोक से भी अधिक का है। सीरोही से प्राप्त इसकी एक प्रति हमारे संग्रह में है। १५-सीता आलोयणा-लोंका गच्छीय कुशल कवि ने ६३ पद्यों में सीता के बनवास समय में किए गए आत्म विचारणा का इसमें Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] गुम्फन किया है। कवि की अन्य रचनाएं संवत् १७४६-८६ की प्राप्त होने से इसका रचनाकाल १८वीं शताब्दी निश्चित है। १६-सीताहरण चौढालिया-तपागच्छीय दौलतकीर्ति ने ४६ पद्यों व ४ ढाल में सीता हरण के प्रसंग का वर्णन किया है। रचना बीकानेर मे संवत् १७८४ में बनाई गई है। इसकी दो पत्रों की प्रति हमारे संग्रह मे है। १७-रामचन्द्र आख्यान-इसमे धर्मविजय ने ५५ छप्पय कवित्तो में रामकथा संक्षेप मे वर्णन की है। इसकी पाँच पत्रों की प्रति (१६वीं शताब्दी के प्रारम्भ की लिखित ) मोतीचन्दजी खजांची के संग्रह में है, अतः रचना १८वीं शताब्दी की होना सम्भव है। ब्र० जिनदास के रामचरित को छोड़ कर उपयुक्त सभी रचनाएं श्वेताम्बर विद्वानों की है, दिगम्बर रचनाओं मे संवत् १७१३ में रचित । १८-सीता चरित्र हिन्दी में है जो कवि रायचन्द के रचित है। उसकी १४४ पत्रों की प्रति आमेर भण्डार मे है । गोविन्द पुस्तकालय, बीकानेर में भी इसकी एक प्रति प्राप्त है। १६-सीताहरण-दि० जयसागर ने सं० १७३२ मे गंधार नगर में इसकी रचना की भापा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है। उसकी ११४ पत्रों की प्रति उपयुक्न आमेर भण्डार में है। १६वीं शताब्दी २०-ढाल मंजरी-राम रास-तपागच्छीय सुज्ञानसागर कवि ने संवत १८२२ मिगसर सुदी १२ रविवार को इसकी उदयपुर में रचना की। भापा मे हिन्दी का प्रभाव भी है। चरित्र काफी विस्तार से Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] वर्णित है। ग्रन्थ ६ खण्डों में विभक्त है। इसकी प्रति लीबडी के ज्ञानभण्डार में १८१ पत्रों की हैं। सम्भवतः राजस्थानी जैन रामचरित ग्रन्थों में यह सबसे बड़ा है। ग्रन्थकार बड़े वरागी एवं संयमी थे। इनकी चौवीसी आदि रचनाए सभी प्राप्त है। २१-सीता चउपई-तपागच्छीय चेतनविजय ने संवत् १८५१ के वैसाख सुदि १३ को वंगाल के अजीमगंज में इसकी रचना की। इनके अन्य रचनाओं की भाषा हिन्दी प्रधान है। प्रस्तुत चउपई की १८ पत्रों की प्रति बीकानेर के उ० जयचन्दजी के भंडार व कलकत्ते के श्री पूर्णचन्द नाहर के संग्रह में है। परिमाण मध्यम है। २२-रामचरित-ऋषि चौथमल ने इस विस्तृत ग्रन्थ की रचना की। श्री मोतीचन्दजी के संग्रह मे इसकी दो प्रतियां पत्र ६५ व ८४ की है। जिनमें से एक में अंत के कुछ पत्र नहीं है और दूसरी में अंत का पत्र होने पर भी चिपक जाने से पाठ नष्ट हो गया है इसका रचनाकाल सं० १८६२ जोधपुर है। इनकी अन्य रचना पिदत्ता चौपाई संवत् १८६४ देवगढ़ (मेवाड़) में रचित हैं। प्रारम्भिक कुछ पद्यों को पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि समयसुन्दर के सीताराम चौपाई के कुछ पद्य तो इसमे ज्यों के त्यों अपना लिये है। ___२३-राम रासो-लक्ष्मण सीता बनवास चौपाई-मृपि शिवलाल ने संवत् १८८२ के माघ वदि १ को बीकानेर की नाहटों की वगीची में इसकी रचना की, इसमें कथा संक्षिप्त है । १२ पत्रो की प्रति यति मुकनजी के संग्रह में है। २० वीं शताब्दी २४-राम सीता ढालीया-तपागच्छीय नृपभविजय ने संवत् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] १६०३ मिगसर वदि २ बुध को सात ढालो में संक्षिप्त चरित्र वर्णन किया है। भाषा गुजराती प्रधान है। __ २५~-वीसवीं के उत्तरार्द्ध में अमोलक अपि ने सीता चरित्र बनाया है वह मैंने देखा नहीं है उसकी भाषा हिन्दी प्रधान होगी। वीसवीं शदी में (२६) शुक्ल जैन रामायण-शुक्लचन्दजी (२७) सरल जैन रामायण-कस्तूरचन्दजी (२८) आदर्श जैन रामायणचौथमलजी ने निर्माण की है। फुटकर सती सीता गीत आदि तो कई मिलते है। गद्य में कई वालावबोध ग्रंथों में 'सीता चरित्र' संक्षेप में मिलता है उनका यहां उल्लेख नहीं किया जा रहा है। केवल एक मौलिक सीता चरित्र की की अपूर्ण प्राचीन प्रति हमारे संग्रह में है, उसीका कुछ विवरण आगे दिया जा रहा है। गद्य ___ २६-सीता चरित भाषा-इसकी ५८ पत्रों की अपूर्ण प्रति हमारे संग्रह से है, जो १६-१७वीं शताब्दी की लिखित है अतः इसकी रचना १६वीं शताब्दी की होनी सम्भव है। इसी तरह का एक अन्य संक्षिप्त सीता चरित्र (गद्य) मुनि जिनविजयजी संग्रह (भारतीय विद्या भवन, बम्बई ) में है। इस प्रकार तथा ज्ञात जैन रचनाओं का परिचय देकर अब जैनेतर गद्य और पद्य रचनाओं (रामचरित्र सम्बन्धी ग्रन्थों) का परिचय दिया जा रहा है। १७वीं शताब्दी १ रामरासो-माधवदास दधवाडिया रचित यह काव्य खूब Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] प्रसिद्ध रहा है। प्रारम्भिक मंगलाचरण में कवि ने मुनि कर्माणंद को नमस्कार किया है पता नहीं वे कौन थे ? अन्तिम पद्यों में 'राज हुकम जगतेसरे शब्दों द्वारा जगतसिंह राजा का उल्लेख किया है वे भी कहां के राजा थे ? निश्चित ज्ञात नहीं हुआ। इसकी पद्य संख्या प्रशस्ति के अनुसार ११३८ है। हमारे संग्रह में भी उसकी कई प्रतियां हैं। डा० मोतीलाल मेनारिया ने माधोदास का कविताकाल १६६४ निश्चय किया है। राम रासो की पद्य संख्या १६०१ और उदयपुर की प्रति का लेखन समय १६६७ दिया है। उनके उद्धृत पद वास्तव में मूल ग्रन्थ के समाप्त होने के बाद लिखा गया है। उदयपुर प्रति में राज्याभिषेक का वर्णन अधिक है। १८वीं शताब्दी २-रुघरासो सं० १७२५ के मिगसर मे मारवाड़ के वालरवे में इसकी रचना रूघपति (रुघनाथ ) ने की। इसकी प्रति कोटा भंडार में है। ३ राघव सीता रास-इस २२५ पद्योंवाली रचना की प्रति संवत् १७३५ की लिखी मिली है । इसकी भापा व शैली वीसलदेव रासो की तरह है। राम रासो डिंगल शैली का ग्रन्थ है, तो यह बोलचाल की भाषा में लोकगीत की शैली का। इसकी प्रति बीकानेर के बड़े ज्ञानभंडार में है। .४ राम सीता रास-३४ पद्यों की इस लघु रास की दो पत्रों की - संवत् १७३३ लिखित प्रति हमारे संग्रह मे है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] सूरज प्रकाश (कविर्या करणीदान रचित) इस काव्य में राठोड़ो के के पूर्वज के रूप मे राम का चरित दिया है। १६वीं शताब्दी रघुनाथरूपक-सेवग कवि मंछ ने सवत् १८६३ में इसे रचा है। राजस्थानी गीतों का यह प्रसिद्ध छन्द शास्त्र है। उदाहरण मे कवि ने रामचरित्र को लिया है। इसीलिए इसका नाम रघुनाथ रूपक रखा है। नागरी प्रचारिणी सभा से यह छप भी चुका है। ६ रघुवर जस प्रकाश-यह भी राजस्थानी छन्द शास्त्र है। रचयिता किसनजी आढ़ा है। संवत् १७८१ में इसकी रचना हुई । कविता प्रौढ़ और भाषा शैली सरस है। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से यह प्रकाशित हो चुका है। २०वीं शताब्दी (७) गीत रामायण-जोधपुर के स्व० कविवर अमृतलाल माथुर ने सम्वत् १९५५ मे वहीं के प्रचलित मारवाड़ी लोकगीतों की चाल मे वनाई। इसमें प्रसिद्ध रामायण की भांति सात काण्ड हैं और क्रमशः ५१, ३८, १३, ४, १६, ३ और ११ कुल १३६ गीत हैं । बाल-काण्ड, अवधकाण्ड, अरण्य-काण्ड, किष्किंधा-काण्ड, सुन्दर काण्ड, लंकाकांड और उत्तरकाड मे राम के राज्य तक की कथा आई है। सीता बनवास का प्रसंग नहीं दिया गया। लोक गीतों की चाल में इसके गीत होने से स्त्रियों में इसका प्रचार वहुत अधिक हुआ। रचना बहुत सुन्दर है। पॉकेट साईज के २१२ पृष्ठों में छप चुकी है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] गद्य रामायण (८) रामचरित्र वालावबोध - अध्यात्म रामायण के ६ अध्यायों का यह राजस्थानी अनुवाद है । सम्वत् १७४७ की लिखित प्रति प्राप्त होने से रचना इससे पूर्व की निश्चित है पर अनुवादक का नाम नहीं पाया जाता । भाषा सरल है । इसकी एक शुद्ध प्रति बीकानेर के वृहद् ज्ञान भण्डार में ५८ पत्रो की है । जो १८वीं शताब्दी की लिखी प्रतीत होती हैं । अनूप संस्कृत लायब्रेरी के गुटके नं० २४० के पत्रांक १८० से २७० मे यह बालाववोध लिखित मिलता है । वह प्रति सम्वत् १७४७ में लिखी गई है । (१) रामचरित्र - अनूप संस्कृत लायब्रेरी में एक अन्य गद्य रामचरित्र भी है जिसकी प्रति के प्रारम्भिक पाँच पत्र नहीं है और पत्राक १२५ में कथा पूर्ण होती है । पर अन्त का उपसंहार बाकी रह जाता है । (१०) रामचरित्र - श्री मोतीचन्दजी खजांची के संग्रह में सम्वत् १८३२ जोधपुर में लिखित प्रति में यह गद्य रामचरित्र मिलता है 1 जिसमें ब्रह्माड पुराण के उल्लेख है । इसमें रामकथा बहुत विस्तार से चार हजार श्लोक परिमित है । (११) रामचरित्र गद्य की एक सचित्र प्रति खजाचीजी के संग्रह में है । (१२) गद्य रामायण की एक प्रति जोधपुर के कविया बद्रीदानजी के संग्रह में प्राप्त हुई है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के संग्रह में राजस्थानी गद्य रामायण की सचित्र प्रति है। (१३) मानव मित्र रामचरित्र- इसके लेखक स्व० महाराज साहब चतुरसिहजी है। भाषा मेवाडी है। इसकी द्वितीय आवृति मनोहरलाल शर्मा संस्कृत ग्रन्थागार चांद पोल, उदयपुर से २०३ पृष्ठों में प्रकाशित हुई है। पृष्ठ १६१ तक ( विजय तक ) का वृतान्त चतुरसिंहजी ने वाल्मीकि रामायण, योग वशिष्ठ, तुलसी रामायण और महावीर चतुर के आधार से उपन्यास की भांति लिखा है। उत्तर का चरित्र श्री गिरधरलाल शास्त्री ने लिखकर ग्रन्थ को पूर्णता दी है। (१४) बाल रामायण-सुप्रसिद्ध व्रजलालजी वियानी ने विद्यार्थी अवस्था में इसे लिखा, यह छप भी चुका है। इस प्रकार जैन और जैनेतर राजस्थानी रामचरित्र अन्थो का परिचय यहाँ दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि जैन विद्वानों की रचनाएँ ज्यादा है और १६वीं शताब्दी से गद्य और पद्य मे मिलने लगती है। जैनेतर रचनाओं का प्रारम्भ १७वीं के उत्तरार्द्ध से होता है, जो २०वीं तक निरन्तर चलता रहता है। राजस्थान में हिन्दी भाषा का प्रचार भी १७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हो गया और १८वीं से सैकड़ों ग्रन्थ रचे गये अतः हिन्दीभाषा के रामचरित्र ग्रन्थों की संख्या भी अच्छी होनी चाहिये। भक्त एवं सन्त कवियों ने भी कई रामचरित्र हिन्दी मे लिखें हैं इनमें से सन्त कवि जगन्नाथ रचित रामकथाका परिचय में प्रकाशित कर चुका हूँ। यों नरहरिदास के अवतार चरित्र मे श्री रामचरित्र मिलता हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ । रामचरित्र सम्बन्धी राजस्थानी साहित्य की जानकारी कराने के पश्चात् इस प्रकाश्यमान सीताराम चौपई के निर्माता महाकवि समयसुन्दर का परिचय यहीं दिया जा रहा है। कविवर समयसुंदर राजस्थान की पवित्र भूमि अपनी युद्धवीरता के लिये विश्वविख्यात है। पग-पग पर हजारों स्मारक आज भी अपनी मातृभूमि पर प्राण निछावर करनेवाले वीरों और वीरागनाओं की अमर कीर्ति की याद दिला रहे हैं। इसी प्रकार अपनी दानवीरता के लिये भी राजस्थान प्रसिद्ध है। आज भी भारत की अधिकांश पारमार्थिक संस्थाएँ यहीं के दानवीरों की सहायता से जन-कल्याण कर रही हैं। यहाँ के चारण सुकवियों की ख्याति भी कम नहीं है। उनके वीरकाव्यों ने यहां के पुरुषों में जिस प्रचंड वीरता का संचार किया उसे सुनकर आज भी कायर हृदयो में वीरोचित उत्साह उमड़ पड़ता है। परन्तु सच्चा मानव बनने के लिये वीरता के साथ-साथ विश्वप्रेम, भक्ति, सदाचार. परोपकार आदि सद्गुणों का विकास भी परमावश्यक है । इस आवश्यकता की पूर्ति संतों ने की, जिनमें जैन विद्वान संतो का स्थान सर्वोत्कृष्ट है। जैन विद्वानों ने अहिंसा का प्रचार तो किया ही, राजस्थान की व्यापारिक उन्नति के मूल कारण प्रामाणिकता पर भी उन्होने बहुत जोर दिया। इन मुनियों के उपदेशों ने जनता में वैराग्य, धर्म, नीति आदि आध्यात्मिक संस्कारों का विकास किया। कवि समयसुदरोपाध्याय भी उन्हीं जैन मुनियो में एक प्रधान कवि हैं। समयसुंदर की कविता बड़ी ही सरल एवं ओजपूर्ण है। इनके Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] पाडित्य और इनकी प्रतिभा का विकास व्याकरण, अलंकार, छंद, ज्योतिप, जैन साहित्य, अनेकार्थ आदि अनेक विषयों में दिखाई पड़ता है और प्राकृत, संस्कृत, राजस्थानी, गुजराती, हिंदी, सिंधी तथा पारसी तक में इनकी लेखनी समान रूप से चलती है। इन्होने अनेक ग्रंथ रचकर भारतीय वाड्मय की वृद्धि की। साहित्य के ये अप्रतिम सेवक थे। जन्मभूमि-कवि की मातृभूमि होने का गौरव मारवाड़ प्रान्त के सांचौर स्थान को प्राप्त है। यह सांचौर भगवान् महावीर के तीर्थ-रूप मे जैन साहित्य मे प्रसिद्ध है ।' कवि ने स्वयं अपनी जन्मभूमि का उल्लेख सपनी विशिष्ट भाषा-कृति 'सीताराम-चौपाई' में इन शब्दों में किया है मुझ जन्म श्री साचोर माहि, तिहा च्यार मास रह्या उच्छाहि । विहा ढाल ए कीधी एकेज, कहै समयसुदर धरी हेज । कवि-रचित 'साचौर-मंडन-महावीर-स्तवन' का रचनाकाल सं० १६७७ है। यह ढाल भी सम्भवतः उसी समय रची गई होगी। इनके शिष्य वादी हर्पनंदन और देवीदास ने भी गुरुगीतों में कवि की जन्मभूमि का वर्णन इस प्रकार किया है साच साचोरे सद्गुरु जनमिया रे । (हर्षनदन ) जन्मभूमि साचोरे जेहनी रे। ( देवीदास ) वंश-जैनों में तीन प्रसिद्ध जातियां हैं-श्रीमाल, ओसवाल, पोरवाड़। पुराने कवियो में इनकी विशेषताओं का वर्णन करते हुए १-द्रष्टव्य-जैन-साहित्य-सशोधक, खड ३ यंक ३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] पोरवाड़ जाति के बुद्धि-वैभव की विशेषता 'प्रज्ञाप्रकर्ष प्राग्वाटे' वाक्य 'द्वारा वतलाई है। विमल-प्रबंध में पोरवाड़ जाति के सात गुणों में चौथा गुण "चतुः प्रजाप्रकर्पवान्" लिखा है जो प्राचीन इतिहास के अवलोकन से सार्थक हो सिद्ध होता है। गुजरात के महामन्त्री वस्तुपाल, तेजपाल ने अरिसिंह आदि कितने ही कवियों को आश्रय दिया, उत्साहित किया और स्वयं वस्तुपाल ने भी 'वसंतविलास' नामक सुन्दर काव्य की रचना कर अपने अन्य सुकृत्यों पर कलश चढ़ा दिया। इससे पूर्व महाकवि-चक्रवर्ती श्रीपाल ने भी शतार्थी, सहस्रलिंग सरोवर, दुर्लभ सरोवर, रुद्रमाला की प्रशस्ति महाराज सिद्धराज के समय में और बड़नगर-प्रशस्ति तथा कई स्तवनादि महाराज कुमारपाल के समय में सं० १२०८ में बनाए। इनका पोत्र विजयपाल भी अच्छा कवि था। इसका रचा द्रौपदी-स्वयंवर नाटक जैन-आत्मानंद सभा, भावनगर से प्रकाशित है। सतरहवीं शती में इसी वंश में 'श्रावक महाकवि अपभदास" हुए, जो कवि के समकालीन थे। प्राग्वाट ( पोरवाड़) जाति को प्रज्ञाप्रकर्पता के ये उदाहरण है। इसी पोरवाड़ २-बड़ोदा ओरियंटल सीरीज से प्रकाशित । सबंधित कवियों के विषय में द्रष्टव्य-डा० भोगीलाल साडेसरा कृत 'वस्तुपाल का विद्यामडल' (जैनसस्कृति-सशोधक-मंडल, वनारस)। ३--'जैन-सत्य-प्रकाश', वर्ष ११ अक १० ४-'बानद-काव्य-महोदधि', मौक्तिक ८ ५–'अनेकात', वर्ष ४ अंक ६ एव 'बोसवाल', वर्ष १२ अंक ८.१० मे प्रकाशित लेखक के लेख। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] वंश में महाकवि समयसुंदर का जन्म हुआ था जिसका उल्लेख उनके शिष्यवादी हर्पनंदन ने इस प्रकार किया है प्रज्ञाप्रकर्ष प्राग्वाटे इति सत्यं व्यधायि यः ( मध्याह्न व्याख्यान पद्धति) प्राग्वाट-वंश-रत्ना धर्मश्री मजिकासूनुः । (ऋपिमडल वृत्ति) प्राग्वाट शुद्धवशा पड्भापा गीतिकाव्यकर्तारः । ( उत्तराध्ययन वृत्ति) परगड़ वश पोरवाड़ । (श्री समयसुदरोपाध्यायाना गीतम् ) देवीदास ने भी अपने गीत में 'वंश पोरवाड विख्यातो जी' लिखा है। माता-पिता और दीक्षा-कवि के पिता का नाम रूपसी और माता का लीलादे या धर्मश्री था, जिनका उल्लेख वादी हर्षनंदन ने "रूपसी जी रा नंद" और देवीदास ने “भात लीलादे रूपसी जनमिया" शब्दों द्वारा किया है। कवि के जन्म अथवा दीक्षा का समय अद्यावधि अज्ञात है। परन्तु इनकी प्रथम कृति 'भावशतक' के रचनाकाल के आधार पर श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने उस समय इनकी आयु २०-२१ वर्ष अनुमानित कर जन्म-काल वि० १६२० होने की संभावना की है जो समीचीन जान पड़ती है। वादी हर्पनंदन के "नव यौवन भर संयम संग्रह्यौ जी, सई हथे श्री जिनचंद" इस उल्लेख के अनुसार दीक्षा के समय इनकी अवस्था कम से कम १५ वर्ष होनी चाहिए। इस अनुमान से दीक्षा-काल वि० १६३५ के लगभग वैठता है। इनकी दीक्षा श्रीजिनचंद्रसूरि के करकमलों से होना सिद्ध है। सूरिजी ६-द्रष्ट० हमारा 'युगप्रधान जिनचद्रसूरि' ग्रंथ। इन्होंने सम्राट अकवर को जैन धम का वोध दिया था और सम्राट जहाँगीर तथा अन्य राजायों पर मी इनका बच्छा प्रमाव था। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] ने इन्हें अपने प्रथम शिष्य रीहड़-गोत्रीय श्री सकलचंद्र गणि के शिष्य रूप में दीक्षित किया था। विद्याध्ययन-इनके गुरु श्री सकलचंद्र जी इनकी दीक्षा के कुछ ही वर्षों बाद स्वर्गवासी हुए, अतः इनका विद्याध्ययन सूरिजी के प्रधान शिष्य महिमराज और समयराज के तत्वावधान में हुआ। इसका उल्लेख कवि ने स्वयं इस प्रकार किया है श्री महिमराज वाचक वाचकवर समयराज गुण्याना मद्विद्य कगुरूणा प्रसादतो सूत्रशतकमिदम् ।। (भावशतक, १११) श्री जिनसिंह मुनीश्वर वाचकवर समयराज गणिराजाम् मद्विये कगुरूणामनुग्रहो मेऽत्र विज्ञ यः ।। ( अष्टलक्षी, २८) संघपति सोमजी के संघ के साथ शत्रुजय-यात्रासं० १६४४ में श्री जिनचन्द्रसूरि खंभात में चातुर्मास्य कर अहमदावाद आए। उनके उपदेश से शत्रुजय का माहात्म्य श्रवण कर पोरवाड़बातीय सोमजी और उनके भाई शिवा ने शत्रुजय का संघ निकाला, जिसमें मालव, गुजरात, सिंधु, सिरोही आदि नाना स्थानों के यात्रीसंघ आकर सम्मिलित हुए थे। इस सघ में कवि समयसुंदर भी अपने दादा-गुरु और विद्यागुरु आदि के साथ शत्रुजय गए और चैत्र वदी ४ बुधवार को महातीर्थ शत्रुजय गिरिराज की यात्रा की । इसका उल्लेख कवि ने अपने 'शत्रुजय भासद्वय' से इस प्रकार किया है-- ७-खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार इनकी दीक्षा वि० १६१२ में बीकानेर में हुई थी। ८-द्रप्ट० 'युगप्रधान जिनचद्रसूरि', पृ० २४० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] सवत सोल चिमाल मई रे, चैत्र मास वलि चउथ बुधवार रे । जिनचंद्रसूरि यात्रा करी रे, चतुर्विध श्रीसघ परिवार रे ॥ ८॥ अकवर के आमन्त्रण पर लाहोर-यात्रा-वि० १६४७ मे सम्राट अकबर ने जैन धर्म का विशेष वोध प्राप्त करने के उद्देश्य से. मन्त्री कमचंद्र द्वारा जिनचन्द्रसूरि का कड़ी धूप में आना कष्टकर जान, उनके मुख्य शिष्य वाचक महिमराज को बुलाने के निमित्त दो शाही पुरुषों को विज्ञप्तिपत्र देकर सूरिजी के पास भेजा। उन्होंने विज्ञप्तिपत्र पाते हो महिमराज को छ. अन्य साधुओं के साथ लाहोर भेजा। इनमें हमारे कवि समयसुंदर भी एक थे, जिन्होंने 'श्री जिनसिंहसूरि अष्टक' में इस यात्रा का वर्णन किया है एजु प्रणम्या श्री शातिनाथ गुरु शिर घों हाथ, समयसुदर नाथ चाले नीकी वरियाँ । यनुक्रमि चलि आए सीरोही मे सुख पाए सुलताण मनि माए देखत बँखरियाँ । जालोर मेदिनातट पइसारउ कियउ प्रकट डीडवाणइ जीते भट जयसिरि वरियाँ । रिणी तई सरसपुर आवत फिरोजपुर लघत नदी कसूर मार्नु जइसी दरियाँ ॥२॥ एजु बावत सुशोभ लीनी लाहोर बधाई दीनी मत्री कु मालिम कीनी कहइ एसाउ पथियाँ। मानसिंह गुरु आए पातसाह कुं सुणाए वाजिन प्रिंधुं वजाए दान टीयइ दुथियाँ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ । समयसुंदर भायउ पइसारउ नीकउ वणायउ श्री सघ साम्ह आयउ सज्जकरि हथियाँ । गावत मधुर सर रूपइ मानु अपछर मुदर सूव करइ गुरु आगइ सथियाँ ||३|| इसके पश्चात् अकबर और जहांगीर की श्रद्धा वा० महिमराज के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती गई और जव अकवर ने सं० १६४६ में काश्मीरविजय के लिये स्वयं जाना निश्चित किया तो उसने श्री जिनचंद्रसुरि से वा० महिमराज को धर्मोपदेश के लिये अपने साथ भेजने की विज्ञप्ति की। तदनुसार श्रावण सुदी १३ को संध्या समय काश्मीरविजय के उद्देश्य से प्रयाण कर सब लोग राजा श्रीरामदास की वाटिका में ठहरे। उस समय अनेक सामंतों, मंडलीकों तथा विद्वानों की सभा मे कवि समयसुन्दर ने अपने अद्वितीय ग्रंथ 'अष्टलक्षो' को पढ़कर सुनाया। इसे सुन सम्राट् वहुत चमत्कृत हुआ और भूरि-भूरि प्रशंसा करके इसका सर्वत्र प्रचार हो' कहते हुए उसने अपने हाथ से उस ग्रंथरत्न को ग्रहण कर उसे कवि के हाथों में समर्पित किया।, इस अभूतपूर्व ग्रंथ में "राजानो ददते सौख्यं” इस आठ अक्षर वाले वाक्य के १०२२४०७ अर्थ किए गए है। कहा जाता है कि किसी समय एक जनेतर विद्वान् ने जैन धर्म के “एगस्त सुत्तस्स अनंतो अत्थो" वाक्य पर उपहास किया था, उसी के प्रत्युत्तर में कवि ने यह ग्रंथ रच डाला। ६-यह अथ देवचद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, सूरत से प्रकाशित हुआ है। इसमें कवि ने स्वय उपयुक्त वृत्तात लिखा है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] 'वाचक'-पद-कश्मीर विजय कर लाहौर वापस आने पर सम्राट् ने श्रीजिनचंद्रसुरि से वा० महिमराज को 'आचार्य' पद देने का अनुरोध किया। सं० १६४६ फाल्गुन कृष्ण १० से अष्टाह्निका महोत्सव आरम्भ हुआ और उसमें फाल्गुन शुक्ल २ को वा० महिमराज को 'आचार्य' पद देकर उनका नाम 'जिनसिंहसूरि प्रसिद्ध किया गया। इसी महोत्सव मे श्री जिनचन्द्रसूरि ने जयसोम तथा रत्ननिधान को 'उपाध्याय' एवं समयसुन्दर तथा गुणविनय को 'वाचक' पद से अलंकृत किया। इसका उल्लेख 'कर्मचन्द्र-वंश प्रबंध और 'चौपाई१२ में इस प्रकार पाया जाता है तेषु च गणि जयसोमा रलनिधानाश्च पाठका विहिता। गुणविनय समयसुंदर गणि कृती वाचनाचार्या ॥ ६२ ।। वाचक पद गुणविनव नइ, समयसुदर नइ दीघउ रे । युगप्रधान जी नइ करइ, जाणि रमायण सीधउ २।। ग्रन्थ-रचना और विहार-सं० १६५१ से गढ़ाला ( नाल )-मंडन श्री जिनकुशलसूरि के दर्शन कर उनका भक्तिगर्भित अष्टक द्रुतविलंवित छन्द में बनाया और इसी वर्प स्तम्भन पार्श्वनाथ-स्तव' की १०-द्रष्ट० नेमिदत्त काव्यवृत्ति की प्रस्तावना। ११-इसका मूल ओमाजी ने हिन्दी अनुवाद सहित थार्टपेपर पर छपवाया था, पर वह प्रकाशित न हो सका। मुनि जिन विजय ने इसे वृत्ति के साथ छपवाया है। - १२-जन राससग्रह माग ३ तथा ऐतिहासिक जैन गुर्जर काव्य-सचय में प्रकाशित। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६ ] रचना की जिसमें चौवीस तीर्थङ्करों और चौवीस गुरुओं के नाम समाविष्ट हैं। सं० १६५२ का चौमासा खंभात में किया और विजयदशमी के दिन 'श्रीजिनचन्द्रसूरि गीत' बनाया, जिसकी कार्तिक शुक्ल ४ की स्वयं कवि द्वारा लिखित प्रति उपलब्ध है। सं० १६५३ में आपाढ़ शुक्ल १० को इलादुर्ग में रचित एवं कवि की स्वलिखित 'मंगलवाद' की तीन पन्ने की प्रति जैसलमेर के खरतरगच्छ पंचायतो भंडार मे विद्यमान है। सं० १६५६ मे वे जेसलमेर आए और वहां अक्षय-तृतीया के दिन सतरह रागों मे 'पाश्चेजिनस्तवन' की रचना की। सं० १६५७ में श्री जिनसिहसूरि के साथ चैत्र कृष्ण ४ को आवू और अचलगढ़ गए। वहां से शत्रुजय और फिर अहमदावाद आए। सं० १६५८ का चातुर्मास्य यहीं किया और विजयदशमी के दिन यहीं 'चौबीसी' की रचना की। इसी वर्ष मनजी साह ने यहीं अण्टापद तीर्थ की रचना कराई, जिसका उल्लेख कवि ने 'अष्टापदस्तवन” में किया हैं। यहाँ से पाटण आए। यहाँ सं० १६५६, चैत्र पूर्णिमा की इनके हाथ की लिखी नरसिंहभट्ट-कृत श्रवण-भूपण ग्रंथ की प्रति हमने यति चुन्नीलाल के संग्रह मे ३०-३५ वर्ष पूर्व देखी थी। अब यह प्रति श्री मोतीचन्द खजानची के संग्रह में है। ___सं० १६५६ का चातुर्मास्य खंभात मे हुआ और वहां विजयदशमी के दिन 'शांव प्रद्य म्न चौपाई' की जो इनकी 'रास चौपाई आदि वड़ी भाषाकृतियों में सर्वप्रथम रचना है। इन्होंने इस चौपाई मे इसे प्रथम अभ्यास रूप रचना वतलायी है-- सगति नही मुझ तेहवी, बुद्धि नहीं सुप्रकास । वचन विलास नही तिस्यठ, ए पणि प्रथम अभ्यास ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] संवत् १६६१ में चैत्र कृष्ण ५ को भगवान् पार्श्वनाथ का स्तवन वनाया। १६६२ से सागानेर आए और दान-शील-तप-भावनासंवाद'१३ की रचना की। इस ग्रन्थ में धर्म के इन चार प्रकारों से होनेवाले लाभों और दृष्टांतों का संवाद रूप मे वणन करते हुए अन्त में भगवान् महावीर के मुख से चारों का समझोता कराया गया है। यह रचना सुन्दर और कवित्वपूर्ण है। ___सं० १६६२ मे घघाणी तीर्थ मे बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ प्रकट हुई जिनका माघ मास मे दर्शन कर इन्होंने एक ऐतिहासिक स्तवन १४ बनाया। इसका सार नीचे दिया जाता है 'सं० १६६२ ज्येष्ठ शुक्ल ११ को दूधेला तालाब के पास खोखर के पीछे भूमि की खुदाई करते समय भूमिगृह निकला। जिसमें जैन १३--जैन-स्तवन आदि के कई संग्रहात्मक ग्रंथों में यह प्रकाशित हो चुका है। ऐसी सवाद सज्ञक अन्य रचनायों के विषय में लेखक का 'जैन-सत्यप्रकाश', वर्ष १२ अंक १ में प्रकाशित लेख द्रष्टव्य है। १४-यह स्तवन घघाणी तीर्थ-समिति की ओर से मुनि ज्ञानसुदरजी के प्राचीन जैन इतिहास में प्रकाशित हुया था। घंघाणी जोधपुर रियासत में प्राचीन स्थान है। किसी समय यह बड़ा समृद्धिशाली नगर रहा होगा, जिसके भग्नावशेष आज आज भी यहाँ विद्यमान हैं। समयसुदरजी द्वारा उल्लिखित प्रतिमाएँ अव प्राप्य नहीं है, किन्तु दशवीं शती की एक विशाल धातु-मूर्ति अव भी उल्लेखनीय है। कुछ वर्ष पूर्व इस स्थान की खुदाई में पद्रहवीं शती की एक जैन प्रतिमा निकली थी, जो जैन उपाश्रय में रखी हुई है। अन्वेषण करने पर यहाँ प्राचीन शिलालेख आदि प्राप्त होने की समावना है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] और शिव की ६५ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई । इनमे मूलनायक पद्मप्रभु, पार्श्वनाथ, चौबीसटा, चौमुखजी, २३ अन्य पार्श्वनाथजी की प्रतिमाएँ जिनमें दो कायोत्सर्ग मुद्रा की थीं, एवं १६ अन्य तीर्थंकरों की - कुल ४६ जन तीर्थं कर प्रतिमाएँ थीं। इनके अतिरिक्त इंद्र, ब्रह्मा, ईश्वर, चक्रेश्वरी, अंबिका, कालिका, अर्धनारीश्वर, विनायक, योगिनी, शासन-देवता और प्रतिमाओ वनवानेवाले चंद्रगुप्त, संप्रति, विन्दुसार, अशोकचन्द्र तथा कुणाल, इन पांच नृपतियों की प्रतिमाएँ एवं कंसाल जोड़ी, धूपदान, घण्ट, शंख, भृंगार, उस समय के मोटे त्रिसटिए आदि प्राचीन वस्तुएँ निकलीं। इनमें पद्मप्रभु की सपरिकर सुन्दर मूर्ति महाराज संप्रति की बनवाई हुई और आर्य सुहस्तिसूरि द्वारा प्रतिष्ठित थी। दूसरी, अर्जुन पार्श्वनाथ की, प्रतिमा श्वेत सोने (प्लाटिनम ) की थी, जिसे वीर सं० १७० में सम्राट चंद्रगुप्त ने वनवा - कर चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु से प्रतिष्ठित कराया था ।' सं० १६६३ का चातुर्मास्य वीकानेर में हुआ । यहाँ कार्तिक शुक्ल १० को ‘रूपकमाला' नामक भाषा - काव्य पर संस्कृत मे चूर्णि वनाई, जिसका संशोधन श्रीजिनचन्द्रसूरि के शिष्य श्री रत्ननिधान ने किया । इनके द्वारा चाटसू में चैत्र पूर्णिमा १६६४ की लिखी इस चूर्णि की प्रति पूना के भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट में हैं । सं० १६६४ में ये आगरा आए और 'च्यार प्रत्येकबुद्ध चौपाई १५ की रचना की । इनका रचा आगरा के श्री विमलनाथ का स्तवन भी उपलब्ध है । १५ - यह पहले भीमसी माणक की ओर से प्रकाशित हुई थी, फिर 'आनंद काव्य - महोदधि' के सातवें मौक्तिक में श्री देसाई के लेख के साथ प्रकाशित हुई है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ [ ४२ ] सं० १६६५, चैत्र शुक्ल १० को अमरसर में उन्होंने 'चातुमार्मिक बनाया । वहाँ के श्री शीतलनाथ ४६६६ से ये वीरमपुर आए और व्याख्यान पद्धति' नामक ग्रन्थ , स्वामी का स्तवन भी उपलब्ध है । वह 'श्री कालिकाचार्य कथा' की रचना की । सं० १६६७ में उन्होने सिंध प्रान्त में विहार किया और मार्गशीर्ष शुक्ल १० गुरुवार को मरोद मे जंसलमेरी संघ के लिये 'पौध विधि स्तवन' बनाया। इसी वर्ष ये उच्चनगर जाए और अपने शिष्य महिमसमुद्र के आग्रह से 'श्रावकाराधना' बनाई । १६६८ में मुलतान आए और वहाँ प्रातःकाल के व्याख्यान में 'पृथ्वीचन्द्र चरित्र' यांचा इस ग्रन्थ की उक्त प्रति बीकानेर के राज्य-पुस्तकालय में है । यहीं 'सती मृगावती रास' भी रचा। इस समय सिंधी भाषा पर इनका अच्छा अधिकार हो गया था। नृगावती रास की एक ढाल और दो स्तवन इन्होंने सिंधी भाषा में बनाए । चैत्र कृष्ण १० को सुलतान में इनकी लिखाई हुई 'निरयावली सूत्र' की प्रति हमने यति चुन्नीलाल के संग्रह मे देखी थी । माघ शुक्ल को यहीं जेसलमेरी और सिंधी श्रावको के लिये 'कर्मछत्तीसी' बनाई। सं० १६६६ में ये सिद्धपुर ( सीतपुर ) आए और भखनूम मुहम्मद शेख काजी को उपदेश देकर सिंध प्रान्त मे गोजाति की रक्षा करवाई और पंचनदी के जलचर जीवों की हिंसा बंद कराई। अन्य जीवों के लिये भी इन्होंने अमारिपटह वजबाकर पुण्यार्जन के साथ-साथ विमल कीर्ति प्राप्त की । १६- यह स्थान शेखावाटी में है । द्रष्ट० 'जैन - सत्य - प्रकाश', वर्ष म अक १, इस विषय पर हमारा लेख । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] शीतपुर माहें जिण सममावियउ, मखनूम महमद सेखो जी। जीवदया पड़ह फेरावियो, राखी चिहुँ खड रेखो जी ॥ ३ ॥ ( देवीदास, समयसुदर गीत) सिंधु विहारे लाभ लियो घणो रे, रजी मखनूम सेख । पाचे नदिया जीवदया भरी रे, वलि घेनु विशेष || ५ || (वादी हर्षनदन, समयसुंदर गीत ) सिंध प्रांत मे ये लगभग दो-ढाई वर्ष विचरे थे। इनकी विशिष्ट कृति 'समाचारी शतक १७ का प्रारम्भ सिद्धपुर में होकर कुछ भाग मुलतान में रचा गया। सिंध१८ मे ही विहार के समय एक बार ये नौका में बैठकर उच्चनगर जा रहे थे। अधेरी रात मे अकस्मात् भयानक तूफान और वर्षा के कारण नदी के वेग से नौका खतरे से पड़ गई। उस समय इनकी भक्ति से आकर्पित हो दादागुरु श्री जिनकुशलसूरि ने तत्काल देरावर से आकर उस संकट में इनकी सहायता की । उस घटना का वर्णन इन्होने 'आयो आयो री समरंता दादो जी आयो' इत्यादि पद से स्वयं किया है। श्री जिनकुशलसूरि में इनकी अटूट श्रद्धा थी१९ और उनका स्मरण इन्होंने 'रास चौपाई आदि कृतियों में बड़ी भक्ति के साथ किया है। ___सिंध प्रांत से ये मारवाड आए। उसी समय बिलाड़ा में श्री जिनचन्द्रसूरि का स्वर्गवास हो गया। दूर होने के कारण ये अपने १७-~'श्री जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फड', सूरत से प्रकाशित । १८-द्रष्ट० 'वर्णी अभिनंदन ग्रथ' में 'सिंध प्रात तथा खरतरगच्छ' शीर्षक लेख। १६-द्रष्ट० हमारी 'दादा श्री जिनकुशलसूरि' पुस्तक । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] गुरुदेव के अंतिम दर्शन न कर सके, जिसका उन्हें बड़ा खेद रहा। आलिजा गीत मे इन्होंने अपने गुरु-विरहको व्यक्त किया है। यथा बालू मास वलि यावियो पूज जी, यायो दीवाली पर्व । काती चौमासौ बावियर पूज जी, याया अवसर नर्व ।। तुम बावो हो सीरियादे का नदन, तुम विन घड़िय न जाय । बालिनो मिलवा अति घणउ, बायउ सिंघ थी एथ। नगर ग्राम सहु निरखिया, कहो किम न दीसइ पूज्य केथ ।। मूयउ कहइ ते मूढ़ नर, जीवइ जिनचद्रसूरि । जग जंपइ नस तेहनउ हो, पुहवी कीरति पद्धरि ।। चतुर्विध संघ चितारत्यइ, जां जीवस्यइ ता सीम ! वीसार्या किम वीसरइ हो, निर्मल जप तप नीम || सं० १६७१ का चातुर्मास्य इन्होंने वीकानेर में किया और यहीं 'अनुयोग द्वार' एवं 'प्रश्नव्याकरण' की प्रतियां अपने प्रशिष्य जयकीर्ति को पठनार्थ अर्पित की, जिनके पुष्पिका-लेखों मे इसका उल्लेख है। लवेरा (जोधपुर) मे श्री जिनसिंहसूरि ने इन्हें 'उपाध्याय' पद से अलंकृत किया था, जिसका उल्लेख राजसोम गणि ने अपने गुरुगीत में किया है - "श्री जिनसिंहसूरिंद सहर लवेरइ हो पाठक पद कीय'। इसमें संवत् का उल्लेख नहीं है, परन्तु 'अनुयोगद्वार' (१६७१) की पुष्पिका में 'वाचक' और 'ऋषिमंडल वृत्ति' ( १६७२ ) की पुष्पिका में 'उपाध्याय' पद उल्लिखित होने से इसी बीच इनका Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] 'उपाध्याय' पद पाना निश्चित है। पद्ममंदिर कृत 'ऋषिमंडल वृत्ति' । इन्हें १६७२ में बीकानेर-निवासिनी श्राविका रेखा ने समर्पित की थी। इसकी प्रति जयपुर के पंचायती भंडार में है। - बीकानेर से ये मेड़ता आए। यहाँ सं० १६७२ में 'समाचारी शतक' तथा 'विशेष शतक'२० ग्रंथो की रचना समाप्त हुई। "प्रियमेलक चउपई२१ तथा सम्भवतः 'पुण्यसार चौपई' की रचना भी यहीं इसी वर्ष हुई। सं० १६७२ का चातुर्मास्य इन्होंने मेडता मे ही किया और कार्तिक शुक्ल ५ को यहाँ के ज्ञानभण्डार को 'जम्बू-स्वामी चरित्र' प्रदान किया, जिसकी प्रति आजकल बीकानेर के श्री क्षमाकल्याण ज्ञानभंडार मे। यहीं सं० १६७३ मे वा० हर्पनन्दन के साहाय्य से 'गाथालक्षण' ग्रन्थ लिखा, जिसकी प्रतिलिपि हंस विजयजी फ्री लायबेरी, बड़ोदा मे है। इसी वर्ष यहाँ वसन्त ऋतु में 'नल-दमयन्ती चऊपई भी बनाई। सं० १६७४ मे यहीं 'विचार-शतक' भी बनाया । इस प्रकार मेड़ता के चार चौमासों में ये निरन्तर साहित्य-निर्माण करते ___सं० १६७५ में इन्होंने जालोर में दादा श्रीजिनकुशलसरि की चरणपादुकाओं की प्रतिष्ठा करवाई, जिसका उल्लेख पादुकाओं के अभिलेख में है। १६७६ में राणकपुर तीर्थ की यात्रा की और १६७७ मे पुनः मेड़ता आए। इस वर्ष चातुर्मास्य अपनी जन्मभूमि साँचोर मे किया। यहीं 'सीताराम चौपाई' की ढाल बनाई और 'निरयावली २०-इस ग्रंथ में १०० सैद्धातिक प्रश्नो के उत्तर है। यह प्रकाशित है। २१-इसकी कई सचित्र प्रतियाँ भी मिलती हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र' का वीजक लिखा जो वाहड़मेर के यति श्री नेमिचन्द्र के पास है। १६७८ में आबू तीर्थ की यात्रा की। १६७६ में पाटण गए, किन्तु वहाँ मुगलों का उपद्रव होने से पालनपुर आए और वहीं चातुर्मास्य किया। इनका सहज विमल के पठनार्थ सं० १६७६, भाद्रपद कृष्ण ११ का लिखा 'पट्टाक्ली पत्र' हमारे संग्रह (बीकानेर) में है। १६८१ का चातुर्मास्य जैसलमेर में हुआ और यहाँ इन्होंने 'वल्कलचीरी चउपई रचो और 'मौनेकादशी स्तवन २२ आदि जिन-स्तवन२३ वनाए। इसी वर्ष कार्तिक शुक्ल १५ को लौद्रवा की यात्रा की और संघपति थाहरूशाह२४ द्वारा निकाले गए शत्रुजय संघ में सम्मिलित हुए। सं० १६८२ में नागोर आए और 'शत्रुजय रास'२५ बनाया तथा तिवरी में 'वस्तुपाल-तेजपाल रास'२६ रचा। १६८३ में जैसलमेर में 'पडावश्यक वालावबोध' बनाया। इसी वर्ष में इनके रचे हुए दो अष्टक 'बीकानेर आदिनाथ स्तवन' और 'श्रावक व्रत कुलक' उपलब्ध हैं। १६८४ का चातुर्मास्य लूणकरणसर में किया और 'दुरियर वृत्ति २७ की रचना की। यहां के संघ में पांच वर्षों से मनोमालिन्य था। २२-बभयरलसार, समयसुन्दरकृति कुसुमाजलि आदि में प्रकाशित । २३-जैन-लेख-सग्रह, माग ३ २४. इनका पुस्तक-महार अव मी जैसलमेर में विद्यमान है। इनके सम्बन्ध में एक गीत यौर दो प्रशस्तियाँ प्राप्त है। २५-~अभयरलसार, समयसुन्दर कृ० कु. में यादि में प्रकाशित । २६-~"जेनयुग' (मासिक, जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस, बम्बई )। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ४७ इन्होंने 'मन्तोपछत्तीसी' की रचना कर संघ के समक्ष उपदेश दिया, जिससे संघ में ऐक्य और प्रेम स्थापित हो गया। यहीं इन्होंने 'कल्पसूत्र पर 'कल्पलता २८ नामक टीका प्रारम्भ की तथा १६८५ में जयकीर्ति गणि की सहायता से 'दीक्षा-प्रतिष्ठा-शुद्धि' नामक ज्योतिष ग्रन्थ रचा। इसी वर्ष यहाँ 'विशेष संग्रह', 'विसंवाद शतक' और 'बारह व्रत रास' ग्रन्थ वनाए। 'यति-आराधना' तथा 'कल्पलता' की रचना इसी वर्ष रिणी में समाप्त की। सं० १६८६ में 'गाथासहस्त्री' नामक संग्रह-ग्रन्थ तैयार किया। १६८७ में पाटण आए और 'जयतिहुअण वृत्ति' तथा 'भक्तामर स्तोत्र' पर 'सुबोधिका' वृत्ति बनाई। यहाँ से ये अहमदावाद आए। १६८७ में गुजरात में भयंकर दुष्काल पड़ा था, जिसका सजीव __एवं हृदय-द्रावक वर्णन कवि ने विशेषशतक' की प्रशस्ति (श्लोक ७) तथा 'चंपकवेष्ठि चौपाई' में संक्षेप मे एवं 'सत्यासिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी'२९ में विस्तार के साथ किया है। १६८८ का चातुर्मास्य उन्होंने अहमदावाद में किया और वहाँ 'नवतत्व-वृत्ति वनाई। १६८६ का चातुर्मास्य भी यहीं किया और स्थूलिभद्र सज्झाय' की रचना की। १६६० में खंभात गए और वहां 'सवैया छत्तीसी', 'स्तंभन पार्श्व स्तवन' तथा 'खरतरगच्छ पट्टावली' की रचना की। १६६१ का चातु स्यि खम्भात के खारवापाड़ा स्थान मे किया और वहाँ 'थावच्चा चउपई', 'सैतालीस दोष समाय' तथा दशवेकालिक सूत्रवृत्ति' की रचना की। २७-२८-'जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्वार फड, सूरत से प्रकाशित । २६-'भारतीय विद्या, वर्ष १ अंक २ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ । १६९२ में भी ये खंभात ही में रहे और वैशाख मास में अपने शिष्य मेघविजय-सहजविमल के लिये 'रघुवंश' काव्य पर 'अर्थलापनिका वृत्ति' वनाई। १६९३ में अहमदावाद में सहजविमल लिखित 'सन्देह दोलावली' के पाठ पर सस्कृत पर्याय लिखे। इसी वर्ष यहाँ 'विहरमान वीसी' के पदों की रचना की। १६६४ का चातुर्मास्य जालोर में हुआ। वहां इनका आषाढ़ सुदी १० का लिखा 'श्री जिनचन्द्रसूरि गीत' हमारे संग्रह में है। इसी वर्ष वहाँ इन्होंने 'वृत्तरत्नाकर' छन्द-प्रन्थ पर वृत्ति तथा 'क्षल्लककुमार चउपई की रचना की। १६६५ में 'चंपक श्रेष्टि चउपई' बनाई और 'सप्तस्मरण' पर 'सुखबोधिका' वृत्ति लिखी, जिसका संशोधन इनके शिष्य वा० हर्षनन्दन ने किया। इसके बाद आँकेठ ग्राम (पालनपुर से पांच कोस) आए, जहाँ 'गौतमपृच्छा चौपाई, की रचना की। यहां से 'प्रल्हादनपुर' भाकर 'कल्याणमन्दिर वृत्ति लिखी। शेप जीवन-वृद्धावस्था एवं तज्जन्य अशक्ति के कारण विहार करते रहना संभव न था, अतः १६६६ में ये अहमदावाद गए और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया, पर साहित्य-रचना पूर्ववत् करते रहे। सं० १६६६ में उन्होंने 'दंडकवृत्ति', और व्यवहार-शुद्धि पर 'धनदत्त चौपई' की रचना की। पैंतालीस आगमों में जिन-जिन साधुओं के नाम पाए जाते हैं उनकी वंदना के रूप मे १६६७ में साधुवंदना' बनाई और उसी समय ऐरवत क्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन रचे। इसी संवत् मे फा० शु० ११ को वहीं संखवाल नाथा भार्चा धन्नादे ने परिमाण व्रत ग्रहण किये। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -[ ४६ ] इस टिप्पनक की प्रति कविवर के स्वयं लिखित प्राप्त है जिसकी प्रशस्ति :-सं० १६६७ वर्षे फागुण सुदि ११ गुरुवारे श्री अहमदाबाद नगरे श्री खरतरगच्छे भट्टारक श्रीजिनसागरसरि विजयराज्ये संखवाल गोत्रे सं० नाथा भार्या सुश्राविका पुण्यप्रभाविका श्रा० धन्नादे सा० करमसी माता महोपाध्याय श्री समयसुन्दर पार्श्वे इच्छापरिमाण कीधा छै। श्रीरस्तु। कल्याणमस्तु ।। . कविवर बड़े गुणानुरागी थे। अपने से अवस्था, ज्ञान, पद आदि ___ में छोटे तथा भिन्न-गच्छीय पुंजापि की उत्कट तपश्चर्या की प्रशंसा में उन्होंने १६६८ मे पुजा ऋषि रास' बनाया। इसी वर्ष 'आलोयणा छत्तीसी' भी बनाई। इनके रचे 'केशी-प्रदेशी-प्रबन्ध' की सं० १६६६ चैत्र शुक्ल २ की हपंकुशल की सहायता से लिखी प्रति ' हमारे संग्रह में है। आषाढ़ कृष्ण १, सं० १७०० की इनकी लिखी 'तीर्थभास छत्तीसी' की प्रति वम्बई-स्थित रायल एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालय मे है। १७०० के माघ मे लिखी इनकी अन्तिम रचना 'द्रोपदी' चौपाई उपलब्ध है। इसमें अपनी पूर्व रचनाओं का निर्देश करते हुए इन्होंने वृद्धावस्था मे इसकी रचना का हेतु सूत्र, सती और साधु के प्रति अपना अनन्य भक्तिराग वतलाया है पहिलं साधु सती तणा, कीधा घणा प्रवन्ध । हिव वलि सूत्र थकी कहुँ, द्रौपदी नउ सम्बन्ध ।। वृद्धपणई मइ चउपइ, करिवा मांडी एह । सूत्र सती नइ साधु त्यु, मुझ मनि अधिक सनेह ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] अन्त में लिखा है द्रोपदी नी ए चउपइ मै, वृद्धपणइ प्रणि कीधी रे । शिष्य तणइ आग्रह करी, मई लाभ ऊपरि मति दीधी रे ।। एक सती वलि साधवी, ए बात येऊ घणु मोटी रे। द्रूपढी नाम लेता थका, तिण कर्म नी तूटइ कोटी रे ।। इस चौपाई के लेखन और संशोधन में उनकी वृद्धावस्था के कारण हर्षनन्दन और हपेकुशल से सहायता मिली थी, इसका इन्होंने स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है वाचक हर्पनन्दन वलि, हर्षकुशलइ सानिध नीधी रे। लिखन शोधन साहाय्य थकी, तिण तुरत पूरी करि दीधी रे ।। अपने शिष्य-प्रशिष्यों के प्रोत्साहन के लिये तथा कृतज्ञता-ज्ञापन की अपनी सहज वृत्ति के कारण उनसे थोडा भी सहयोग किसी कार्य मे प्राप्त करने पर इन्होंने उसका निम्संकोच उल्लेख कई अवसरों पर किया है। पर ये बड़े स्पष्टवक्ता भी थे। दुष्काल के समय जिन शिष्यों ने इनकी सेवा की थी उनकी इन्होंने प्रशंसा की है, परन्तु उसके पश्चात् शिष्यों के तथाविध सेवा-शुश्रूषा न करने का इन्हें मार्मिक दुःख था। इस विषय मे अपने स्पष्ट उद्गार इन्होंने 'दुःखित-गुरुवचनम्' के श्लोकों में प्रकट किए हैं। मृत्यु---'द्रोपदी चौपाई के वाद की इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य-साधना एवं धर्मप्रचार में बिताया। सं० १७०२ में चैत्र शुक्ल १३ ( भगवान् महावीर के जन्म-दिन) के दिन ये अहमदाबाद में अनशन-आराधनापूर्वक स्वर्गवासी हुए, जिसका उल्लेख राजसोम कृन गीत में है Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] अणसण करि अणगार, संवत सतरै सय बीड़ोत्तरे । यहमदावाट मझार, परलोक पहुँता हो चैत सुदि तेरसै || अहमदाबाद में इनके स्वर्गवास के स्थान तथा पादुकाओं का । अभी तक पता नहीं चला, पर बीकानेर के निकटवर्ती नाल एव जैसलमेर में दो पादुकाओ के दर्शन हमने किए हैं। शिष्य-परम्परा-एक प्राचीन पत्र के अनुसार इनके शिष्यों की संख्या वयालीस थी, जिनमें वादी हर्षनन्दन प्रधान थे । न्यायशास्त्र के 'चिंतामणि' ग्रंथ तक के अध्येता के रूप में इनका उल्लेख कवि ने स्वयं किया है । इनके रचे तीन विशाल टीका-ग्रंथ (ऋषिमंडल वृत्ति, उत्तराध्ययन वृत्ति, स्थानांग गाथागत वृत्ति) तथा कई अन्य ग्रन्थ हैं। हर्षनन्दन के शिष्य जयकीति द्वारा विरचित सुप्रसिद्ध राजस्थानी भक्तिकाव्य 'कृष्ण रुक्मिणी वेलि वालावबोध' उपलब्ध है। जयकीति के शिष्य राजसोम की भी 'पारसी-भापा-स्तवन' तथा गुरुगीतादि रचनाएँ मिलती है। हर्पनन्दन के दया विजय नामक शिष्य थे, जिनके लिये 'ऋषिमण्डल वृत्ति' की रचना हुई और जिन्होंने 'उत्तराध्ययन वृत्ति' का प्रथमादर्श लिखा। समयसुंदरजी के मेघविजय नामक एक विद्वान् शिष्य थे, जिनके शिष्य हर्षकुशल की 'वीसी' आदि कृतियां मिलती है। इनके शिष्य हर्पनिधान के शिष्य ज्ञानतिलक के शिष्य विनयचन्द्र अठारहवीं शती के प्रमुख कवि थे, जिनकी 'उत्तमकुमार चौपई', 'चौबीसी' आदि सभी रचनाएँ विनयचन्द्र कृति कुसुमाजलि मे प्रकाशित हैं। कवि के अपर शिष्य मेघकीर्ति की परम्परा में आसकरण के Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ ] शिष्य आलमचन्द की भी कृतियां मिलती है। आसकरण की परम्परा में कस्तूरचन्द गणि की रची 'ज्ञातासूत्र वृत्ति' उपलब्ध है। कवि के अन्य शिष्यों में सहजविमल, महिमासमुह, सुमतिकीनि, माईदास आदि का उल्लेख प्रशस्तियों में पाया जाता है। आलमचन्द की परम्परा मे यति चुन्नीलाल कुछ वर्ष पूर्व बीकानेर में विद्यसान थे। हैदरावाद राज्य के सेवली स्थान में रामपाल नामक यति समयसुंदरजी की परम्परा में अब भी विद्यमान है। इनका शिष्यपरिवार खूब विस्तृत होकर फूला-फला। उसमे सैकड़ों साधु यति हो गए, जिनमें कई अच्छे गुणी व्यक्ति थे। भारत के सभी प्राचीन जैन ज्ञान-भण्डारों में इनकी कृतियां पाई जाती है और जहाँ भी इनकी शिष्य-संतति रही हो वहीं अनुसंधान करने पर भी नवीन कृतियाँ उपलब्ध होने की संभावना है। साहित्य - उपर्युक्त चर्चा के अन्तर्गत कवि की रचनाकालउल्लिखित प्रमुख रचनाओ का यथास्थान निर्देश-किया गया है। इन्होने साठ वर्ष निरन्तर साहित्य-माधना करते हुए भारतीय वाडमय को समृद्ध वनाया। स्तवन गीत आदि इनकी लघु कृतियां सैकड़ो की संख्या में है जो जहाँ कहीं भी खोज की जाय, मिलती ही रहती है। इसी से लोकोक्ति है कि 'समयसुंदर रा गीतड़ा, कुंभे राणे रा भीतड़ा, (अथवा भीतों का चीतड़ा) अर्थात् कविवर की रचनाएँ अपरिमित है। इनकी समस्त ज्ञात रचनाओ की सूची यहाँ एकत्र दी जाती है, पुस्तक के आगे, जहाँ ज्ञात है, उसकी रचना का विक्रमीय संवत् और रचना-स्थान तथा वर्तमान प्राप्ति स्थान दे दिया गया है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३. ] सस्कृत मौलिक १-भावशतक, स० १६४१ , प्रेस-कापी नाहटा-सग्रह, बीकानेर में वर्तमान । २-अष्टलक्षी, १६४६, लाहोर ; दे० ला० पु० फंड, सूरत से प्रकाशित । ३-चातुर्मासिक व्याख्यान, १६६५, अमरसर , प्रकाशित । ४-कालिकाचार्य कथा, १६६६, बीरमपुर ; श्री जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार, सूरत से प्रकाशित । ५-श्रावकाराधना, १६६७, उच्चनगर, कोटा से प्रकाशित । ६- समाचारी शतक, १६६६-७२, सिद्धपुर-मेड़ता, जिनदत्तसूरि ज्ञानभडार से प्रकाशित । ७ -विशेष शतक, १६७२, मेडता, जिनदत्तसूरि प्रा० पु० फड से प्रकाशित । ८-विचार शतक १६७४, मेडता; बड़ा ज्ञानभण्डार, बीकानेर में । ६-यति आराधना, १६८५; हमारे संग्रह में । १०-विशेष सग्रह, १६८५; हमारे संग्रह मे। ११-दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि, १६८५ लूणकरणसर; प्रेस-कापी हमारे संग्रह में। १२-विसवाद शतक, १६८५, हमारे संग्रह में । १३-खरतरगच्छ पट्टावली, १६६०, खभात, प्रेस-कापी हमारे संग्रह में। १४-कथाकोश, ( अपूर्ण दे० ला० पु० फड सूरत प्रेस-कापी) पूर्ण प्रति जिनऋद्धिसूरि सग्रह, स्वयं लिखित अपूर्ण प्रति विनयसागरजी स० । १५-सारस्वत रहस्य; प्रेस-कापी हमारे संग्रह में। १६-प्रश्नोत्तर २८८७, यप्राप्य (सूची का अन्तिम पत्र ही प्राप्त)। १७-प्रश्नोत्तर-सार-सग्रह, हसविजय लाइन्नेरी, वडोदा। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमार [ ५४ ] १८-ऋपम भत्तामर, प्र० तमयसुदर कृति कुतुमाजली। १६-वीर २७ भव, " " २०-- मगलवाद, , २१-श्री जिनसिंहरि पदोत्सव ( रघुवंश, तृतीय सर्ग, पादपूर्ति ); प्रेस-कापी - हमारे संग्रह में। २२-द्रोपदी-सहरण । २३-अल्पावहुनगर्मितस्तव स्वोपन वृत्ति, यात्मानद सभा, भावनगर से प्रकाशित। २४-२४ जिन-गुरु नामगमित स्तोत्र स्वोपज्ञ वृत्ति, प्र० स० कृ० कु. । २५--स्तोत्र संग्रह। सग्रह ग्रथ १-गाथासहस्री, स० १६८६; जिनदत्तसूरि ज्ञानभडार, सुरत से प्रकाशित । टीकाएँ १-रूपकमाला वृत्ति, सं० १६६३, बीकानेर, प्रेस कापी हमारे संग्रह । २-दुरियर स्तोत्र वृत्ति, १६८४, लूणकरणसर, जिनदत्तसूरि ज्ञानभडार से प्र० ३ कल्पसूत्र वृत्ति, ( कल्पलता ), १६८४-८५, रिणी, , , ४-जयतिहुअण वृत्ति, १६८७, पाटण; ५-~भक्तामर सुबोधिनी वृत्ति, १६८७, हमारे संग्रह मे। ६-नवतल शब्दार्थ वृत्ति, १६८८ अहमदावाद; हमारे संग्रह में। ७-दशवकालिक वृत्ति, १६६१, खमात । ८- रघुवंश वृत्ति, १६६२. खंभात; वड़ा ज्ञानभडार । ६-सदेह दोलावली पर्याय, १६६३ । १०-~-वृत्तरलार वृत्ति, १६६४, जालोर; हमारे संग्रह । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] ११-सप्तस्मरण वृत्ति, १६६५, जिनदत्तसूरि पु० फड से प्रकाशित। ' १२-कल्याणमदिर वृत्ति, १६६५, प्रल्हादनपुर, " , १३-दडक वृत्ति, १६६६, अहमदावाद, हमारे संग्रह मे।। १४-वाग्भट्टालंकार वृत्ति (अपूर्ण बीकानेर ज्ञानभडार) पूर्ण प्रति एसियाटिक सो० वम्बई, स० १६६२ अहमदावाद, हरिराम के लिये रचित । १५-विमलस्तुति वृत्ति, प्रेसकापी हमारे संग्रह में । १६-चत्तारि परमंगाणि व्याख्या; हमारे संग्रह में । १७-मेघदूत प्रथम श्लोक ( तीन अर्थ ), हमारे संग्रह में । १८-माघ-काव्य वृत्ति; तृतीय सर्ग की प्रति सुराणा पुस्तकालय, चूरू में । १६-लिंगानुशासन चूणि । अनिट् कारिका। २०-ऋषिमंडल टिप्पण स० १६६२, आश्विन सग्रामपुर में लिखित । २१-वेरथय वृत्ति, विवेचन स० १६८४ अक्षयतृतीया विक्रमपुरे पत्र २ स्वयं लि । , २२-मेघदूत वृत्ति। २३-कुमारसम्भव वृत्ति। वालावबोध १-पडावश्यक बालाववोध, १६८३, जैसलमेर, बालोतरा भडार, आचार्य शाखा भडार, तथा हमारे संग्रह में। २-दीवालीकल्प वालावबोध सं० १६८२ सूरत पत्र १६ । भाषा कृतियाँ (रास, चौपाई आदि) १-चौबीसी, १६५८ अहमदावाद; पूजा-सग्रह, स० कृ० कु० मे प्रकाशित । २-शाव प्रद्युम्न चौपई, १६५६, खमात; हमारे संग्रह । ३-दानादि चौढालिया, १६६२, सागानेर, स० ० ० में प्रकाशित { Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] ___४-चार प्रत्येकबुद्ध रास, १६६४-६५ घागरा, आनन्द-काव्य महोदधि में प्रकाशित । ५-मृगावती रास, १६६८, मुलतान; हमारे संग्रह में | ६-सिंहलसुत प्रियमेलक रास, १६७२, हमारे संग्रह । प्र० समयसुंदर रास पश्चक । ७-पुण्यसार रास, १६७२; हमारे संग्रह मे। " ८-नल-दमयन्ती चौपाई, १६७३, मेड़ता; हमारे संग्रह में । ह-सीताराम चौपाई, १६७७, साँचोर यादि, प्रस्तुत ग्रन्थ में प्र० । १०-वल्कलचीरी रास, १६८१, जैसलमेर समयसुदर रासपचक में प्र० । ११- शत्रु जय रास, १६८२, नागोर प्रकाशित । समय० कृ० कु. १२-वस्तुपाल-तेजपाल रास, १६८२, तिमरीपुर; जैन-युग में प्रकाशित । " १३-थावच्चा चौपाई, १६६१, खभात, हमारा संग्रह । १४-~-विहरमान वीसी स्तवन, १६६३, अहमदाबाद; प्र० समय० कृ० कु० १५-तुल्लककुमार रास, १३६४ जालोर; १६-चपकवेष्ठि चौपाइ, १६६५, जालोर, प्र० समय ० रास पंचक । १७-गौतमपृच्छा चौपाई, १६६५, आँकेठ, हमारे स ग्रह में। १८-व्यवहारशुद्धि धनदत्त चौपाई, प्र० समय रास पचक । १६-साधुवदना, १६६७, अहमदावाद हमारे संग्रह में । २०-ऐरवत क्षेत्र चौवीसी, १६६७, यहमदावाद । प्र० स० कृ० कु० २१-पुंजा (रल ) ऋषि रास, १६६८, , , २२-केशी प्रदेशी प्रबन्ध, १६६८, अहमदावाद, " " २३-द्रोपदी चौपाई, १७००, अहमदाबाद, हमारे संग्रह में। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] छत्तीसी साहित्य - • १-क्षमा छत्तीसी, नागोर, प्रकाशित। २- कर्म छत्तीसी, १६६८, मुलतान। ३-पुण्य छत्तीसी, १६६६, सिद्धपुर। ४-सन्तोष - छत्तीसी, १६८४ लूणकरणसर । ५-दुष्काल वर्णन छत्तीसी, १६८८ । ६सवैया छत्तीसी, १६६०, खंभात । ७-यालोयणा छत्तीसी, १६६८ अहमदावाट । सभी स० कृ० कु० में प्रकाशित । इनके अतिरिक्त तीर्थभास छत्तीसी, साधुगीत छत्तीसी आदि कई संग्रह हैं। हमने ५०० के लगभग स्तवन, गीत, पदादि संगृहीत किए हैं। जो समयसुन्दर कृति कुसुमांजली में प्रकाशित है । कुछ विद्वानों ने कविवर की कई अन्य रचनाओं का उल्लेख किया है, पर उनमें अधिकाश संदिग्ध प्रतीत होती है। यहां उनका निर्देश किया जाता है १-देसाई जी-(१) पुण्याढ्य रास, (२) संवादसुन्दर, (३) गुणरत्नाकर छन्द, (४) गाथालक्षण, (५) रेवती समाय, (६) बीकानेर आदिनाथ वीनति आदि। २-लालचन्द भ० गाधी-(१) शील छत्तीसी, (२) वारह व्रत रास, (३) श्रीपाल रास, (४) प्रश्नोत्तर चौपाई, (५) हंसराज-बच्छराज रास, (६) जम्बूरास, (७) नेमि-राजिमती रास, (८) अंतरिक्ष गौड़ी छन्द। , ३-हीरालाल रसिकदास-जीवविचार वृत्ति । ४-पूरणचन्द नाहर . जिनदत्तर्षि कथां । . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] कवि की स्वलिखित प्रतियाँ कविवर ने केवल ग्रन्थों की रचना ही नहीं की, स्व-रचित एवं अन्य-रचित अनेक ग्रन्थो की स्वयं प्रतिलिपियां भी की, जिनमे कई एक उपलब्ध हैं। कई ग्रंथों की इनके द्वारा संशोधित प्रतियां भी मिली है। इनके स्वलिखित जात ग्रन्थों की सूची यहां दी जाती हैं नाहटा संग्रह में-(१) करकण्डु चौपाई (८ पत्र ), १६६४, यागरा; (२) फुटकर गीत ( २७ पत्र ), १६७६, (३) खण्डित प्रति, १६८८, (४) जिनचन्द्रसूरि रागमाला, १६६४, जालोर; (५) प्रस्ताविक सवैया छत्तीसी (४ पत्र), १६६८, पार्श्वचद्र उपाश्रय अहमदपुर; (६) केशी प्रदेशी प्रबन्ध ( ४ पत्र ) १६६६, अहमदाबाद, (७) रात्रिजागरण गीत (८ पत्र ); (८) नेमिगीत छत्तीसी (६ पत्र ), (६ ) साधु गीतानि; (१० ) अन्त समये जीवप्रतिबोध गीतम् ; (११) ऐरवत क्षेत्रे २४ तीर्थ कर गीतम् ; (१२) कल्याणमन्दिर वृत्ति, प्रारम्म, (१३) श्री जिनचन्द्रसूरि गीत, १६५२ खभात; (१४) पट्टावली पत्र, १६७६, प्रल्हादनपुर । अन्यत्र प्राप्त-(१) रूपकमाला चूर्णि (भाडारकर इन्स्टीट्यूट, पूना) (२) दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि, १६८५, लूणकरणसर ( आचार्य शाखा भण्डार ) वीकानेर। (३) गाथासाहली (या० शा० भ०)। (४) कथासंग्रह (बा० शा० भ०)। (५) प्रश्नोत्तर पत्र (आ० शा० भ०)। (६) महावीर २७ भव, दो पत्र ( अवीरजी भडार )। (७) सारस्वत रहस्य ( महिमाति भण्डार)। (८) सीताराम चौपाई ( अनूप संस्कृत पुस्तकालय, नित्यमणि जीवन जैन पुस्तकालय, कलकत्ता; विजयधर्मसूरि ज्ञानभण्डार, यागरा)। (६) वाग्मटालंकार वृत्ति, मध्य पत्र (महिमाभक्ति भण्डार)। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] (१०) गुरु-दुःखित वचनम् म० भ० भ०)। (११) अष्टक, दो पत्र ( म० म० भ०)। (प्रियमेलक चौ०, ५ पत्र ( म० भ० भं०)। (१३) तीर्थभास छत्तीसी (रा० ए० सो० बम्बई )। (१) साँझी गीत ( पालनपुर भण्डार)। (१५) साधुगीत छत्तीसी ( फूलचन्दजी झावक)। (१६) कुमारसम्भव वृत्ति, १६७६ ( हरिसागरसूरि भण्डार, लोहावट )। (१७) गीत, पत्र १ तथा ८, स० १६६३, पाटण (यति नेमिचन्द जी, वाहडमेर)। (१८) शत्रुजयरासादि (हाला भण्डार)। (१६) रघुवंश टीका, ६ पत्र (डूंगरसी भण्डार, जेसलमेर)। (२०) अष्टोतरी दशाकरण विधि, तीन पत्र (डू० भ०) (२१) माघ काव्य वृत्ति ( सुराणा पुस्तकालय, चूरू)। (२२) श्री जिन सिंह पदोत्सव काव्य, नौ पत्र ( यति सुमेरमल जी, भीनासर )। (२३) प्रियमेलक चौपाई (आगरा ज्ञानमन्दिर)। (२४ ) द्रौपदी चौपाई (अनन्तनाथ भण्डार, बम्बई)। (२५) कालिकाचार्य कथा ( जयचन्द भण्डार, बीकानेर)। (२६ ) पार्श्वनाथ लघु स्तवन, ८ पत्र स० १७००, अहमदावाद । (२७) लिंगानुशासन चूर्णि, ६ पत्र। (२८) सारस्वत रूपाणि, ५ पत्र । (२६) सप्तनिन्हव सम्बन्ध । (३०) कथा-संग्रह (२६-३० आचार्य शाखा भण्डार)। संशोधित एवं 'पर्याय' लिखित प्रति १-दशवकालिक पर्याय (हमारे संग्रह)। २-लिंगानुशासन पर्याय, ८ पत्र ( महिमाभक्ति भण्डार)। ३-सन्देह-दोलावली पर्याय (जयचन्द जी मण्डार । ४-चतुर्मासिक व्याख्यान पद्वति ( हमारे संग्रह । ५-प्रिय. मेलक चौपाई (हमारे संग्रह )। अन्य-रचित ग्रंथों की प्रतियाँ १-दोपावहार वृत्ति ( हमारे संग्रह)। २-श्रवणभूपण, १६५६ वि० ( यति चुन्नीलाल जी के संग्रह में)। ३- भरटक द्वात्रिंशिका, ७ पत्र ( डंगरसी भण्डार, जैसलमेर )। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि समयसुंदर का साहित्य अत्यन्त विशाल है, उनके सम्बन्ध मे हमने गत ३५ वर्षों में पर्याप्त शोध की है, फिर भी नवीन शोध करने पर कुछ न कुछ प्राप्ति होती ही रहती है। यहीं सीमित स्थान में उनके साहित्य का विस्तृत विवेचन देना सम्भव नहीं है। हमने समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि का सम्पादन कर प्रकाशन किया है, जिसमें महोपाध्याय विनयसागरजी द्वारा लिखित 'महोपाध्याय समयसुन्दर' निवन्ध व उनकी अव तक प्राप्त ५६३ लघु कृतियां दे दी हैं। सादूल राजस्थान रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर से प्रकाशित समयसुन्दर रास पंचक में उनके ५ रास सार सहित दे दिये है, मृगावती रास के सार रूप "सती मृगावती" पुस्तक लगभग ३५ वर्ष पूर्व प्रकाशित की थी। अब सीताराम चौपई नामक कविवर की विशिष्ट कृति को राससार सहित प्रकाशित करते अत्यन्त हर्प हो रहा हैं। पाठकों को कविवर की कृतियों का रसास्वादन करने के लिए समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि ग्रंथ अवश्य अवलोकन कर अपने नित्य के भक्ति क्रम में सम्मिलित करना चाहिए। प्रो० फूलसिंह हिमाशु ने सीताराम चौ० का संक्षिप्त परिचय मरुभारती वर्प ७ अंक १ में प्रकाशित किया था जिसे यहाँ साभार प्रकाशित किया जा रहा है। मणिधारी जयन्ती -अगरचन्द नाहटा मा० तु० १४, स० २०२० -~-मॅवरलाल नाहटा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीताराम चरित्र सार पूर्वकथा प्रसंग ___एक बार गणधर गौतम राजगृह नगर में समौसरे। महाराजा श्रेणिकादि परिषद् के समक्ष उन्होंने अठारह पाप स्थानकों का परिहार करने का उपदेश देते हुए कहा कि साध्यादि को मिथ्या कलंक देने से सीता की भांति प्रबल दुःख जाल में पड़ना होता है। श्रेणिक के पूछने पर गौतम स्वामी ने सीता के पूर्वभव से लगा कर उनका सम्पूर्ण जीवन-वृत्त वतलाया जो यहां संक्षिप्त कहा जाता है। वेगवती और महात्मा सुदर्शन भरतक्षेत्र में मृणालकुंड नगर में श्रीभूति पुरोहित की पुत्री वेगवती निवास करती थी। एक वार वहाँ सुदर्शन नामक उच्चकोटि के मुनिराज के पधारने पर सारा नगर वन्दनार्थ गया और उनके निर्मल संयम और उपदेशों की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। मिथ्या दृष्टिवश वेगवती को साधु की प्रशंसा असह्य हुई और वह लोगों की दृष्टि मे मुनिराज को गिराने के लिए मिथ्या प्रचार करने लगी कि ये साधु पाखण्डी है। मैंने इन्हें स्त्री के साथ व्रत भंग करते देखा है। वेगवती के प्रचार से साधु की सर्वत्र निन्दा होने लगी। मुनिराज के कानों मे जव यह प्रबाद पहुंचा तो उन्हें मिथ्या कलंक और धर्म की निन्दा का बड़ा खेद हुआ। उन्होंने जब तक यह कलंक न उतरे, अन्न जल का परित्याग कर दिया। शासनदेवी के प्रभाव से वेगवती का मुंह फूल गया और वह अत्यन्त दुःखी होकर अपने किये का फल पाने लगी। उसके मन मे पश्चाताप हुआ और अपना दुष्कृत्य स्वीकार करते हुए Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] उसने मुनिराज को निर्दोष घोषित कर दिया। लोगों में सर्वत्र हपे व्याप्त हो गया । वेगवती ने धर्म श्रवण कर संयम स्वीकार किया और आयुष्यपूर्ण कर प्रथम देवलोक मे उत्पन्न हुई। वेगवती और मधु-पिंगल भरतक्षेत्र में मिथिलापुरी नामक समृद्धनगरी थी जहाँ दानी और तेजस्वी जनक राजा राज्य करते थे। उनकी भार्या वैदेही की कुक्षि । में वेगवती का जीव-कन्या के रूप में व एक अन्य जीव पुत्र के रूप मे उत्पन्न हुए। पूर्वभव के वैरवश एक देव ने पुत्र को हरण कर लिया। श्रेणिक राजा द्वारा वैर का कारण पूछने पर गौतम स्वामी ने कहा कि - चक्रपुर के राजा चक्रवर्ती और उसकी रानी मयणसुन्दरी की पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी। लेखशाला में अध्ययन करते हुए पुरोहित के पुत्र मधुपिंगल से उसका प्रेम हो गया। मधुपिंगल उसे विर्दभापुरी ले गया और वे दोनों वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे। कुछ दिनों में मधु पिगल विद्या विस्मृत होकर धन के विना दुःखी हो गया। राजकुमार अहिकुण्डल ने जव सुन्दरी को देखा तो वह उसे अपने महलों में ले गया । मधुपिंगल ने जब अपनी स्त्री को नहीं देखा तो उसने राजा के पास जाकर पुकार की कि मेरी स्त्री को कोई अपहरण कर ले गया। आप उसकी शोधकर मुझे प्राप्त कराने की कृपा करें। राजकुमार के किसी पुरुप ने कहा-मैंने उसे पोलासपुर में साध्वी के पास देखा है। मधुपिंगल उसे खोजने के लिए पोलाशपुर गया और न मिलने पर फिर राजा के पास आकर पुकार की और झगड़ा करने लगा तो राजा ने उसे पिटवा कर नगर के बाहर निकाल दिया। मधुपिंगल Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] - विरक्त होकर साधु हो गया और तपश्चर्या के प्रभाव से मरकर स्वर्गवासी हुआ। राजकुमार अहिकुण्डल ने धर्म सुना और साधु संगति से सदाचारी जीवन बिता कर वैदेही की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ जिसे पूर्वभव का वैर स्मरणकर मधुपिंगल के जीव देव ने जन्मते ही अपहरण कर लिया। देव का विचार था कि इसे शिला पर पछाड़ कर मार दिया जाय पर मन मे दयाभाव आ जाने से वह ऐसा न __ कर सका और उसे कुण्डल हार पहना कर वैताढ्य पर्वत पर छोड़ दिया । चन्द्रगति नामक विद्याधर ने जब उसे देखा तो उसने तत्काल ग्रहण कर रथनेउरपुर ले जाकर अपनी भार्या अंशुमती को देकर लोगों मे प्रसिद्धि कर दी कि मेरी स्त्री गूढगर्भा थी और उसके पुत्र उत्पन्न हुआ है। विद्याधर लोगों ने पुत्र जन्मोत्सव किया और उस बालक का नाम भामंडल रखा। वह कुमार वैताठ्य पर्वत पर चन्द्रगति के यहाँ वड़ा होने लगा। सीता का नाम संस्करण तथा पूर्वानुराग इधर जब रानी वैदेही ने पुत्र को न देखा तो वह मूर्छित होकर नाना विलाप करने लगी। राजा जनक ने उसे समझा-बुझा कर शात किया और पुत्री का जन्मोत्सव मनाकर उसका नाम सीता रखा। राजकुमारी सीता पाँच धायो द्वारा प्रतिपालित होकर क्रमशः यौवन अवस्था में प्रविष्ठ हुई। सीता लावण्यवती और अद्वितीय गुणवती थी। राजा जनक ने उसके लिए वर की शोध करने के हेतु मंत्री को भेजा। मंत्री ने राजा से कहा कि अयोध्या नरेश दशरथ के चार पुत्र है जिनमें कौशल्यानंदन रामचंद्र अपने लघुभ्राता सुमित्रा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] नंदन लक्ष्मण और कैकयी के पुत्र भरत शत्रुघ्न युक्त परिवृत है । इनमें रामचंद्र के साथ सीता का संबंध सर्वथा योग्य है। राजा जनक ने राजपुरुषो को अयोध्या भेजकर सीता का सम्बंध कर लिया। सीता ने जब यह सम्बंध सुना तो वह भी अत्यन्त प्रमुदित हुई। नारद मुनि का आगमन अपमान तथा वैरशोधन की चेष्टा ___ एक दिन नारद मुनि सीता को देखने के लिए आये। सीता ने उनका भयानक रूप देखा तो वह दौड़कर महल में चली गई। नारद मुनि जव पीछे-पीछे गए तो दासियों ने अपमानित कर द्वारपाल द्वारा वाहर निकलवा दिया। नारद मुनि क्रुद्ध होकर सीधे वैताढ्य पर्वत पर रथनेउर नरेश के यहां गए और सीता का चित्र बनाकर भामंडल के आगे रखा। भामंडल ने सीता पर मुग्ध होकर उसका परिचय प्राप्त किया और उसकी प्राप्ति के लिए उदास रहने लगा। चन्द्रगति ने भामण्डल को समझा-बुझाकर आश्वस्त किया और सीता की माग करने मे कदाचित् जनक अस्वीकार हो जाय, तो अपना अपमान हो जाने की आशंका से चपलगति विद्याधर को छल-बलपूर्वक राजा जनक को ही बुला लाने के लिए मिथिला भेजा। विद्याधरों का षड़यन्त्र और विवाह की शर्त चपलगति घोड़े का रूप धर मिथिला गया। राजा जनक ने लक्षणयुक्त सुन्दर अश्व देखकर अपने यहां रख लिया। एक महीने वाद राजा स्वयं उस पर आरूढ़ होकर वन मे गया तो अश्व ने राजा जनक को आकाश मार्ग से चन्द्रगति विद्याधर के समक्ष लाकर उपस्थित कर दिया। चन्द्रगति ने भामण्डल के लिए सीता की मांग की तो जनक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] ने कहा-दशरथ राजा के पुत्र रामचन्द्र को सीता दी जा चुकी है, अतः अब यह अन्यथा कैसे हो सकता है ? विद्याधरों ने कहाखेचर के सामने भूचर की क्या बिसात है ? राम यदि देवाधिष्ठित धनुप चढा सकेगा तो सीता उसे मिलेगी अन्यथा विद्याधर ले जायेंगे! विद्याधर लोग सदल बल मिथिला के उद्यान में आ पहुंचे। राजा जनक भी खिन्न हृदय से अपने महलों में आये और रानी के समक्ष कहा कि राम यदि बीस दिन के अन्दर धनुप चढा सका तो ठीक अन्यथा सीता को विद्याधर ले जावेंगे। सीता ने कहा-आप कोई चिन्ता न करें, वर राम ही होगें। विद्याधर लोग अपनी इज्जत खो "कर जायेंगे। धनुष-भंग आयोजन तथा सीता विवाह मिथिला नगरी के बाहर 'धनुप-मण्डप' बनवाया गया। राजा दशरथ अपने चारों पुत्रों के साथ आ पहुचे। मेघप्रभ, हरिवाहन, चित्ररथ आदि कितने ही राजा आये थे। धाय माता ने सीता को सबका परिचय दिया। मन्त्री द्वारा धनुष चढ़ाने का आह्वान श्रवण कर राजा लोग बगलें झांकने लगे। अतुलबली राम सिंह की तरह उठे और तत्काल धनुष चढ़ा दिया। टंकार शब्द से पृथ्वी और पर्वत कॉपने लगे, शेषनाग विचलित हो गये। अप्सराएं कांपती हुई अपने भर्ताओं से आलिंगित हो गई। आलान स्तंभ उखड़ गये, मदोन्मत्त हाथी छुटकर भग गए। थोड़ी देर में सारे उपद्रव शान्त हो गए आकाश में देव सुंदुभि बजी, पुष्पवृष्टि हुई सीता प्रफुल्लित होकर रामचन्द्रके निकट आ पहुंची। दूसरा धनुष लक्ष्मणने चढाया, विद्या Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर लोगों ने प्रसन्न होकर अठारह कन्याओं का सम्बन्ध किया। राम सीता का पणिग्रहण हुआ, सब लोग अपने-अपने स्थान लौटे। राजा दशरथ अपने पुत्रादि परिवार सह जनक द्वारा विपुल समृद्धि पाकर अयोध्या लौटे। महाराजा दशरथ की विरक्ति महाराजा दशरथ शुद्ध श्रावक धर्म पालन करते हुए काल निर्गमन करते थे। एक वार जिनालय में उन्होंने अठाई महोत्सव प्रारम्भ किया तो समस्त राणियों को उत्सव दर्शनार्थ बुलाया गया। सब को वुलाने के लिए अलग-अलग व्यक्ति भेजे गये थे। सभी रानियां आकर उपस्थित हो गई। पट्टरानी के पास बुलावा नहीं जाने से वह कुपित होकर आत्मघात करने लगी। दासी का कोलाहल सुनकर राजा स्वयं पहुंचा और रानी से कहा ये क्या अनर्थ कर रही हो ? इतने मे ही रानी को बुलाने के लिए भेजा हुआ वृद्ध पुरुष आ पहुंचा। उसके देर से पहुंचने का कारण वृद्धावस्था की अशक्ति ज्ञात कर राजा के मन मे समय रहते आत्महित कर लेने की तमन्ना जगी। इसी अवसर पर उद्यान मे सर्वभूतहित नामक चार ज्ञानधरी मुनिराज समौसरे । राजा सपरिवार मुनिराज को वन्दनार्थ गये। उनकी धर्मदेशना श्रवण कर राजा का हृदय वैराग्य से ओतप्रोत हो गया और वे घर आकर चारित्र ग्रहण करने के लिये उपयुक्त अवसर देखने लगे। भामंडल की आत्म-कथा जब भामण्डल ने सुना कि सीता का राम के साथ विवाह हो गया तो वह अपने को अधन्य मानने लगा और जिस किसी प्रकार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] से सीता को प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर सैन्य सहित रवाने हुआ। मार्ग में विदर्भा नगरी में जब पहुंचा तो उसे वहां के दृश्यों को देखकर ईहा पोह करते हुए जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसे अपनी ही सहोदरा सीता के प्रति लब्ध होने का बड़ा पश्चाताप हुआ और वैराग्य पूर्वक ससैन्य वापस रथनेउरपुर पहुंचा। पिता चन्द्रगति ने उसे एकान्त में लौट कर आने का कारण पूछा। भामण्डल ने कहाहे तात ! मैं पूर्व जन्म मे राजकुमार अहिमंडल था और मैने निर्लज्जतावश ब्राह्मणी का अपहरण किया था। मैं मर कर जनक राजा का पुत्र हुआ, सीता मेरी सहोदरा है। पूर्व जन्म के वैर विशेप से देव ने मेरा अपहरण किया और प्रारब्धवश आपने मुझे अपना पुत्र किया। हाय ! मुझ अज्ञानी ने अपनी भगिनी की वांछा की, यही मेरा वृतान्त है। विद्याधर चन्द्रगति इस वृतान्त को श्रवण कर विरक्त चित्त से भामण्डल को राज्याभिषिक्त कर सब के साथ, अयोध्या के उद्यान में आया। मुनिराज को वंदनकर चन्द्रगति ने उनके पास दीक्षा ले ली। भामण्डल ने याचकों को प्रचुर दान दिया जिससे वे जनक-वैदेही के नन्दन भामण्डल का यशोगान करने लगे। महलों मे सोयी हुई सीता ने जब भाटों द्वारा जनक के पुत्र की विरुदावली सुनी तो उसने सोचा-यह कौन जनक का पुत्र १ मेरे भाई को तो जन्म होते ही कोई अपहरण कर ले गया था । इस प्रकार विचार करते हुए राम के साथ प्रातःकाल उद्यान मे गयी। महाराजा दशरथ भी आये और उन्होने चन्द्रगति मुनि को देखकर ज्ञानी गुरु से सारा वृतान्त ज्ञात किया। सब लोग जनक-पुत्र भामण्डल का परिचय पाकर प्रसन्न हुए। भामण्डल के हर्ष का तो कहना ही क्या । रामने स्वागतपूर्वक भामण्डल Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] को नगर में प्रवेश कराया। भामण्डल ने पवनगति विद्याधर को मिथिला भेजा और माता-पिता को बधाईपूर्वक विमान मे आरूढ़ कर . अयोध्या बुला लिया। माता-पिता के चरणों में नमस्कार कर सारा वृत्तान्त सुनाया, सब लोग परस्पर मिलकर आनन्दित हुए। दशरथ के आग्रह से पांच दिन अयोध्या में रह कर जनक राजा भामण्डल सहित मिथिला आये, उत्सव-महोत्सव पूर्वक कुछ दिन माता पिता के पास रह कर भामण्डल पिता की आज्ञा से रथनेउरपुर चला गया। राज्याभिषेक की कामना और कैकेयी की वर याचना एक दिन राजा दशरथ पिछली रात्रि में जग कर वैराग्य पूर्वक चिन्तन करने लगा कि विद्याधर चन्द्रगति धन्य है जो संयम स्वीकार कर आत्म साधन मे लग गये। मैं मन्दभाग्य अभी भी गृहस्थी में फंसा पडा हूँ, क्षण-क्षण मे आयु घट रही है और न मालुम कब क्षय हो जायगी। अतः अव रामचन्द्र को राज्य सम्भला कर मुझे भी संयम ग्रहण करना श्रेयस्कर है। उसने प्रातः काल सबके समक्ष अपने विचार प्रकट किये। और सबकी अनुमति से राम के राज्याभिषेक का मुहुर्त देखने लगे। इतने ही में कैकयी राजा के पास गयी और __ यह सोच कर कि राम लक्ष्मण के रहते मेरे पुत्र को राज नहीं मिलेगा-राजा से अपना अमानत रखा हुआ वर मांगा। उसने कहा-राम को वनवास और भरत को राज्य देने की कृपा करें। राजा दशरथ यह सुन कर बड़ी भारी चिन्ता में पड गये। रामचन्द्र ने आकर पिता को चिन्ता का कारण पूछा तो उन्होंने कैकयी के वर की वात बतलाते हुए इस प्रकार पूर्व वृतान्त सुनाया Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १ ] कैकेयी वर कथा प्रसंग एक बार नारद मुनि ने हमारे पास आकर कहा कि लंकापति ने नैमित्तिक से पूछा कि मैं सर्वाधिक समृद्धिशाली हूं, देव दानव मेरी सेवा करते है तो ऐसा भी कोई है जिससे मुझे खतरा हो ? नैमित्तिक ने कहा-दशरथ के पुत्रों द्वारा जनक सुता के प्रसंग से तुम्हें बड़ा __भय है। रावण ने तुरन्त विभीषण को बुला कर आज्ञा दी कि दशरथ और जनक को मार कर मेरा उद्वेग दूर करो! अतः अब आप सावधान रहें ! स्वधर्मी के सम्बन्ध से मुझे व जनक को सावधान कर नारद मुनि चले गये। मैने मन्त्री की सलाह से देशान्तर गमन किया और मेरे स्थान पर लेप्यमय मूर्ति बैठा दी गयी। जनक ने भी आत्म रक्षार्थ ऐसा ही किया। विभीपण ने आकर दोनों की प्रतिकृतियां भग कर दी, हम दोनों का भार उतर गया। मैं देशाटन करता हुआ कौतुकमंगल नगर में पहुंचा। वहाँ शुभमति राजा की भार्या पृथिवी की पुत्री कैकयी का स्वयंवर मण्डप बना हुआ था, बहुत से राजाओं की उपस्थिति में मैं भी एक जगह छिप कर बैठ गया। कैकयी ने सबको छोड़ कर मेरे गले में वरमाला डाली जिससे दूसरे सव राजा क्रुद्ध होकर चतुरंगिनी सेना सहित युद्ध करने लगे। शुभमति को भागते देख कर मैं रथारूढ़ हुआ, कैकयी सारथी बनी और रणक्षेत्र में बाणो की वर्षा से समस्त राजाओं को परास्त कर कैकयी से विवाह किया। उस समय मैंने कैकयी को आग्रहपूर्वक वर दिया था जिसे उसने धरोहर रखा। आज वह वर मांग रही है कि भरत को राज्य दो। पर तुम्हारी उपस्थिति में यह Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] कैसे हो सकता है ? इसी बात की मुझे चिन्ता है। राम ने कहाआप प्रसन्नतापूर्वक भरत को राज्य देकर अपने वचनों की रक्षा करें, मुझे कोई आपत्ति नहीं। दशरथ ने भरत को बुला कर राज्य लेने के लिये समझाया। उसने कहा-मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं, मेरा दीक्षित होने का भाव है, आप राम को राज्य दीजिये। राम ने कहा मैं जानता हूँ कि तुम्हें राज्य का लोभ नहीं है पर माता के मनोरथ और पितृवचनों की रक्षा के लिये तुम्हें ऐसा करना होगा! भरत ने कहा-बड़े भ्राता के रहते मेरा राज्य लेना असम्भव है। राम ने कहा-मैं वनवास ले रहा हूँ, तुम्हें आज्ञा माननी होगी! सीता वनवास जव लक्ष्मण ने यह सुना तो वह दशरथ के पास जाकर इसका घोर विरोध करने लगा पर राम ने उसे समझा कर शान्त कर दिया। रामचन्द्र और लक्ष्मण वनवास के लिये प्रस्थान करने लगे, सीता भी पीछे चलने लगी। राम के बहुत समझाने पर भी सीता किसी भी प्रकार रुकने को राजी नहीं हुई और छाया की भांति साथ हो गई। तीनों मिल कर दशरथ के पास गए और नमस्कार पूर्वक अपने अपराधों की क्षमा याचना करते हुए बिदा मांगी। दशरथ ने कहासुपुत्रो ! तुम्हारा क्या अपराध हो सकता है ? मैं तो दीक्षा लेगा। तुम्हें जैसे उचित लगे करना, पर अटवी का मार्ग वड़ा विषम है सावधान रहना । इसके बाद दोनों माताओं से मिल कर उन्हें आश्वस्त कर देव पूजा गुरु वदनान्तर सबसे क्षमतक्षामणा पूर्वक निर्दोष वन - की ओर गमन किया। उन्हें पहुंचाने के लिये राजा, सामन्त, मन्त्री Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना [ ११ ] व सारे प्रजाजन अश्रुपूर्ण नेत्रों से साथ चले। राम का विरह असह्य था, राज परिवार, रानियां और महाजन लोग सभी व्याकुल होकर रुदन कर रहे थे। सबके मुख पर राम को निकालने वाली कैकयी के प्रति रोप और घृणा के भाव थे। राम के वियोग से दुःखी अयोध्यावासियों का दुःख देखने में असमर्थ होकर भगवान अंशुमाली भी अस्ताचल की ओर चले। राम सीता और लक्ष्मण ने जिनालय में आकर रानिवास किया। माता पिता मिलने आये जिन्हें रवाना करके कुछ विश्राम किया और पिछली रात में उठ कर जिनवन्दन करके धनुष बाण धारण कर पश्चिम की ओर रवाना हो गये। विरहातुर सामन्त लोग पैर खोजते हुए आ पहुंचे और रामचन्द्रजी की सेवा करते हुए कितने ही ग्राम नगर उल्लंघन किये। जब गंभीरा तट आया तो वस्ती का अन्त जान कर सामन्तादि को वापस लौटा दिया और सीता और लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र नदी पार होकर दक्षिण की ओर चले। सामन्तादि भारी मन से वापस लौट कर जिनालय में ठहरे। तत्र विराजित मुनिराज से कितनों ने ही संयम व व्रतादि ग्रहण किये। महाराज दशरथ ने भूतसरण गुरु के पास दीक्षा ले ली और कठिन तप करने में लग गये। भरत राम सम्मिलन तथा भरत का आज्ञा-पालन पुत्रों के वनवास और पति के दीक्षित होने से खिन्न चित्त सुमित्रा व अपराजिता बड़ा दुःख करने लगी। उन्हें फ्लान्त देख कर कैकयी ने भरत से कहा-बेटा। राम लक्ष्मण को बुला कर लाओ, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] उनके विना तुम्हें राज शोभा नहीं देता। कैकयी को साथ लेकर भरत राम की शोध में निकला। गंभीरा पार होकर विषम वन में रामचन्द्र जी के पास जा पहुंचा और घोड़े से उत्तर कर चरणों में गिर पड़ा राम ने उन्हें आलिंगन और लक्ष्मण ने सन्मानित किया। भरत ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से प्रार्थना की कि-आप मेरे पितृतुल्य हैं, अयोध्या चल कर राज्य कीजिये मैं आप पर छत्र व शत्रुघ्न चामर धारण करेगा । लक्ष्मण सन्त्री होंगे! इतने में ही कैकयी रथ से उतर कर आ पहुंची और पुत्रो को हृदय से लगा कर कहने लगी-मेरा अपराध क्षमा कर अयोध्या का राज सम्भालो! पर रामचन्द्र ने कहा-हम क्षत्रिय हैं, वचन नहीं पलटते । भरत को राज्य करने की आज्ञा देकर रामने सबको वापस लौटा दिया। अवन्ति कथा प्रसंग राम लक्ष्मण और सीता कुछ दिन भयानक अटवी में रह कर क्रमशः चलते हुए अवन्ती देश आये। एक शून्य नगर को देख कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, जहां धन, धान्य, दुग्ध, गाय, भैस आदि सब विद्यमान थे पर मनुष्य का नाम निशान नहीं था। राम, सीता शीतल छाया में बैठे और लक्ष्मण जानकारी प्राप्त करने के लिये दूर से आते हुए उदास पथिक को बुला कर राम के पास लाया। राम के पूछने पर उसने कहा यह देश दशपुर का एक नगर है, इसका सूना होने का कारण यह है कि यहां वजंघ नामक न्यायी राजा राज करता था जिसे शिकार की बुरी लत लगी हुई थी। एक दिन राजा ने एक गर्भवती Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] हरिणी को मारा जिसके तड़पते हुए गर्भ को देख कर राजा का हृदय चीत्कार कर उठा। वह विरक्त चित्त से आगे बढ़ा तो शिला पर एक मुनिराज मिले जिनसे प्रतिवोध पाकर उसने सम्यक्त्व मूल श्रावक धर्म स्वीकार किया। तत्पश्चात वह धर्माराधन करता हुआ राज्य पालन करने लगा। उसने मुद्रिका में मुनिसुत्रत स्वामी की मूर्ति बनवा कर अन्य को नमस्कार न करने का व्रत पालन किया। अवन्तीपति सीहोदर को जिसकी अधीनता में वह था, नमस्कार करते समय जिनवन्दन का ही अध्यवसाय रखता था। किसी चुगलखोर शत्रु ने सीहोदर के कान भर दिये जिससे वह कुपित होकर दशपुर पर चढ़ाई करके बनजंघ को मारने के लिये ससैन्य अवन्ती से निकल पड़ा। इसी बीच एक व्यक्ति शीघ्रतापूर्वक बनजंघ से आकर मिला और उसे सीहोदर के आक्रमण से अवगत कराते हुए अपना परिचय इस प्रकार दिया कि मैं कुण्डलपुर का अधिवासी विजय नामक व्यापारी हूँ। मेरे माता-पिता शुद्ध श्रावक हैं, मैने उज्जयिनी में आकर प्रचुर द्रव्य कमाया पर अनंगलता नामक वेश्या से आसक्त होकर सव कुछ खो बैठा। एक दिन मैं वेश्या के कथन से रानी के कुण्डल चुराने के लिये राजमहल में प्रविष्ट हुआ और छिप कर खड़ा हो गया-मैं इस फिराक में था कि राजा सो जाय तो रानी के कुण्डल हस्तगत करूं। पर विचारमग्न राजा को नींद न आने से रानी ने पूछा तो राजा ने कहा मैं दशपुर के राजा वनजंघ को मारूंगा जो मुझे प्रणाम नहीं करता ! मेरे मन मे स्वधर्मी बन्धु को चेतावनी देकर उपकृत करने का विचार आया और मैं वहाँ से आपके पास आकर गुप्त खवर दे रहा हूं, आप अपनी रक्षा का यथोचित उपाय करें। राजा ने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] उसका आभार स्वीकार किया। बजजंघ ने अन्न पानी का संचय करके नगर के द्वार वन्द कर लिये। सीहोदर की सेना ने आकर नगर को घेर लिया। सीहोदर ने दूत भेज कर वनजंघ को कहलाया कि तुम मुझे नमस्कार करो और राज भोगो। पर वनजंघ ने कहा-मैं अपना नियम भंग नहीं कर सकता। इसीलिये दोनों राजा एक वाहर और एक भीतर अकड़े बैठे है, यही कारण है कि यह देश अभीअभी सूना हो गया है। ऐसा कह कर वह व्यक्ति जाने लगा तो राम ने उसे कटि का कंदोरा इनाम देकर विदा किया। राम की वज्रजंघ की सहायता राम लक्ष्मण स्वधर्मी वन्धु वनजंघ की सहायता करने के उद्देश्य से दशपुर के बाहर चन्द्रप्रभ जिनालय में आये और जिन वंदनान्तर लक्ष्मण नगर मे जाकर राजा से मिला। राजा ने उसे भोजन करने को कहा तो लक्ष्मण के यह कहने पर कि मेरे भ्राता नगर के बाहर है, राजाने तैयार मिष्टान्न भोजन भेज दिया। भोजनान्तर लक्ष्मण सीहोदर के पास गया और उससे कहा कि मैं भरत का भेजा हुआ दूत हूं, तुमने अन्यायपूर्वक वनजंघ पर घेरा डाल रखा है, अब भरत की आज्ञा से विरोध त्याग दो, अन्यथा काल कृतान्त के हस्तगत हुआ समझो। सीहोदर ने क्रुद्ध होकर सुभटों को संकेत किया । लक्ष्मण के साथ युद्ध छिड़ गया, अकेले वीर ने सीहोदर की सेना को परास्त कर सीहोदर को बांधकर रामके सामने उपस्थित किया, रामने वनजंघ को आधा राज्य दिला कर उसका मेल करा दिया और उपकारी विजु को रानी के कुण्डल दिलाये। सीहोदर ने ३०० कन्याएँ एवं वनजंघ ने Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] ८ कन्याएं लक्ष्मण को दी जिन्हें देशाटनकी अवधि पर्यन्त वहीं रखने का आदेश दिया। राजा वालिखिल कथा प्रसंग राम-सीता और लक्ष्मण वहां से विदा होकर कूपचण्ड उद्यान में पहुंचे जहाँ सीता को भूख प्यास लग गई। लक्ष्मण सरोवर की पाल पर गया, जहां राजकुमार पहले से आया हुआ था। राजकुमार के पुरुष लक्ष्मण को बुला ले गए और सम्मानपूर्वक राजकुमार ने परिचय पूछा तो लक्ष्मण ने कहा मेरे भ्राता बाहर बैठे है, उनके पास जाने पर सारी वातं करूंगा। राजकुमार ने रामको बुलाकर आदर पूर्वक भोज नादि से भक्ति की फिर राजकुमार ने कहा-इस नगरी मे वालिखिल और उसकी पटरानी पृथ्वी राज्य करते थे। एक बार राजा को युद्ध में म्लेच्छाधिप बन्दी बनाकर ले गये तब राजा सीहोदर ने कहा कि गर्भवती रानी के यदि पुत्र होगा तो उसे राज्य दिया जायगा। रानी के मैं पुत्री हुई पर राज्य की रक्षा के लिए मुझे पुत्र घोपित कर कल्याण माली नाम रखा गया। मेरी माता और मन्त्री के सिवा इस भेद को कोई नहीं जानता। मुझे पुरुष वेश पहना कर राजगद्दी पर बैठा दिया। मैने यह गुम बात आपके समक्ष इसलिए प्रकट की है कि अब मैं तरुणी हो गई, आप कृपया मुझे अंगीकार करें। लक्ष्मण ने कहाकुछ दिन तुम पुरुष वेश में राज्य संचालन करो, तुम्हारे पिता को हम विन्ध्याटवी जाकर म्लेछाधिप से छुड़ालाते हैं। इसके बाद राम सीता और लक्ष्मण विन्ध्याटवी की ओर रवाना हुए। सीता ने कौए के शकुन से भावी विजय की सूचना दी। विन्ध्याटवी पहुँच कर लक्ष्मण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने वाणों की वर्पा द्वारा म्लेच्छाधिप इन्द्रभूति को परास्त कर दिया, राम के आदेश से उसने वालिखिल को बन्धनमुक्त कर दिया। ब्राह्मण कपिल कथा प्रसंग वालिखिल्ल को अपने नगर पहुंचा कर एक अटवी में जाने पर सीता को प्यास लग गई। राम लक्ष्मण उसे अरुण गांव में कपिल ब्राह्मण के घर ले गये जहाँ ब्राह्मणी ने शीतल जलादि से सत्कृत कर ठहराया। इतने ही में ब्राह्मण ने आकर स्त्री को गाली देते हुए उलाहना दिया कि इन म्लेच्छोंको ठहराकर मेरा घर अपवित्र कर दिया। लक्ष्मण उसकी गालियों से क्रुद्ध होकर टांग पकड़ कर घुमाने लगा तो राम ने उसे छुड़ा दिया और तीनों ने जंगल का मार्ग लिया। सुदूर अटवी में पहुंचने पर घनघोर घटा, गाज, वीज के साथ मूसलधार वर्षा होने लगी। ठंढ के मारे जव शरीर कांपने लगा तो राम, सीता, लक्ष्मण ने एक घनी छाया वाले वट-वृक्ष का आश्रय लिया । इस वृक्ष मे एक यक्ष रहता था जो राम-लक्ष्मण के तेज को न सह सका और बड़े यक्ष के पास जाकर शिकायत करने लगा। बड़े यक्ष ने अवधिज्ञान से पहिचान कर पलंग-शय्या आदि सुख सुविधाएं सोने के लिए प्रस्तुत कर दी। प्रातःकाल जब उठे तो यक्ष द्वारा निर्मित समृद्धिशाली नगर सीता, राम, लक्ष्मण ने साश्चर्य देखा। इसमें राजभवन, मन्दिर और कोट्याधीशों के मकान सुशोभित थे। यक्ष निर्मित रामपुरी मे इन्होंने वर्षाकाल व्यतीत किया। _____एक दिन जंगल मे घूमते हुये कपिल ब्राह्मण ने इस नव्य नगरी को देखा तो एक महिला से उसने इस नगरी का परिचय पूछा । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] यक्षिणी ने कहा यह राम की नगरी है राम लक्षाण यहाँ आनन्दपूर्वक रहते हैं और दीन हीन को प्रचुर दान देते हैं, स्वधर्मी भाई की तो विशेष प्रकार से भक्ति की जाती है। ब्राह्मण ने कहा-मैं राम का 'दर्शन कैसे करूं, यक्षिणी ने कहा-रात में इस नगरी में कोई प्रवेश नहीं करता, तुम पूर्वी दरवाजे के बाहर वाले जिनालय में जाकर भक्ति करो व मिथ्यात्व त्याग कर साधुओं से धर्म श्रवण करो जिससे तुम्हारा कल्याण होगा। ब्राह्मण यक्षिणी की शिक्षानुसार धर्माराधन करता हुआ पक्का श्रावक हो गया। सरल स्वभावी भली ब्राह्मणी भी प्रतिवोध पाकर श्राविका हो गई। एक दिन कपिल अपनी स्त्री के साथ राजभुवन की ओर आया और लक्ष्मण को देखकर वापस पलायन करने लगा तो लक्ष्मण के बुलाने से आकर नमस्कार पूर्वक कहने लगा-मे वहीं पापी हूँ जिसने आपको कर्कशता पूर्वक घर से ' बाहर निकाल दिया था। आप मेरा अपराध क्षमा करें। राम ने - मिष्ट वचनों से कहा-तुम्हारा कोई दोष नहीं, उस अज्ञानता का ही दोष है, अब तो तुमने जिनधर्म स्वीकारकर लिया अतः हमारे स्वधर्मी बन्धु हो गए। तदन्तर उसे भोजन कराके प्रचुर द्रव्य देकर बिदा किया। कालान्तर में कपिल ने संयम मार्ग स्वीकार कर लिया। वर्षाकाल बीतने पर जब राम अटवी की ओर जाने लगे तो यक्ष ने राम को स्वयंप्रभ हार, लक्ष्मण को कुण्डल व सीता को चड़ामणि हार भेंट किया एवं एक वीणा प्रदान कर अविनयादि के लिए क्षमा याचना की। राम के विदा होते ही नगरी इन्द्रजाल की भांति लुप्त हो गई। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] बनमाला और लक्ष्मण कथा प्रसंग अटवी पार करके विजयापुरी के बाहर पहुँचकर वट वृक्ष के पास राम ने रात्रिवास किया। लक्ष्मण ने वट वृक्ष के नीचे किसी विरहिणी स्त्री का विलाप सुनकर कान लगाया तो सुना कि-हे बन देवी। मैं बडी भाग्यहीन हूं जो इस भव में लक्ष्मण को वर रूप में न पा सकी, अब पर भव में मुझे वे अवश्य प्राप्त हों। ऐसा कह कर चह् गले में फांसी लगाने लगी तो लक्ष्मण ने शीघ्रतापूर्वक अपना आगमन सूचित कर फांसी को काट डाला। लक्ष्मण उसे राम के पास लाये, और सीता के पूछने पर कहा कि यह तुम्हारो देवरानी है। सीता के परिचय पूछने पर उसने कहा-इसी नगरी के राजा महीधर की पटरानी इन्द्राणी की मै वनमाला नामक पुत्री हूं। वाल्यकाल मे राजसभा मे बैठे हुए लक्ष्मण की विरुदावली श्रवण कर मैंने लक्ष्मण को ही पति रूप में स्वीकार करने की प्रतिज्ञा कर ली। पिताजी अन्यत्र सम्बन्ध कर रहे थे पर मैंने किसी की वाला नहीं की। जव पिताजी ने दशरथजी की दीक्षा, और राम लक्षमण का वनवास सुना. नो उन्होंने खिन्न होकर मेरा सम्बन्ध इन्द्रपुरी के राजकुमार से कर दिया। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर अटल थी, अतः नजर बचा कर निकल भागी और वट वृक्ष के नीचे ज्योंही फांसी लगाई, मेरे पुण्योदय से लक्ष्मण ने आकर मुझे बचा लिया। वनमाला सीता के साथ उपर्युक्त वार्तालाप कर रही थी इतने ही मे राजा के सुभट आ पहुंचे और वनमाला को देखकर राजा को सारा वृत्तान्त सूचित कर दिया। महीधर राजा ने प्रसन्नतापूर्वक आकर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] साक्षात्कार किया और उन सबको अपने महलों में लाकर ठहराया। वनमाला को लक्ष्मण की प्राप्ति होने से सर्वत्र आनन्द छा गया। अतिवीर्य का आक्रमण आयोजन और पराजय उसो अवसर पर नन्दावर्त नगर से अतिवीर्य राजा का भेजा हुआ दूत महीधर के पास आया और सूचना दी कि हमारे भरत के साथ विरोध हुआ है अतः युद्ध के लिये सैन्य सहित शीघ्र आओ! लक्ष्मण द्वारा पूछने पर दूत ने कहा राम लक्ष्मण की अनुपस्थिति का अवसर देख कर हमारे स्वामी ने भरत से अधीनता स्वीकार करने के लिये कहलाया। भरत ने कुपित होकर दूत को अपमानित करके निकाल दिया। अतिवीर्य इसीलिये सैन्य एकत्र कर भरत से युद्ध करेगा और महीधर महाराज को बुला रहा है। महीधर नेहम आ रहे हैं, कह कर दूत को विदा किया। राम ने महीधर से कहा भरत हमारा भाई है, अतः हमें सहाय्य करने का यह समय है, आप अपने पुत्र को हमारे साथ दें ताकि अतिवीर्य को हाथ दिखाया जाय। महीधर ने अपने पुत्र को राम लक्ष्मण के साथ भेज दिया और नंद्यावर्त नगर के बाहर पहुँच कर सन्ध्या समय डेरा डाला। प्रातःकाल जिनालय मे वन्दन पूजनोपरान्त अधिष्ठाता देव द्वारा कार्य सिद्धि की सूचना के साथ-साथ सक्रिय सहयोग का वचन मिला। देवी ने सुभटो का नर्तकी रूप बना दिया। राम ने राजाना से नर्तकी द्वारा नृत्य प्रारम्भ करवाया। नर्तकी ने अपने रूप कला से सवको मुग्ध कर दिया। अवसर देख कर नर्तकी ने राजा से कहा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २० ] मूर्ख ! अहंकार त्याग कर भरत की आज्ञा स्वीकार करो। राजा ने कुपित होकर खड्ग निकाली तो नर्तकी ने राजा की चोटी पकड़ ली। लक्ष्मण अतिवीर्य को राम के पास ले गया, सीता ने उसे छुड़ाया। अतिवीर्य ने विरक्त होकर राम की आज्ञा से पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ले ली। पुत्र विजयरथ भरत का आज्ञाकारी हो गया। जितपना के लिए लक्ष्मण का शक्ति-सन्तुलन राम लक्ष्मण कुछ दिन विजयपुर जाफर रहे फिर वनमाला को वहीं छोड़ कर खेमंजलि नगर गये। रामाज्ञा से लक्ष्मण नगर में गया तो उसने सुना कि शत्रुदमन राजा ने यह प्रतिज्ञा कर रखी है जो मेरा शक्ति प्रहार सहन करेगा, उसे अपनी पुत्री दूंगा। लक्ष्मण ने राजसभा मे जाकर भरत के दूत के रूप मे अपना परिचय देते हुए राजा को पंचशक्ति प्रहार करने को कहा। जितपद्मा ने लक्ष्मण पर मुग्ध होकर शक्ति प्रहार के प्रपंच मे न पड़ने की प्रार्थना की। लक्ष्मण ने उसे निश्चित रहने का संकेत कर दिया। राजा ने क्रमशः पंच शक्ति छोड़ी जिसे लक्ष्मण ने दोनों हाथ, दोनों काख और दाँतों द्वारा ग्रहण कर ली। देवो ने पुष्पवृष्टि की। लक्ष्मण ने जब कहा-राजा! अव तुम भी मेरा एक प्रहार सहो! तो राजा कांपने लग, जितपद्मा की प्रार्थना से लक्ष्मण ने उसे छोड़ दिया। राजा के पुत्री ग्रहण करने की प्रार्थना पर लक्ष्मण ने कहा-मेरे ज्येष्ठ भ्राता जाने। राजा रामचन्द्र को प्रार्थना कर नगर में लाया और लक्ष्मण के साथ जितपद्मा का व्याह कर दिया। कुछ दिन वहां रह कर राम लक्ष्मण ने फिर वन की राह ली। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] मुनिराज उपसर्ग तथा वंशस्थल नगर कथा प्रसंग जब ये लोग वंशस्थल नगर पहुंचे तो राजा प्रजा सबको भयभीत हो भागते देखा और पूछने पर पर्वत पर महाभय ज्ञात कर महासाहसी राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पहाड़ पर गये। उन्होंने देखा एक मुनिराज ध्यान में निश्चल खड़े है, जिन्हें सांप, अजगर आदि ने चतुर्दिग घेर रखा है। राम धनुषान द्वारा उन्हें हटा कर मुनिराज के आगे गीत, वाद्य, नृत्यादि द्वारा भक्ति करने लगे। पूर्वभव के वैर को स्मरण करके भूत पिशाचों ने नाना उपसर्गों द्वारा भयानक दृश्य उपस्थित कर दिया। राम लक्ष्मण ने उन्हें भगा कर निरुपद्रव वातावरण कर दिया। मुनिराज को उसो रात्रि में शुक्लध्यान ध्याते हुए केवलज्ञान प्रकट हो गया। देवों ने केवली भगवान की महिमा की, राम के पूछने पर मुनिराज ने उपद्रव का कारण इस प्रकार बतलाया। अमृतसर के राजा विजयपर्वत के उपभोगा नामक रानी थी। जिससे वसुभूति नामक विप्र लुब्ध रहता था। राजा ने एक बार दूत के साथ वसुभूति को विदेश भेजा। वसुभूति ने मार्ग में दूत को मार दिया और वापस आकर राजा से कहा-दत ने कहा कि मैं अकेला जाऊँगा, अतः मैं लौट आया हूं। ब्राह्मण रानी के साथ लिप्त था ही, उसने एक दिन रानी के आगे प्रस्ताव रखा कि तुम्हारे उदित, मुदित दोनों पुत्र अपने सुख मे अन्तरायभूत है अतः इन्हें मार्ग लगा दो। ब्राह्मणी ने राजकुमारी को भेद की बात बतला दी जिससे राजकुमारों ने ब्राह्मण को तलवार के घाट उतार दिया । संसार के स्वरूप से विरक्त राजकुमारों ने मतिवद्धन मुनि के पास दीक्षा ले ली। ब्राह्मण मर कर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] म्लेच्छपल्ली में उत्पन्न हुआ। उदित, मुदित मुनिराज समेतशिखर यात्राथ जाते हुए म्लेच्छपल्ली के मार्ग से निकले तो वह म्लेच्छ इन्हें खड्ग द्वारा मारने को प्रस्तुत हुआ। मुनि-भ्राताओं ने सागारी अनशन ले लिया। पल्लीपति ने करुणापूर्वक म्लेच्छ द्वारा मारने से मुनिराजों को बचा लिया। ममेतशिखर पहुंच कर मुनिराजों ने अनशन आराधना पूर्वक देह त्यागा और प्रथम देवलोक में देव हुए। म्लेच्छ ने संसार भ्रमण करते हुए मनुष्य भव पाया और तापसी दीक्षा लेकर अज्ञान तप किये जिससे दुष्ट परिणामी ज्योतिषी देव हुआ। उदित, मुदित के जीव अरिष्टपुर नरेश प्रियवन्धु की रानी पद्माभाके कुक्षि से उत्पन्न हुए। ब्राह्मण का जीव भी राजा की दूसरी रानी कनकाभा के उदर से अनुद्धर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। प्रियबन्धु राजाने बड़े पुत्र को । राज देकर दीक्षा ले ली और यथासमय स्वर्गवासी हुए। अनुधर दोनों : भ्राताओं के प्रति मात्सर्य धारण कर देश को लूटने लगा। राजा द्वारा . निर्वासित होकर उसने तापसी दीक्षा लेली । रत्नरथ और विचित्ररथ भो दीक्षा लेकर प्रथम देवलोक मे गये और वहांसे च्यव कर सिद्धारथपुर के राज क्षेमंकर के यहाँ विमला रानी की कुक्षिसे देशभूषण, कुलभूषण नामक पुत्र हुये। जिन्हें राजा ने विद्योपार्जनार्थ गुरुकुल में भेज दिया पीछे से रानी के कमलूसवा नामक पुत्री हुयी। राजकुमार जब कलाभ्यास करके लौटे तो कमलूसवा को देख कर इस अनुमान से कि हमारे लिये पिताजी किसी राजकुमारी को यहां लाये हैं, उसके प्रति आसक्त हो गये। थोड़ी देर में जव विरुदावली सुन कर उन्हें अपनी ही वहिन होने का ज्ञात हुआ तो दोनों ने विरक्त चित्त से सुव्रतसूरि के पास चारित्र ग्रहण कर लिया। राजा क्षेमंकर पुत्र वियोग से दुःखी' Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] होकर उदासीन रहने लगा। अन्त में मर कर गरुडाधिप देव हुआ। अणुधर एक वार अज्ञान तप करता हुआ कौमुदीनगर आया.। वहाँ का राजा वसुधारा तापस का भक्त था किन्तु उसकी रानी शुद्ध जिनधर्म परायणा थी। एक दिन राजा को तापस की प्रशंसा करते देख रानी ने कहा- ये अज्ञान तपस्वी है, सच्चे साधु तो निग्रंथ होते हैं। राजा ने कहा-तुम असहिष्णुता से ऐसा कहती हो । रानी ने कहापरीक्षा की जाय। रानी ने अपनी तरुण पुत्री को रात्रि के समय तापस के पास भेजा। उसने नमस्कार पूर्वक तापस से निवेदन किया कि मुझे माता ने निरपराध घर से निकाल दिया है, अब आपके शरणागत हूँ, कृपया मुझे दीक्षा दें। अणुद्धर उसके लावण्य को देख कर मुग्ध होकर काम प्रार्थना करने लगा। कन्या ने कहा-यह अकार्य मत करो! मैं अभी तक कुमारी कन्या हूं। यदि तुम्हें मेरी चाह है तो तापस-धर्म त्याग कर मेरी मां से मुझे मांग लो। इसमें . कोई दोष की बात नहीं है। तापस कन्या के साथ हो गया, वह उसे किसी गणिका के यहाँ ले गई। तापस गणिका के चरणों में गिर कर बार-बार पुत्री की माग करने लगा, राजा ने गुप्त रूप से सारी घटना स्वयं देख ली और उसे बांध कर निभ्रंछना पूर्वक देश से निकाल दिया। राजा ने प्रतिबोध पाकर श्रावक-धर्म स्वीकार कर लिया। लोगों में निन्दा पाता हुआ तापस कुमरण से मर कर भव भ्रमण करने लगा। एक बार उसने फिर मानव भव पाकर तापसधर्म स्वीकार किया और काल करके अनलप्रभ नामक देव हुआ। उसने पूर्व भव का वैर याद कर हमारे को उपसर्ग किया है। यह वृतान्त सुन कर सीता, राम, लक्ष्मण ने केवली भगवान की भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति की। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] गरुड़ाधिप देव ने प्रगट होकर वर मांगने को कहा। राम ने कहाकभी आपत्तिकाल में हमें सहाय्य करना। वंशस्थलपुर नरेश सूरप्रभ ने आकर राम, सीता, लक्ष्मण की बहुत सी आदर भक्ति की। राम की आज्ञा से पर्वत पर जिनालय वनवा कर रत्नमय प्रतिमा विराजमान की गई, इस पर्वत का नाम रामगिरि प्रसिद्ध हुआ। राम का दण्डकारण्य प्रस्थान रामगिरि से चल कर राम, सीता, और लक्ष्मण दण्डकारण्य पहुंचे और कन्नरवा के तट पर बांस की कुटिया बना कर सुखपूर्वक रहने लगे। इस वन में जंगली गाय का दूध एवं अड़क धान्य, आम्र, कटहल, दाडिम, केला व जंभोरी प्रचुरता से उपलब्ध थी। एक वार दो आकाशगामी तपस्वी मुनिराज पधारे। सीता, राम, लक्ष्मण ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक आहार दान किया। देवों ने दुन्दुभिनाद पूर्वक वसुधारा वृष्टि की। एक दुर्गन्धित पक्षी ने आकर मुनिराजों को वन्दन किया जिससे उसकी देह सुगन्धित और निरोग हो गई। राम के पूछने पर त्रिगुप्ति साधु ने उसके पूर्व जन्म का वृतान्त इस प्रकार सुनाया : जटायुध कथा प्रसंग कुण्डलपुर का राजा दण्डकी वड़ा उद्दण्ड था। उसकी रानी मक्खरि विवेकी श्राविका थी। एकबार राजा ने वन में कायोत्सर्ग स्थित मुनिराज के गले में मृतक सांप डाल दिया। मुनिराज ने अभिग्रह कर लिया कि जहाँ तक गलेमें सांप विद्यमान है, कायोत्सर्ग नहीं पारूँगा।. दूसरे दिन जब राजा ने मुनिराज को उसी अवस्था में देखा तो उसे अपने कृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुआ और वह साधु-भक्त हो गया। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] रुद्र नामक एक तापस उस नगरी में रहता था, राजा को साधुओं का भक्त हुआ ज्ञात कर मात्सर्यपूर्वक साधुओं को मरवाने के अभिप्राय से उसने साधु का वेष किया और अन्तःपुर में जाकर रानी की विडम्बना की। राजा ने कुपित होकर केवल उसे ही नहीं, सभी साधुओं को पानी में पीला कर मार डाला। एक शक्तिशाली मुनि ने आकर तेजोलेश्या छोडी जिससे सारा नगर जल कर स्मशान हो गया और दण्डकारण्य कहलाने लगा। राजा दण्डकी भव भ्रमण करता हुआ इसी वन में दुर्गन्धित गृद्ध पक्षी हुआ। हमें देखकर इसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया और वन्दन, प्रदिक्षणान्तर धर्म प्रभाव से सुगन्धित शरीर हो गया। गृद्ध पक्षी मास और रात्रिभोजनादि त्याग कर धर्माराधन करने लगा। मुनिराज अन्यत्र चले गये, पक्षी सीता के पास रहने लगा। उसके शरीरपर सुन्दर जटा थी इससे उसका नाम जटायुध हो गया। साधु-दान के प्रभाव से राम के पास मणिरत्नादि की समृद्धि हो गई एवं देवों ने राम को चार घोड़ों सहित रथ दिया। राम, सीता, लक्ष्मण सुखपूर्वक रहने लगे। — दण्डकारण्य में घूमते हुए राम, सीता और लक्ष्मण एक नदी तटवर्ती वनखंड में गए। समृद्ध रत्नखान वाले पर्वत, फल फूलों से लदे वृक्ष और निर्मल नदी जल को देखकर राम ने वहीं निवास करना प्रारम्भ कर दिया। लङ्काधिप रावण कथा प्रसंग उस समय लंकागढ़ में रावण राज्य करता था । लंका के चतुर्दिक समुद्र था। रावण का नाम दशमुख भी कहलाता था, जिसकी उत्पत्ति इस प्रकार है Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] वताच्य पर्वत पर रथनेउर नगर में मेघवाहन विद्याधर राज्य करता था, जिसके इन्द्र से शत्रुता थी। अजितनाथ स्वामी की भक्ति से प्रसन्न होकर राक्षसेन्द्र ने मेघवाहन से कहा कि राक्षसद्वीप में त्रिकूटगिरि पर लंकानगरी है, वहाँ जाकर निरुपद्रव राज्य करो! पातालपुरी, जो दंडगिरि के नीचे है, वह भी मैं तुम्हें देता हूं। मेघवाहन विद्याधर वहीं राज्य करने लगा। राक्षसद्वीपके कारण वे विद्याधर राक्षस कहलाने लगे। उसी के वंश मे रत्नाव का पुत्र रावण हुआ। बचपन में पिता ने उसे दिव्यहार पहनाया, जिसमें नौ मुंह प्रत्तिविम्बित होने से वह दशमुख कहलाने लगा। एकवार अष्टापद पर्वत पर भरत चक्रवर्ती द्वारा वनवाये चैत्यों को उल्लंघन करते दशमुख का विमान रुक गया। उसने ध्यानस्थ बालि मुनि को इसका कारण समझ कर अष्टापद को ऊँचा उठा लिया। चैत्व रक्षा के लिए वालि ऋषि ने पहाड़ को दवा दिया जिससे दशमुख ने रव (रुदन) किया, तो वह रावण नाम से प्रसिद्ध हो गया। रावण ने अपनी बहिन चन्द्रनखा खरदूषण को व्याह कर उसे पाताल लंका का राज्य दे दिया। दिव्य खग का पतन और लक्ष्मण का परितापचन्द्रनखा के संव और संबुक्क नामक दो पुत्र थे, संवुक विद्यासाधन के निमित्त दण्डकारण्य में कंचुरवा के तटस्थित वंशजाल में उलटे लटक कर विद्या साधन करता था। उसे बारह वर्ष चार मासं बीत गए, विद्या सिद्ध होने मे तीन दिन अवशिष्ट थे। भवितव्यता वश लक्ष्मण ने वंशजाल में लटकते हुए दिव्य खङ्गको देखा तो उसने ग्रहण कर वंशजाल पर वार किया जिससे संवुक का कुण्डल युक्त मस्तक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] छिन्न होकर आ गिरा। लक्ष्मण को इस घटना से अपार दुख हुआ। उसने सोचा-मेरे पौरुप को धिक्कार है। मैंने एक निरपराध विद्याधर को मार कर भयंकर पाप उपार्जन कर लिया। उसने राम के समक्ष सारी बात कही तो राम ने कहा-इस प्रकार जिन प्रतिषिद्ध अनर्थदण्ड कभी नहीं करना चाहिए, भविष्य मे ख्याल रखना। जब चन्द्रनखा पुत्र को संभालने आई और उसे मरा हुआ देखा तो पुत्र शोक से अभिभूत होकर नाना विलाप करने लगी। अन्त में रोने पीटने से कुछ हृदय हलका होने से संबुक को मारने वाले की खोज में दण्डकारण्य मे घूमने लगी। रूपगर्विता चन्द्रनखा का पतन चन्द्रनखा ने घूमते हुए जब दशरथनन्दन को देखा तो सौन्दर्यासक्त होकर पुत्र शोक को भूल कर कन्या का रूप धारण करके राम के पास पहुँची। वह नाना हाव-भाव, विभ्रम से राम को मुग्ध करने की चेष्टा करने लगी। राम ने उसे वन में अकेली धूमने का कारण पूछा तो उसने कहा-मैं वंशस्थल की वणिकपुत्री हूं, मेरे माता-पिता मर गए, अब मैं आपकी शरणागत हूं, मुझे ग्रहण करें! निर्विकार राम ने जब मौन धारण कर लिया और उसकी मोहिनी न चली तो उसने क्षुब्ध होकर स्वयं अपने शरीर को नख-दातों से क्षत विक्षत कर लिया और वह रोती कलपती अपने पति के पास पहुंची। खरदूपण सैन्य पतन और सीता-हरण चन्द्रनखा ने खरदूपण से कहा-किसी भूचर ने चन्द्रहास खङ्ग लेकर संबुक को मार डाला और मेरी यह दुर्दशा कर दी, मैं किसी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ } प्रकार आपके पुण्यों से शील-रक्षा करके यहां लौटी हूँ! खरदूपण चौदह हजार सुभटों के साथ चल कर दण्डकारण्य पहुंचा, एवं रावण को भी दूत भेजकर सहायताथ आने को सूचित कर दिया। राम ने जब धनुप संभाला तो लक्ष्मण ने कहा- मेरे रहते आप मत जाइये, आप सीता की रक्षा करें। यदि आवश्यकता पड़नेपर सिंहनाद करूं तो आप सेरी सहायता करें। शूरवीर लक्ष्मण ने अकेले खरदूपण की सेना को परास्त कर दिया। चन्द्रनखा की पुकार से रावण पुष्पविमान में बैठकर आया और राम के पास सीता को देख कर उसके रूप से मुग्ध हो गया। उसने अवलोकनी विद्या के बल से लक्ष्मण का संकेत जान लिया और लक्ष्मण के स्वर में सिंहनाद किया। राम ने जटायुध से कहा-मैं लक्ष्मण की तरफ जाता हूँ, तुम सीता की रक्षा करना। राम के जाने पर रावण सीता को हरण कर तुरन्त पुष्पविमान मे बैठाकर ले उडा। जटायुध पक्षी ने इसका घोर विरोध किया और रावण को घायल कर डाला पर रावण के सामने उसकी शक्ति कितनी ? रावण ने जटायुध को धनुप से पीट कर भूमिसात् कर दिया। उसकी हड्डी पसली सब टूट गई। रावण के साथ जाते हुए सीता नाना विलाप करती हुई रो रही थी। रावण ने सोचा अभी यह दुखी है, पीछे मेरी रिद्धि देख कर स्वयं अनुकूल हो जायगी। मैंने मुनिराज के पास व्रत लिया था कि बलात्कार से किसी भी स्त्री को नहीं भोगूगा ! अतः मेरा व्रत अविचल रखूगा। सीता-शोध प्रसंग - राम जव संग्राम में लक्ष्मण के पास पहुंचे तो लक्ष्मण ने कहासीता को छोड़ कर आप यहां क्यों आये १ राम ने सिंहनाद की बात Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] कही तो लक्ष्मण ने कहा-धोखा हुआ है, आप शीघ्र लौट कर सीता की रक्षा करें । राम ने जव लौट कर सीता को न देखा तो वह मूच्छित होकर गिर पड़े। थोडी देरी में सचेत होने पर मरणासन्न जटायुध ने उन्हें सीताहरण की बात कही। राम ने उसे करुणावश नवकार मंत्र सुनाया जिससे वह मर कर देव हो गया। राम ने सीता को दण्डकारण्य में सर्वत्र खोजा पर कोई अनुसन्धान न मिला। इसी समय चन्द्रोदय-अनुराधानन्दन बिरहिया नामक विद्याधर रणक्षेत्र में लक्ष्मण के पास आया। वह भी खरदूषण का शत्रु था, अतः लक्ष्मण का सेवक होकर युद्ध करने लगा । खरदूपण ने लक्ष्मण को फटकारा तो लक्ष्मण ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। वह लक्ष्मण पर खड्ग प्रहार करने लगा तो लक्ष्मण ने चन्द्रहास खड्ग से उसका शिरोच्छेद कर डाला। खरदूषण के मरने से उसकी सेना तितिर बितिर हो गई। विजेता लक्ष्मण विरहिया के साथ राम के पास पहुंचा। उसने सीता को न देख कर सारा वृतान्त ज्ञात किया और सीता के अनुसन्धान निमित्त विरहिया को भेजा। विरहिया को आगे जाते एक रत्नजटी नामक विद्याधर मिला जिसने रावण को सीता को हर ले जाते देखा था। उसके घोर विरोध करने पर रावण ने उसकी विद्याएँ नष्ट कर दी थी जिससे वह मूच्छित होकर कंबुशैल पर्वत पर गिर गया। समुद्री हवा से सचेत होकर रत्नजटी ने विरहिया को सीताहरण की खबर बताई। विरहिया ने राम को पाताललंका पर अधिकार करने की राय दी, जहाँ से सीता को प्राप्त करने का उपाय सुगम हो सकता है। फिर विरहिया के साथ रथारूढ़ होकर राम पातालपुरी गए और चन्द्रनखा के पुत्र सुन्द को जीत कर पातालपुरी पर अधिकार कर लिया। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] कामाशक्त रावण की व्याकुलता रावण ने सीता को हरण करके ले जाते हुए उसे प्रसन्न करने के लिए नाना प्रकार के वचन प्रयोग किये पर सीता ने उसे करारी फटकार बता कर निराश-सा कर दिया। फिर भी वह उसे लंका ले गया और देवरमण उद्यान में छोड़ दिया। जब रावण राजसभा में जाकर बैठा तो मंदोदरी आदि को साथ लेकर रोती हुई चन्द्रनखा आई और कहने लगी कि मुझे पति खरदूपण और पुत्र संबुक का . दुःख उपस्थित हो गया, तुम्हारे जैसे भाई के विद्यमान रहते ऐसा हो जाय, तो फिर क्या कहा जाय ? रावण ने कहा सहोदरे ! भावी प्रबल है, आयुष्य कोई घटा वढ़ा नहीं सकता पर मैं थोड़े दिनों में तुम्हारे शत्रु को यम का मेहमान बना कर छोड़ेगा। इस प्रकार वहिन को आश्वस्त कर जब रावण मंदोदरी के पास गया तो उसने उससे गहन उदासी का कारण पूछा। रावण ने कहा-मैं सीता को अपहरण करके लाया हूं, पर वह मुझे स्वीकार नहीं करती। उसके बिना मैं हृदय फट कर मर जाऊगा ! मन्दोदरी ने कहा-सीता या तो निरी मूर्ख है जो तुम्हारे जैसा पति स्वीकार नहीं करती अथवा वह सती शिरोमणि है । पर तुम उससे जबरदस्ती भी तो कर सकते हो ? रावण ने कहामैं अनन्तवीर्य मुनि के पास नियम ले चुका हूं, अतः मैं नियम भंग कदापि नहीं करूंगा! मैं आशापूर्वक लाया हूं, यदि तुम कुछ उपाय कर सको तो करो। सीता का आत्मबल तथा मन्दोदरी वाद-प्रसंग मन्दोदरी ने सीता के पास जाकर न करने योग्य दूती काये किया। सीता ने कहा कोई भी सती स्त्री इस प्रकार की शिक्षा दे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] सकती है ? तुम्हारे योग्य यह कार्य है ? मन्दोदरी ने कहा-तुम्हारा कथन यथार्थ है पर पति की प्राण-रक्षा के लिए अयुक्त कार्य भी करना पड़ता है ! रावण ने भी स्वयं आकर सीता को बहुत समझाया । नाना प्रलोभन, भय दिखाये पर सीता ने उसे निभ्रंछना कर निकाल दिया। रावण ने सिंह, वैताल, राक्षसादिरूप विकुर्वण करके उसे डराने की चेष्टा की पर उसकी सारी चेष्टाएँ निष्फल गई। प्रातःकाल जव विभीषण को ज्ञात हुआ तो उसने सीता को आश्वासन देकर कहा कि-मैं रावण को समझाकर तुम्हें राम के पास भिजवा दूंगा । उसने रावण को इस परनारीहरण के अनर्थ से बचने की प्रार्थना की पर रावण ने एक न सुनी। रावण सीता को पुष्प-विमान में बैठाकर पुष्पगिरि स्थित सुन्दर उद्यान ले गया और नृत्य, गीत, वाजिनादि के आयोजन द्वारा उसे प्रसन्न करने की चेष्टा की। सीता ने स्नान भोजनादि त्यागकर एकान्त धारण कर लिया। उसने अभिग्रह किया कि जब तक राम लक्ष्मण के कुशल समाचार न मिले, अन्न का सर्वथा त्याग है। नर्तकी ने जब रावण से यह समाचार कहा तो रावण सीता के विरह मे विक्षिप्त चेष्टाएँ करने लगा। राम-सुग्रीव मिलन प्रसंग जब किष्किन्धा नरेश सुग्रीव ने खरदूषण को मारनेवाले राम, लक्ष्मण की वीरता का यशोगान सुना तो वह अपना दुःख दूर करने के लिए पातालपुरी आया। राम द्वारा कुशल समाचार पूछने पर जम्वूनन्द मन्त्री ने कहा-ये किष्किन्धापति आदित्यरथ के पुत्र महाराजा सुग्रीव है । इनके ज्येष्ट भ्राता बालि बड़े वीर और मनस्वी थे, जिन्होंने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] रावण की भी आधीनता स्वीकार नहीं की। उनके वैराग्य से दीक्षित हो जाने पर सुग्रीव राजा हुए । एक बार कोई विद्याधर सुग्रीव का रूप करके तारा के पास आया । तारा ने उसकी चेष्टाओं से कपट जानकर मन्त्री को सूचित किया । कपट-सुग्रीव राज्यासन पर जा बैठा। असली सुग्रीव के आने पर दोनों में भिडंत हो गई । मन्त्री ने असलो राजा को न पहिचानकर दोनों को मना किया। रानी के शील रक्षार्थ वालि के पुत्र चन्द्ररस्मि को प्रधान स्थापित किया। असली सुग्रीव हनुमान के पास सहायतार्थ गया पर उसे भी दोनों को एकसे देखकर सन्देह हो गया अतः अब आपके शरणागत है। राम ने कहा-तुम निश्चिन्त रहो, तुम्हारा , काम हम कर देंगे, यह साधारण वात है। पर हम अभी दुखी हो रहे है क्योंकि सीता को कोई दुष्ट छल करके अपहृत कर ले गया है, यदि तुम्हारे से कुछ बन सके तो अनुसन्धान लगाओ। सुग्रीव ने कहामैं एक सप्ताह में सीता का पता न लगा सका तो अग्निप्रवेश कर जाऊंगा। सुग्रीव नामधेयी विद्याधर का अन्त राम प्रसन्न होकर सुग्रीव के साथ किष्किन्धा आए। नकली सुग्रीव ने युद्ध में उतरकर असली सुग्रीव को गदा के प्रहार से मूच्छित कर दिया। फिर सचेत होकर सुग्रीव ने राम से कहा-मैं आपके पास ही था, आपने मेरी सहायता नहीं की ? राम ने कहा-मैं भी तुम दोनों में असली नकली का निर्णय न कर सका, अब मैं अकेला ही तुम्हारे शत्रु को मारूँगा। राम के तेज प्रताप से उसकी विद्या नष्ट हो गई और उसे अपने प्रकृत रूप में लोगों ने पहचान लिया कि यह साहसगति विद्याधर है । सुग्रीव के साथ उसका युद्ध होने लगा। वानर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] दल भग्न होते देख राम ने उसे पकड़कर यमपुरी पहुंचा दिया । सुग्रीव ने हर्षित होकर राम लक्ष्मण को उद्यान में ठहराया और अश्वरत्न आदि भेंट कर स्वयं तारा रानी के पास जाने के पश्चात् रामसे की हुई अपनी प्रतिज्ञा विस्मृत हो गया। सुग्रीव की चन्द्रप्रभादि तेरह कन्याएँ पति वरने की इच्छा से राम के आगे आकर नाटक करने लगी। राम तो सीता के विरह में दुखी थे अतः उन्हें आँख उठाकर भी नहीं देखा। राम ने लक्ष्मण से कहा-कार्य सिद्ध होने पर सुग्रीव प्रतिज्ञाभ्रष्ट और निश्चिन्त होकर बैठ गया। लक्ष्मण ने सुग्रीव के पास जाकर उसे करारी फटकार वताई। सुग्रीव क्षमायाचना-पूर्वक राम के पास आया और उन्हें आश्वस्त करके सीता की शोध के लिए चल पडा । भामण्डल को भी सीताहरण का सम्वाद भेज दिया गया। सुग्रीव द्वारा सीता-शोध सुग्रीव अपने सेवकों के साथ नगर, पहाड़, कन्दराओं मे खोज करता हुआ कम्बुशैल पर्वत पर पहुंचा तो उसने रत्नजटी को कराहते हुए देखा । उसने सुग्रीव से कहा-जव मैंने रावण को सीता को हरण कर ले जाते देखा तो उसका पीछा करके ललकारा। रावण ने मेरी विद्याएँ छेदन कर मुझे अशक्त कर दिया। अव तो राम के पास जाकर खबर देने में भी असमर्थ हूँ। सुग्रीव उसे उठाकर राम के पास ले गया। उसने सीता की खबर सुनाकर रामचन्द्र को प्रसन्न कर दिया। राम ने उसे अंग के सारे आभूषण देकर पूछा कि लंकानगरी कहाँ है ? यह हमें बतलाओ। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] लंका की शक्ति और रावण-मृत्यु रहस्य विद्याधर रत्नजटी ने कहा-लवण समुद्र के बीच, राक्षसों के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लंकानगरी वसी हुयी है। वहाँ राजा रावण-दशानन अपने विभीषण, कुम्भकरण भ्राता व इन्द्रजीत, मेघनाद पुत्रों सहित राज करता है। वह वडा भारी शक्तिशाली है, उसने नीग्रहों को अपना सेवक बना रखा है और विधि उसके यहां कोद्रव दलती है ! उस त्रैलोक्य कंटक रावण के समकक्ष कोई नहीं! राम-लक्ष्मण ने कहा-पर स्त्री हरण करने वाले की क्या प्रशंसा करते हो, हम उसे हनन कर व लंका को लूटकर सीता को लीला मात्र में ले आवंगे। उसे ऐसी सीख दगे कि भविष्य में कोई परस्त्री हरण करने का साहस नहीं करेगा! जंबुवंत ने कहा-ये आपसे प्रीति धारण करने वाली विद्याधर कन्या प्रस्तुत 'है, इसे स्वीकार करो और सीता को लाने की बात छोड़ो। अन्यथा महान कष्ट में पड़ोगे । लक्ष्मण ने कहा- उद्यम से सब कुछ सिद्ध होता है ! हम सीता को निश्चय प्राप्त कर लेंगे। सुग्रीव के मन्त्री जंबुवन्त ने कहा-एक बार रावण ने अनन्तवीर्य मुनि को पूछा था कि मुझे कौन मारेगा तो उन्होंने कहा था कि जो कोटिशिला को उठावेगा उसी से तुम्हें मरने का भय है ! यह सुन कर राम, लक्ष्मण और सुग्रीव सिन्धु देश गये। कोटिशिला प्रसंग तथा लक्ष्मण द्वारा शत्ति प्रदर्शन कोटिशिला एक योजन उत्सेधागुल ऊँची और इतनी ही पृथुल है, यहाँ भारत की अधिष्ठातृ देवी का निवास है। शान्तिनाथ स्वामी के चक्रायुध गणधर और उसके ३२ पाट, कुन्थुनाथ तीर्थ कर के २८, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ . अरनाथ स्वामी के २४, मल्लिनाथ के २० पाट, मनिसुन्नत स्वामी और नमिनाथ स्वामी के नीर्थ के भी करोड़ों मुनिराज यहां से निर्वाण पद प्राप्त हुए अतः इसका कोटिशिला नाम प्रसिद्ध हुआ। प्रथम वासुदेव इसे बायी भुजा से ऊँची उठाते है, दूसरे मस्तक तक, तीसरे कण्ठ तक, इस तरह छाती, हृदय, कटि, जांघ, जानु पर्यन्त आठवा व नवम वासुदेव चार अंगुल ऊँची उठाते है। लक्ष्मण ने सबके समक्ष वांयी भुजा से ऊँची उठा दी, देवों ने पुष्पवृष्टि की! कोटिशिला तीर्थ की वन्दना कर सम्मेतशिखर तीर्थ गये, वहाँ से विमान में बैठ कर सब लोग किष्किन्धा आ पहुंचे। आक्रमण मन्त्रणा राम ने कहा-अव निश्चिन्त न बैठ कर लंका पर शीघ्र चढ़ाई कर देना ही ठीक है। सुग्रीव ने कहा--रावण विद्या वल से परिपूर्ण है अतः पहले युद्ध न छेड़ कर यदि उसके भाई विभीपण जो कि न्यायवान और परम श्रावक है-दूत भेज कर प्रार्थना की जाय, ऐसी मेरी राय है। रामचन्द्र ने कहा-ऐसा दूत कौन है जो यह कार्य कर सके ? सबका ध्यान पवन के पुत्र हनुमन्त की ओर गया और श्रीभूति दूत को भेज कर हनुमन्त को बुलाया। उसने जब सारी बातें कही तो हनुमन्त की स्त्री अनंगकुसुमा जो खरदूपण की पुत्री थी, पिता और भाई की मृत्यु का दुःख करने लगी जिसे सबने धीरज बँधाया। दूमरी स्त्री कमला सुग्रीव की पुत्री थी जिसकी माता तारा और सुग्रीव को सुखी करने के कारण उसने दूत का बहुत आदर किया। हनुमान का दौत्य और शक्ति प्रदर्शन तथा सीता-सन्तुष्टि हनुमन्त भी राम के गुणों से रंजित होकर तुरंत विमान द्वारा किष्किन्धा गया। राम लक्ष्मण से आदर पाकर हनुमन्त राम की Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रिका और सन्देशलेकर लंका की ओर ससैन्य आकाशमार्ग से चला। राक्षसोंने ऊँचा गड प्राकार व कूटयन्त्र में असालिया व उपविष दाढा वाला महासर्प रख छोड़ा था। हनुमान ने वज़ कवच पहिन कर कूट यंत्र को चकचूर कर डाला और मुख में प्रविष्ट होकर उदर विदीर्ण कर निकला। उसने असालिया विद्याके आरक्षक वजमुखके भिड़ने पर उसका मस्तक उड़ा दिया। पिता का बदला लेने, लंकासुन्दरी आकर हतुमान से लड़ने लगी। हनुमान उसके हाथ से धनुप छीनने लगा तो वे परस्पर एक दूसरे के प्रति मुग्ध हो गये। युद्ध प्रणय रूप में परिणत हो गया। हनुमान एक रात वहा रह कर प्रातःकाल लंका जाकर विभीपण से मिला और उसे सीता को लौटाने के लिये रावण को समझाने का भार सौंपा। इसके अनन्तर हनुमान सीता के पास गया, वह अत्यन्त दुवेल, चिन्तित और करुण अवस्था मे बैठी हुयी थी। हनुमान ने श्री रास की मुद्रिका उसके अंक में गिरा कर प्रणाम किया और अपना परिचय देते हुये राम-लक्ष्मण के सारे समाचार सुनाये, मन्दोदरी ने कहा-ये हनुमान बड़े वीर है, इन्होंने रावण के सामने वरुण को हराया, जिससे उसने अपनी वहिन चन्द्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा को इन्हें परणाया है, पर इन्होंने भूचर की सेवा स्वीकार की, यह शोभनीय नहीं! हनुमान ने कहा-हमने उपकारी के प्रत्युपकार रूप जो दूतपना किया यह हमारे लिये भूषण है पर तुम सीता के बीच दूतीपना करने आई तो यह महादूषण है। मन्दोदरी रावण की बड़ाई करती हुई राम की बुराई करने लगी। सीता के साथ बोलचाल हो जाने से वह मुष्टि प्रहार करने लगी तो हनुमान ने उसे खूब फटकारा। सीता ने ससैन्य हनुमान को भोजन करवा के स्वयं अभिग्रह पूर्ण होने Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] से पारणा किया। हनुमान ने उसे स्कन्ध पर बैठा कर ले जाने का कहा पर सीता ने पर पुरुष स्पर्श अस्वीकार करते हुये अपना चूडामणि चिन्ह स्वरूप दिया और शीघ्र राम को आने की प्रार्थना पूर्वक हनुमान को विदा कर दिया ताकि मन्दोदरी की शिकायत से रावण हनुमान के प्रति कुछ उपद्रव न करे। मेघनाद द्वारा नागपाश प्रक्षेप और हनुमान बन्धन हनुमान सीता को नमस्कार करके रवाने हुआ तो रावण के भेजे हुये राक्षसों ने उसे घेर लिया। उसने वृक्षो को उखाड़ कर प्रहार करते हुये राक्षसों को भगा दिया और वानर रूप से लोगों को त्रास पहुंचाता हुआ रावण के निकट आया। रावण ने लंका को नष्ट करते देख सुभटो को तैयार होने की आज्ञा दी। इन्द्रजित और मेघनाद सेना सहित हनुमान से युद्ध करने लगे। हनुमान ने अपनी सेना को भगते देखा तो स्वयं युद्ध करने लगा। जब राक्षस लोग भगने लगे तो इन्द्रजित ने तीरों की बौछार लगा दी, हनुमान ने उन्हें अर्द्धचन्द्र वाण से छिन्न कर दिये। इन्द्रजित् द्वारा प्रक्षिप्त शक्ति को जब हनुमान ने लघु-लाघवी कला से निष्फल कर दिया तो उसने नागपाश से हनुमान को बाँध कर रावण के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि इसने सुग्रीव की प्रेरणा से दूत रूप में लंका में सीता के पास आने से पूर्व बजमुख राजा को मार कर लंकासुंदरी ले ली एवं पद्मवन को नष्ट कर लंका में उपद्रव मचाकर लोगों को त्रस्त किया है, अब इसे क्या दंड दिया जाय ? हनुमान रावण विवाद और लंका में उपद्रव रावण ने उसके अपराध सुन कर कहा-तुम पवनंजय-अंजना Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] के पुत्र न होकर अधमशिरोमणि वानर हो, जो भूचर के दूत बने । हनुमान ने उसे कहा - अथम और पापी तुम हो, उत्तम पुरुष परनारी सहोदर होते हैं । तुम्हारे में रत्नाश्रव के पुत्र होने के लक्षण नहीं, पर कुलागार हो । रावण ने उसे साकलों से बाँध कर सारे नगर में घुमाने का आदेश दिया । हनुमान ने क्षण मात्र में बन्धन मुक्त होकर सहस्त्र स्तम्भों वाले भुवन को धाराशायी कर दिया और आकाश मार्ग से उड़ कर aिfoकन्धा नगर जा पहुँचा। सीता की पुष्पांजलि और स्नेहपूर्ण आशीर्वाद हनुमान का संवल था । सुग्रीव उसे बड़े आदर के साथ राम के पास ले गया । हनुमान ने चूड़ामणि सौंपते सीता के संदेश और मार्ग के सारे वृतान्त सुनाये । हुए लंका पर आक्रमण आयोजन राम को यह बात अधिक खटकती थी कि उसकी प्रिया शत्रु के यहाँ है। लक्ष्मण ने सुग्रीवादि सुभटों को बुला कर शीघ्र लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रेरित किया । वे लोग भामण्डल की प्रतीक्षा में थे । समुद्र पार कैसे किया जाय यह भी समस्या थी । किसी ने रावण के कोप की शंका की तो चन्द्ररस्मि ने कहा- हमारे पास पर्याप्त सेना है, भय का कोई कारण नहीं । राम की सेना में घनरति, सिंहनाद, घृतवरह, प्रल्हाद, सुक्र, भीमकूट, असनिवेग, नल, नील, अंगद, वज्रवदन, मन्दरमाल, चन्द्रज्योति, सिंहरथ, वज्रदत्त, लागूल, दिनकर सोमदत्त, जुकीत्ति, उल्कापात, सुग्रीव, हनुमान, प्रभामण्डल, पवनगति, इन्द्रकेतु, प्रहसनकीर्ति आदि सुभट थे । राम के सिंहनाद को सुनकर सेना में उत्साह की लहर आ गई। मार्गशीर्ष कृष्ण ५ को , Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] विजय योग में शुभ शकुनों से सूचित होकर राम ने सैन्य सहित लंका की ओर प्रयाण किया। रामचन्द्र तारागण से वेष्टित चन्द्र की भांति सुशोभित थे। सुग्रीव, हनुमान, नल, नील, अंगद की सेना का चिन्ह वानर था। विरोहिय के हार, सिंहरथ के सिंह, मेघकान्ति के हाथी, ध्वज एव गज, रथ, घोड़ा, आदि के चिन्ह थे। उन चिन्हयुक्त विमानों में बैठकर वे समुद्र तट पर पहुंचे। एक राजा ने युद्ध में आधीनता स्वीकार कर लक्ष्मण को चार कन्याएँ समर्पित कर दी। हंसद्वीप जाने पर राजा हंसरथ ने राम की बड़ी सेवा की। इधर भामंडल को बुलाने के लिए दूत भेजा गया। हंसद्वीप प्रसंग और लङ्का प्रयाण रामचन्द्र की सेना जब हंसद्वीप पहुंची तो लंका में भगदड़ मच गई। रावण ने भी रणभेरी वजा कर सेना एकत्र की। विभीषण ने रावण को युद्ध मे न उतरनेकी समयोचित शिक्षा दी किन्तु उसे किसी प्रकार भी सीता को लौटाना स्वीकार नहीं था। विभीषण की शिक्षाओं ने रावण की कोपाग्नि में घृत का काम किया। जब दोनों में परस्पर युद्ध छिड गया, तो कुम्भकरण ने बीच में पड़कर दोनों को अलग किया। विभीषण अपनी तीस अक्षौहिणी सेना लेकर हंसद्वीप गया। वानर सेना में खलबली मचने से राम अपने धनुप और लक्ष्मण रविहास खङ्ग को धारण कर सावधान हो गए। विभीषण ने राम के पास दूत भेज कर कहलाया कि सीता के विषय में हित शिक्षा देते हुए मेरा रावण से विरोध हो जाने से मैं आपका दासत्व स्वीकार करने आया हूं। राम ने मन्त्री लोगों की सलाह लेकर विभीपण को सम्मानपूर्वक अपने पास बुला लिया जिससे हनुमान आदि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] सभी वीरों में प्रसन्नता छा गई। इतने मे ही भामंडल भी सदलचल आ पहुंचा, राम ने उसका वड़ा सत्कार किया। कुछ दिन हंमद्वीप में रहकर राम लक्ष्मण ने ससैन्य लंका की ओर प्रयाण किया। बीस योजन की परिधि वाले रणक्षेत्र में सेना के पड़ाव डाले गये। लंका युद्ध प्रसंग कुम्भकर्णादि सभी सामन्त अपनी-अपनी सेना के साथ रावण के पास गए। रावण के पास ४ हजार अक्षौहिणी सेना तथा एक हजार अक्षौहिणी वानरों की सेना थी। अक्षौहिणी सेना में २१८७० हाथी, रथ, १०६३५० पैदल, ६५६१० अश्वारोही होते थे। मेघनाद, इन्द्रजित गजारूढ़ थे। ज्योतिप्रभ विमान में राजा कुम्भकरण सुभटों के साथ एवं रावण पुष्पक विमान में बैठकर चला। भूकम्पादि अपशकुन होने पर भी रावण ने भवितव्यता वश उन्हें अमान्य कर दिया। राक्षस और वानर सेना के वीर परस्पर एक दूसरे पर टूट पड़े। राम की सेना में जयमित्र, हरिमित्र, सबल, सहावल, रथवर्द्धन, रथनेता, दृढरथ, सिंहरथ सूर, महासूर, सूरप्रवर, सूरकंत, सूरप्रभ, चन्द्राभ, चन्द्रानन, दमितारि, दुर्दन्त, देववल्लभ, मनवल्लभ, अतिवल, प्रीतिकर, काली, सुभकर, सुप्रसनचन्द्र, कलिंगचंद्र, लोल, विमल, गुणमाली, अंग्रतिघात, सुजात, अमितगति, भीम, महाभीम, भानु, कील, महाकील, विकल, तरंगगति विजय, सुसेन, रत्नजटी, मनहरण, विरोहिय, जलवाहन, वायुवेग, सुग्रीव, हनुमन्त, नल, नील, अंगद, अनल आदि सुभट थे। अनेक विद्याधरों के साथ विभीषण भी सन्नद्धवद्ध थे। रामचन्द्र स्वयं सब . से आगे थे। रणभेरों व वाजिनों तथा सेना के कोलाहल व सिंहनाद Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] से कानों में किसी का शब्द तक सुनाई नहीं पड़ता था, सैन्य पदरज से सर्वत्र अन्धकार-सा व्याप्त था। नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित बानरों ने रावण की सेना के छक्के छुड़ा दिए। राक्षसों को भागते देख हत्थ, विहत्थ आ डटे, जिन्हें राम द्वारा प्रेरित नील और नल ने मार भगाया। सूर्यास्त होते ही युद्ध बन्द हो गया। विषम युद्ध और शक्ति हेतु लक्ष्मण का देवाराधन दूसरे दिन युद्ध करते हुए जव वानर सेना के पैर उखड़ने लगे तो पवन पुत्र हनुमान तुरन्त रणक्षेत्र में कूद पड़ा। राजा बजोदर ने हनुमान का कवच व सन्नाह भेद डाला तो हनुमान ने उसका खग द्वारा शिरोच्छेद कर दिया। रावण के पुत्र जंबुमालि को जव हनुमान मारने लगा तो कुम्भकरण त्रिशूल लेकर दौड़ा। उसे आते देख चन्द्ररश्मि, चन्द्राभ, रत्नजटी और भामण्डल आगे आये जिन्हें दर्शनावरणी विद्या से कुम्भकरण ने निद्रा घूमित कर दिया। सुग्रीव ने पडिबोहिणी विद्या से उन्हें जागृत कर दिया जिससे उन्होंने युद्धरत होकर कुम्भकणे को विकल कर दिया। इन्द्र जित् जब आगे आया तो सुग्रीव भामण्डल उससे आ भिड़े। उसके द्वारा प्रक्षिप्त कंकपत्र को सुग्रीव ने छेद डाला। मेघवाहन भामडल से युद्ध करने लगा। उसने भामण्डल को, इन्द्रजित् ने सुग्रीव को तथा कुंभकरण ने हनुमान को नागपाश से , बांध लिया। विभीषण ने राम लक्ष्मण से कहा-रावण के पुत्रों ने हमारे प्रधान वीरों को बाँध लिया, राक्षसों का पलड़ा भारी हो रहा है। राम ने अंगद को संकेत किया तो वह कुंभकरण से युद्ध करने लगा। इतने ही में हनुमान ने अपना नागपाश तोड़ डाला। लक्ष्मण और Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] विरोही विद्याधर रणक्षेत्रमें उतर पड़े और पाशवद्ध वीरों को आश्वस्त किया। विभीपण इन्द्रजित् से जव आ भिड़ा तो वह अपने पितृतुल्य चाचा से युद्ध न कर भामंडल और सुग्रीव को बांधकर ले गया। लक्ष्मण. ने चिन्तित होकर राम से कहा-इन वीरों के विना विद्यावली रावण को कैसे जीतेंगे ? राम की आज्ञा से लक्ष्मण ने देव को स्मरण किया । देव ने प्रकट होकर राम को सिंह विद्या व हल, मूसल एव लक्ष्मण को गरुड़ विद्या व वज्रवदन गदा के साथ-साथ शस्त्रास्त्र व कवच पूरित दो रथ दिये। उन रथों पर हनुमान के साथ आरूढ़ होकर जब राम लक्ष्मण संग्राम में उतरे तो गरुड़ध्वज देखकर नागपाश पलायन कर गए जिससे सुग्रीव भामडलादि मुक्त हो गए। उन्होंने राम के चरणों में नमस्कार कर पूछा कि यह शक्ति कहाँ से प्रादुर्भूत हुई ? राम ने कहा-पर्वत शृंग पर उपसर्ग सहते हुए देशभूपण मुनिराज को केवलज्ञान हुआ उस समय गरुडाधिप ने हमे वर दिया था, वही वर आज मांगने पर हमें यह सब प्राप्ति हुई है। सब लोग राम के पुण्य की प्रशंसा करने लगे। ___ युद्धरत रावण, लक्ष्मण की मूर्छा और राम रोष सुग्रीव ने युद्धरत होकर राक्षसों को जीत लिया तो रावण रोषपूर्वक रथारूढ होकर संग्राम में उतरा और उसने वानर सेना को पीछे ढकेल दिया। जव विभीपण सन्नद्धबद्ध होकर रावण के सामने आया तो उसने कहा-भाई को मारना अयुक्त है, अतः मेरी दृष्टि से हट जाओ! तुमने शत्रु की सेवा स्वीकार कर रत्नाव के वंश को त्याग दिया। विभीषण ने कहा-शत्रु के भय से पूठ देना कायर का काम Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] है और मैंने न्याय का पक्ष लिया है, तुम अन्यायी हो जो परस्त्री को हरण कर लाये। अब भी मेरा कथन मानकर सीता लौटा दो! । रावण विभीषण पर क्रुद्ध होकर उसके साथ युद्ध करने लगा। इन्द्रजित् से लक्ष्मण, कुम्भकरण से राम और दूसरे योद्धाओं से अन्यान्य सुभट भिड़ गये। थोड़ी ही देर में इन्द्रजित्, मेघवाहन और कुम्भकरण को नागपाश से बांधकर वानर कटक में ला रखा। रावण ने विभीषण पर जब त्रिशूल फैकी तो लक्ष्मण के वाण ने उसे निष्फल कर दिया और स्वयं गजारूढ़ होकर रावण से युद्ध करने लगा। रावण ने अग्निज्वालायुक्त शक्ति का प्रहार किया, जिसकी असह्य वेदना से लक्ष्मण मूछित होकर धराशायी हो गया। राम ने भाई को भूमिसात् देखते ही रावण के साथ धनघोर संग्राम छेड़ दिया। राम ने उसके छत्र, धनुष और रथ को छिन्नभिन्न करके कठोर प्रहार किये जिससे लंकापति भयभीत होकर कांपने लगा । नये-नये वाहनों पर युद्ध करने पर भी राम ने उसे ६ वार रथरहित कर दिया और अन्त में धिक्कार खाता हुआ भग कर लंकानगरी में प्रविष्ठ हो गया। उसके हृदय में लक्ष्मण को मारने का अपार हर्ष था। लक्ष्मण हित राम का शोक राम जब लक्ष्मण के पास आये तो उसे मृतकवत् देखकर भ्रातृ विरह के असह्य दुःख से मूच्छित हो गये। जब उन्हें शीतल जल से संचेत किया तो नाना प्रकार से करुण-क्रन्दन और विलाप करते हुए उसके गुणों को स्मरण कर अन्त में हताश हो गये और सबको अपने Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ अपने घर जाने का कहते हुए कल्पान्त दुःख करने लगे। जाबवन्त विद्याधर ने कहा-आप महासत्वशील हैं, सूर्य कभी उद्य और अस्तकाल में अपना तेज नहीं छोड़ता, इस वजूघात को पृथ्वी की सांति सहन करें। लक्ष्मण अभी मरा नहीं है, यह तो शक्ति प्रहार की मूर्छा है, जिसे उपचार द्वारा रातोरात ठीक किया जा सकता है। यदि प्रातःकाल तक ठीक न हुआ तो यह शरीर सूर्य किरण लगते ही प्रातःकाल के बाद निष्प्राण हो जायेगा। राम ने धैर्यधारण किया, उनके आदेश से विद्याधरों ने विद्या-वल से सात प्राकार बनाकर सात सेनाओं से सुरक्षित किया। नल, नील, अतिबल, कुमुद, प्रचण्डसेन, सुग्रीव और भामंडल सातो द्वारों पर शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर लक्ष्मण की रक्षा के लिए तैनात हो गए और उधर कुम्भकरण, इन्द्रजित और मेघनाद वानर सेना मे कैद थे, जिनके लिए रावण को दुःख करते व लक्ष्मण के शक्ति द्वारा मूञ्छित होने की बातें सीता के कानों में पड़ी तो वह देवर के लिए करुण स्वर से आक्रन्दन करने लगी। उसे विलाप करते देख विद्याधरों ने धैर्य बँधाया और मंगल-कामना व आशीर्वाद देने के लिए प्रेरित किया। रामचन्द्रजी की सेना मे एक विद्याधरने आकर लक्ष्मण को सचेत करने का उपाय बतलाने के लिए मिलने की इच्छा प्रकट की। भामण्डल ने उसे राम से मिलाया उसने कहा लक्ष्मणोपचार आयोजन तथा विशल्या का कथा प्रसंग मैं सुरगीत नगर के राजा शशिमंडल-शशिप्रभा का पुत्र चन्द्रमण्डल हूं। एक वार गगन मंडल में भ्रमण करते हुए पूर्ववैरवश Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] सहसविजय ने मेरे पर शक्ति प्रहार किया जिससे मैं मूर्छित होकर अयोध्या के उद्यान में जा गिरा। भरत ने मुझे किसी विशिष्ट जल के प्रभाव से सचेत कर उपकृत किया, उस जल की माहात्म्य कथा आपको बतलाता हूँ। भरत के मामा द्रोणमुख की नगरी में महामारी का उपद्रव था, कोई भी उपाय से रोग शान्त नहीं होता था। द्रोण राजा भी रुग्ण था, जव वह स्वस्थ हो गया तो भरत ने उसे पूछा कि आपके यहाँकी बीमारी कैसे गई? तो उसने कहा-मेरी पुत्री विशल्या अत्यन्त पुण्यवान है, उसके गर्भ में आते ही माता का रोग ठीक हो गया, स्नान करते धायके उसके स्नानजल के छीटे लग गए तो स्नानजल प्रभाव से वहभी निरोग हो गई। जब इस बात की नगर में ख्याति हुई तो उसका स्नानजल सभी नागरिकों ने ले जाकर स्वास्थ्य लाभ किया। भरत ने मन.पर्यवज्ञानी मुनिराज के पधारने पर इस आर्यजनक चमत्कार का कारण पूछा। मुनिराज ने कहा-विजय पुण्डरीकणी क्षेत्र के चक्रनगर मे तिहुणाणंद नामक चक्रवर्ती राजा था, जिसके अनंगसुन्दरी नामक अत्यन्त सुन्दर पुत्री थी। एक बार जब वह उद्यान मेक्रीड़ा कर रही थी, तो प्रतिष्ठनगरी के राजा पुणवसु विद्याधर ने उसे अपहरण कर लिया। चक्रवर्ती के सुभटों ने प्रबल युद्ध किया जिससे वह जर्जर हो गया। उसका विमान भग्न हो जाने से वह अनंगसुन्दरी डंडाकार अटवी में जा गिरी। उस भयानक जंगल मे अकेली रहते हुए उसने अष्टम और दशम तप प्रारम्भ कर दिया। वह पारणे के दिन फलाहार कर फिर तप प्रारम्भ कर देती। इस प्रकार तीन सौ वर्ष पर्यन्त उसने कठिन तप किया। अन्त में जब उसने संलेखण पूर्वक चौविहार अनशन ले लिया। मेरु पर्वत के Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] जिन मन्दिरों को वन्दनकर लौटते हुए किसी विद्याधर ने उससे कहा कि मैं तुम्हें पिता के यहां पहुंचा दूं? अनंगसुन्दरी के अस्वीकार करने पर उसने चक्रवर्ती को जाकर कहा । चक्रवर्ती जब तक पहुंचा उसे अजगर निकल चुका था। चक्रवर्ती को पुत्री के दुख से वैराग्य हो गया, उसने बाईस हजार पुत्रों के साथ संयम मागे ग्रहण कर लिया। अनंगसुन्दरी यदि चाहती तो आत्मशक्ति से अजगर को रोक सकती थी पर उसने शान्ति से उपसर्ग सहा और अनशन आराधना से मर कर देवी हुई। पुणवसु विद्याधर भी विरक्त परिणामों से दीक्षित हो कर तप के प्रभाव से देव हुआ। वही देवी च्यवकर द्रोणमुख की पुत्री विशल्या और देव च्यवकर लक्ष्मण के रूप मे उत्पन्न हुआ है। पूर्व तपश्चर्या के प्रभाव से उसके स्नानोदक से सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। भरत द्वारा महामारी रोग पैदा होने का कारण पूछने पर मुनिराज ने कहागजपुर के विमउ वणिक का भंसा अतिभार से रुग्ण होकर गिर पड़ा। पर किसी ने उसकी सार सम्भार नहीं की। वह अकाम निर्जरा से मर कर वायुकुमार देव हुआ। वह जातिस्मरण से पूर्वभव का वृतान्त ज्ञात कर कुपित हुआ और महामारी रोग फैला दिया। किन्तु कन्या के न्हवण से जैसे सव के रोग गए वैसे ही विद्याधर ने कहा कि लक्ष्मण भी जीवित हो जायगा। रामचन्द्र ने जम्बुनदादि मन्त्रियों की सलाह से भामंडल को तुरन्त अयोध्या भेजा। भामंडल से जब भरत ने लक्ष्मण के शक्ति लगने की वात सुनी तो वह रावण पर कुपित होकर तलवार निकाल कर मारने दौड़ा। भामंडल ने कहा-रावण यहाँ कहाँ ? वह तो समुद्र पार है। तब Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] भरत ने स्वस्थ होकर विशल्या के स्नानजल के लिये आने का कारण झात किया और जल ले जाने में जोखम है अतः विशल्या को ही भिजवाना तय किया। भरत को मुनिराज के ये वचन याद आ गये कि विशल्या लक्ष्मण की स्त्रीरत्न होगी। उसने द्रोणमुख से विशल्या को भेजने का कहलाया। पर जब वह विशल्या को भेजने के लिये राजी नहीं हुआ तो कैकेयी ने जाकर भाई को समझाया और विशल्या को सहेलियों के साथ विमान में बैठा कर लंका की रणभूमि में भेजा। रामचन्द्र ने सहेलियों से परिवृत्त विशल्या का स्वागत किया। उसने लक्ष्मण का अंग-स्पर्श किया तो 'शक्ति' हृदय से निकल कर अग्नि ज्वाला फेंकती हुई वाहर जाने लगी। हनुमान ने जब शक्ति को पकड़ा तो उसने स्त्री रूप में प्रकट होकर कहा-मैं अमोघ विजया शक्ति हूँ ! एक बार अष्टापद पर प्रभु के सन्मुख मन्दोदरी के नृत्य करते हुए वीणा का तात टूट जाने से रावण ने अपनी भुजा की नस निकाल कर सांघ दी जिससे नागराज ने उसे यह अजेय शक्ति दी थी। आज तक इस शक्ति को किसीने नहीं जीता पर विशल्या के तप प्रभाव से मैं पराजित हुई। शक्ति के क्षमा याचना करने पर हनुमान ने उसे मुक्त कर दिया। लक्ष्मण जव सचेत हुआ तो उसने रामसे शक्ति प्रहार और विशल्या द्वारा जीवनदान का सारा वृतान्त ज्ञात किया। मंदिर आदि सुभट लोग उत्सव मनाने लगे तो लक्ष्मण ने कहा- वैरी रावण के जीवित रहते यह उत्सव कैसा ? राम ने कहा-तुम्हारे केसरी सिंह के गूजते रावण मृतक जैसा ही है। विशल्या ने सब सुभटों को भी स्वस्थ कर दिया, मन्दिर आदि सुभटों ने विशल्या का लक्ष्मण के साथ पाणिग्रहण करवा दिया। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ । रावण की मन्त्रणा और शक्ति संचय का प्रयत्न रावण ने जब लक्ष्मण के जीवित होने का सुना तो मृगांक मन्त्री को बुला कर मंत्रणा की। मन्त्री ने राम लक्ष्मण के प्रताप और बढ़ती हुई शक्ति को देखते हुए सीता को लोटा कर सन्धि कर लेने की राय । दी। रावण ने सीता को लौटाने के अतिरिक्त राम से मेल करने की आशिक राय मान कर राम से कहलाया कि-सीता तो यहाँ रहेगी, आपको लंका के दो भाग दे दूंगा, मेरे पुत्र व भ्राता को मुक्तकर सन्धि कर लो! राम ने कहा मुझे सीता के सिवाय राज्यादि से कोई प्रयोजन नहीं, तुम्हारे पुत्रादि को छोड़ने को प्रस्तुत हूँ! दूत ने कहा-रावण की शक्ति के समक्ष राज्य और सीता दोनों गँवाओगे! दूत के वचनों से क्रुद्ध भामण्डल ने खड्ग उठाई तो लक्ष्मण ने दूत को अवध्य कह कर छुड़ा दिया। दूत अपमानित होकर रावण के पास गया और जाकर कहा कि राम जीते जी सीता को नहीं छोड़ेगा। रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करके दुर्जेय राम को जीतने का निर्णय किया। रावणमन्दोदरी ने शान्तिनाथ जिनालय मे बड़े ठाठ से अष्टान्हिको महोत्सव प्रारम्भ किया। नगर मे सर्वत्र अमारि और शील व्रत पालन करने की आज्ञा देकर आयंबिल तप पूर्वक रावण जिनालय के कुट्टिम तल पर बैठ कर निश्चल ध्यान पूर्वक जाप करने लगा। वानर सेनाको जब रावण के विद्या सिद्ध करने की बात मालूम हुई तो इसके लिये उनमें चिन्ता च्याम हो गई। विभीषण ने राम से कहा-रावण को अभी कब्जे में करने का अच्छा अवसर है। नीति-निपुण राम ने कहा-युद्ध के बिना और फिर शान्तिनाथ जिनालय में स्थित होने से उसे मारना योग्य नहीं ! हां विद्या सिद्ध न हो, इसके लिये अन्य उपाय कर्त्तव्य है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] रावण तप भंग प्रयत्न विभीषण ने वानर सेना को लंका में जाकर उपद्रव करने का आदेश दिया। उद्व ग पाकर लंका के नागरिक कोलाहल करने लगे। देवों ने राम को इसके लिये उपालंभ दिया कि आप जैसे न्यायप्रिय व्यक्ति को ऐसा करना उचित नहीं । लक्ष्मण ने कहा-बहुरूपिणी विद्या सिद्ध न हो, इसी उद्देश्य से यह उपद्रव किया जा रहा है। हे देव ! आप अन्यायी का पक्ष न लेकर मध्यस्थ वृत्ति रखें। देव-प्रजा को कष्ट न देने का निर्देश करके चले गए। राम ने अंगद आदि वीरों को रावण को क्षुब्ध करने के उद्देश्य से लका में भेजा। अंगद ने शान्तिनाथ जिनालय में जाकर रावण को फटकारते हुए कहा कि-सीता का अपहरण करके यहाँ दम्भ कर रहे हो! मैं तुम्हारे देखते तुम्हारे अन्तःपुर की दुर्दशा करके ले जाऊँगा ! अंगद ने मन्दोदरी के वस्त्राभरण छीन लिए और चोटी पकड़ कर खींचना प्रारम्भ किया। मन्दोदरी नाना विलाप करती हुई रावण से पुकार-पुकार कर छुड़ाने की प्रार्थना करने लगी। पर रावण अपने ध्यान में निश्चल बैठा था। उसके साहस और ध्यान से बहुरूपिणी विद्या सिद्ध होकर उसकी आज्ञाकारिणी हो गई। रावण का सीता पर असफल सिद्ध-शक्ति प्रयोग रावण विद्यासिद्ध होकर परीक्षा करने के लिये पद्मोद्यान में गया और नाना रूप धारण करने लगा। सीता रावण का कटक देखकर यही चिन्ता करने लगी कि इस दुष्ट राक्षस से कैसे छुटकारा होगा? रावण ने सीता से कहा-मैं तुम्हें प्रेम में अभिभूत होकर यहां लाया था पर व्रत Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] __ भंग के भय से तुम्हें भोग न सका पर अव भी नहीं मानोगी तो मैं वल प्रयोग करूँगा। सीता ने कहा-यदि मेरे पर तुम्हारा स्नेह है तो परमार्थ की बात कहती हूं कि जब तक राम, लक्ष्मण और भामण्डल जीवित हैं तभी तक मैं जीवित रहूँगी! सीता यह कहते हुए मरणासन्न हो गिर पड़ी। रावण के मन में बडा पश्चाताप हुआ। वह कहने लगा-मुझे धिक्कार है, मैंने राम सीता का वियोग कराके बहुत ही बुरा किया। भाई विभीषण से भी विरोध हुआ। मैंने वास्तव में ही कुमतिवश रत्नाश्रव के कुल को कलंकित किया है। अब यदि सीता को लौटाता हूं तो लोग कहेंगे कि लंकापति ने राम लक्ष्मण के भय से सीता को लौटा दिया ! ___ अव मुझे युद्ध तो करना ही होगा पर राम लक्ष्मण को छोड़कर दूसरों का ही संहार करूँगा। युद्ध-कृत संकल्प रावण की वीरता रावण युद्ध के लिए कृत संकल्प होकर लंका से निकला। मार्ग में उसे नाना अपशकुन हुए। मन्त्री, सेनापति और महाजन लोगों के वारण करने पर भी बहुरूपिणी विद्या के वल से वह अपने आगे हजार हाथी और दस हजार अपने जैसे विद्याधरों की रचना करके रणक्षेत्र में उतरा । केशरीरथ पर राम और गरुड़ पर लक्ष्मण आरूढ हो गये। भामण्डल, हनुमान आदि सभी सुभट सन्नद्ध होकर उत्तम शकुनों से सूचित हो राक्षस सेना से जा भिड़े। राक्षस और बानर सेना मे .. भयंकर युद्ध छिडा। रक्त की नदियां बहने लगी। हनुमान द्वारा राक्षसों को क्षत-विक्षत होते देख मन्दोदरी का पिता आगे आया, हनुमान ने उसे तीरों से बींध कर रथ का चकनाचूर कर डाला । रावण ने विद्या Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] बल से उसे नया रथ दे दिया उसने जव भामण्डल, हनुमान और सुग्रीच को रथ रहित कर दिया तो विभीषण आगे आया। रावण के मसुर ने जब उसे भी तीरो से विद्ध कर दिया तो रामने विभीषण की सहायता के लिए वाण वर्षा करके रावण के ससुर को भगा दिया। रावण क्रुद्ध होकर आगे आया तो लक्ष्मण ने उसे जा ललकारा। रावण के की हुई वाण-वर्षा को लक्ष्मण ने कंकपत्र द्वारा निष्फल कर दिया। रावण जब नि शस्त्र हो गया तो उसने बहुरूपिणी विद्या को स्मरण किया। रावण के मेह शस्त्र को लक्ष्मण ने पवन से, अन्धकार को सूर्य तेज से, सांप को गरुड़ से हटा दिया तव बहुरूपिणी विद्यावल से रावण ने उसे छलना प्रारम्भ कर दिया। कहीं, रावण मृतक पड़ा दीखता तो कभी हजारों भुजाओं से युद्ध करता हुआ, इस प्रकार, नाना प्रकार के अगणित रूप करनेवाले रावण द्वारा प्रक्षिप्त शस्त्रों को भी जब लक्ष्मण ने निष्फल कर दिया तो उसने अपने अन्तिम उपाय चक्ररत्न को स्मरण किया। चक्ररत्न सहस्त्र आरोवाला मणिरत्नमय ज्योतिपूर्ण और अमोघ था। रावण ने लक्ष्मण के सामने चक्र फेंका, लक्ष्मण के पास सभी सुभट उपस्थित थे, उनके द्वारा दूसरे सभी हथियारो को छिन्नभिन्न कर देने पर भी चक्ररत्न अवाध गति से लक्ष्मण के पास आकर उसके हाथों पर स्थित हो गया। सारी सेना में लक्ष्मण के वासुदेव प्रकट होने से आनन्द की लहर छा गई। अनन्तवीर्य मुनि के वचन सत्य हुए। अहंकारी रावण का पतन रावण जो प्रतिवासुदेव था, लक्ष्मण के वासुदेव रूप मे प्रकट होने से अपनी करणी पर मन-ही-मन पश्चाताप प्रकट करने लगा। विभीषण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ ] ने अवसर देखकर फिर रावण को समझाया, पर उसने अहंकार के । वशीभूत होकर कहा-चक्ररत्न का भय दिखाते हो ? लक्ष्मण ने उसकी धृष्टता चरम सीमा पर पहुंची देखकर उस पर चक्ररत्न छोड़ा जिसके प्रहार से रावण मरकर धराशायी हो गया। रावण के मरते ही उसकी सारी सेना राम की सेना मे मिल गई। राम विजयी हुए। विभीपण-शोक तथा रावण की अन्त्येष्टि रावण को मरा देखकर विभीषण भ्रातृ-शोक से अभिभूत होकर 'विलाप करता हुआ आत्म-घात करने लगा जिसे राम ने समझा-बुझाकर शान्त किया । मन्दोदरी आदि रानियों को भी करुण-क्रन्दन करते देख रामचन्द्र ने आकर समझाया और रावण के दाह संस्कार की तैयारी की। इन्द्रजित् व कुम्भकरण आदि को मुक्त कर दिया गया। राम, लक्ष्मण ने रावण की अन्त्येष्टि मे शामिल होकर उसे पद्मसरोवर पर जलांजलि दी। रावण परिवार का चारित्र-ग्रहण दूसरे दिन लंकापुरी के उद्यान मे अप्रमेयवल नामक मुनि छप्पन हजार मुनियों के साथ पधारे, जिन्हें वहाँ अर्द्धरात्रि के समय केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। राम, लक्ष्मण, इन्द्रजित् , कुम्भकरण, मेघनाद आदि सभी लोग केवली भगवान को वन्दनार्थ आए। केवली भगवान की वैराग्यवासित देशना श्रवण कर कुम्भकरण, मेघनाद, इन्द्रजित् ने उनके पास चारित्र-ग्रहण कर लिया। मन्दोदरी पति पुत्रादि के वियोग से दुःख विह्वल थी, उसे संयमश्री प्रवर्तिनी ने प्रतिवोध देकर अठावन हजार चन्द्रनखादि स्त्रियों के साथ दीक्षित किया। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] राम का लंका प्रवेश सुग्रीव हनुमान और भामण्डलादि के साथ राम लक्ष्मण लंकानगरी में प्रविष्ट हुए। उनके स्वागत में सारा नगर अभूतपूर्व ढङ्ग से सजाया गया। राम पुष्पगिरि पर्वत के पास पद्मोद्यान मे जाकर सीता से मिले। राम के दर्शन से सीता का विरह दुःख दूर हुआ, देवों ने पुष्पवृष्टि की। सर्वत्र सीता सती के शील की प्रशंसा होने लगी। लक्ष्मण ने सीता का चरण स्पर्श किया, भाई भामण्डल, सुग्रीव, हनुमान आदि सवसे मिलने के पश्चात् गजारूढ़ होकर सीता, राम, लक्ष्मण रावण के भवन मे आये। सर्वप्रथम शान्तिनाथ जिनालय मे पूजन स्तवन करके शोक सन्तप्त रत्नाश्रव, सुमालि विभीपण, मालवन्त आदि को आश्वस्त किया। राम ने विभीपण को लंका का राज्य दिया। विभीपण ने सवको अपने यहीं बुलाकर खूब भक्ति की। सबने मिल कर राम का राज्याभिषेक करने की इच्छा व्यक्त की तो राम ने कहा- मुझे राज्य से प्रयोजन नहीं, भरत राज्य करता ही है। सीता के साथ राम और विशल्या के साथ लक्ष्मण लंका में सानन्द रहे। लक्ष्मण की अन्य सभी परिणीताओं को भी बुला लिया गया। राम लक्ष्मण के साथ सहस्रों विद्याधर पुत्रियों का पाणिग्रहण हुआ। नारद मुनि द्वारा अयोध्या का वर्णन एक दिन नारद मुनि आकाश मार्ग से घूमते हुए लंका आये । राम ने उन्हें अयोध्या से आये ज्ञातकर भरत के कुशल समाचार पूछे। नारद ने कहा-और तो सब कुशल है पर सीताहरण और लक्ष्मण के संग्राम में मूच्छित होने के बाद विशल्या को अयोध्या से ले जाने Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] के पश्चात् आपका कोई सम्वाद न मिलने से भरत और माताओं को अपार चिन्ता हो रही है। अयोध्या के समाचारों से राम लक्ष्मण ने नारद मुनि का आभार मानते हुए उन्हें सत्कार-पूर्वक विदा किया। नदनन्तर राम ने विभीषण से अयोध्या जाने के लिए पूछा तो विभीषण ने सोलह दिन और ठहरने की प्रार्थना की। भरत के पास दूत भेजकर कुशल समाचार कहलाया। भरत दूत को माता के पास ले गया, माता ने कुशल समाचार सुनकर दूत को वस्त्राभरणो से सत्कृत किया। अयोध्या नगर मे राम लक्ष्मणादि के स्वागत की जोरदार तैयारियां होने लगी। अयोध्याका स्वागत आयोजन और राम का प्रवेश विभीषण के आग्रह से १६ दिन और लंका में रह कर राम, लक्ष्मण, सीता और विशल्यादि सारा परिवार पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आया। मार्ग में रामचन्द्रजी ने हाथ के इशारे से अपने प्रवास स्थानों को घटनाचक्र सहित बतलाये। अयोध्या पहुंचने पर चतुरंगिणी सेना के साथ भरत स्वागत करने के लिए सामने आये। नाना प्रकार के वाजिन ध्वनि व मानव-मेदिनी के जय-जयकार युक्त वातावरण में अयोध्या मे राम, लक्ष्मण सपरिवार प्रविष्ट हुए। अयोध्या की वीथिकाएँ सुगन्धित जल से छींटी गई। गृह द्वार केशर से लींपे गये, पंचवर्ण के पुष्प वरषाये गये। मुक्ताओ से चौक पूरा कर तोरण वाधे गए। ध्वजा-पाताकाएँ और रत्नमालाएँ लटकाई -गई। जिनालयों मे सतरह प्रकारी पूजा व महोत्सव प्रारम्भ हुए। विभीषण की आज्ञा से विद्याधरों ने मणिरत्नादि की वृष्टि की । स्थान Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] • स्थान पर नाटक होने लगे । सधवा स्त्रिया पूर्ण कुम्भ धारण कर वधा रही थीं। सब लोग राम लक्ष्मण, सीता, विशल्या, हनुमान, भामंडल आदि के गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। सर्वप्रथम राम जब सपरिवार माताओं के महल मे गए तो सुमित्रा, अपराजिता और कैकयी ने पुत्रो व पुत्र-वधुओ का स्वागत किया, राम, लक्ष्मण सपरिवार माताओं के चरणो में गिर पड़े। सर्वत्र हर्प और उत्साह की लहरें उमडने लगी । भरत शत्रुघ्न ने भ्राताओं के चरणों मे नमस्कार किया। राम लक्ष्मणादि की रानियां भिन्न-भिन्न महलो मे आनन्द-पूर्वक रहने लगी। भरत चारित्र-ग्रहण ___ एक दिन भरत ने प्रबल वैराग्यवश राम के पास आकर दीक्षा लेने की आजा मागते हुए कहा-यह राजपाट संभालिये, मैं असार संसार को त्याग कर मुनि-दीक्षा लूंगा। मेरी पहले से ही मुनि बनने की इच्छा थी, पर माता के आग्रह से राज्य भार स्वीकार करना पड़ा अब कृपा कर मुझे अपने चिर मनोरथ पूर्ण करने का अवसर दें। राम ने भरत को बहुत समझाया पर उसकी आत्मा संयम रग मे रंजित थी। कुलभूषण केवली के अयोध्या पधारने पर भरत ने हजार राजाओं के साथ चारित्र ग्रहण कर लिया। निम्रन्थ राजर्षि भरत तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। राम-राज्याभिषेक सुग्रीव आदि विद्याधरों ने राम को राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना की तो राम ने कहा-लक्ष्मण वासुदेव है, उसका राज्याभिषेक करो, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] उसके राजा होनेसे में स्वतःही राजा हो गया क्योंकि वह मेरा विनीत व आनाकारी है। तदनन्तर विद्याधरों ने राम लक्ष्मण का अभिषेक किया। राम बलदेव व लक्ष्मण वासुदेव हुए। सीता और विशल्या पटरानियां हुई। राम ने विभीषण को लंका का राज्य, सुग्रीव को किष्किन्ध्या, हनुमान को श्रीपुर, चन्द्रोदर के पुत्र को पाताल लंका, रत्नजटी को गीतनगर, भामण्डल को दक्षिण वैताव्य का राज्य देकर सन्तुष्ट किया। अर्द्ध भरत को साधकर राम लक्ष्मण सुखपूर्वक अयोध्या का राज्य करने लगे। सीता कलंक उपक्रम व सीता की सौतों का विद्वेष एक दिन सीता ने स्वप्न मे सिंह को आसमान से उतर के अपने मुख में प्रविष्ट होते देखा एवं अपने को विमान से गिरकर पृथ्वी पर पड़ते देखा। उसने तुरंत राम से अपने स्वप्न की बात कही। राम ने उसके पुत्र युग्म होने का फलादेश बतलाते हुए विमान से गिरने का फल कुछ अशुभ प्रतीत होता है, बतलाया। सीता ने सोचा, न मालूम मैंने पूर्व जन्म में कैसे पाप किये थे जिनका अभी तक अन्त नहीं आया। तदनन्तर वसन्त ऋतु आने से सब लोग फाग खेलने के लिए प्रस्तुत हुए। राम, सीता और लक्ष्मण, विशल्या को फाग खेलते देख प्रभावती आदि सीता की सपनिया सौतिया डाह से जलने लगी। उन्होंने परस्पर विमर्श करके सीता को राम के मन से उतार देने का पड़यंत्र रचा और सरल स्वभावी सीता को बुलाकर पूछा कि-रावण का कैसा रूप था ? तुमने पद्मवाड़ी में बैठे अवश्य ही उसे देखा होगा? सीता ने कहा-मैं तो नीचा मुख किये अश्रुपात करती रहती थी, मैंने उसके सामने Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] नजर उठा के भी नहीं देखा! सौतने पूछा-कोई तो रावण का अंगोपांग दृष्टिगोचर हुआ ही होगा। सीता ने कहा-नीची दृष्टि किये होने से उसके पाँव तो अनायास ही दीख गये थे। सौत ने कहा-हमें चरण ही आलेखन कर दिखाओ, हमारे मन में उसे देखने का बड़ा औत्सुक्य है। इस प्रकार सीता को भ्रमा कर उससे चित्रालेखन करवा के राम को दिखाते हुए कहा कि आप जिसके प्रेम मे लुब्ध हैं वह सीता तो अहर्निश रावण के ध्यान में, चरण-सेवा मे निमग्न रहती है। हमने कई वार उसे ऐसा करते हुए देखा पर सोचा कौन किसीकी बुराई करे, आज अवसर पाकर आप से कहा है। स्त्री-चरित्र बड़ा विकट है, यदि विश्वास न हो तो ये चरणों के चित्र का प्रत्यक्ष प्रमाण देख लें। राम के मन मे सीता के शील की पूरी प्रतीति थी, अतः उन्होंने सीता पर लेश मात्र भी सन्देह न लाकर अन्य रानियो के कथन को केवल सौतिया डाह ही समझा। एक दिन गर्भ के प्रभाव से सीता को दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं जिनेश्वर की पूजा करूं, शास्त्र श्रवण करू', मुनिराजों को दान हूँ। इस दोहद के पूर्ण न होने से उसे दुवेल और उदास देख कर राम ने कारण ज्ञात किया और बड़े समारोह के साथ उसका दोहद पूर्ण किया । एकदा सीता की दाहिनी आँख फरकने लगी। उसने राम के समक्ष भावी चिन्ता व्यक्त कर राम के कथनानुसार दान पूजा आदि का उपचार किया। सीता कलंक कथा प्रसंग एवं राम विकल्प तथा सीता का अरण्य निष्काशन भावी प्रवल है। राम के अन्तःपुर मे और वाहर भी सीता के Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] सम्बन्ध में आशंकाएँ फैल गई कि परस्त्रीलपट रावण के यहाँ इतने दिन रह कर अवश्य ही वह शील वचा नहीं सकी होगी, पर राम ने केवल प्रेम व अभिमानवश ही उसे पुनः स्वीकार किया है। इस प्रकार नगर की नाना अफवाहें सेवक द्वारा राम ने सुनी और दुःखी होकर स्वयं रात्रिचर्या के लिये नगर में निकल पड़े। राम किसी कारू के गृह द्वार पर कान लगा कर सुनने लगे। उस गृहस्वामी की पत्नी विलम्ब से घर से लौटी थी और वह उसे गाली देते हुए कहने लगा कि मुझे राम जैसा मत समझ लेना, मैं तुम्हें घर में नहीं प्रविष्ट होने दूंगा। राम ने अपने प्रति मेहणा सुन कर बड़ा खेद किया और जले पर नमक छिड़कने जैसा अनुभव किया। राम ने सोचा, लोग कैसे तुच्छ बुद्धि और अवगुणग्राही होते है ? दुष्ट व दुजेनों का काम ही पराया घर भांगने का है । उल्लू को सूर्य नहीं सुहाता । सर्वत्र सीता का अपयश हो रहा है, भले ही झूठ ही हो पर लोगों मे निन्दा तो हो ही रही है, अतः अव भी मैं सीता को छोड़ दूं तो अच्छा ही है। इस प्रकार विकल्प जाल में राम को चिन्तातुर देखकर लक्ष्मण ने चिन्ता का कारण पूछा। राम ने नगर में फैले हुए सीता के अपयश की बात कही तो लक्ष्मण ने कुंपित होकर कहा-जो सीता का अपवाद करेगा उसका मैं विनाश कर दूंगा। राम ने कहा-लोक वोक है, किस-किस का मुह पकड़ोगे? लक्ष्मण ने कहा-लोग भख मारें, सीता सच्ची शीलवती है, परमात्मा साक्षी हैं। राम ने कहा-तुम्हारा कहना ठीक हैं पर अब सीता का त्याग किये विना अपयश दूर नहीं होगा। लक्ष्मण ने वहुत मना किया पर राम ने उसकी एक न सुनी और सारथी कृतान्तमुख को बुला कर आज्ञा दी कि तुम तीर्थयात्रा की दोहद पूर्ति के बहाने सीता Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] को ले जाकर डंडाकार अटवी में छोड़ आओ। उसने सीता को रथ मे बैठा कर सत्वर अटवी का मार्ग लिया। रारते मैं नाना अपशकुनो के होते हुए भी ग्राम, नगर, पर्वतों को उल्लंघन कर सारथी ने सीता; को डंडाकार अटवी में लाकर पहुंचा दिया। वहीं नाना प्रकार के फल फूलों के वृक्ष और घना जंगल था और सिंघ व्याघ्रादि हिंस्र पशुप्रचुरता से निवास करते थे। सीता ने सारथी से पूछा-राम आदि सव परिवार कहां रह गया व मुझे अकेली को यहाँ कैसे लाये ? सारथी ने कहा-चिन्ता न करें माताजी सव लोग पीछे आ रहे है। नदी पार होने के अनन्तर सारथी ने आँखो में आँसू लाकर सीता को रथ से उतार कर राम के कुपित होकर त्यागने का सन्देश सुना दिया। सीता बज्राहत की भांति सुनते ही मूच्छित हो गई। थोड़ी देर में सचेत होकर कहा-मुझे अयोध्या ले जाकर सत्य प्रमाणित होने का अवसर दो। सारथी ने दुखित होकर अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए सीता को रोते कलपते छोड़कर अयोध्या की ओर रथ को घुमा लिया। शोक संतप्त सीता की वज्रजंघ से भेट और सकुशल आवास प्राप्ति सीता अकेली व असहाय अवस्था मे भयानक अटवी मे वंठी हुई नाना विलाप करने लगी। कभी वह पति, देवर, पीहर, ससुराल. वालो को उपालंभ देती और कभी अपने पूर्वकृत पापो को दोष देती हुई पश्चाताप करने लगती। अन्त मे वह वैराग्य परिणामों से नवकार मंत्र स्मरण करती हुई एक स्थान पर बैठ गई। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] इधर पुण्डरीकपुर का राजा बजंघ हाथियों को पकड़ने के लिये इस उंगल में आया हुआ था। उसने सीता को रोते हुए देखा। अद्भुत सौन्दर्यवाली महिला को इस अटवी में देख कर उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उसने अपने मन में विचार किया कि यह अवश्य ही किसी राजा की रानी है, और गर्भवती भी है, न . मालूम किस कष्ट में पड़ी हुई है ? राजा ने अपने सेवकों को सीता के निकट भेजा। उसने भयभीत होकर आभरण फेकते हुए कहा कि-मुझे स्पर्श न करना । सेवकों ने कहा-वहिन तुम कौन हो ? हमें आभूषणों से कोई प्रयोजन नहीं, हमारे स्वामी राजा वजंव ने तुम्हारी खवर करने भेजा है। इतने में ही बनजंघ स्वयं मन्त्री भतिसागर के साथ वहा आ पहुंचा। उसने सीता से परिचय पूछा तो उसने मौन धारण कर लिया। मंत्री ने कहा-विपत्ति किसमे नहीं आती, तुम नि:संकोच अपना दुख कहो। ये मेरे स्वामी राजा वजूजघ आर्हत् धर्मोपासक सदाचारी और बढ़ सम्यक् दृष्टि हैं, स्वधर्मी के प्रति अत्यन्त स्नेह रखते है । तुम निर्भय होकर अपने भाई से वोलो । मंत्री की बातों से आश्वस्त होकर सीता ने वजूजघ से अपनी सारी कथा कह सुनाई। वनजंघ ने सीता को धैर्य बंधाते हुए कहा-तुम मेरी धर्मवहिन हो, मेरे नगर में चलकर आराम से अपने शील की रक्षा करते हुए धर्माराधन करो। इस समय स्वधर्मी बन्धु के शरण मे जाना ही श्रेयस्कर समझकर राजा के साथ सीता पुण्डरीकपुर चली गई। राजा ने बड़े सम्मान से दास दासियों के सहित उसे अलग महल दे दिया, जिसमे वह सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगी। सभी लोग सीता के शील की प्रशंसा और राम के अविचारपूर्ण दुर्व्यवहार की निन्दा करने लगे। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] धीर एवं संयमी राम की गम्भीर विकलता कृतान्तमुख सारथी ने सीता को वन मे छोड़ने और सीता द्वारा कहे हुए वाक्यों को राम के सन्मुख निवेदन किया। उसने कहा-सीता को नदी पार होने के पश्चात् जब मैंने अटवी में छोड़ा तो उसने रुदन और विलाप के द्वारा वन के मृगों तक को रुला दिया। उसने कहलाया है कि मैंने जान या अनजान में कोई अपराध किया हो तो क्षमा करना व मुझ जैसे विना परीक्षा किए हुए अटवी में छोड़ दिया वैसे आई त धर्म रूपी रत्न को मत छोड़ देना । सीता का सन्देश सुन कर राम मूच्छित होकर गिर पड़े और थोड़ी देर में सचेत होने पर सीता के गुणों को स्मरण कर नाना विलाप करने लगे। उनको नाना विलाप करते देख लक्ष्मण ने धैर्य वैधाया। राम ने कहा-उस भयंकर अटवी मे उसे हिंस्र पशुओं ने मार डाला होगा, किसी तरह उनसे बच भी गई तो वह मेरे विरह में जीवित नहीं बची होगी।-अतः उसके निमित्त पुण्य कार्य व देव-गुरु-वन्दन करके शोक त्यागो। राम सीता के गुणों को स्मरण करते हुए राजकाज मे लग गये। लव-कुश जन्म और उनकी वीरता का कथा प्रसंग बजूजंघ राजा के यहाँ रहते हुए सीता ने गर्भकाल पूर्ण होने पर पुत्र युगल को जन्म दिया। राजा ने भानजों के जन्म का उत्सव किया और प्रचुर वधाईयां बांटी। दसूठन के दिन समस्त कुटुम्ब परिवार को भोजन कराके अनंगलवण और मदनाकुश यह कुमारों का नामकरण संस्कार किया। सिद्धारथ नामक क्षुल्लक जो ज्योतिष-निमित्तमें प्रवीण थे, तीर्थ यात्रा के निमित्त घूमते हुए सीता के यहाँ आये। सीता ने Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] के पास गया और परस्पर मिलकर सब प्रसन्न हुए। फिर सीता को । साथ लेकर लवकुश को समझाने के उद्देश्य से उसके पास आये। लव कुश ने सम्मानपूर्वक भामण्डलादि को अपने पक्ष में कर लिया। लव कुश का राम से युद्ध केसरीरथ पर रामचन्द्र व गरुड़रथ पर लक्ष्मण आरूढ़ होकर रणभेरी बजाते हुए ससैन्य निकले। उनके साथ वन्हिसिख, बालिखिल्ल, वरदत्त, सीहोदर, कुलिस, श्रवण, हरिदत्त, सुरभद्र, विद्रम आदि पांच हजार सुभट थे। लव कुश की सेना में अग, कुलिंग, जालंधर सिंहल, नेपाल, पारस, मगध, पानीपत और वब्बर देश के राजा थे। दोनों दल परस्पर भिड गये। खून की नदिया बहने लगी, गगनगामी विद्याधरों में भामंडल लव कुश का सहायक हो गया और उसने विद्युत्प्रभ, सुग्रीव, पवनवेग आदि को लव कुश की उत्पत्ति वतलाकर सब को उदासीन कर दिया। लव कुश राम लक्ष्मण से युद्ध करने लगे। तीरों की वर्षा से अश्वों को मारकर व रथों को चकनाचूर करके उन्होंने राम लक्ष्मण को विस्मित कर दिया। वनजंघ और भामंडल लव कुश की सहायता कर रहे थे। बलदेव, वासुदेव के देवाधिष्ठित अस्त्र उस समय काष्ट सहश हो गए। लक्ष्मण जैसा वीर जिसने कोटिशिला उठाई व रावण को मारा था वह भी कुश के सामने निराश होकर अन्तिम उपाय चक्र-ग्ल को छोड़ने के लिए प्रस्तुत हो गया। चक्र के छोड़ने पर वह तीन प्रदिक्षणा देकर वापस लक्ष्मण के पास लौट आया। लोगों ने कहा-साधु के वचन असत्य हो रहे है, मालूम होता है कि भरतक्षेत्र मे नये वलदेव, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] वासुदेव प्रगट हो रहे है। सिद्धार्थ ने कहा-चिन्ता की कोई बात नहीं । अपने गोत्र में कभी चक्ररत्न प्रभाव नहीं दिखाता । लक्ष्मण के पूछने पर नारद और सिद्धार्थ ने कहा कि ये दोनों महानुभाव राम के पुत्र हैं। राम ऐसा सुनकर तुरन्त अस्त्र त्याग कर पुत्रों से मिलने के लिए आगे वढ़े। इतने में ही लव कुश ने रथ से उतर कर पिता को नमस्कार किया। राम ने प्रसन्नता पूर्वक पुत्रो को आलिगन पूर्वक सीता के कुशल समाचार पूछे । लक्ष्मण के निकट आने पर कुमारो ने उन्हें प्रणाम किया। सर्वत्र मंगलमय वाजिन वजने लगे, वधाइयां बंटने लगी। सीता भी पिता पुत्रों का मिलाप सुन कर विमान द्वारा वापस चली गई। सब ने वनजंघ का बड़ा भारी आभार माना। सारे परिवार के साथ परिवृत्त लव कुश वडे समारोह के साथ अयोध्या मे प्रविष्ट हुए। सर्वत्र सीता और लव कुश की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या निवास के लिये सीता संकल्प एक दिन राम के समक्ष सुग्रीव, विभीपण ने निवेदन किया कि पति और पुत्रों की वियोगिनी सीता जो पुंडरीकनगरी में बैठी है, महान दुख होता होगा। राम ने कहा-मैं जानता हूँ और मेरा भी हृदय कम दुःखी नहीं है पर क्या करूँ मैने लोकापवाद के कारण ही प्राणवल्लभा सीता को छोड़ा तो अब किसी प्रकार उसका कलंक उतरे, ऐसा उपाय करो ! राम की आज्ञा से भामंडल, सुग्रीव और विभीषण सीता के पास गये और उसे अयोध्या चलने के लिए कहा। सीता ने गद्गद् वाणी में कहा- मुझ निरपराधिनी को छोड़ा, इस अपार दुःख से आज तक मेरा कलेजा जला रहा है। अब मुझे प्रियतम के साथ महलों मे Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६२ । उन्हें आहार पानी से प्रतिलाभा। क्षुल्लक ने पुत्रों का परिचय प्राप्त कर भावी सुख की भविष्यवाणी की। दोनों कुमार बड़े होकर वहतर कलाओं मे प्रवीण, शूरवीर और साहसी हुए। राजा बजघ ने अनंगलवण को शशिचूलादि अपनो वत्तीस कन्याएँ दी एवं साथ ही मदनांकुश का पाणिग्रहण करने के लिये पृथिवीपुर के पृथु राजा के पास उसकी पुत्री कनकमाला की मांग की। राजा पृथु ने कुपित होकर अज्ञात कुलशील को अपनी पुत्री देना अस्वीकार करते हुए दूत को अपमानित करके निकाल दिया। वनजंघ ने पृथु के देश मे लूटपाट व उत्पात मचा कर उसे युद्ध के लिये वाध्य किया। वनजंघ के पुत्र बुद्ध के निमित्त तैयार हुए तो लवण और अंकुश भी सीता को समझावुझा कर युद्ध के लिये साथ हो गये। ढाई दिन पर्यन्त कूच करते हुए पृथु से जा भिड़े। दोनो ओर की सेनाओं में तुमुल युद्ध हुआ। लब और अंकुश दोनो शेर की तरह टूट पड़े और अल्पकाल में शत्रु सेना को परास्त कर दिया-पृथु राजा ने कुमारों के प्रौढ़ पराक्रम से ही उनके कुलवंश की उच्चता का परिचय पाकर क्षमा याचना की। नारद द्वारा लव-कुश का वास्तविक परिचय तथा लव-कुश की अयोध्या जिज्ञासा इसी अवसर पर नारद मुनि आये और उनके द्वारा सीताराम के नन्दन दोनो कुमारों का परिचय प्राप्त कर सब लोग प्रसन्न हुए। लव, अंकुश दोनों ने नारद से पूछा कि अयोध्या यहां से कितनी दूर है ? नारद ने कहा-एक सौ योजन की दूरी पर अयोध्या है जहाँ तुम्हारे पिता राम और चाचा लक्ष्मण का राज्य है। अपनी मा को Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] निरपराध छोड़ने की बात से कुपित होकर उन्होंने वनजंघ से अयोध्या पर चढ़ाई करने के लिये सहाय्य मांगा। वनजंघ ने पैर लेने के लिये आश्वासन दिया । पृथु राजा ने अपनी पुत्री कनकमाला कुश को परणा दी। कुछ दिन वहाँ रह कर लव, कुश ससैन्य विजय के निमित्त निकल पड़े। वनजंघ की सहायता से गगा सिन्धु पार होकर काश्मीर कावुल, कैलाश पर्यन्त देशों को वशवर्ती कर लिया। फिर माता के पास विजेता लव कुश ने आकर चरण वंदना की । सीता भी पुत्रों की समृद्धि देखकर प्रसन्न हुई। नारद मुनि ने आकर राम लक्ष्मण का राज्य पाने का आशीर्वाद दिया। लव कुश के मन में अयोध्या पर चढ़ाई करने की उत्कट तमन्ना होने से तुरंत रणभेरी बजा कर सेना को सुसज्जित कर लिया। सीता ने आँखों में आँसू लाकर पिता व चाचा से युद्ध करने में अनथे की आशंका वतलाई तो पुत्रों ने पिता व चाचा को युद्ध में न मार, सैन्य संहार द्वारा मान भंग करने का निर्णयकहकर सीता को आश्वस्त किया। लव कुश का अयोध्या प्रयाण लव कुश की सेना के आगे दस हजार पुरुप पेड़ पौधे हटाकर जमीन समतल करने वाले चल रहे थे। योजनान्तर में पड़ाव डालते हुए क्रमशः सेना अयोध्या के निकट पहुंची। राम ने कुपित होकर सिंह और गरुड़ वाहन तय्यार करवाये। नारद मुनि ने भामंडल के पास जाकर सीता वनवास, वनजंघ के संरक्षण मे लव कुश के बड़े होकर प्रतापी होने का सारा वृतान्त सुनाते हुए उनके द्वारा अयोध्या ___ पर चढ़ाई होने की सूचना दी। भामंडल माता, पिता के साथ सीता Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] नहीं रहना है, अयोध्या से मेरा आना केवल धीज करके अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिए ही हो सकता है अन्यथा मेरे लिये धर्म ध्यान के अतिरिक्त दूसरा कोई प्रयोजन अवशिष्ट नहीं है। सुग्रीव द्वारा यह शर्त स्वीकार करने पर सीता उनके साथ आकर अयोध्या के उद्यान में ठहरी। सीता-शील की अग्नि परीक्षा दूसरे दिन प्रातःकाल अन्तःपुर की रानियों ने आकर सीता का स्वागत किया। राम ने आकर अपने अपराधो की क्षमायाचना की। सीता ने चरणों में गिर कर कहा प्रियतम! आपको मैं क्या कहूं। आप पर दुख कातर, दाक्षिण्यवान् और कलानिधि है, संसार में आप अद्वितीय महापुरुप है, पर मुझ निरपराधिनी को विना परीक्षा किये आपने रण में छोड़ दिया। अग्नि, पानी आदि पाच प्रकार की परीक्षाएं करा सकते थे, पर ऐसा न किया और मुझे अपने भाग्य भरोसे अटवी में ढकेल दिया। वहां मुझे हिंस्र पशु मार डालते तो मैं आर्त रौद्र ध्यान से मरकर दुर्गति मे जाती। किन्तु आपका इसमे कोई दोष नहीं, मेरे प्रारब्ध का ही दोष है । मेरा आयुष्य प्रबल था। पुंडरीकपुर नरेश ने भ्राता के रूप में आकर मेरी रक्षा की और आश्रय दिया । अव सुग्रीव मुझे यहा लाया है तो मैं कठिन अग्निपरीक्षा द्वारा अपने उभयकुल को उज्वल करूंगी। राम ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा-मैं . जानता हूं कि तुम गंगा की भांति पवित्र हो पर अपयश न सहन कर सकने के कारण ही मैंने तुम्हारा त्याग किया। अब तुम नि:संकोच । जलती अग्नि में प्रविष्ट होकर अपने को निष्कलंक प्रमाणित करो। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ .] सीता ने राम के वचनानुसार अग्निपरीक्षा द्वारा धीज करना स्वीकार ‘किया। राम ने एक सौ हाथ दीर्घ वापी खुदवा कर उसे अगर चन्दन के काष्ट से भरवा दी और उसके चारों ओर से अग्नि प्रज्वलित कर दी गयी। सीता धीज करने के लिए प्रस्तुत हुई । सारे नगर के लोग मिलकर हाहाकार करते हुये राम के इस अन्याय की निन्दा करने लगे। निमित्त-प्रभावक सिद्धार्थ मुनि ने आकर कहा-शील गुणादि से सती सीता एकान्त पवित्र है। चाहे मेरु पर्वत पाताल में चला जाय, समुद्र सूख जाय तो भी सीता मे कोई लांछन नहीं! यदि मैं मिथ्या कहता हूँ तो मुझ प्रतिदिन पंचमेरु की चैत्य-वन्दना करके पारणा करनेवाले का पुण्य निष्फल हो। मैं निमित्त के बल पर कहता हूं कि सीता के शील के प्रभाव से तुरन्त अग्नि जल रूप मे परिणत हो जायगी। सकलभूपण साधु के केवलज्ञान उत्पन्न होने पर इन्द्र वन्दनार्थ आया और उसने सीता की अग्निपरीक्षा की बात सुनकर हरिणेगमेपी देव को आज्ञा दी कि निर्मल शोलालंकारधारिणी सती सीता को अग्नि परीक्षा में सहाय करना | इन्द्र की आज्ञा से हरिणेगमेषी देव सीता की सेवा में आकर उपस्थित हो गया। राम के सेवकों ने वापी में अग्नि पूर्णतया प्रज्वलित होने की खवर दी। राम अग्नि ज्वाला को देखकर बड़े चिन्तित हुए और नाना विकल्प करने लगे। अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला का प्रकाश एकएक कोश तक फैल गया और धग-धगाट शब्द होने लगा, धूम्र घटा आसमान में छा गई । लोगों के हाहाकार के बीच सीता ने स्नानादि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर अर्हन्त भगवान की पूजा की। नमस्कार मन्त्र का ध्यान करके तीर्थपति मुनिसुव्रत स्वामी को नमस्कार कर वापी के निकट आई और कहने लगी हे लोकपालो, मनुष्यों और देव-देवियों! मैंने श्री राम के सिवा अन्य किसी पुरुप की मन, वचन, काया से स्वप्न से भी वांछा की हो, राग दृष्टि से देखा हो तो मुझे अग्नि जला कर भस्म कर देना, अन्यथा जल हो जाना! सीता ने अग्निप्रवेश किया, उसके शील-प्रभाव से हवा बन्द हो गई, अग्नि ज्वाला मे से जल का अजस्र प्रवाह फूट पड़ा। पानी की बाढ से लोग डूबते हुए हाहाकार करने लगे। विद्याधर लोग तो आकाश में उड़ गए, भूचरों की पुकार सुनकर सती सीता ने अपने हाथ से जल-प्रवाह को स्तम्भित कर दिया। लोगों में सर्वत्र आनन्द उत्साह छा गया। लोगों ने देखा वापी के मध्य मे देव निर्मित स्वर्णमणि पोठिका पर सहस्र दल कमलासन पर सीता विराजमान है ! देव दुन्दुभि और पुष्प वृष्टि हो रही है । सीता के निर्मल शील की प्रसिद्धि सर्वत्र फैल गई, उभय कुल उज्ज्वल हुए। सीता का चारित्र-ग्रहण राम ने सीता से क्षमायाचना करते हुए उसे सोलह हजार रानियों में प्रधान पट्टरानी स्थापन करने की प्रार्थना की। सीता ने कहा-नाथ ! यह संसार असार और स्वार्थमय है अव मुझे सांसारिक भोगों से पूर्ण विरक्ति हो गई है। अब मुझे केवल चारित्र-धर्म का ही शरण है। उसने अपने देशो का तुरन्त लोच कर लिया। सीता के लुंचित केशों को देखकर राम मूच्छित हो गए। शीतोपचार से सचेत होने पर विलाप करने लगे। सर्वगुप्ति मुनिराज ने सीता को दीक्षा देकर चरणश्री Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] प्रवर्तिनी को सौंप दिया और वह निर्मल चारित्र का पालन करने लगी। राम को लक्ष्मण ने समझा-बुझा कर शान्त किया। राम सपरिवार सकलभूषण केवली को वन्दनार्थ गजारूढ़ होकर आये, साध्वी सीता भी वहाँ बैठी हुई थी। केवली भगवान ने राग, द्वष का स्वरूप समझाते हुए धर्मदेशना दी। राजा विभीषण ने केवली भगवान से सीता के प्रसंग से राम लक्ष्मण और रावण के साथ संग्राम आदि होने का परमार्थिक कारण पूछा। केवली भगवान ने पूर्व जन्म की कथा इस प्रकार बतलाई। सीता का पूर्वभव कथा प्रसंग क्षेमपुरी नगरी मे व्यापारी नयदत्त निवास करता था जिसकी भार्या सुनन्दा की कुक्षी से धनदत्त और वसुदत्त नामक दो पुत्र थे। उसी नगर मे सागरदत्त नामक एक व्यापारी था जिसकी स्त्री रत्नाभा के गुणवती नामक लावण्यवती पुत्री थी। पिता ने उसकी सगाई वसुदत्त के साथ व माता ने द्रव्य लोभ से श्रीकान्त नामक उसी नगरी के एक व्यापारी से कर दी । ब्राह्मण मित्र से सम्वाद पाकर वसुदत्त ने श्रीकान्त को तलवार के घाट उतार दिया। श्रीकान्त ने मरते-मरते वसुदत्त के पेट में छुरा भोक दिया, दोनों मर के जंगली हाथी हुए और पूर्व जन्म के वैर से परस्पर लड़ मरे । फिर महिप, वृषभ, बानर, द्वीपी मृग आदि भव किये और क्रोधवश जलचर, स्थलचर आदि जीव योनियों में भटकने लगे। भाई के वियोग से दुःखी धनदत्त ने भ्रमण करते हुए साधु के समीप धर्मश्रवण कर श्रावक व्रत ले लिए और आयु पूर्ण होने पर वह स्वर्ग गया। वहां से महापुर में पद्मरुचि नामक सेठ के रूपमें उत्पन्न Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] हुआ। एक दिन सेठ ने गोकुल में मरते हुए बल को देखकर उसे नवकार मन्त्र सुनाया। जिसके प्रभाव से वह उसी नगरी के राजा छत्रछिन्न की रानी श्रीकान्ता का वृषभ नामक पुत्र हुआ। एक दिन राजकुमार गोकुल मे गया, वहां उसे जातिस्मरण ज्ञान होने से पूर्वभव स्मरण हो आया। उसने अपने को अन्त समय में नमस्कार महामन्त्र सुनानेवाले उपकारी सेठ की खोजके लिए एक मन्दिर बनवाकर उसमें अपना पूर्वभव चित्रित करवा दिया और सेवकों को निर्देश कर दिया कि जो इस चित्र को देखकर परमार्थ वतलावे, उससे मुझे मिलाना ! एक दिन पद्मरुचि सेठ उस मन्दिर मे आया और चित्र को गौर से देखते हुए समझ गया कि जिस बैल को मैने नवकार मन्त्र सुनाया था वही मरकर राजा वृषभ हुआ है और जाति-स्मरण से पूर्व भव ज्ञात कर यह चित्र बनवाया मालूम देता है। सेठ की चेष्टाओं को देखकर सेवक ने राजकुमार को खबर दी । राजकुमार ने जिनेश्वर भगवान को नमस्कार कर सेठ के मना करने पर भी उसे वन्दना की और उपकारी के प्रति आभार प्रदर्शित किया। सेठ ने उसे श्रावक व्रत ग्रहण करने की प्रेरणा की। राजा व सेठ दोनो व्रत पालन कर द्वितीय स्वर्ग मे गये। पद्मरुचि वहाँ से च्यवकर नंद्यावर्त्त गांव के राजा नन्दीश्वर का पुन नयणानन्द हुआ, वहां से चतुर्थ देवलोक गया फिर च्यवकर महाविदेह क्षेत्र के क्षेमपुरी में विपुलवाहन का पुत्र श्रीचन्दकुमार हुआ। वह समाधिगुप्तसूरि के पास चारित्र ग्रहण कर पांचवें देवलोक का इन्द्र हुआ। उस समय गुणवती के कारण भवभ्रमण करते हुए वसुदत्त और श्रीकान्त मे से श्रीकान्त मृणालनगर के राजा वजूजम्बु की रानी हेमवती का पुत्र सयंभू हुआ और वसुदत्त Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशम पुरोहित का पुत्र श्रीभूति हुआ। जिसकी भार्या सरस्वती की कुक्षी से गुणवती का जीव वेगवती नामक पुत्री हुई। वह मृगली के भव से मनुष्य भव में आकर फिर हथिणी हुई थी, वहाँ कादे मे फंस जाने से चारण मुनि द्वारा नवकार मन्त्र प्राप्त कर वेगवती का अवतार पाया। उसने साधु मुनिराज की निन्दा गर्दा की, पश्चात् पितृ वचनों से धर्म ध्यान करने लगी। रूपवान वेगवती को राजकुमार मयंभू ने पिता से मांगा। श्रीभूति के माग अस्वीकार करने,पर सयंभू ने उसे रात्रि मे मार कर वेगवती से भोग किया। वेगवती ने क्षुब्ध होकर उसे भवान्तर मे मरवा कर बदला लेने का श्राप दिया। वेगवती संयम लेकर तप के प्रभाव से ब्रह्म विमान मे देवी उत्पन्न हुई। सयभूकुमार भी भव भ्रमण करता हुआ क्रमशः मनुष्य भव में आया और विजयसेन मुनि के पास दीक्षित हुआ। एक वार उसने समेतशिखर यात्रार्थ जाते हुए कनकप्रभ विद्याधर की ऋद्धि-देखकर ताशीमृद्धि प्राप्त करने का नियाणा कर लिया। वहीं से तीसरे देवलोक मे देव हुआ। वहां से च्यवकर वह रावण के रूप में समृद्धिशाली प्रतिवासुदेव हुआ। धनदत्त का जीव पांचवे देवलोक से च्यवकर दशरथनन्दन रामचन्द्र हुआ। वेगवती ब्रह्म विमान से च्यवकर सीता हुई। गुणवती का भाई गुणधर सीता का भाई भामण्डल हुआ। वसुदत्त का ब्राह्मण यज्ञवल्क मर कर विभीषण और नवकार मन्त्र से प्रतिबोध पानेवाले बैल का जीव सुग्रीव राजा हुआ। इस प्रकार पूर्वभव के वैर से सीता के निमित्त को लेकर रावण का संहार हुआ। सीता ने वेगवती के भव में मुनि को मिथ्या कलंक दिया था खिसक कर्म विपाक से उसे चिरकाल तक कलंक का दुख भोगना पड़ा। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] उसने जैसे साध का कलंक वापस उतारा, वैसे ही सीता अग्नि परीक्षा द्वारा निष्कलंक घोपित हुई। इस प्रकार सकलभूषण केवली ने शुभ व अशुभ कर्मों के फल वतलाते हुए धर्मोपदेश देकर पापस्थानकों से भव्य जीवो को वचने की प्रेरणा दी। केवली भगवान की देशना सुन कर लव कुश और कृतान्तमुख ने दीक्षा ले ली। राम, लक्ष्मण, विभीषणादि ने सीता को वन्दन करके अपराधो की क्षमा याचना की शान्त चित्त से राज भोगने लगे। साध्वी सीता ने निर्मल और निरतिचार चारित्र पालन कर अनशन आराधना पूर्वक आयुष्य पूर्ण करके वारहवें देवलोक में इन्द्र रूप में अवतार लिया, जहाँ २२ सागरोपम की आयुस्थिति है। राम-लक्ष्मण चिरकाल तक प्रेम पूर्वक राज्य सम्पदा भोगते हुए काल निर्गमन करने लगे। राम लक्ष्मण का अनन्य प्रेम, इन्द्र द्वारा परीक्षा एक दिन इन्द्र ने देवसभा मे मोहनीय-कमे के सम्बन्ध मे बात चलने पर उसे बड़ा दुद्धर्ष बतलाया और महापुरुष भी उसके जबरदस्त वशीभूत होते है इसके उदाहरण स्वरूप कहा कि राम लक्ष्मण का प्रेम इतना गाढा है कि एक दूसरे के विरह मे अपना प्राण त्याग कर सकते है। इन्द्र के वचनो की परीक्षा करने के लिए कौतुहल पूर्वक दो देव अयोध्या मे आये और राम को देवमाया से मृतक दिखा कर अन्तःपुर मे हाहाकार मचा दिया। लक्ष्मण ने जब राम का मरण जाना तो उसने तत्काल प्राण त्याग दिया। लक्ष्मण को मरा देखकर देवों के मन मे बड़ा भारी पश्चाताप हुआ, पर गये हुए प्राण वापस Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७३ ] नहीं लौट सकते। लक्ष्मण की रानियों का चीत्कार सुनकर राम ने उसे मूर्छित की भांति समझ कर कहा-मेरे प्राणवल्लभ भ्राता को किसने रुष्ट कर दिया ? राम ने पास में आकर मोहवश उसे उठा कर हृदय से लगाया, चुम्बन किया। पुकारने पर जब लक्ष्मण न बोला तो पागल की भांति प्रलाप करते हुए वे मूर्छित होकर गिर पड़े। थोड़ी देर में शीतोपचार से सचेत होनेपर उन्होने फिर विलाप करना प्रारम्भ किया। लक्ष्मण की रानियां भी चीत्कार करती हुई कल्पान्त विलाप करने लगी। राम ने लक्ष्मण के मृतक कलेवर को मोहवश किसी प्रकार नहीं छोड़ा। वे उसे अपने पर रुष्ट हो गया समझ रहे थे। सुग्रीव, विभीपण आदि ने लक्ष्मण की अन्त्येष्टि के हेतु राम को समझाने की बहुत चेष्टा की पर राम ने कहा-दुष्ट पापियो। अपने घरवालों को जलाओ, मेरा भाई जीवित है, मेरे से रुष्ट होकर इसने मौन पकड़ ली है। राम-लक्ष्मण के कलेवर को कंधे पर उठाकर महलों से निकल पड़े। वे कभी लक्ष्मण को स्नान कराते, वस्त्र पहनाते, मुँह मे भोजन देने की चेष्टा करते। इस प्रकार मोह मूर्छित राम को लक्ष्मण के कलेवर की परिचर्या मे भटकते छ मास बीत गये। इधर सम्बुक, खरदूषण का वैर लेने के लिए विद्याधरो ने अयोध्या पर चढाई कर दी। राम को जब आक्रमण का वृतान्त ज्ञात हुआ तो वे लक्ष्मण के कलेवर को एकान्त मे रख कर शत्रुओं के सामने युद्ध को प्रस्तुत हो गये। देव जटायुध और कृतान्तमुख का आसन कंपायमान होने से उन्होंने देवमाया से गगनमंडल में अगणित सुभट प्रस्तुत कर राम को अचिन्त्य सहाय किया जिससे विद्याधरों का दल हार कर भाग गया। देवो ने राम Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] को प्रतिवोध देने के लिए नाना प्रकार से उपक्रम किया। देवों ने सूखे. सरोवर से सिंचन, मृतक बैल से हल जोतना, शिला पर कमल उगाने, घानी में बालू पीलने आदि के विपरीत कृत्य दिखाये। राम ने कहा -ये मूर्खतापूर्ण चेष्टाएं क्यों करते हो ? देवों ने कहा-महापुरुष ! आप पैरों में जलती न देख कर पर्वत जलता देखते हो, स्वयं मृतक को लिए हुए फिरते हो, दूसरों को शिक्षा देते हो। राम ने कहा-मूर्यो, अमंगल मत बोलो, मेरे भाई ने मेरे से रुष्ट होकर कदाग्रह कर रखा है। देव जटायुध राम के तीव्र मोहनीय का उदय जानकर और कोई उपाय करने का सोचने लगा।। देव ने एक मृतक स्त्री के मुख में कवल देते हुये दिखाया। राम ने कहा-मूर्ख । मृतक को क्या खिलाते हो ? उसने कहा-यह मेरी स्त्री मेरे से रुष्ट हो गई है, दुश्मन लोग इसे मृतक कहते है अतः उनके वचन असह्य होने से मैं आपके पास आया हूँ। राम ने अपने जसा ही रोगी उसे समझ कर अपने पास रख लिया। एक दिन दोनों कहीं गये और वापस आते देव-माया से लक्ष्मण को स्त्री से हँसते-बोलते काम-केलि करते दिखाया और राम से कहा-तुम्हारा भाई वड़ा पापी है, मेरी स्त्रीके साथ हास्य विनोद करता है, मेरी स्त्री भी बड़ी चपल है। इन दोनों के फेर में अपन दोनों भूल कर रहे है। आपने इसके पीछे राजपाट छोड़ा और ये लाज शर्म व मर्यादा त्याग बैठे हैं। संसार असार है, कोई किसीका नहीं, वीतराग भगवान का धर्म आराधन करना ही श्रेयस्कर है। मरण के भय से कोई भी स्वजन सम्वन्धी वचा नहीं सकते। तुम्हारे भाई को जेसे तुम लाख उपाय करने पर भी न बचा सके तो तुम्हें कौन बचावेगा ? देवता के प्रति Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोध से राम का मोह दूर हो गया। उसने आभार मानते हुये कहामुझे दुर्गति से बचाने वाले तुम कौन हो महानुभाव । देवों ने अपना प्रकृत रूप प्रकट करके कहा-मैं जटायुध देव हूँ जो आपके नवकार मंत्र सुनाने से चतुर्थ देवलोक में उत्पन्न हुआ। और दूसरा यह आपका सेवक कृतान्तमुख देव है। आपको इस प्रकार लक्ष्मण का मृत देह लेकर घमते देखकर हमलोग प्रतिबोध देने आये हैं। . . रामका चारित्र ग्रहण रामने लक्ष्मण की अन्त्येष्टि करके वैराग्य परिणामों से संसार त्याग करने का निश्चय किया। उन्होंने शत्रुघ्न को बुला कर राज्य सौंपना चाहा । शत्रुघ्न ने कहा-मैं तो स्वयं राज्य से विरक्त और आपके साथ चारित्र लेने को उत्सुक हूं। राम ने अनंगलवणके पुत्र को राज पाट सौंप दिया। सुग्रीव और विभीषण भी अपने पुत्रों को राज्याभिषिक्त कर राम के साथ दीक्षित होने के लिये आ गये। अरहदास श्रावक ने मुनिसुव्रत स्वामी के शासनवर्ती सुव्रत साधुके पधारने की सूचना दी और उनके पास चारित्र लेने का सुझाव दिया। राम ने उसको इस समाचार के लिये धन्यवाद देकर अयोध्या मे संवपूजा, अष्टान्हिका महोत्सवादि प्रारम्भ कर दिये और निर्दिष्ट मुहूर्त मे सोलह हजार राजा और संतीस हजार स्त्रियों के साथ सुव्रतमुनि के पास चारित्र ग्रहण कर लिया। राम का केवलज्ञान, धर्मोपदेश व निर्वाण ___ महामुनि रामचन्द्र पंच महाव्रत लेकर उत्कृष्ट रूप से पालन करने लगे। वे कूर्म की भांति गुप्तेन्द्रिय और भारण्ड पक्षीकी भांति अप्रमत्त Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] थे। वे शीतकाल मे खुले शरीर शीत परिपह व उष्णकाल में शिलाओ पर आतापना लेकर इन्द्रिय दमन करते थे। निर्यथ राम तीव्र त्याग वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे। वे सुत्रतसूरि की आज्ञा लेकर अकेले पर्वत और भयानक अटवी में कायोत्सर्ग ध्यान करते एवं नाना अभिग्रह लेकर परिषह उपसर्ग सहते हुए तप संयम से आत्मा को भावित करते थे। उन्हें एक दिन अटवी मे तप करते हुए अवधिबान उत्पन्न हुआ, जिससे उन्होंने लक्ष्मण को नरक की असह्य वेदना सहते हुये देखा और सोचा कर्मों की गति कैसी विचित्र है, महापुरुष भी उनसे नहीं छूटते। कर्म विपाक और संसार स्वरूप को प्रत्यक्ष देख कर राम के त्याग वैराग्य में खूब अभिवृद्धि हुई। शुद्ध भावनायें और धर्म-ध्यान शुक्ल-ध्यान ध्याते हुए मुनि रामचन्द्र कोटिशिला पर योग निरोध कर कायोत्सर्ग ध्यान मे तल्लीन हो गये। सीतेन्द्रने जव अवधिज्ञान से रामचन्द्र मुनि को ध्यान श्रेणि मे चढ़ते हुए देखा तो उसके मन मे मोहवश यह विचार आया कि राम को क्षपक श्रेणि से नीचे गिरा दूं ताकि वे मोक्ष न जाकर देवलोक में मेरे मित्र रूप मे उत्पन्न हों और हमलोग प्रेमपूर्वक रहे। इन विचारों से प्रेरित होकर सीतेन्द्र राम के निकट आया और पुष्पवृष्टि करके सीता का दिव्य रूप धारण कर बत्तीस प्रकार के नाटक करने प्रारम्भ कर दिये । नाना हावभाव, विभ्रम करके कभी सीता के रूप मे, कभी विद्याधर कन्याओं के पाणिग्रहणादि का प्रलोभन देकर राम को क्षुब्ध करने का भरसक प्रयत्न किया पर सराग वचनों को सुन कर भी रामचन्द्र अपने ध्यान में निश्चल .. रहे और क्षपक श्रेणि आरोहण कर चार घनघाती कर्मों का क्षय कर । केवलनान केवलदर्शन प्रगट किया। देवों ने कंचनमय कमल स्थापन । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७७ ] कर केवली भगवान रामचन्द्र की महिमा की। एवं सीतेन्द्र ने । वारम्वार अपने अपराधों की क्षमा याचना की। भगवान रामचन्द्र ने कमलासन पर विराजमान होकर धर्मदेशना दी, जिसे सीतेन्द्रादि सभों ने सुनी और प्रतिबोध पाकर धर्म के प्रति विशेष निष्ठावान हुये। केवली रामचन्द्र पृथ्वी में विचरण कर भव्य जीवों का उपकार करने लगे। _____एक वार सीतेन्द्र ने अवधिज्ञान का उपयोग देकर लक्ष्मण और रावण को तीसरी नरक मे असह्य वेदना सहन करते देखा। सीतेन्द्र के मन में करुणा भाव आने से उन्हें नरक से निकालने के लिए जाकर कहा कि मैं तुम्हें स्वर्ग ले जाऊँगा। उन्होने कहा-हमे अपने किए हुये कमों को भोग लेने दो। सीतेन्द्र ने कहा-मैं आपलोगों का दुःख नहीं देख सकता, और देवशक्ति से मै सब कुछ करने में समर्थ हूं। ऐसा कह कर उसने दोनों को उठाया पर उनका शरीर मक्खन की भांति गलने लगा। उन्होंने कहा-यहाँ देव दानव का कृत कर्मों के ममक्ष जोर नहीं चलता। अन्त मे सीतेन्द्र ने उन्हें वैर विरोध त्याग कर के सम्यक्त्व में दृढ रहने की प्रेरणा करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। रावण और लक्ष्मण उपशम भाव से अपना नरकायु पूर्ण करने लगे। एक दिन सीतेन्द्र ने भगवान रामचन्द्र केवली को प्रदक्षिणा देकर वन्दन नमस्कार पूर्वक पूछा कि लक्ष्मण और रावण नरक से निकल कर कहां उत्पन्न होंगे, एवं मेरे से कहा कब मिलन होगा ? तथा हमलोग किस भव मे मोक्षगामी होंगे ? रामचन्द्र ने कहा- लक्ष्मण व रावण . Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] नरक से निकल कर विजयनगर में नंद श्रावक के पुत्र अरहदास और श्रीदास होंगे। फिर स्वर्गवासी होकर दान के प्रभाव से वे मर कर युगलिया रूप में पैदा होंगे। वहाँ दीक्षा लेकर तप के प्रभाव से लातक देवलोक में देव होंगे। उस समय तुम अपना आयुष्य पूर्ण कर चक्रवर्ती होओगे तथा वे दोनों तुम्हारे पुत्र होंगे। फिर स्वर्ग का भव करके रावण का जोव मनुष्य भव पाकर तीर्थंकर होगा। तथा तुम चक्रवती के भव में चारित्र पालन कर वैजयंत विमान मे जाओगे और तैतिस सागरोपम का आयु पूर्ण कर रावण के जीव तीर्थकर के गणधर रूप में उत्पन्न होओगे। लक्ष्मण का जीव चक्रवत्ती पुत्र सुकुमाल भोंगरथ कितने ही भव कर पुष्करद्वीप के महाविदेहस्थ पदमपुर में चक्रवती और तीर्थकर पद पाकर मोक्षगामी होगा। सीतेन्द्र केवली भगवान की वाणी सुन कर स्वस्थान लौटे। भगवान रामचन्द्र आयुष्य पूर्ण कर निर्वाण पद पाये, सिद्ध, बुद्ध मुक्त हुए। __ सीतेन्द्र अपना वाईस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करते हुए कई तीर्थंकरो के कल्याणकोत्सवों में भाग लेंगे। वहीं से च्यवकर उत्तम कुल में जन्म लेकर तीथे कर वसुदत्त से दीक्षित होकर उनके गणधर होंगे और आयुष्य पूर्ण कर सिद्धि स्थान प्राप्त करेगें। अन्त में गणधर गौतम स्वामी ने महाराजा श्रेणिक से कहा कि इस सीता चरित्र का श्रवण कर शील व्रत धारण करना एवं किसीको मिथ्या कलंक न देने का गुण ग्रहण करना चाहिए। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीताराम चौपाई में प्रयुक्त राजस्थानी कहावतें डा० कन्हैयालाल सहल अपने ग्रन्थो मे कहावतो के प्रचुर प्रयोग की दृष्टि से राजस्थान के कवियों में कविवर समयसुन्दर का नाम सबसे पहले लिया जाना चाहिए। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ "सीताराम चौपाई" की रचना सं० १६७७ के लगभग मे हुई। यह ग्रन्थ सरल-सुबोध भाषा मे लिखा गया है जिसमे लोक प्रचलित ढालों का प्रयोग हुआ है। सम्पूर्ण ग्रन्थ है खण्डों मे समाप्त हुआ है और प्रत्येक खण्ड में सात-सात ढाल है। लोकोक्तियों के प्रयोग की दृष्टि से इस ग्रन्थ का विशेष महत्व है। इसमें प्रयुक्त बहुत सी कहावतें यहाँ उद्धत की जा रही है .(१) उंध तणइ विछाणउ लाधउ, आहीणइ दूझाणउ बे । मूगनइ चाउल माहि, घी घणइ प्रीसाणउ वे ।। (प्रथम खण्ड, ढाल ६, छन्द ५) (हि० भा० ऊँघती हुई को बिछौना मिल गया ।) ___ (२) छठ्ठी रात लिख्यउ ते न मिटइ। (प्रथम खण्ड, छन्द ११) (छठी की रात जो लिख दिया गया, वह अमिट है।) (३) करम तणी गति कहिय न जाय । ( दृमरा खण्ड, छन्द २४) । (कर्म की गति कही नहीं जा सकती।) (४) तिमिरहरण सुरिज थका, कुंण दीवानउ लाग । (दसरा खण्ड, ढाल ३, छन्द १२) (सूर्य के होते दीपक को कौन पूछे ?) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ) (५) रतन चिन्तामणि लाभतां, कुण ग्रहइ कहठ काच । दूध थकां कुण छासिनइ, पीयइ, सहु कहइ साच ॥ (चिंतामणि मिलते, काच कौन ग्रहण करे ? दूध मिलते छाछ कौन पिए १) (६) भरतनइ तात किसी ए करणी, आपणी करणी पार उतरणी। (खण्ड ३, ढाल ४, छन्द ६) (अपनी करनी से सब पार उतरते हैं।) (७) बालक वृद्ध नइ रोगियउ, साध वामण नइ गाइ । अवला एह न मारिवा, मायाँ महापाप थाइ॥ (खण्ड ३, ढाल ७, छन्द १३) (वालक, वृद्ध, रोगी, साधु, ब्राह्मण, गाय और अवला इन्हें नहीं मारना चाहिए क्योंकि इन्हें मारने से महापातक होता है।) (८) महिधर राय सुखी थयो, मुंग माहि ढल्यो घीय। विछावणों लह्यो ऊंघतां, धान पछउत्रे सीय॥ (खण्ड ४, ढाल ४, छन्द ४ ) (घी विखरा तो मूंगों मे। उंघते को विछौना मिल गया ।) (९) पाचों माई कहीजियई, परमेसर परसाद । (खण्ड ५, ढाल १, छन्द १) (पंचों में परमेश्वर का प्रसाद कहा जाता है।) (१०) साधु विचार्यो रे सूत्र कहेइ, समरथ सज्जा देई।। ( खण्ड ५, पृष्ठ ८८) ( समर्थ सजा देता है।) (११) लिख्या मिटई नहिं लेख । (खण्ड ५, ढाल ३, छन्द १) (लिखे लेख नहीं मिटते ।) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) मूर्छागत थइ मावड़ी, दोहिलो पुत्र वियोगि । (खण्ड ५, ढाल ३, छन्द ११) (पुत्र वियोग दु सह है।) (१३) पाला नाव जे मुआ। (खण्ड ५, ढाल ३, छन्द २०) (मरे हुए वापिस नहीं आते।)। (१४) मइ मतिहीण न जाण्यो, त्रुटई अति घणो ताण्यो । (खण्ड ५, ढाल ७, छन्द ४५) ( अधिक तानने से टूट जाता है।) (१५) कीड़ी ऊपर केही कटकी। (कीडी (चींटी ) पर कैसी फौज १) (१६) ए तत्व परमारथ कह्यो मई, त्रुटिस्या अति ताणियो। (खण्ड ६, ढाल १२, छन्द १२) (अधिक ताना हुआ टूट जाता है।) (१७) उखाणउ कहइ लोक, पेटइ को घालइ नहीं अति वाल्ही छुरी रे लो (खण्ड ८, ढाल १, छन्द १७) (प्यारी (सोने की) छुरी को भी कोई पेट मे नहीं रखता।) (१८) खत ऊपरि जिम खार, दुख माहे दुख लागो रामनइ अति घणी रे लो। (खण्ड ८, ढाल १, छन्द २२, पृष्ट १६२) । (घाव पर नमक, इसी प्रकार राम को दुःख मे दुःख अधिक लगा।) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.४ ] (१६) छठ्ठी राति लिख्या जे अक्षर कूण मिटावइ सोइ । (छठी रात को जो अक्षर लिख दिये गये, उनको कौन मिटा सकता है ?) (२०) आभई वीजलि उपमा हो। (पृ. १७६) (वादल की बिजली।) (२१) थूकि गिलइ नहि कोड। (खण्ड ६, ढाल ३, छन्द ११) ( थककर कोई नहीं चाटता।) ऊपर दी हुई सभी कहावतों के राजस्थानी रूपान्त र आज भी उपलब्ध हैं। उससे कम से कम इतना स्पष्ट है कि कविवर समयसुन्दर । के जमाने मे उक्त कहावतं प्रचलित थीं। कवि ने कहावतों के साथ साथ सूक्तियो और मुहावरों का भी प्रयोग किया है। कहीं-कहीं सस्कृत सूक्तियों का अनुवाद भी कर दिया है। उदाहरणार्थ .___ "जीवतो जीव कल्याण देखइ” (पृष्ठ १०४) वाल्मीकि रामायण के "जीवन्भद्राणि पश्यति" का अनुवाद मात्र है। "सीताराम चौपाई' में यह उक्ति राम की हनुमान के प्रति है। राम हनुमान से कहते हैं कि ऐसा प्रयत्न करना जिससे सीता जीवित रहे। वाल्मीकि रामायण में आत्महत्या न करने का निश्चय करते हुए स्वय हनुमान कहते है कि यदि मनुष्य जीता है तो कभी न कभी अवश्य कल्याण के दर्शन करता है इसी प्रकार "बीसार्यो अंगीकार नहि, उतमनइ आचार" "अंगीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति' का स्मरण दिलाता है। कहावत के लिए कवि ने 'उखाण' का प्रयोग किया है। एक स्थान पर सूज शब्द का प्रयोग हुभा है। कहावत भी वस्तुत. एक प्रकार का वाकसूज ही है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय कविवर समयसुन्दर विरचित ... सीताराम चौपाई ॥दूहा ॥ स्वस्ति श्री सुख सपदा, दायक अरिहत देव ।। कर जोडी तेहनइ करू , नमसकार नितमेव ॥१॥ निज गुरु चरणकमल नमु , त्रिण्ह तत्व दातार । ' कीडी थी कुजर कियउ, ए, मुझ नइ उपगार ॥२॥ समरूँ सरसति सामिणी, एक करूँ अरदास ॥ माता दीजै मुझ नइ, वारूं वचन विलास ॥३॥ संबपजून (१) कथा सरस, प्रत्येकबुद्ध (२) प्रबन्ध । नलदवदन्ति (३) मृगावती(४), चउपई च्यार सबध ॥४॥ आई तु प्रावी तिहाँ, समऱ्या दीधउ साद ।। सीताराम सबध परिण, सरसति करे प्रसाद ॥५॥ कलंक न दीजइ केहनइ, वली साध नइ विशेषि ॥ पापवचन सहु परिहरउ, दुःख सीता नउ देखि ।।६।। सील रतन पालउ सहू, जिमि पामउ जसवास ॥ सीता नी परि सुख लहउ, लाभउ लील-विलास ।।७।। मोताराम सबंध ना, नव खंड कहीसि निबध । सावधान थई साभलउ, सील विना सहु धध ॥८॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ढाल पहिली राग सारंग', ढाल-साहेलो प्रांबउ मउरीयउ जंबूदीप जिहां आपे, उत्तम पुरुष नुठामो रे। भरतक्षेत्र तिहा अति भलउ, नगर राजगृह नामो रे। गौतम सामि समोसा , गिरुया श्रीगणधारो रे । सोधु संघाति परवऱ्या, श्रुतकेवली सुविचारो रे ।।२।। गौ० वादिवा श्रेणिक आवियउ, द्यइ गणधर उपदेशो रे।। वाणी अमृत श्राविणी, निश्चल सुणइ नरेशो रे ॥३।। गौ०॥ जीव नइ मारइ जारिणनइ,(१) कूड वोलइ बहु भगो रे (२) परधन चोरी पापियउ (३), परस्त्री करइ प्रसगो रे (४) ॥४॥गौ०।। राखइ परिग्रह रग सु (५), करइ वलि क्रोध विशेषो रे (६)। मान७माया लोभमनिधरइ, रात दिवस रागद्वेषो१० रे ११॥ शागौ०।। वेढि करइ १२ वलि आल धइ (१३) करइ निंदा दिन रातो रे (१४) । रति नइ१५अरति१६वेतउ रहइ, मायामृषा१७मिथ्यातो रे १८॥६॥गौ०॥ ए अढार पाप एहवा, जे करइ पापी जीवो रे। भवसमुद्र माहे ते भमई, दुःख देखइ करइ रीवो रे ।।७।। गौ०॥ वली विशेष कोई साध नइ, आपइ कूडउ आलो रे । सीता नी परि दुख सहइ, सबल पडइ जजालो रे ।।८। गौ० ॥ १ गउड़ी Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर जोडी श्रेणिक कहइ, कहउ भगवन ते केमो रे । सुरिण श्रेणिक गौतम कहइ, ए पूरव भव एमो रे ॥६।गौ०।। भरतखेत्र मइ रिधिभरयर, नामइ नगर मृणालो रे। श्रीभूति प्रोहित नी सुता, वेगवती सुकमालो रे ॥१०॥ गौ० ।। तिण अवसरि पान्यउ तिहाँ, साध सुदरसण नामो रे । कानन मइ' काउसगि रह्यउ, उत्तम गुण अभिरामो रे ॥११।। व्रत नी रक्षा करइ, (६) वलि छज्जीव निकायो रे (१२) इद्री पाच प्राण्यां वसि, (१७) निरलोभी कहिवायो रे (१८)॥१२॥गौ।। क्षमावत (१९) सुभ भावना, (२०) कठिन क्रिया गुणपात्रो रे (२१) संयम योग सूधा धरइ, (२२) त्रिकरण सुद्ध सुगात्रो रे (२५)।।१३।। गौ० सीत तावड पीड़ा सहइ, (२६) मरणसीम उपसर्गो रे (२७) सत्तावीस गुणे करी, रोडइ करम ना वर्गो रे ।।१४।। गौ०।। पहली ढाल पूरी थइ, किया साध ना गुण ग्रामो रे । समयसुन्दर कहइ ए साध नइ, नित २ करउ प्रणामो रे ॥१५॥ गौ०॥ [ सर्व गाथा २३ ] साधु तणउ पागम सुणी, हरख्या सहु नर नारि । वादण पाया साध नइ, हय गय रथ परिवारि ॥१॥ दीधी साधजी देसणा, ए ससार असार । घरम करउ रे प्रारणीया, जिम पामउ भव पार ॥२॥ १ वन माहे २ समठ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक प्रससा सहु करइ, धन ए साध महत । उतकृष्टी रहणी रहइ, जिन सासन जयवत ॥३॥ दुख जाय इ मुख देखता, नाम थकी निस्तार । वछित सीझइ वादतां, ए मोटउ अरणगार ॥४॥ [ सर्न गाथा २७ । २ ढाल बीजी ढाल-पुरंदर री विसेषाली वेगवती ते बाभणी, महामिथ्यामति मोही रे। साध प्रससा सही नही, जिनसासन नी द्रोही रे ॥१॥ साध नइ बाल कूडउ दीयउ, पाप करी पिंड भार्यउ रे । फिट २ लोक माहे थई, हाहा नर भव हार्यउ रे ।।२।। सा०॥ वेगवती मन चितवइ, ए मूरिख लोक न जाणई रे । बांभरण नइ मानइ नही, मु ड नइ मूढ बखाणइ रे ॥३॥ सा०॥ ए पाखंडी कपटीयउ, लोक नइ भामइ घालइ रे। सिव सासन खोटइ करइ, ते को नहिं जे पालइ रे ॥४॥ सा०॥ तउ हुँ एह नइ तिम करूं, जिम को लोक न मानइ रे । पाल देउ कोई एहवउ, जिमि सह को अपमानइ रे ॥।॥ सा०॥ वेगवती इम चितवी, गइ लोकां नइ पासइ रे। स्त्री सेती व्रत भाजतउ, मइ दीठउ इम भासइ रे ।।६।। सा०॥ • श्री जिनवदन निवासिनी ए देशी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) एह नहिं साध म जाणिज्यो, ए पाखडी कपटी रे । नगर माहि सगले ठामे ए पाप नी त प्रगटी रे ॥७॥ सा०॥ लोक कहइ विरता थकां, करम तरपी वात देखउ रे । करम विटंबइ, जीव नइ, करम तणउ नहि लेखउ रे ।।८।। सा०॥ विषयारस लुवधइ थकइ, साध अकारज कीघउ रे । साध नइ भु डउ भवाडियउ, कलक कूडउ सिरि. दीधउ रे ॥सा० एह उड्डाह सुरगी करी, साधु घणउ विलखाणउ रे । अनरथ मुझ थी ऊपनउ, जिन शासन हीलारणउ रे ॥१०॥ सा०॥ . एह कलंक जउ ऊतरइ, तउ अन्नपारणी लेउं रे । नहि तरि तउं आपणा कीया, वेदनी करम हु बेउ रे ॥११॥ सा०।। आवी सासन देवता, साध नइ सानिधि कीधी रे। वेगवती नइ वेदना, अति घणु सबली दीधी रे ॥१२॥ सा०।। तुब थय उ मुख सूजि नइ, पाप ना फल परतक्षो रे । करिवा लागी एहवा, वलि पछतावा लक्षो रे ॥१३।। सा०॥ हाहा ! मइ महा पापिणी, कां दीयउ कूडउ आलो रे। साध समीपि जाइ करो, मेल्या बालगोपालो रे ।।१४।। सा०।। भो भो ! लोक सको सुणउ, मइ दीधउ पाल कूडउ रे । परतखि मइ फल पामीया, परिण साधजी ए रूडउ रे ।।१। सा०॥ ए मानभाव मोटउ जती, एह नइ पूजउ अर्चउ रे । जिमि ससार सागर तरउ, मन कोउ इण थी विरचउ रे ॥१६।। सा०॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक सुरणी हरषित थया, सोनइ सामि न होई रे। ए मोटा अरणगार मइ, किम दूपरण हुइ कोई रे॥१७१ सा०॥ साठी चोखा सूपडइ, छडतां ऊजला थायड रे । रूपइया खरा आगि मइ, घाल्यां कसमल जायइ रे ॥१८॥ सा०॥ पूजा अरचा साध नी, वलि सहु करिवा लागउ रे । जिन सासन थयउ ऊजल उ, भरम सहू नउ भागउ रे ॥१६॥ सा०॥ वेगवती ध्रम साभली, सयम लीघउ सारो रे । पहिलइ देवलोकि ऊपनी, देवो रूप उदारो रे ॥२०॥ सा०॥ बीजी ढाल पूरी थई, पणि परमारथ लेज्यो रे। समयसु दर कहइ सहु भरणी, साध नइ बाल म देज्यो रे ॥२१।। सा। [ सर्वगाथा ४८ तिण अवसर इण भरत मइ, मिथिलापुरी प्रसिद्ध । विबुध विराजित जयसहित, सरगपुरी समरिद्ध ॥१॥ जनक नाम राजा तिहा, जनक समउ हितकार । रूपई रतिपति सारिखउ, करण समउ दातार ॥२॥ सीतल चद तरणी परि, तेज तपइ जिम सूर । इद्र सरीखउ रिद्ध करि, पालइ राज पडूर ॥३॥ वैदेही तसु भारिजा, रूपइ रभ समारण । भगत घणु भरतार नी, राजा नइ जीवप्राण ॥४॥ इंद्राणी जिमि इद्र नइ, हरि नइ लखमी जेम । चन्द तणइ जिमि रोहणी, राजा राणी तेम ।।५।। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेहवइ ते देवी चवी, वेगवती नउ जीव । वैदेही कुखइ ऊपनी, भोगवि सुक्ख अतीव ॥६॥ अन्य जीव परिण ऊपनउ, ते सेती तिण ठामि । राणी जायउ बेलडउ, पुत्र पुत्री अभिराम ।।७।। एकइ देवइ अपहर्यउ, जातमात्र ततकाल । पूरव भव ना वयर थी, ते बालक सुकमाल ||८|| श्रेणिक राजाइ पूछियउ, कुण वयर तिण साथि । श्री गौतम गणधर कहइ, सामलि तु नरनाथ ।।६।। {सर्वगाथा ५७ ] ३ ढाल त्रीजी सोरठ देस सोहामउ, साहेलडी ए देवां तगड निवास ॥ गय सुकमालि ना. चउढालिया नो॥ अथवा ।। सौभागी सुन्दर तुझ बिन घड़ी य न जाय ए देशी चक्रपुरइ राजा हुतउ, पूरव भव, चक्कवइ रिद्धि पभूय । मयणसुदरी कुखि ऊपनी, पू०।। अति सुन्दरी तसु धूय ।। टक तसु धूय रूपइ देवकुवरि, नेसालइ भरिणवा गई अति चतुर चउसठि कला सीखी, जोवन भर जुवती थई ।। प्रोहित नउ पगि पुत्र तिहाँ करिण, मधुपिंगल नामइ भगइ गुणगोष्ठि करता नजरि वरतां, लपटाणा प्रेमइ घरगइ ॥१॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) नजरि नजरि विहुं नी मिली, |पू०॥ जाणि साकर सुदूध । मन मन सुविहुं नउ मिल्यउ, |पू०|| दूधपाणी जिम सूध ।। जिमि सुद्ध तिमि वलि जीव जीव स, मिल्यउभारंड नी परि। कोमी थकउ ऊपाडि तेह नइ, ले गयउ विद्रभारि ।।। काम भोग ना संयोग सगला, सुक्ख भोगवतउ रहइ॥ विद्या हुँती ते गई वीसरि, धन विना ते दुख सहइ ।।२।। तिहां राजा नउ पुत्र हुंतउ |पू०।। अहिकु डल इण नामि । तिण दीठी ते सुंदरी ।।पू०॥ अति सु दरी अभिराम ।। अभिराम देखी रूप सुंदर, काम विह्वल ते थयउ । दूतिका मु की छल करी नइ, महुल मांहि ले गयउ । सुख भोगवइ तिण साथि कुयर, चोरां विच पड्या मोर ए। ए देखइ नही आपणी अस्त्री, मधुपिंगल करइ सोर ए ॥३॥ राजा पासि जाइ कहइ । पू०।। देव सुणउ अरदास । अस्त्री किरण मुझ अपहरी ॥पू०गा तुम्हे करउ न्याय तपास ।। तपास निरति करउ नरेसर, मुझ लभाडर गोरडी । वल दूवलो नइ कह्यउ राजा, ते पखइ न सरइ घडी ॥ तिहां कुमर नउ कोइ पुरुष कपटी, मधुपिंगल नइ इम कहइ । मइ साधवी नई पासि दीठी, पोलासपुरि जा जिम मिलइ ॥४॥ ततखिरण ते तिहांकरिंग गयउ |पू०॥ जोई सगली ठाम । राजा पासि पाव्यउ फिरी ॥पूना कहइ तिहां न लाभी साम ।। कहइ तिहां न लाभइ मुझ प्रमदा, राजा सुझगडउ कीयउं । राजा कहइ हुं किसु जाणु, रीस करि नइ भडकीयउ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढीका पाट करी मारइ मुहकम, नगर थी बाहिर कियउ । तिहां धरम सांभलइ साधु पासइ, वइरागइ सजम लियउ ॥५॥ तिहा तप कीधा प्राकरा ।।पू०॥ ऊपनउ सरग मझार । अहिकु डल परिण एकदा ॥पू०॥ साभल्यउ जिन ध्रमसार ॥ सांभल्यउ जिन ध्रम साघ पासइ, भद्रक भाव पणुधरी ऊपनउ वैदेही उयरि ते, पुत्रयुगल पणइ करी ॥ पाछिला भव नउ वयर समरी ते वालक तिरण अपहर्यउ । मारीसि एह नइ दुक्ख देइसि, चित्तविचार इस्यउ धर्यउ ॥६॥ झालि पगे पछाडिस्यु ॥पू०॥ वस्त्र धोबी धोयइ जेम। अथवा खाड उडी खरणी ॥पू०।। गाडि नइ मारिसि एम ॥ मारिसि एम हैं वयरवालिसि, ए लहिस्यइ आपणउ कीयउ । इम चित्त मांहि विचार करतां दया परिणाम प्रावियउ । जिन धरम ना परसाद थी, मइ देवता पदवी लही । वाल नी हत्या नहि करू पणि, काइक परि करिवी सही ॥७॥ कुडल हार पहिरावीयउ-।। पू०।। मुकियउ वैताढ्य बाल । चन्द्रगति नाम विद्याधरइ ।। पू० ॥ दीठउ ते ततकाल ।। ततकाल वालक नइ उपाड्यउ, रथनेउरपुरि ले गयउ । असुमती आपणी भारिजा नइ, कहइ ए तुझ पुत्र थयउ ॥ हुँ वाझि माहरइ पुत्र किहा थी वात समझावी कही। वोलजे मानुखा सूयावडि, अन्त पन्त लेवउ नही ।।८।। माथउ बाघि माहे सुती ।। पू० ।। फोसू सूयावडि खाय । पुत्र नइ पासि सूयाडियउ ॥ पू० ।। प्राणद अगि न माय ।। + Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणंद अगि न माय पुत्र नउ, विद्याधर महुछब करइ । घर बारि वन्नरमाल वाधी, कुकू ना हाथा धरइ । मुझ गूढगरभा गोरडीए, पुत्र जायउ इम कहइ । सहु मिली सूहब गीत गायइ, हीयउ हरखइ गहगहइ ll दसूठण करि दीपतउ ॥ पू० । भाम इल दीयउ नाम । बीज तणा चद नी परि ।। पू० ।। कुमर वधइ तिण ठाम ।। तिरिण ठाम कुमर वधइ भली परि, सुख समाधि सु गुणनिलउ । श्रेणीक पूछयउ गौतम पूरविलउ भव एतलउ ॥ ए ढाल त्रीजी थई पूरी, वात नउ रस लीजीयइ । इम समयसुदर कहइ किरण सु , वयर विरोध न कीजीयइ ॥१०॥ [सर्वगाथा ६७] दूहा ३ वैदेही राणी हिवइ, पुत्र न देखइ पासि । हाहा किरणही अपहर्यउ, धरणि ढली नीरास ॥शा तत खिरण मुरछागत थई, सुत नउ दुख न खमाय । सीतल उपचारे करो, थई सचेतन साय ॥२॥ राणी दोयइ रमवडइ*, वीसरि गयउ विवेक । हीयडउ फाटइ दु.ख सु, करइ विलाप अनेक ॥३॥ [सर्वगाथा ७० ] • रडवह Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ढाल चवथी ढाल-धरि पाव रे मनमोहन धोटा ॥ एहनी ढाल हाहा | देव तइ स्यु कीयु , मुझ आखि दे लीधी काढि ॥ है है | भूसकतो नाखी भु हिं, मुझ नइ मेरु ऊपरि चाढि ॥है है।।१।। किरण पापी रे म्हारु रतन उदाल्यु , हा हा हुँ हिब केथी थां॥है। कहउ हुँ हिव किण दिस जाउ, है है । किण पा० आकणी०॥ हाथि निधान देई करी, मुझ लीधु बूसट मारि है। राज देई त्रिभुवन तणु , मुझ खोस्यु का करतार है॥२॥कि०॥ गज उपरि थी उत्तारि नइ, मुझ नइ खर चाडी आज है। राणी फेडि दासी करी, भर दरियइ भागउ जिहाज ॥॥शाकि०॥ गयउ आभरण करडियउ, गयउ रतन अमूलक हार है॥ आज भूली पडी रान मइ, आज वूडी समुद्र मझारिहैगा४॥कि०॥ देव नइ ऊलभा किसा, मइ कीधा पाप अघोर है॥ पूरविलइ भवइ पापिणी मइ, सउकि रतन लीया चोरि है||५||कि० के थापरिण मोसा कीया, कइ मइ दीधा कूडा पाल है। कइ छाना प्रभ गालिया, कइ भाजी तरु डालि है॥६॥कि०॥ कइ काचा फल त्रोडीया, कइ खणि काट्या कद ॥१०॥ कइ मइ सर द्रह सोखीया, कइ माऱ्या जल जीव वृद है॥७॥कि०॥ कई मंइ माला पाडिया, के किउ खेत्र विनाश ॥ कइ मइ इंडा फोडिया, कइ मृग पाड्या पाश साहिकि०॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कइ जीवाणी ढोल्या घडा, कइ (मइ) मारी जू लीख है| कइ सखारउ सोखव्यउ, कइ भाजी राकभीख है|कि० ॥ कह तिल पाणी पीलिया, कइ कीया रागणि पास है। खाणि खणावी धात नी, कइ वालाव्या कास है०॥१०॥किoll कइ मइ दावानल दीया, कइ मइ भांज्या गाम है||११||कि०॥ कइ अागि दोधी हाथ सू , कइ भाज्या आराम है०||११|कि०॥ कइ रिण भागउ केह नउ, कइ पेटि पाडी झाल है। कइ मइ झाला माछला कइ मइ माऱ्या वाल है|१२||कि०॥ कइ मइ मोठ्यो करडका, कइ दीधी निभ्रास है॥ कइ कोई विष दे मारीयउ, कइ ढाया आवास है०||१३||कि० कइ बछडा दूध धावता, मा थी विछोह्या साहि । है॥ के मड बलद मुख बांधिया, वहिता गाहता माहि ॥है।।१४॥कि० के तापस रिपि दुहव्या, मुझ नइ दीघउ सराप है| के साध नी निंदा करी, ए लागा मुझ पाप है|१शाकि०॥ इम विलाप करती धको, वलि समझावी भूप है। दुक्ख म करि तु वापडी अथिर सतार सरूप ॥है|१६||कि०॥ कीधा करम न छूटीयइ, सुख दुख सरिज्या होय है। रागी मन हठकी लीयउ, साचउ जिनध्रम सोइ है||१७||कि०॥ चवथी ढाल पूरी थई, ए वातन आभोग है। समयसु दर साचु कहइ, दोहिलउ पुत्र विजोग ॥०॥१८।।कि।। [ सर्वगाथा ८८] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव राजा महुछव करइ, बेटी तणउ प्रगट्ट । दान मान दीजइ घणा, गीत गान गहगट्ट ||१|| कीयउ दसूठण अनुक्रमइ, भोजन विधि अभिराम । सकल कुटुंब सतोषीयउ, सीता दीधउ नाम ।।२।। गिरिकदर माहि जिम रही, वाघइ चपावेलि । तिम सीता वाधइ सुता, नयण अमीरस रेलि ॥३॥ पच घाइ पालीजती, सुखइ वधइ सुकमाल । महिला नी चवसठि कला, तिरण सीखी ततकाल ||४|| देह १ लाज २ गुण ३ चातुरी ४, काम ५ वध्यउ रगरेलि । भर जोवन आवी भली, चालइ गजगति गेलि ॥५॥ [ सर्नगाथा ६३] ५ढाल पांचवों ढाल-नणदल विदली री सीता अति सोहइ, सीतातउ रूपइ रूडी । जाणे अम्बा डालिं सूडी हो ॥सी०॥ बेणी सोहइ लावी, अति स्याम भमरकडि प्रावी हो ।सी०॥ मुख ससि चांद्राउ कोघउ, अधारइ पासउ लीघउ हो ॥१॥सी०॥ राखडी सोहइ माथइ, जारणे सेष चूडामणि साथइ हो ।सी०॥ ससिदल भाल विराजइ,विचि विदली सोभा काजइ हो ।रासी। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनकमल अणियाला, विचि कोकी भमरा काला हो ॥सी०॥ सूयटा नी चाच सरेखी, नासिका अति त्रीखी निरखी हो ॥३॥सी०।। नकवेसर तिहा लहकइ, गिरुया नी सगति गहकइ हो ।सी०॥ काने कु डल नी जोडी, जेह नउ मूल लाख नइ कोडी हो ॥४॥सी०॥ अधर प्रवाली राती, दत दाडिम कलिय कहाती हो।सी०॥ मुख पु निम नउ चदउ, तसु वचन अमीरस विदउ हो ॥शासी०॥ कंठ कदलवली त्रिवली, दक्षणावत सख ज्यु सवली हो ॥सी०॥ अति कोमल बे बांहां, रत्तोपल सम कर तांहां हो ॥६॥ सी०॥ घण थण कलस विसाला, ऊपरि हार कुसम नी माला हो ।सी०॥ कटि लक केसरि सरिखउ, भावइ कोइ पडित परिखउ हो ॥७॥ सी०॥ कटि तट मेखला पहिरी, जोवन भरि जायइ लहरी हो ॥सी०।। रोम रहित वे जघा हो, जाणे करि केलि ना थभा हो ॥६॥सी०॥ उन्नत पग नख राता, जाणे कनक कूरम बे माता हो ॥सी०॥ सीता तउ रूपइ सोहइ, निरखता सुर नर मोहइ हो ॥॥सी०॥ कवि कल्लोल नही छई, ए ग्नथे वात कही छई हो ॥सी०॥ जोवन वय मन वालइ, रूपवत हुई सील पालइ हो ॥१०॥सी०॥ ए वात नी अधिकाई, कुरूप नी केही वडाई हो ॥सी०॥ सील पालइ ते साचा, सीलवंत तणी फुरइ वाचा हो ॥११॥सी०॥ पांचमी ढाल ए भाखी, इहां (सीता) पदमचरित छइ साखी हो ॥सी समयसु दर इम वोलइ, सीता नइ कोइ न तोलइ हो ॥१२॥सी०॥ [ मर्नगाया।१०५] Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवन वय सीता तराउ, देखी जनक नरेस । भरणइ सुमति मुहता भणी, देखउ देस प्रदेश ॥१॥ कोइ वर सीता सारिखउ, रूप कला गुण जाण । हुइ तउ कोजइ नातरउ, पच्छइ भाग प्रमाण ॥२॥ कर जोडी मुहतउ कहइ, वर जोयउ छइ वग्ग । सखर सोना नी मुद्रड़ी, ऊपरि जारणे नग्ग ॥३॥ [सर्वगाथा १०८] ६ ढाल छट्ठी ॥राग गउडी जाति-जकडी नी विसेषालो ।। नगरी अयोध्या इहा थो दूकड़ी कहाई बे॥ रिषभ ना राजकाजि धनदइ नीपाई बे ।। धनदइ नीपाई नगरी साइ दसरथ नाम छइ भूप नउ ।। पुत्र पदम नामइ नारि अपराजिता नी कुखि उपनउ । अति सूरवीर महा पराक्रमी, दान गुण करि दीपतउ ॥ अति रूपवत महा सोभागी, शत्रु ना दल जीपतउ ।।१।। जेह नइ लहुहडु भाई लखमण कहीजइ वे। सुमित्रा राणी नउ बेटउ बलवत सुखी जइबे ॥ बलवत सुणियइ मात दीठा सुपन आठ मनोहरू ॥ आठमउ ए वासुदेव उत्तम चक्रादिक लक्षण धरू । अत्यत वल्लभ रामचद्र नइ वे वाधव बीजा वलो। केकेई ना सुत भरत सघन बेऊ अति महावली ॥२॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहवे काघोघर भाइ ए परिवरयर सोहावे। बलदेव आठमउ रामचद मनमोहइवे ॥ मनमोहइ वे रामचंद वर, ए योग्य छह सीता भगी। रजियउ राजा मत्रि वचने, वात कही सोहामणी । मुकिया मारणस राय दशरथ, भरणी कहई अवधारियइ । कीजीयइ सगपण राम नइ, सीता कन्या परिणावियइ ।।३।। पहिलु परिण प्रीति हुँती तुम्ह सेता अम्हारइ वे॥ वलीय विशेषइ वाघइ सगपरणइ तुम्हारइवे॥ सगपणइ वाघइ प्रीति अधिकी, पच्छिम दिन जिम छांहडी। घटा शवद जिम जाइ घटती, अोछा मारणस प्रीतडी।। हरषियउ भूपति भगइ दशरथ, वात जुगती कही तुम्हे । माग्या ढल्या एहीज सगपरण, करणहार एहुंता अम्हे ॥४॥ उंघतइ विछाणउ लाघउ, पाहीणइ वूझारणउ वे ।। मुग नइ चाउल माहि, घी घराउ प्रीसारणउ वे॥ घी घराउ प्रीसाएउ दूध माहि, सखर साकर भेलवी। घृतपूर ऊपरि घणउ बूरउ, जीमता मन नी रली ॥ चालता डावी देवी बोली, पइसता जिमणउ हुयउ ।। ए कीयउ सगपण कहउ जइ नइ, वीवाह नउ मुहरत जुयउ ॥५॥ नातरउ सावतउ करि ते नर आया बे। राजा नइ राणी नइ सगला सरूप जणाया वे। सगला सरूप जणावीया नइ, सीता पणि हरखी घणु हार विचि पदक मिल्यु मनोहर, भाग वडु सीता तणु Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए ढाल छट्टी थई पूरी, समयसु दर इम कहइ ।। सवध स्त्री भरतार नउ ए, सको वखत लिख्यउ लहइ ।।६।। [सर्वगाथा ११४ ] तिण अवसरि नारद मुनी, पहिरण वलकल चीर । मार्थइ मुगुट जटा तणउ, हाथि कमडलु नीर ॥शा सीता नउ रूप देखिवा, पायउ गति अश्रात । देखी रूप बीहामणउ, सीता थइ भयभ्रात ।।२।। घर माहेोनासी गई, नारद कीधी केडि । दासी रोक्यउ बारणउ, गल अहि नाख्यउ गेडि ||३|| भांड विगोयउ माडियउ, दासी सु निरभीक । पीट्यउ काठउ पोलिए, दे झाझी भ्रम ढीक ||४|| नारद सवलउ कोपियउ, ऊडि गयउ आकासि । दुख देवउसीता भणी, वीजी किसी विमासि ||शा वेगि गयउ वेताळ्यगिरि, जिहा रथनेउर भूप ॥ भामंडल आगइ धर्यउ, लिखि सीता नउ रूप ॥६॥ रूप देखि विह्वल थयउ, जाग्यउ काम विकार । नारद नइ पूछ्यउ नमी, ए केहनउ अणुहार ।।७।। के देवी के किनरी, के विद्याधरि काइ ॥ कहइ नारद ए को नही, ए नारी कहिवाइ ।।८।। जनकराय मिथला धरणी, वैदेही तसु नारि ।। सीता पुत्री तेह नी, अपछर नउ अवतार ।।६।। बहिनि पुरण जाणइ नही, हा हा । धिग अगन्यान । हीयइ न जाणइहित अहित, जिम पीधइ मदपान ॥१०॥ [ सर्नगाथा १२८] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ ढाल सातमी ॥ जाति त्राटक वेलिनो ॥ राग-प्रासावरी ॥ भामंडल नइ भोजन पाणी, भावइ नहिय लगार । रात दिवस रहइ आमगदूमणउ, कहइ हे. हे करतार ॥ तज्या वलि रामति खेल तमासा, स्नान मजन अधिकार । नाठी नीद नाखइ नीसासा, ऐ ऐ काम विकार ॥१॥ बाप कहइ तु साभलि बेटा, सकति घरपी छइ मुज्झ। दाव उपाय करी नइ सीता, परिणावीसि हुं तुज्झ । मनगमती वातइ भामंडलि, वलि पाण्यउ मन ठाम । चद्रगत्ति विद्याधर चीतवइ, किम थास्यइ ए काम ||२|| जउ हु तिहा जाइ नइ मागिसि, तउ दीसइ नहि वारू । खेचर आगइ भूचर कासु, महुत दीजइ किरण सारू। दूरि थकां मागीसि कदाचित, तउ नहिं धइ अहकारी । मान भगउ हुस्यंइ तउ माहरउ, कीजइ काम विचारी ॥३॥ वेगि विद्याधर तेडि चपल गति, मुक्यउ मन हुलास । जा मिथला नगरी त छलि करि, आरिण जनक मुंपास ।। कीधु रूप तुरंगम तेराइ, लोक नइ पाड्यउ त्रास । रूपवत देखी नइ भूपइ, आण्यउ निज आवास ॥४॥ मास सीम राख्यइ रूडि परि, प्राणद अगि उछाहे । इक दिन ते उपरि चडि राजा, पहुतउ वनखड माहे ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) घोडउ उडि गयउ आकासइ, जनक नइ मु क्यउ तेथि । चंद्रगत्ति विद्याधर अपरणउ, सामी बइठउ जेथि ।।५।। आदर देइ कहइ विद्याधर, मत डर मन मइ आणे । छलकरि नइ ज्यागउ छइ इहाँ तु, परिण मुझ वचन प्रमाणे ॥ भामडल बेटा नइ आपउ, पापणी सीता कन्या । आग्रह करि मांगा छां एतउ, वात नही का अन्या ॥६।। दसरथराय तणउ सुत कहियइ, रामचद परिसिद्ध । पहली सीता दीधी तेह नइ, हिवए वात निपिद्ध ।। ते सरिखउ नर आज न कोई, रूपवत बलवत । विद्याधर सगला मिलि आया, जनक नइ एम कहत ||७|| भो ! भो ! खेचर आगइ भूचर जाणे कीड पतग : विद्याधर विद्यावलि अधिका, वात म तारिण एकग । अथवा अछता परिण गुण भाखइ, रागी माणस रागड । गुण फेडी नइ अवगुण दाखइ, दोषी लोका आगइ॥८॥ कहइ विद्याधर' केहउ झगडउ, एह प्रतिज्ञा कीजइ । देवताधिष्ठित धनुष चढावइ, राम तउ सीता दीजइ ।। सगला मिलि आया विद्याधर, मिथिलापुर पाराम ! हाथ बाथ हथियारे पूरा विद्यावल अभिराम ।।६।। जनकराय आयउ अपणे घरि, परिण मन मइ दिलगीर । सहु विरतांत कह्यउ राणी नइ. परिण सीता मन धीर ।। १. चन्द्रगति Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) वीस दिवस नी अवधि बदी छइ जउ राम धनुष चढावइ । तउ सीता परणइ नहितरि तउ विद्याधर ले जावइ-॥१०॥ सीता कहइ म करउ को चिता वर ते रामज होस्यइ ।। छट्ठी रात लिख्यउ ते न मिटइ माम विद्याधर खोस्यइ ।। गाम बाहिर धरती समरावी धनुषमंडप तिहां मंड्यउ ।। दसरथ तुरत तेडायउ आयउ निज अभिमान न छड्यउ ।।११।। लखमरण राम भरत सत्रूघन सहु साथि परिवार । मेघप्रभ हरिवाहन वीजा राजां नउ नहि पार ॥ आगति स्वागति घणुसतोख्या बइठा मडप पासे ।। खलक लोक मिली नइ आया देखरण तेथि तमासे ।।१२।। तिरण अवसरि आवी तिहां सीता कीधा सोल सिंगार । सुदर रूपइ सातमय कन्या तेह ताउ परिवार ।। धावि मात कहइ सुरिण हो पुत्री ए वइठा राजान'। ए लखमरण ए राम भरत ए सघन बहुमान ॥१३।। ए मेघप्रभु ए हरिवाहन ए चित्तरथ भूपाल ।' तुझ कारणि ए मिल्या विद्याधर जिण मांड्यउ जंजाल | मत्री बोल्यउ सकति हुयइ ते एह धनुप नइ चाडउ । सीता परणउ नहितरि इहा थी भीडासहू को छांडउ ॥१४॥ अभिमानी राजा के घ्या धनुष चढ़ावा लागा। बलती आगि नी झाला ऊठी ते देखी नइ भागा॥ अति घोर भुजंगम अट्टहास पिशाच उपद्रव होई। रे रे रहउ हुँसियार पानइ कूड मांड्यउ छइ कोई ॥१५॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रांपरणइ काम नही छइ.कोई कहइ सह को विलखाणा। घर नी बइयरि सरिसइ वरिस्यइ फोकट चित्त लोभाणा ॥ लाख पायउ जउ जीवतां जास्या बहु जोती हुस्यबाट । रामचंद्र उठ्यउ अतुलीवल सीह सादुला घाट ॥१६॥ विद्याधर नर सहु देखता रामइ चान्य उ-चाप । टकारव कीधउ तारणी नइ प्रगट्यउ तेज प्रताप || धरणी धूजी पर्वत काप्या सेषनाग सलसलिया। गल गरजा रव कीघउ दिग्गज जलनिधि जल ऊछलिया ॥१७॥ अपछर बीहती जइ आलिंग्या आप अपणा भरतार । राखि राखि प्रीतम इम कहती अम्ह नइ आधार । आलान थंभ उथेढी नाख्या गज छूट मयमत्त । बंधन त्रोडि तुरंगम नाठा खलबल पडीय तुरन्त ॥१८॥ उपसांत थया खिण मइ उपद्रव वरत्या जय जय कार । देव दु दभि आकासइ वाजी पुष्पवृष्टि परकार । सीता परिण हरषित थइ पहुती राम समीप सलज्ज ।। वीजउ धनुप चडायउ लखमण विद्याधर अचरिज्ज विद्याधर रंज्या गुण देखी सबल सगाई कीधी। रूपवत अट्ठारह कन्या रामचद नइ' दीधी ।। विद्याघर किन्नर सुर सहु को पहुता निज निज ठाम । पाणीग्रहण करायउ राम नइ सीधा वछित काम ॥२०॥ १. लक्ष्मणाय दत्ता Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) रंलीय रंग सुवीवाह कीघउ दायजउ झाझउ दीघउ । संतोखी नइ सहु सप्रेड्या जनक घरउ जस लीघउ ।। पुत्र सह परिवार सु दसरथ नगर अयोध्या पहुंतउ ।। सातमी ढाल कहइ अति मोटी समयसु दर गहगहतउ ॥२१॥ पहिलउ खड थयउ ए पूरउ सात ढाल सुसुवाद। जुगप्रधान जिणचद प्रथम शिष्य सकलचंद सुप्रसाद ।। गछ नायक जिनराज सूरीसर भट्टारक वडभाग। समयसुदर कहइ सील पालतां वाधइ जस सोभाग ॥२२॥ [ सर्वगाथा १४६ } इति श्री सीतारामप्रबंधे सीतावीवाह सीतारूपवर्णनो नाम प्रथम खडः ॥१॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड ॥ दूहा ॥ हिव वीजउ खड बोलस्यु, विहु वावइ बहुप्रम। सानिधि करिजे सरसती, [जोडु वेगउ जेम ॥१॥ सीताराम सभागिया, भोगवइ भोग सयोग । लीला ना ए लाडिला, घणुबखाणइ लोग ॥२॥ श्रावक नउ सूधउ घरम, पालइ दसरथराय । अट्ठाई महुछव करड, जिरणवर देहरे जाइ ॥३॥ जिण मज्जण करिवा भरणी, महुछव देखण काजि । तेडावी अतेउरी, सगली सगलइ सानि ॥४॥ मारणस मुक्या जू जुय, तेडण भणी तुरत्त । सहु प्रावी अतेउरी, भगवत करण भगत्ति ॥१५॥ राजानर मुक्यउ हुतउ, पणिन गयउ किण हेति। पटराणी प्रावी नही, झूरि मरइ रही तेथि ।।१६।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ढाल पहली कइयइ पूजि पधारित्यइ, ए गीत नी ढाल पटरागी इम चितवइ, जोयउ २ रे राजा नी वात । नवजुवोन अतेउरी, तेडी २ रे मन मांहि सुहात ॥१॥ वीसारी मु नइ वालहइ, हुं मरिस्युरे करिस्युअांपघात । धूडि जीव्यु हिव माहरु , मइ तउ इवडु रे दुख सह्य न जात ॥२॥वी०॥ हु गरढी बूढी थयइ न सुहाणी रे राजा नइ तेरिण । पण न गणयउ मुझ कायदउ सू सलीधउरे अत्र पाणी लेरिण ॥३॥वी कुजस थयां जीवइ जिक, वलि जीवड रे पराभव दी। वाल्हेसर थीवीछड्यां, जे जीवइ रे ते माणस धीठ ॥३॥ राणी कोपातुर थकी, लेवा मांडी रे जेहवइ गलइ पासि । हाहाकार हुयउ तिस्यउ, रोयइ पीटइ रे पासइ रही दासि ॥२॥ वी० राय कोलाहल साभली, द्रउडो प्राव्यउ रे राणी नइ संगि। हाहा ए तु स्यु करइ, ताणी लीधा रे आपणइ.उछंगि ॥६॥ वी० तु कोपी किरण कारणइ, राय पूछइ रे आग्रह करी जाम । परमारथ राणी कहइ, ते आयउ रे नर तेडण ताम ।।७।। वी०॥ तेउ परि राजा कुप्यउ, कहइ मउडउ रे तुआव्यउ केम। जरा करी थयउ जाजरउ, ऊजानउ रे हुं नान्यउ तेम 10 वी01 कुरण भगिनी कुरण भारिजा, कुरण नाता रे कुरण बाप नइ वीर । वृद्धपणइ वसि को नही, पोतानु रे जे पोष्यु सरीर ॥l वीol Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) पाणी झरइं बूढापगई, प्रांखि माहि-रे वरइ धू-धलि छाय. काने सुरति नही तिसी, वोलता रे जीभ लडडि जाय॥१०॥ वी०।। हलुया पग वहइ हांलता, सूगाली रे मुहडइ पडइ लाल । दांत पडइ दाढ उखडइ, वलि माथइ रे हुयइं धउला बाल॥११॥वी०।। कडि थायइ वलि कूवडी, वलि उची रे उपडइ नहि मीटि । सगलइ डीलइ सल पडइ, नित आवइ रे वलि नाके रीटि-॥१२॥ वी० हाल हुकम हालइ नहीं, कोई मानइ रे नहि वचन-लगार। धिग बूढापन दीहडा, कोई न करइ रे मरतां नी सार ॥१३॥,वी० वृद्ध वचन इमा सांभली, राजा नउ रे आव्यउ सवेग । साच काउ इण डोकरइ, ए छोडु रे ससार उदेग ॥१४॥ वी०॥ कुटु ब सहू को कारिमउ, आऊखउ रे अति अथिर असार । हिव काइ आतम हित करू , हुं लेउं रे सयम नउ भार ॥१५॥ वीजा खड तणी भरणी, ए पहिली रे मइ ढाल रसाल । समयसुंदर कहइ ध्रम करउ, नहिं थायइ रे बूढा ततकाल ॥१६॥वी० [ सर्व गाथा २२ ] दूहा ६ इण अवसरि उद्यान मइ, चउनारणी चित ठाम । साध महांतस मोसऱ्या, सर्वभूतहित नाम ।।१।। साध तराउ आगम सुरणा, पाम्यउ परमाणंद ।' हय गय रथ सु परिवर्यउ, वांदण गयउ नरिंद ।।२।। त्रिण्ह प्रदक्षिण दे करी, वाद्यउ साध महात । 'जनम २ ना दुख गया, रिषि दरसण देखत ।।३।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम सोचा करता परभाति । गई उद्यान श्रीराम सघाति । दसरथ राजा पण तिहा पायउ, चन्द्रगति रिखि देखी सुख पायउ॥१४॥ साधु, वादी नइ पुछयई एम | चन्द्रगति दीक्षा लीधी केम । मुनि कहइ भामण्डल नी वात । इह भव पर भव ना अवदात ।।१।। सहु लोके जाण्यु निसन्देह । जनक नउ पुत्र भामण्डल एह । - वहिनी जाणी नइ पाए लागउ, सीता मिली सोइ ए दुख, भागउ ॥१६॥ पइसारउं करि नगर मइ प्राण्यउं । रामइ सगपण साचउ जाण्यउ । भामण्डल मुकरिय विचार । मुक्यउ पवन गति खेचर सार ॥१७॥ मिथिला जाइ वधाई दीघी । जनकइ अाभ्रण वगसीस कीधी। जनक राजा वैदेही वेई । विमान बइसारि तिहां गयउ लेई ॥१८॥ जनकइ भामण्डल नइ निरख्यउ । पुत्र नइ हे जइ हीयमउ हरख्यउ। मां बाप चरणे नाम्यउ सीस । वैदेही मनि पूगी जगीस ॥१९॥ हरखइ मा खोलइ वैसाखउ । माथउ चुम्बि बेठउ नाम सार्यऊ । पूछयउ मा बाप वात विचार । आमूल चूलकह्यउ परकार ।।२०।। मा बाप पुत्र पुत्री सह मिलियां । पुण्य प्रमारिण हुंयां रंगरलिया। दारथ आग्रह करि पंच राति । जनक अयं ध्या रह्यउ सिवताति-IIRAI भामण्डल लेई नइ साथि । प्रायउ जनक मिथिला जिहा आथि । पत्र प्रवेस महोछव कीघउ । दान दुनी लोका नइ दीघउ ॥२२॥ भामण्डल रहि केइक दीह । मा वाप सीख लेई नइ अवीह। सोहर गयउ प्रापगइ गामि । मन वछित भोगवइ सुख कामि ॥२३॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) बीजा खण्ड तगी ढाल बीजी । सुगताँ धरम सू भीजइ मीजी । समयसुन्दर कहइ सहु समझाय । करम तणी गति कहिय न जाय ॥२४॥ [सन गाथा ५५ । इहा १५ दसरथ राजा एकदा जाग्यउ पाछिलि राति । चित माहे इम चिन्तवइ वड वयराग नी बात ।।१।। घन्य विद्याधर चन्द्रगति जिण त्रिण ज्युतज्यउ राज । सयम मारग अादर्यउ सारया मातम काज ॥२॥ मन्दभाग्य हूँ मूढमति खूनउ माहि कुटुम्ब । करी मनोरथ व्रत तणउ अजी करू विलम्ब ॥३॥ घरम विलम्ब न कीजीयइ खिरण २ त्रूटई आय। "आखि तराइफरूकडइ घडी घरू थल थाय ॥४॥ रामचन्द्र नइ राज दे सह पूछी परिवार । सयम मारग आदरू जिम पामु भव पार ॥५॥ इम चिन्तवतां चिंत्त मई प्रगट थयउ परभात । संकल कुटब मेली करी कही राति नी बात ॥६॥ कुटब सहु को इमं कहइ तुम्ह विरहउ न खमाय । तउ परिण ध्रम करतां थका कु ण करइ अन्तराय ॥७॥ राम राज नइ योग्य छइ पग नउ वडउ सकन्ज । वलि चित प्रावई राजि नइ तेह नइ दीजइ रन्न ।।८।। जितरंइ दसरथ रामनइ राज द्यइ देखि वखत्त।' तितरह केकेंई गई राजा पासि तुरत्त ॥६॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) साध कहइ ध्रम सांभलउ, ए संसार असार । जनम मरण वेदन जरा, दुखु तणउ भडार ॥४॥ काचउ भाडउ नीर करि, जिण वेगउ गलि जाय काया रोग समाकुली, खिरण मइ खेरू थाय ॥शा बीजलि नउ झवकउ जिस्यउ, जिस्यउ नदी मउ वेग । जोवन वय जाणउ तिस्यउ, ऊलट वहइ उदेग ।।६।। काम भोग सयोग सुख, फलकि पाक समान । जीवित जल नउ बिंदुयउ, सपद संध्यावान ॥७॥ मरण पगा मांहि नित वहइ, साचउ जिन ध्रम सार । सयम मारग आदरउ, जिम पामउ भव पार ८ . साध तरणी वारणी सुरणी, पायउ अति वैराग । घरि अावी राजा जोयइ, व्रत लेवा नउ लाग ।।९।। [ सर्वगाथा ३१ ] २ ढालबीजी जातिजत्तिनो । वली तिमरी पासइ वडलु गाम एहनी ढाल ॥ वलो । प्रत्येक बुद्धना । त्रीजा खंड नी पाठमो ढाल । __ जंबू द्वीप पूरव सुविदेह ।। एहनी ढाल एहवइ भामण्डल सुणी वाणि । रामइ सीता परणि प्राणि ॥ मुझ जीवित नई पडउ धिक्कार, जउ मुझ नही सीता घरि नारि ॥१॥ तउ हूँ ले प्रावि सीकर जोर । कटक करी चाल्यउ प्रति घोर । विचमई विदर्मा नगरी आवी । ए दीठी ती किरण प्रस्तावि ।।२।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) ईहापोह करता ध्यान । ऊपनउ जाती समरण न्यान । हा हा हूँ भगिनी सु लुधउ । इम वयराग धरी प्रतिवुधउ ||३|| कटक लेई नइ पाछउ वलियउ । घरि आव्यउ सहु सताप टलियउ । चन्द्रगति वाप पूछई एकान्त । भामण्डल कहई निज विरतान्त ॥४॥ हू पाछिलई भवि नउ तात । अहिकुण्डल मण्डित सुविख्यात । अपहरी वाभण नी मई भन्ना । कामातुर थकइ नाणो लज्जा ॥५॥ हूँ मरी नई थयऊ जनक नउ पुत्र । सीता सहोदर वेडलइ अत्र । देवता अपहर्यउ वयर विसेष, तुम्हें सुत कीघउ मिटइ नहिं लेख ।।६।। मइ अगन्यानइ बाछी सीता । हिवपाछिली वात प्रावी चीता। हा हा हुं थयउ अगन्योन अध । मइ माहरउ कह्यउ एह सम्बन्ध ।।७।। ए विरतान्त सुरणी नई राय । अथिर ससार थी विरतउ थाय । भामण्डल नइ दीघउ राज । तिहा थी चाल्यउ ले सहसाज ||८|| आयउ अयोध्या नगरि उद्यान । तिहां दीण मुनिवर ध्रमध्यान । साघु वादी नई एम पयपइ । जनम मरण ना भय थी कंपइ॥ll तारि हो साधजी मुझ नइ तारि । दे दीक्षा भव पार उतारि । चन्द्रगति राय नइ दीधी दीक्षा । सीखावी साधजी वेहुं शिक्षा ॥१०॥ भामण्डल महिमा करइ सार । याचक नइ द्यइ दान अपार । जनक पिता वैदेही मात । सुन्दर रूप जगत विख्यात ॥११॥ चिरजीवे भामण्डल भूप । भाट भाखइ आसोस अनूप । राति सू तो थकी सयन मकार । सीता विरुद सुण्या सुविचार ॥१२॥ चितवई ए कु ण जनक नउ पुत्र । अथवा मुझ वाधव. सु पवित्र । अपहरि गयउ ते हनइ तउ कोई, इहां किहां थी पावइ वलि सोई॥१३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) चित माहे इह चितवइ मुझ वेटा नइ राज। जउ होयइ त अति भलउ सीझई वछित काज, ॥१०॥ अति वलवन्त महा सकज लखमण नइ वलि राम । राज करी सकइ किहा थकी एह थकां नहि ठाम ॥११॥ इण नइ बाँछइ लोक सहु ए दीपता अथाग। तिमिर हरण सूरिज थका कुरण दीवा नउ लाग ॥१२॥ रतन चिन्तामणि लाभता कुण ग्रहइ कहउ काच । दूध थकां कुण छासि नइ पीयइ सहु कहइं साच ॥१३॥ लापसि छाडि नइ लिहंगटउ खायइ कुण गमार । कूरी कारणि कूण नर तजइ जु गन्ध उजारि ॥१४॥ तउ वर मागीसि माहरउ थापरिण लेत न खोडि । आपण प्रियु नइ इम कहइ केकेइ राणी कर जोडि ।।१५। [सर्वगाथा ७ ३ ढाल त्रीजी रागप्रासाउरी सीधूडउ मिश्र चरणाली चामंड रणि चडइ। चख करी राता चोलोरे विरती दारणव दल विचि । घाउ दीयइ घमरोलो। चरणाली चा० एहनी ढाल ॥ केकेइ राणी वर मागइ । आपउ प्रीतम पाजो रे। देसउठउ द्यइ राम नइ । भरत भणि धइ राजो रे ॥१॥ केला. वर नी वात सुणी करी । दसरथ थयउ दिलगीरो रे । राज मांगद राणी सही । वात तणउ ए हीरो रे ॥२॥ के०॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किम दिवरायइ भरत नइ। राम थका ए राजो रे । अणदीधी परिण नहि रहइ । मुज्झ प्रतिज्ञा प्राजो रे ॥३॥ के०।। कहउ केहि परि कीजियइ। वे तट किम सचवायारे। इणगी वाघ इहां खाई । केही दिस जव रायो रे ॥४॥ के०॥ तउ परिण वाचा आपणी। पालइ साहस धीरो रे। जीवित परिण जातउ खमइ । केहइ गानि सरीरोरे ।।५।। के० ।। वर दीघउ राणी भणी । परिण मन मइ दिलगीरो रे। इण अवसरि पाव्यउ तिहा। राम पिता नइ तीरो रे ।।७।। के०॥ तात ना चरण नमी कहइ। का चिन्तातुर आजो रे। आगन्या जिरण मानी नहि । तेसू कहेउ काजो रे ।1८11 के०॥ किवा देस को उपद्रव्यउ । के राणी कीयउ किलेसो रे । के किरण सुत न कह्यउ कीयउ। के कोइ वात विसेसोरे ||८के.॥ के जउ कहिवा सरिखू हुयइ। तउ मुझ नइ कहउ तातो रे । कहइ दसरथ पुत्र तुझ थी कू ण अकहणी वातो रे ।।६। के पुत्र तइं कारण जे कह्यौ । ते माहे नहि कोयो रे।। परिण केकड वर मागइ । कह्यउ परमारथ सोयो रे ।।१०।। के।। राम कहइ राज वीनवउ । वर दीवउ तुम्हे केमो रे। सुणि तु पुत्र दसरथ कहइ । जिमि धुरि थी थयउ तेमो रे ॥११॥ के०॥ एक दिवस नारद मुनी आव्यउ अम्हारइ पासो रे। कहइ लकापति पूछियउ । एक निमित्ति उलासो रे ॥१२॥ के०॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ । हूँ लकागढ नउ धरणी । समुद् खाइ चिहु पासो रे। जगसिरि अक्षर जे लिखइ। ते माहरइ घरि दासो रे ।।१३।। के।। देवता परिण डरता रहइ । नवग्रह कीधा जेरो रे।। हूतउ त्रैलोक्य कटकी। कोनहि मुझ अधिकेरो रे ।।१४।। के०॥ भाई विभीषण सारिखा । पुत्र वली मेघनादो रे। , बइरी मारि प्रलय किया। तेज तणी परसादो रे ॥१५॥ के011 हू रावण राजा वड़उ दसमाथा छइ मुझो रे ॥ हू परिण बीहूँ जेह थी ते सूझ२ को तुज्झो रे ॥१६॥ के० ' बोल्यउ तुरत निमित्तियउ । जारणी मोटउ डर जगो रे।। दसरथ नां वेटां थकी । जनक सुता परसगो रे ॥१७॥ के०॥ वात सुणी विलखउ थयउ । तेड्यउ विभीखरण वेगो रे। जा दसरथ नइ जनक नइ । मारि टलइ ज्यु उदेगो रे ॥१८॥ के०|| हूं तुम पासइ आवीयउ । तिहा सुण्यउ एह प्रकारो रे। ' साह मीना सगपरण भणी । तुम्हे रहिज्यो हुसियारो रे।।१९। के०॥ जनक नइ परिण इम हिज कहि । नारद गयउ निज ठामो रे। गुप्त मंत्र करि मत्रि सु । हू छोड़ी गयउ गामो रे ॥२०॥ के०॥ .. मुझ मूरति करि लेपनी । वइसारी मुझ ठामो रे ।- .. जनक नइ परिण इम हिज कीयउ आप रक्षा हित कामो रे ॥२१॥ के० . आ-विभीषण एकदा । दीघउ खड़ग प्रहारो रे।। बे मूरति भांजी करी । उतर्यउ अम्ह नइ भारो रे ॥२२॥ के०॥ त्रीजी ढाल पूरी थइ । बुद्धि फली विहुं रायो रे। ' समयसुन्दर कहइभ्रम करउ । जिम टलइ अलि अन्तरायो रे ।२३|० Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) [ सर्वगाथा ६३] दूहा ४ हूं तिहाथी फिरतउ थकउ, पृथिवी मांहि अपल्ल ।। कौतुक मंगल नगर मइ, आयउ एकल मल्ल ॥१॥ सुभमति रायनी भारिजा, पृथिवी कूखि उपन्न । केकेइ नामइ तिहां, कन्या एक रतन्न ॥२॥ संवरा मंडप माडियट, वइठा बहु राजान । हूं पणितिहाछानउ थकउ, वइठउ एकइ थान ॥३॥ रूपवन्त कन्या अधिक, चउसठ कला निधान । सोल शृङ्गार सजि करी, आवी भर जूवान ॥४॥ [ सर्वगाथा ६७] . ढाल चौथी देसी-वरसालउ सांभरइ, अथवा-हरिया मन लागो एतउ कुमरी सहुनइ देखती, वहि आवि माहरइ पासिरे।। केकेइ वर लाधउ । तू साभलि वेटा एमरे । के० एतउ मुझ नइ देखि मोहि रही, मृगली जाणे पडी पासिरे ॥१॥०।। एतउ भ्र भमरी लागी रही, मुम वदन कमल रस माहिरे। के० एतउ वरमाला माहरइ गलइ, घाली बिहुं हाथे साहि रे ॥२॥०॥ एतउ राजा तूर वजाडियां, भलउ कुमरी वस्यउ भरतार रे ॥०॥ एतउ रूठा वीजा राजवी, कहइ आणि घणउ अहंकार रे ॥ ३०॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतउ ए पंथी कोइ बापड, कुल वंस न जाणइ कोइ रे ।।के०|| एतउ जउ कुमरो चूकी वस्त्याउ, पणि मांसहुँ नहि अम्हे तोउरे ।।४।० एतउ राजा कहइ किसू कीजिउ, वलि पाली लीजइ केम रे ॥oll एतउ भूप कहइ कुल पूछीयइ, तु कुण कहि जिम छ: तेमो रे ॥५॥oll एतउ हुं वोल्यउ वंसमाहरु, कहिस हिवाहनउ बल मुझ रे ।।०|| एतउ चतुरंग सेना सजिक्री, सुभमति सू माड्य: जुझ रे ॥oll एतउ सुभमति भाजतउ देखिनइ, हुं रथ बइठ ततकाल रे ।।के०।। एतड केकेइ थई सारथी, रथ फेस्य कटक विचाल रे ८०|| एतउ मइ तीर नांख्या तेहनइ, जाणे वरसण लगाउ मेह रे ।।के। एतउ वायइ मात्या वादला, सहु भाजिगया तृपतेह रे ॥हा॥ एतउ जय जय सबद वंदी भगई, गुण प्रगट थया सुविवेक रे॥ एतउ पुत्री परणावी तिहा, आडम्बर करिय अनेक रे ॥१०॥oll एतउ केकेइ गुण रंजियउ, मइ काउ हुं तुठउ तुझरे ।केगा। एतउ मांगि कोइ वर सुन्दरी, तुझ सानिधि जीतउ जुज्झ रे ।।११।।के० एतउ केकेइ कह्यइ वर लाउ, मइ तुझ सरीखउ नाह रे । केगा एतउ वर वीजइ हुं सूं करूं, तुझ दीठा अंगि उछाह रे ॥१२॥oll एतउ पणि वर कोइ मांगि तुं, रंगीली हासउ मुंकि रे ॥के०। एतउ प्राणी छइ नव नाडिया, ए अवसर थी तूं न चूकि रे ॥१॥के० १-वर बीजइ हुँ सू करू, लह्यउ मइ तुम सरीखउ नाह रे । प्राण अछइ नव नाड़िया, ए अवसर थी अग उछाहि रे ॥१२॥०॥ २-मानि वचन प्रिया माहरउ, ए अवसर मोटिम चूकि रे । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) एतउ केकेइ कहइ एहवं, माहरउ वर थोपणि राखि रे ॥के०।। एतउ जद मांगुं देज्यो तदे, चन्द सूरिजनी छइ साखि रे० ॥१४॥०॥ एतउ ते वर हेवणा मांगियो, कहइ भरत नइ आपउ राज रे॥०॥ एतउ तू बइठा ते किम लहइं, तिण चिन्तातुर हुँ आज रे ॥१शाके एतउ राम कहइ राजि दीजियइ, केकेई पूरउ जगीस रे ।।के।। एतउवोल पालउ तु आपणउ, मुझनइ नहिं छइ का रीस रे॥१६॥oll एतउ वचन सुपुत्रनां साँभली, हरखित थयउ दसरथ राय रे ।केगा एतउ बात भली तेड़उ इहां, तुम्हे भरतनइ कह समझाय रे ।।१७किoll एतउ भरत कहइ सुणउ माहरइ, नहीं राज संघाति' काज रे । के०।। एतउ मुझ दीक्षा नउ भाव छइ, ए बांधव नइ द्यउ राज रे॥१८॥०॥ एतउ राम कहइ सुणि भरत तू, ताहरइ नहि राजनउ लोभ रे ॥oll एतउ तउ पणि मां मनोरथ फलइ, बाप वोल नइ चाड़उ सोभ रे।।१६।।के० एतउ भरत भणइ हुँ तुम थका, किम राज ल्यू जोयउ विमास रे॥०॥ एतउ राम कहइ बांधव सुणउ, अम्हे तउ लेस्यूँ वन वास रे ।।२०।। एतठ चौथी ढाल पूरी थइ, कही केकेयी वर वात रे।के।। एतउ समयसुंदर कहइ सांभलउ, खोटी वइयरि नी जाति रे ॥२शाकेगा [ सर्व गाथा ११८] दूहा ४ बात सुनी नइ कोपियउ, लखमण नाम कुमार। दसरथ पासि जई कहइ, का तुम्हें लोपउ कार ॥१॥ १ राम थका। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम थकां वीजा तणट, राजनउ नहीं अधिकार। सीह सादूलइ गुंजतइ, कुण वीजउ मिरगारि ॥२॥ कल्पवृक्ष आंगणि फल्यत, तरु वीजइ स्य३ काजि । स्क रइ बेड़ी वापड़ी, जे सरइ काम जिहाजि ॥३॥ राम विना देवा न द्यु, किणनइ राज्य हुँ एह । समझायल रामइ बली, लखमण बांधव तेह ॥४॥ [सर्वगाथा १२२] ढाल पांचवों ढाल-चेति चेतन करि, अथवा-धन पदमावती (प्रत्येकवुद्धना पहला खंडनी आठवीं ढ़ाल ) लखमण राम वेऊ मिली रे, हिव चाल्या वनवासो। सीता पाणि पूंठि चली रे, समझावइ राम तासोरे॥१॥ राम देसउटइ जाय, हियड़इ दुःख न मायो रे। साथि सीता चली, जाणि सरीरनी छायो रे ॥२॥ रा० अम्हे वनवासइ नीसरयारे, तात तणइ आदेश । तू सुकुमाल छइ अति घणुं रे, किम दुःख सहिसि कोलेसोरे ॥३॥ रा० भूख तृषा सहिवी तिहारे, सहिवा तावड़ सीत। वन अटवी भमिवउ वली रे, न को तिहां आपणौ मीतो रे ॥४॥ रा० ते भणी इहां बइठी रहे रे, अम्हे जार्वा परदेस।। प्रस्तावइ आवी करी रे, आपणइ पासि राखेसोरे ।।शारा० सीता कहइ प्रीतम सुणउ रे, तुम्हे कहउ ते तो सांच । पणि विरहउ न खमी सकुंरे, एकलड़ी पल काचो रे॥६॥रा० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) घर मनुष्य भत्यउ तस्यउ रे, पणि सूनउ विण कंत। प्रीतम अटवी भली रे, नयणे प्रीयू निरखंतो रे ॥७॥रा०॥ जोबन जायइ कुल दिइरे, प्रीयुसू विभ्रम प्रेम । पंचदिहाड़ा स्वाद ना रे, ते आवइ वलि केमोरे ॥८॥ राना कंत विहुणि कामनि रे, पगि पगि पामइ दोप। साचउ पणि मानइ नहि रे, जउ बलि ते पायइ कोसोरे |रा० वर बालापणइ दीहड़ा रे, जिहा मनि रागनइ रोस । जोवन भरियां माणसारे, पगि पगि लागइ छइ दोसोरे ॥१०॥ रा० मइ प्रीतम निश्चय कियउरे, हुँ आविसि तुम साथि । नहि तरि छोडिसि प्राण हुरे, मुझ जीवित तुम हाथो रे ॥१॥ रा० पाली न रहइ पदमिनी रे, सीता लीधी साथि। सूर वीर महा साहसी रे, नीसत्या सहु तजी आथो रे ॥१२॥ रा० लछमन राम सीता त्रिण्हेरे, पहुता तातनइ पासि । पाय कमल प्रणमी करीरे, करइं त्रिह अरदासो रे ॥१३॥रा०॥ अपराध को कीधउ हुइ रे, ते खमज्यो तुम्हें तात । दसरथ गदगद स्वरइ कहइ रे, किसउं अपराध सुजातो रे ॥४॥रा०॥ जिम सुख तिम करिज्यो तुम्हे रे, हुं लेइसि व्रत भार। विषम मारग अटवी तणउ रे, तुम्हें जाज्यो हुसियारो रे ॥१शारा०॥ इम सीख माथइ चाडिनइ रे, पहुता माता पासि । मात विहुँ रोतीथकी रे, हीयडइ भीड्या उलासो रे ॥१६॥रा०|| मात कहइ मनोरथ हुंतारे, अम्हनइ अनेक प्रकार। वृद्धपणइ थास्यां सुखी रे, तुम्हें छोड्यां निरधारो रे ॥१७॥रा०॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) अम्हनइ दुख समुद्रमइ रे, घालि चल्या तुम्हें पुत्र । किम वियोग सहिस्या अम्हे रे, कुण वनवास कउ सूत्रो रे ॥१८॥ कइयइ वलि मुख देखस्या रे, अम्हें तुम्हारू वच्छ। वेगा मिलिज्यो मातनई रे, अथिर आउखुं छइ तुच्छो रे ॥१६॥राoll राम कहइ तुम्हें मातजी रे, अधृति मकरिस्यउ काइ। नगर वसावी तिहा वडउ रे, तुम्हनइ लेस्यां तेडायोरे ॥२०॥रा०॥ विहुं माते किया पुत्रनइ रे, मंगलीक उपचार । आसीस दीधी एहवी रे, पुत्र हुज्यो जयकारो रे ॥२१॥राol सीतापणि सासूतणा रे, चरण नमी ससनेह । सासू जंपइ धन्य तुं रे, प्रिय साथि चली जेहोरे ।।२२शाराoll देवपूजि गुरु वादिनइ रे, मिलि मिलि सहु सन्तोपि । खमी खमावी लोक सुं रे, नीसत्या हुइ निरदोसो रे ॥२३शाराoll पांचमी ढाल पूरी थइ रे, राय राणी अन्दोह । समयसुन्दर कहइ दोहिलउ रे, मात पिता नउ विछोहो रे ॥२४॥रा० [ सर्व गाथा १४६] दृहा ३ संप्रेडण सांथि चल्या, सामन्तक भूपाल । मंत्रि महामन्त्रि मण्डली, वाल अनइ गोपाल ॥१॥ प्रजालोक साथि चल्या, वलि चल्या वरण अढार । पवन छत्रीस पुकारता, करता हाहाकार ।।२।। अंगतणा वलि ओलगू, दासी दास खवास ।। किम करिस्यां आपे हिवइ, कुण पूरेस्यइ आस ॥३॥ [ सर्व गाथा १४६] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) ढाल छठी देसी--ओलगडीनी । राग-मल्हार ।। महाजन २ मिलीनइ सहु आव्यउ तिहा रे, विदा न मांगो जाय । हियडु फाटइ दुख भरे बोलता रे, आँसू आँखि भराय ।।१।। रामजी २ राजेसर वहिला आवज्यो रे, तुम विरहउ न खमाय । वीछडियां २ वाल्हैसर मेलड दोहिलउ रे, तुम दीठां दुख जाय ||२|| सगली २ राणी रोयइ हूबके रे, रोयई सगला लोग। नीद्रडी २ नाठी अन्न भावइ नही रे, व्याप्यउ विरह वियोग ।।३।। केकेइ २ नइ कहाँ लोक पातरी रे, रामनइ वाहिर काढि । भरत नइ २ दिवरायउ भार राज नउरे, विरूई स्त्री वेढि राढि ॥४रा०॥ पुरूष २ प्रधाने नगरी सोभती रे, दीसइ आज विछाय । चन्द्रमा २ विहुणी जेहवी यामिनी रे, कन्त विण नारि कहाय ॥शारा० जलधर २ विहुणी नेहवी मेदनी रे, विण प्रियु सिज्या जेम। पदक २ विहुणी हारलता जिसी रे, आज अयोध्या तेम ॥६ारा० ए जिहा २ जास्यइं पुरुप तिहा हुस्यइ रे, अटवी नगर समान । असरण २ हुस्या पणि आये हिवइ रे, नगर अयोध्या रान ||७|| रा०॥ लोकना २ वचन इम सुणता थका रे, सीता लखमण राम । जिनवर २ प्रासादइ आवीनइ रह्या रे, कीधउ जिन परणाम ||Boll तिणसमइ २ सूरिज देवता आथम्यउ रे, जाणे एणि विशेपि । रामनइ २ वियोगइ लोक आरडई रे, ते दुख न सकु देखि हराना १-अयोध्या नगरी तेम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) खिण एक २ कीधउ राग सन्ध्या तणउ रे, जाणि जणायउ एम। अथिर आउषु अथिर ए सम्पदा रे, राग सन्ध्या नउ जेम ||१०ारा० तिमिर २ करीनइ स्यामवदनथइ रे, दिसवधू दुख प्रमाणि । कुमर २ वियोगइ लोक दुखी घ] रे, ते देखिनइ जाणि ||१शाराoll रातिनउ २ वासउ रामजी तिहाँ रह्या रे, जिहं श्री जिनवर गेह। मा बाप २ आया पुत्र मुख देखिवा रे, ए ए पुत्र सनेह ॥१२॥रा०॥ मा बाप २ संतोषी सहु बउलावीया रे, आप सुता खिण एक । पाछिली २ रात उठी चालिया रे, वांदी जिन सुविवेक ||१३शाराका पछिम दिस २ साम्हा चालिया रे, धनुष बाण ले हाथि । किणही २ न जाण्या कॅयर चालता रे, सीता लीधी साथि ॥१४ारा०ll प्रहसमइ २ चाल्या पग लेई करी रे, सामंतक भूपाल ।। विरहउ २ नजायइ खम्यउ रामनउ रे, आइ मिल्या ततकाल ॥१शाराoll रामजी २ संघातइ मारग हींडता रे, सेवा सारइ धीर । नगरइ २ गामे पूजा पामता रे, गया गंभीरा तीर ॥१६॥रा०॥ रामजी २ नदी नड तीरि उभा रह्या रे, आव्यउ वसती अंत । भरत २ नी सेवा करिज्यो अति भली रे, वउलाव्या सामंत ।।१७ाराला ए ढाल २ छठ्ठी वीजा खंडनी रे, राम लीयो वनवास । समय २ सुन्दर कहई सहु करइ रे, वलि मिलिवानी आस ||१८ारा) [ सर्वगाथा १६७] रामइं लांघी ते नदी, सीतानंई ग्रहि हाथि ।। दक्षिण दिस भणि चालिया, वांधव लखमण साथि ॥१॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) सामंतक पाछां वल्या, पणि मन मई विषवाद | रामवियोग दुखी थया, सगलउ गयउ सवाद ||२|| तीर्थकर नई देहरs, आवी वइठा तेह। दीउ साध सोहामणो, अटकल्यो तारक एह ||३|| किणही संयम आदस्यउ, किणही श्रावक धर्म | के पहुता साकेतपुरि, ते तर भारी कर्म्म ॥ ४ ॥ तिण विरतात सहु काउ, ते सुणि नई मा-बाप ॥ करिवा लागा रामन, सहु को दुक्ख विलाप ||५|| दशरथ दीक्षाआदरी, भूतसरण गुरु पासि । तपसंयम करs आकरा, त्रोडइ कर्म्म ना पास ||६|| ढाल सातवीं ढाल -- थांकी अवलू आवड़ जी, [ सर्वगाथा १७३ ] पुत्र वनवासइ नीसख्याजी, दशरथ लीधी दीख, म्हारा रामजी । सुमित्रा अपराजिताजी, दुख करई वेहुं सरीख ||१|| म्हारा रामजी तुम्ह विण सुनउ राज । मा सगली अलजर करई जी, आवड आजोध्या आज ||२||म्हा०|| पाख विहूणी पंखिणी जी, काय सिरजी करतार || पुत्र अनई पति बीहड्याजी, अम्हनई कुण आधार || म्हा||३|| नयणें नाठी नींदडीजी, अन्न न भावइ लगार | पाणी पणि नूतरह गलइजी, हीयड फाटणहार || म्हा०||४|| Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) हिमनी वाली कमलिनीजी, जिमदीसई विछाय। पुत्र वियोग झूरी मुंईजी, तुम्ह विण घडीय न जाय ॥शाम्हांगा दुखकरती राणी सुणीजी, केकेई थयो दुःख । भरतनकहइ रोती थकी जी, राम विनां नहि सुख म्हापा तुझनइ राज सोहड नहीं जी, विण लखमण विण राम ॥ मा पणि मरिस्य३ फ़रती जी, पडिस्या सवल विराम ||खाम्हाला तिणपुत्र जा तु उतावला जी, राम मनावी आणि । केकेई साथइ करी जी, भरत चाल्यउ हित जाणि ||८|| म्हा०॥ चपल तुरंगम चडी बूहुर जी, पगि २ पूछइ राम । गंभीरा नदी ऊतरी जी, आवी विषमो ठाम म्हा०॥ घोडउं मुकि आघट गयउ जी, राम देखी गयऊ धाय ॥ आंखे आंसू नाखतो जी, भरत पड्यउ राम पाय ॥१॥म्हा०॥ रामइ हीडउ भोडियउजी, लखमण दीयो सनमान । करजोडी नई वीनवइ जी, तुम्हें मुझ तात समान ॥१शाम्हाला राज करो तुम्हें आविनई जी, हूँ छत्र धारीसि तुम्ह । सत्रुधन चामर ढालस्यई जो, एह मनोरथ अम्ह ।।१२शाम्हां। लखमण मंत्री थाइस्यई जी, तुम्हें मुंकर वनवास । केकेई आवी तिसंड जी, उतरी रथथी उल्हास ॥१३॥|म्हा०॥ हीयडई भीडी नइ कहई जी, पाछा आवउ पुत्र । राज अयोध्यानउ भोगवट जी, वात पडइ जिमि सूत्र ॥१४ाम्हाoll नारीनी जाति तोछडी जी, कूड कपटनउ गेह । अणख अदेखाई कर जी, अपराध खमजो एह ।।१शाम्हा०।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) राम भणइ खत्री अम्हेजी, न तजउ अंगीकार । भरत करो राज आपण जी, अम्हें ग्राउ डंडाकार ॥१६म्हा०|| रामई भरतनइ तेडिनइंजी, दीधर हाथ सु राज । संतोपी संप्रेडीया जी, सहु करो आपणा काज ॥१७॥म्हा०॥ सातमी ढाल पूरी थई जी, राम रह्या वनवास । समयसुन्दर कहइ सहु मिली जी, भरतनइ द्यउ सावास ॥१८म्हा०॥ बीजउ खंड पूरठ थयो जी, संनिधि श्री जिनचंद। सकलचंद सुपसाउलइ जी, दिन २ अधिक आणंद ।।१हाम्हा०॥ श्री खरतर गछ राजीयोजी, श्रीजिनराजसुरीस' । समयसुन्दर पाठक कहइ जी, पूरवउ संघ जगीस। [ सर्वगाथा १६३ ] इतिश्री सीताराम प्रवन्धे राम-सीता-वनवास वर्णने नाम द्वितीयः खण्डः सम्पूर्णः। तीसरा खण्ड दहा १२ त्रिण विन गीत न गाइयई, त्रिण विन मुक्ति न होई। कहुं त्रीजउ खंड ते भणी, जिम लह स्वाद सकोइ ।।१।। रामचन्द आश्रम रह्या, पहिली रात मझार। आवी आगलि चालता, अटवी डंडाकार ||२|| पंछी कोलाहल करई, सीह करई गुंजार । केसरि कुम्भ विदारिया, गजमोती अंबार ॥३।। १-श्री जिनसागरसूरीश। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिहुं दिसि दीसचीतरा, वलि दावानल टाह । वानर वोकारव करई, वनमइ विढइ वराह ॥४॥ व्यग्रचित्त वन लांघियत, चालि गया चीत्रउडि। नाना विध वनराइ जिहां, चित्रांगदनी ठउडि ॥॥ अद्भुत फल आस्वादतां, करतां विविध विनोद । सीताराम तिहां रह्या, केइक दिन मनमोद ॥६॥ तिहाथी अनुक्रमि चालिया, आया ' अवती देस । तिहां इकदेस सूनउ थकउ, देखी थयो अंदेस ||७|| गाइ भैसि छूटी भमइ, धानचून भस्या ठाम । गोहनी गोरस सू भरी, फलफूल भस्या आराम ||८|| मारिग भागा गाडला, छूटा पड्या वलद । ठामि २ दीसइ घणा, पणि नहि मनुष्य सवद ।।६।। वइठा सीतल छांहडी, सीतासु श्री राम । लखण बांधवनइ कहइ, किम सूनउ ए आम ॥१०॥ देखीनइं को माणस इहां, पृछां कुण निमित्त । लखण जई उंचउ चड्यठ, एकणि रुखि तुरत्त ।।१।। दूरिथकी इक आवतउ, दीठउ पुरुष उदास । तेनरनई ले आवीयठ, लखमण वांधव पासि ॥१२॥ करि प्रणाम उभउ रह्यऊ, रामइं पूछयउ एम। परमारथ कहुँ पंथिआ, सूनउ देस ए केम ॥१३।। १-गया २-गाम Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) ढाल पहली राग रामगिरी [ चाल-जिनवर स्युं मेरउ चित्त लीणउ । अम्हनइ अम्हारइ प्रियु गमइ । काजी महमदना गीतनी-डाल ] कहा पंथी वात वेकर जोडी, दसपुर नगर ए खास रे। रयणायर छोडो जलदूपणि, लखमी कीधर निवास रे ॥१॥ रूडारामजी। देस सूनउ इण मेलिरे, कहता लागस्य वेलि रे। कहता थास्यइं अवेलि रे |रूलाआoll रिद्धि समृद्ध सरगपुर सरिखउ, विवुध वसई जिहाँ लोक रे। सुख संतान सुगुरुनी सेवा, मनवंछित सहु थोक रे शारूoll सरणागत वज्र पंजर सरिखउ, बज्जजघ राय तत्र रे। न्यायनिपुण विनयादिक गुणमणि, सोभित सुजस पवित्र रे ।।२।। पणितेमई सवलउ एक दूषण, नहिं दया धरम लिगार रे। रात दिवस आहेड हीडई, करई बहु जीव संहार रे॥४||रूoll एक दिवस मारी एक मृगली, गरभवती हुती तेह रे। गरभ पड्यउ तडफडतउ देखी, राजा धूजी देह रे ॥शारूका मनमाहे राजा इम चीतवई, मइकीधउ महापाप रे। निरपराध मारी मृगली प्रभ,' देवनई कवण जबाव रे ॥६॥रू बांभण १ साध २ नइस्त्री ३ वाल ४ हत्या, ए मोटा पाप जोइ रे। ताडन तरजन भेदन छेदन, नरगतणा दुख होइ रे ॥जारू०॥ १-ए। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुं पापी हुं दुरगति गामी, हुं निरदय हुं मूढ रे । इम वयराग धरी राय चल्यऊ, आगइ तुरग आरूढ़ रे ||८ || एहवइ साध दीठउ सिल ऊपरि, करतठ आतापन एक रे। करि प्रणाम राजा इम पूछइ, जाग्यउ परम विवेक रे॥६॥रू०॥ स्यु करइ छइ उजाडिमइ वइठउ, कां सहई तावड सीत रे। का सहइं भूख त्रिषा तुंसवली, वाततोरी विपरीत रे ॥१०॥रू०।। साध कहतुं साभलि राजा, आतम हित करूं एह रे। तप संयम करी परलोक साधू, छीजती न गणु देह रे ॥११॥रूoll जीव मारीनई जे मांस खायई, मद्य पीयई वली जेह रे। नर भव लाधउ निफल गमाडई, दुरगति जायइ तेहरे ।।१२।। रू०॥ मांस भोजन ते अहित कहीजइ, ताव मांहे घी पान रे। तपसंयम आतम हित कहीयई, मांदानइ मुग धान रे ॥१३॥ रू०॥ साध वचनइ राजा प्रतिबूधउ, पभणईवे करजोडि रे। साधजी धरम सुणावि तुं सूधउ, पाप करम थी छोड़ि रे ॥१४|| रू०॥ त्रीजा खंड तणी ढाल पहिली, पूरी थई ए जाणि रे। साधु संसार समुद्र थी तारई, समयसुन्दरनी वाणि रे ।।१।। रू० ॥ [सर्वगाथा २८] दहा ४ देव तउ श्रीवीतराग ते, गुरु सुसाध भगवंत । धर्म ते केवलि भाखीयउ, समकित एम कहंत ॥१॥ एक तीथंकर देवता, वीजा साध प्रवुद्ध । त्रीजानइ प्रणमइ नहीं, तेहनउ समकित सुद्ध ॥२॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) जीवनइ मारउजे नहीं, जूठ न बोलई जेह । अणदीधर जे ल्यइ नहीं, न धरइ नारी नेह ॥३॥ आरंभ कर्म करई नहीं, न करई पाप करम्म । वलि जे इन्द्री वस करई, धरमनउ एह मरम्म ||४|| [सर्वगाथा ३२] ढाल बोजी २ राजमती राणी इणिपरि वोलइ, नेमि विणा कुण धुंघट खोलइ एहनी ढाल धरम सुणी राजा प्रतिवूधउ, निरमल समकित पालइ सूधउ ॥शा धol एहवउ राजा अभिग्रह कीधउ, साधतणई पासई राँस लीधउ ॥२॥ ध० अरिहत, साध विना नहिं नामुं, सिर किणनई सुध समकित पामुं ।।३।। साधु वादी राजा घरि आयउ, लाघउ निधान जाणे सुख पायउ ॥४॥ देव जुहारई गुरुनई वंदई, जिनधर्म करतउ मनि आणदइ ।५ । ध०। श्रावकना व्रत सूधा पालड, श्रीजिन सासन नई अजुयालई ॥६॥ ध० ॥ एक दिवस मन माहि विचारई, किम मुझ सॅस ए पडिस्यइ पारइ ७।१० ऊजेणी नगरी नउ राजा, सीहोदर तिणसुं मुझ काजा ||८|| ध०॥ सीस नमाड़ तउ सुस भाजइ, प्रणम्या बिन किम पडगनउ खाजइह । मुद्रिकामई मुनिसुव्रत मूरति, राय करावी सुदर सूरति ।।१०।। ध० सीहोदरना प्रणमई पाया, पणि प्रतिमा ना अध्यवसाया ।११। ध० इण करतां दिन वठल्या केता, सावतउ समकित सुप्रसननेता ॥१२॥ १० दुसमण भेद कह्यो राजानई, घाली घात पापइ पचिवानइं । १३ ध० कुटिल चालइ परछिद्र गवेपइ, दो जीभउ उपकार न देखइ ॥१४॥ ध० Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) सीहोदर राजा सुणी रूठउ, कालकृतात जिमि' ते जूठर ||१५|| घ० दसपुर नगर नठ देश उतारू, बजजंच राजानई मारूं। १६ १० वाजा चढत तणा वजडाया, वागिया सर्व दिसोदिस धाया ॥१७॥ ध० गयगुडीया घोडा पाखरिया, नालि गोला सेती रथ भरिया ॥१८॥ ध० मुझ प्रणमई नहि ते बोल साल्यउ, राजा कटक करीनई चाल्यउ॥१६॥ दसपुर नगर भणीते आवई, तेहवइ एक पुरुष तिहां जावई ॥२०॥ ३० वजूदत्तनः पाये लागी, कहइ एक बात सांभलि सोभागी ॥२शा ध० राय भणईकुणतुं वात केही, पुरुष कहईकुण तूं सुणि कहुँ जेही ।।२२।। कुंडलपुर नगरी नउ हुँ वासी, धुरथी सकल कला अभ्यासी ॥२३।। ध० मात-पिता मुझ स्धा श्रावक, हुँ तेहनड पुत्र पुण्य प्रभावक ||२४|| ध० विजउ नाम जोबन मदमातउ, पणि वीतराग ने वचने रातउ॥२५॥ ध० व्यापार हेति उजेनी आयर, तिहाँ मइ द्रव्य पण उपायउ॥२६॥ ध० त्रीजा खंडनी ढाल ए वीजी, समयसुंदर कहइ सुणिकरउजी जी ॥२| सर्वगाथा ५६ दूहा ११ इकदिन मुझ दृष्टई पडी, केलिगरभ सुकुमाल। चंदवदनी मृगलोयणी, तिलक विराजत भाल ॥१॥ रूपइ रंभा सारखी, मदमाती असराल । अनंगलता वेश्या इसी, हूँ चूकल ततकाल ॥२॥ कुण-कुण नर चूका नहीं, श्रावक नई अणगार । अंत लेतां ए वात नउ, न पड़ई समझि लिगार ॥३॥ १-जिस्य Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) हुँ लुबधउ कामी थकउ, गणिकासु दिनराति । विषयतणां सुख भोगवु, विगड्यउ तेहनी वात ।।४।। धन सघलउ खूटी गयुं, निरधन थयउ निटोल। अन्य दिवस गणिका कहई, सांभलि प्रीय मुझ' बोल ॥२॥ पटराणी ना कानना, कनक कुडलनी जोडि । आणी दै ऊतावली, पूरि प्रियू मुझ कोडि ॥६॥ चोरीइंपइठलं राति हुँ, राजानइ आवासि । राय राणी सूता जिहां, भोगवि भोग विलास ॥७॥ हूं छानु छिप नई रह्यो, जाण्युं सोवई राय। तउ राणी ना कानना, कुडल ल्युं धवकाय ।।८।। राजा चिंतातुर हुतउ, निद्रा नावई तेणि । राणी पूछई प्रीयु तुम्हें, चिंतातुर सा केण ।।६।। स्त्रीनइ गुह्य न दीजीयई, वली विशेषइ राति । तिणि राजा बोलइ नहीं, बोलायउ बहुभाति ॥१०॥ राणी हठ लेई रही, गुह्य कह्यो नृप ताम । हुँ मारिसु बनजंघ नई, न करइ मुम परणाम ॥११॥ सर्वगाथा ७० ढाल ३ चाल-१ सुण मेरी सजनी रजनी न जावइ रे, २ पियुड़ा मानउ वोल हमारउ रे । सुण मेरा साहमी वात तउ हितनी रे। साहमी माटई कहुँ छु चितनी रे ॥१०॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मई इम जाण्यु धन ते राया रे । वजूइ समकित सूधा पाया रे ॥२ सु०॥ हुँ पापीजे चोरी पइठउ रे। आंगमी मरणउ हुँ इहीं वइठउ रे ॥३ सुमा वेश्या लुबधइ द्रव्य गमायउ रे। आपणउ कीय इह लोकि पायउ रे ॥४ सु०॥ जिन ध्रम जाण्यउ नठ फल लीजइ रे।। साहमीनइ उपगार करीजइ रे ॥५ सुना इम जाणीनइ भेद जणांवा रे। हुँ आय छु वात सुणावा रे ॥६ सुना सीहोदर राजा तु आवइ रे। तिण आगई कुण जीवत जावई रे॥७ सु०॥ जे जाणइ ते तुं हिव करिजे रे। धीरज समकित उपरि धरिजे रे ॥८ सु०॥ राय कहइ तुं पर उपगारी रे। धन विज्जा तुं अति सुविचारो रे॥ सुना साबासि तुझ नई भेद जणायउ रे। साहमी सगपण साच दिखायउ रे ॥१० सु०॥ वात सुणीनई ततखिण राजा रे। देस उचाल्यउ कटक आवाजा रे॥११ सु०॥ आप रह्यउ राय नगरी माहे रे । सखरे पहिरे टोप सनाहे रे ॥१२ सु०॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनपाणी ना संचा कीधा रे। नगरी ना दरवाजा दीधा रे ॥१३ सु०॥ सीहोदर अति कोपइ चढ़यउ रे। नगरी चिहुं दिस वींटी पडयउ रे ॥१४ सु०) दूत सुं मुंकइ राय संदेशा रे। चरण नमीनइ भोगवि देसा रे ॥१५ सु०।। राय कहई हुँ राज न मागु रे। चरण न लागुं सुंस न भागु रे ।।१६ सु०॥ सीहोदर सुणि अति घणुं कोप्यउ रे । इणि माहरउ वोल देखउ लोप्यउ रे ।।१७ सु० ॥ हिव हुँ एहनइ देस उतारूँ रे। जीवत झाली गरदन मारु रे ॥१८ सु०॥ इम वेऊ राय अखस्या बइठा रे। एक बाहिर एक माहि पश्ठा रे ॥१६ सु० ।। देस ए हुँतउ पहिलउ ए धूनउ रे । इण कारण हीवणा थयउ सूनउ रे ।।२० सु०॥ ए वृतांत कह्यउ मइ तुमनरे। हिव राजेसर सीख द्यउ मुझ नइ रे ।।२१ सु०॥ हुँ जाउंछ स्त्रीनई कामई रे। इमकही रामनइ मस्तक नामइ रे ।।२२ सु०॥ कडि कंदोरउ रामई दीधउ रे । सीख करीनई चाल्यउ सीधउ रे ॥२३ सु० ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) त्रीजी ढालइ खंड त्रीजानी रे। समयसुंदर कहइ ध्रम दृढ़तानी रे ॥२४ सु० ।। [सर्वगाथा ६४] ॥ ढाल चउथी चंदायणनी ॥ पणि दहइ २ चाल ॥ ॥राग केदार गउडी। राम भणइ लखमण भणी, चालउ दसपुर गाम । साहमी नई सानिधि करउ, घरम तणुं ए काम ।। |चाल॥ धरमतणुं एकाम कहीजई, साहमीवछल वेगि वहीजई। दसपुर नगर वाहिर बे भाई, चन्द्रप्रभ देहरई रह्या जाई ।१।। चन्द्रप्रभ प्रणमी करि, लखमण नगर मझारि । राजभवनि भोजन भणी, पहुतउ परम उदार ।। ॥चाल॥ पहुतउ परम उदार कुमार देखी राजा कहइ सूयार । एहनइ भोजन द्यउ अति सार, एकोइ पुरुष रतन अवतार ||२|| कहई लखमण वाहरि अछइ, मुझ वांधव परिसिद्ध । अणजीम्यां जीमू नहीं, द्यइ मुझ भोजन सिद्ध । ॥चाल॥ द्यइ भोजन राजा अति ताजा, पंचामृत लाडु नइ खाजा ॥ लखमण राम समीप ले आवs, भोजन जिमिनई आणंद पावइ ।।४।। राम कहई लखमण प्रतई, भलपण देखि भूपाल ॥ अणओलख्यां पणि आपीयउ, तुझ भोजन ततकाल ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥चाल॥ आघउ तुझ भोजन लाउ माहिज, तुहिवकरि साहमीनइं साहिज । गयउ लखमण सीहोदर पासई, भरतइ मुंक्यउ दूत इम भासइ ॥४॥ हू सगली पृथिवी नउ घणी, सहुको मुझ छत्रछाय । ब्रजजंघसुं कां करई, एवडउ जोर अन्याय ॥ ॥ चाल ।। एवड़उ जोर अन्याय म करि तु, म करि सग्राम पाछउ जा घरि तुं। सीहोदर कहइ भरत न जाणइ, गुण दूषण तेहना तिण ताणइ ॥शा सीहोदर कहइ माहरउ, ए तउ चाकर राय। हठियउ हट्ट लेई राउ, न नमइ माहरा पाय ।। ॥ चाल॥ न नमइ माहरा पाय ते माटइ, मारि करिस एहनइ दहवाटइ। भरतनइ तात किसी ए करणी, आपणी करणी पार उतरणी ॥६॥ कहई लखमण तु भरतनी, जउ नवि मानइं आण । मुंकि विरोध तुं करि हिवइ, मुझ अगत्या प्रमाण ॥ |चाल॥ मुझ आज्ञा तुजउ नहीं मानइ, तउ तु पडीसि कृतात नइ पानई इणवचने सीहोदर रूठड, जमराणइ सरिखउ ते झूठल ||७|| रे रे कटक सुभट तुम्हें, एहनई मारउ मालि । विटवा लागा सुभट भट, लखमण छूटीं चालि॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) ॥ चाल ॥ लखमण छूटी चालि निवारया, मुठि भुजादंड केई मास्या । मारत २ केई नाठा, कंईक मुख लीधा त्रिण काठा ||८|| सीह आगलि जिम मिरगला, रवि आगलि नक्षत्र । गज गंधहस्ती आगलि, त्रासि गया यत्र-तत्र । ॥ चाल ॥ त्रासि गया यत्र-तत्र कटक भट, कुप्या सीहोदर वल उत्कट | गज आरूढ़ थिकु धसि आयउ, चतुरंग वल पणि चिहुं दिस धाउ || लखमणनइ वींटी लीयउ, मेघघटा जिमसूर । आलान थंभ उथेडिनई, कटक कायउ चकचूर ॥ ॥ चाल ॥ कटक कीयउ चकचूर हजूरी, वज्रजंघ देखे राउ दूरि । ऐ ऐ देखउ अतुल पराक्रम, एकलइ कटक भाज्यउ इणि नर किम ||१०|| एनर सुर के असुर के विद्याधर कोइ, तेहवइ लखमण पाडीयड सीहोदर पणिसोइ । ॥ चाल ॥ सीहोदर पणि नीचठ पाड्यउ, पाछे वाही बाधी पछाड्यउ । आण्यउ राम समीप सीहोदर, राम कहर सावासि सहोदर ||११|| सहोदर अंतेरी, करs विलापनी कोडि | पूठइ आवी इम कहइ, देवदयापर छोडि || Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चाल॥ देव दयापर छोडि अम्हारउ, प्रीतम, उपगार गिणस्या तुम्हारउ। सीहोदर ओलख्यउ ए राम, हा मई मुंडु की, काम ।।१।। ने कहउ ते हिव हुँ करूं, राम कहइ सुणि राय । वजूजंव सुं मेलि करि, जिमि तुझ आणद थाय । ॥चाल|| जिमि तुम आणद तेहवई ते नर, आवीनइ प्रणमइ राम सीतावर। राम कुशल खेम पूछ वात, मुझ परसादि कहइ सुखसात ॥१३॥ राम कहतू धन्यजे, कीधर साहमी काम । वनजंघ बइठउ तिहा, रामनई करि प्रणाम । चाल॥ रामनई कहइ वजूजघ निसुणि पहु, इणि मुझनई उपगार कीयउ बहु ।। सीहोदर वनजंघनइ भेलाकरि, मेल करायउ रामई बहुपरि ॥१४॥ दिवरायउ वनजंघनइ, विहिची आधउ राज । हयगय रथ पायक सहू, सीधा वंछित काज ॥ ॥चाल॥ सीधा वंछित काज सहूना, विजुआनई कुंडल निज बहूना । सहोदर राय त्रिणसय कन्या, वजूई आठ आगधरि अन्या ॥१२॥ कहई लखमण एहा रहल, कन्या नि जोखीम । अम्हे परदेसई भमी, जा आवा ता सीम ।। १-उठ्यो। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) ॥चाल॥ जां आवां तां सीम अंगीकरि, पहुता वि राजा निज-निज पुरि। साहमीवछल रामइ कीयउ इम, कहइ गौतम श्रेणिक सुणि बढ़धर्म |१६| राम सीता लखमणसहू तिहाँ थी चल्या उछांह । कूपचंड उद्यानमई, पहुता बइठा छाह ।। वश्ठा छोह सहुको जेहवइ, त्रीजाखंडनी चव्थीढाल तेइवई। पूरीथई साहमी नुं वच्छल, समयसुंदर कहई करि ध्रम निश्चल ।।१७॥ [सर्वगाथा १११] दहा ८ सीता नई लागी वणी, भूख-तृषा समकालि। लखमण जल जोवा भणी, गयउ सरोवर पालि ॥शा तिहाँ पहिलउ आयउ हुँतउ, राजकुंयर सहु साजि । लखमण देखी मंकीयउ, चाकर तेडण काजि ||२|| लखमण नइ ते इम कहई, अम्ह सामी सुविचार । तुम्हनइ तेडइ ते भणी, तिहाँ आवउ इकवार ||३|| लखमण चालि तिहाँ गयउ, तिण दीधउ बहुमान । निज आवास तेडी गयउ, करि आग्रह असमान ॥४|| सिंहासन वइसारनइ, पूछ विनय वचन्न । तुंकुण किहीं थी आवीयउ, दोखई पुरुष रतन्न ।।५।। मुझ वांधव लखमण कहई, वाहिर बइठ जेथि । 'तेहिनई पासि गयां पछी, वात कहिसि हुँ तेथि ॥६॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) तुम भाई तेडु इहां, मानी लखमण बात । माणसमुंकी रामनइ, तेडायउ नृपजात ||७|| राजकुंयर आदर घणई, प्रणमई रामना पाय । एकातइ करई वनती, भोजन भगति कराय ||८|| सर्वगाथा ११६ ढाल पांचवों राग मल्हार मेरा साहिब हो श्री शीतलनाथ कि वीनती सुणो ए० ॥ राजेसर हो सुण वीनती एक कि, मनवाछित पूरि माहरा। भाग जोगई हो मुझनई मिल्यउ आजकि, चरणन छोडूं ताहरा। १ रा० इणनगरी हो वालिखिल्ल नरिंद कि, पटराणी पृथिवी धणी। तिण वाध्यउ हो म्लेच्छाधिप रायकि, रणि विढतांवयरी भणी शराण प्रभवंती हो राणीनई जाणिकि, सीहोदर राजा कह्यउ । पुत्र होस्यइ हो जे एहनइ तासकि, राज देईस निश्चउ ग्राउ ॥३ रा०॥ हुँ पुत्री हो हुइ करम संयोगि कि, राजा पुत्र जणावियउ । सहु साजण हो संतोषी नामकि, कल्याण माली आपीयउ॥४ रा०॥ मझ माता हो मंत्री विण भेदकि, केहनइं ते न जणावीयउ । पहिरावी हो मुझ पुरुष नउ वेसकि, मुम नइ राजा थापीयउ ।।५ रा०॥ ए तुम्ह नइ हो कही गुह्यनी वातकि, स्त्रीनउ रूप प्रगट कीयउ । हुँ आवी हो जोवन भरपूरकि, तुम्ह देखी हरख्यउ हीयउ॥ ६ रा०॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझनइ तुम्हे हो करु अंगीकारकि, प्रारथना सफली करउ । भाग जोगइहो मिल्या पुरुष प्रधानकि । हिव मुझ नइ तुम्हे आदरउ ।। ७ रा०॥ लखमण कहइ हो धरि पुरुषनउ वेसकि, केइक दिन राज पालि तुं। छोडावां हो अम्हे तोरो तातकि, ता सीम चिंता टालि तुं ।। ८ रा०॥ समझावी हो इम चाल्या तेहकि, विध्याटवि पहुता सहू। सीता कहइ हो सुणउ किणहीक साथकि, वेढिहुस्यइ तुम्हनई बहू हरा० तुम्हारउ हो हुस्यइ जयकारकि, किम जाण्यउं तई ते कहई । सीता कहइ हो कडुयइ तरुकागकि, बोल्यउ इण वामई पहई ॥१०रा० खीररूंखइ हो वोल्यउ एक कागकि, विजय जणावई तुम्हनई। वायस रुत हो आगम अनुसारकि, जाणपणु छई अम्हनई ॥११ राना खंड तीजउ हो तसु पाचमी ढालकि, राम सीता लखमण भमई) समयसुन्दर हो कहइ करइ उपगार कि । नाम लीजइ तिण प्रहसमई ॥१२॥रागा [सर्वगाथा १३१] दूहा ७ लखमण राम आधा गया, विंध्याटवी माहि ।। आगई दीठउ अति घणउ, म्लेच्छ कटक अत्थाह ।।१।। तीर सडासड़ नाखता, त्रूट पड्या ततकाल । पण लखमण तिम त्रासव्या, जिम हरि नादि शृगाल ॥२॥ तिण म्लेच्छाधिपनई काउ, ते चड़ी आव्यउ वेगि। मारिन कीधर अधमूयउ, लखमण मारी तेग ॥३॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) सूरवीर तुम्हें साहसी, मुखि करतउ गुण ग्राम ॥ आगलि आवी ऊभउ रह्यउ, रामनई करइ प्रणाम ॥४॥ मुझ आगइ रिपु आजथी, उभउ न रह्यउ कोइ। हेलामईजीतउ तुम्हें, इन्द्रभूति हूँ सोइ ॥५॥ ने कहउ ते हिव हुं करूँ, पभणइ वे कर जोड़ि ।। राम कहई इन्द्रभूति तु वालिखिल्लनउ छोडि | तुरत तेडावी तेह नइ, छोड्यउ राम हजूर । वालिखिल्ल हरपित थयउ, रुद्र नई कीयउ सनूर ॥७॥ [सर्वगाथा१३८ ढाल छठी ढाल-ईडरियै २ उलगाणइ आबू उलग्यउ आ० रे लाल । करजोड़ी राजा कहइ, किहा थी आवीया।। किहां थी आवीया रे लाल, किहां थी आवीया ॥ कुण तुम्हें २ मईवासी म्लेच्छ हराविया । म्ले० लाल । वि० ॥११॥ किम जाण्यउ २ कहउ राजा वालखिल्ल वाधियउ । वा० लाल वा० विण ओलख्या २ इवड़उ उपकार तुम्हें किउ लाल उ० ||२|| राम कहइ २ तू जाणिस आपणइ धरि गयउ आ० लाल आ० ।। वाल्हेसर २ कहिस्यइ विरतात जिकड थयउ। वि० लाल वि० ॥३।। इम कहि नइ २ राजानइ घर पहुचाडियउ । घ० लाल । घ० परमारथ २ वाल्हेसर सहु समझाडियउ। स० लाल स०॥४॥ पुरविली २ परिपालइ वालखिल्ल राजनइ । वा० लाल । वाला सापुरसा २ सरिखउ कुण पर काज नइ । प० लाल । प०॥५॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचाल्या २ अटवी मई जिहां पाणी नहीं। जि० लाल |जिला सीता नई २ त्रिस लागी ते न सकइ सही । ते० लाल । ते० ॥६।। कहइ सीता २ सुणि प्रीतम हूँ तिरसी मरू । हुं० लाल । हुँ । जीभड़ली सुकाणी हिवहुँ किम करूं । हि० लाल हि० ॥७॥ आणीनई २ पाणी पाइ उतावलउ ।। पा० लाल । पाना छूटइछइ २ माहरा प्राण सूकाणउ गलउ ।। सू० लाल | सू०८॥ आघेरी २ सीता चलि करि माटी पणउ || क० लाल |क०॥ उ दीसई २ गामडल तिहां पाणी घणउ ति० लाoll ति० ॥६॥ तिहां पाणी २ हुँ पाइसि सीतल तुझ नई। सी० ला० सी। राम कहइ २ धरि धीरज झालि तुं मुज्म नइ मा० ला० झा० ॥१०॥ इम कहि नई २ सीतानई राम लेई गयउ ॥ रा० ला०रा०॥ गामडलु २ नामइते अरूण पड्यउ ढह्यउ ||अ० ला० अ० ॥११॥ वाभणीयर २ नामइ ते कपिल तिहां वसइ । क० ला ||कoll सीतानई २ नल पायुतसु घरणी रसई । त० ला० त० ॥१२॥ ए छठ्ठी २ ढाल छोटी खण्ड त्रीजा तणी ॥ खं० लाल खं०। सीतानई २ पाणीनी समयसुंदर भणी ।। स० ला० । स०॥१३।। सर्वगाथा १५१] दहा २ राम सीता लखमण सहू, तिहाँ लीघउ आसास ॥ सीतल पाणी बांभणी, पायउ परम उलास ||१|| तिहा सहूको सुखीया थया, थाकेलउ ऊतारि॥ विप्र घरे वासउ रह्या, मीठा वोली नारि ॥२॥ [सर्व गाथा १५३] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल सातवों ढाल-नाहलिया म जाए गोरीरइ वणहटइ राग-मल्हार सीता कहा तुम्हे सांभलउ । राम जी ।।एक करूँ अरदास।। इहां थी आपानउ भलउ राना अटवीनउ वनवास ॥११॥ प्रीयुडा न रहियई मंदिर पारकई, इहां नहि को उलखाण । माहीनर नजाणई इहां कोइ आपणो । मूरख लोकई अजाण ॥२ प्रिया आ० तेहवइ ते घर नउ धणी ।।राll आयउ कपिल पिण विप्र ॥ फलफूल इंधण हाथमई॥ देखि रिसाणउ खिप्र ॥३॥॥प्रिय।। क्रोध करी नई धमधम्यउ॥रा०ा वाभणी नई घइ गालि ।। रे रे घरमई घालिया ॥रा०॥ एकुण घर सम्भालि ||४|| प्रिय।। वचन कठोर कह्या घणा |Roll मारण उठ्यउ डील ।। घर माहि का पइसिवा दीया ॥रागा घूलि धूसरिया भील |||||प्रिया रे रे इहा थी नीसरउ ॥रा०॥ घर कीधउ अपवित्र । वांभणी लागी वारिवा ।।रा० तिम वली लोक विचित्र ॥६॥॥प्रिय।। बाभण न रहइ बोलतउ ॥रा०ा मुंहडा छूटी गालि ॥ सीता कहइ न सकुं सही ॥राा छोडिखोलड वेढिटालि ||७||प्रि०॥ वसती थी अटवी भली ॥राoll जिहां दुरवचन न होइ ।। इच्छाई रहियइं आपणी ॥रा० फलफूल भोजन सोइ ॥८॥॥प्रि०॥ धिग धिग ए पाणी पियउ |रा०ll भलउ निझरण न नीर । दुरजण माणस संग थी॥रा०ा भलउ म्रिगला नउं तीर ॥प्रि०॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्करि पाणी करि धj॥ रा०॥ धण नइ न मेल्हइ पास ।। कुवचन कानि न साभलारा०॥ वारू पुल्लिदह वास |१०|| प्रि। सीता वचन सुणीकरि ॥राoll कीधउ लखमण क्रोध ॥ वांभण टांग झाली करी ॥रा०ा उंचउ भमाड्यउ जोध ॥११।। प्रि०|| राम कहइ लखमण मा मा रा०|| मुंकी दे तू एह ।। ए बात तुझ जुगती नही ॥रा०ा उत्तम द्यइ नहि छेह ॥१२॥ ॥प्रि०|| बालक वृद्ध नइ रोगियउरा० साध ४ वांभण ५ नइ गाइ॥६॥ अबला ७ एहन मारिवा ॥रा०|| माख्या महापाप थाइ ॥१३॥ ॥प्रि०॥ इम कहि राम मुंकावियउ ॥रा०॥ ते वाभण ततकाल । ते घर छोडिनइ नीसत्या रा०॥ राम कहीजइ कृपाल ||१४|| ॥प्रिया त्रीजा खडनी सातमी ॥ रा०॥ ढाल पूरी थइ तेम । तीजउ खंड पूरो थयउ ॥रामा समयसुन्दर कइइ एम ॥१२॥ सर्वगाथा १६८ इतिश्रीसीतारामप्रवन्धे वनवासे परोपकार वर्णनो नामस्तृतीय खण्ड सम्पूर्णः। दहा १५ दानशील तप तिन्ह भला, पिणि विन भाव न सिद्धि । तिण करणे काउ जोईजइ, चउथउ खंड प्रसिद्ध ॥शा लखमण सीताराम सहु, गया आघेरा जेथि, गाजवीज करि वरसिवा, लागउ जलधर तेथि ।।२।। सिगलई अंधारउ थयउ, मुसलधार करि मेह । वूठउ नइ वाहला चूहा,धजण लागी देह ॥३॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) वड दीठउ उक तिहां वडउ, बहुल पत्र रह्यउ छाइ ।। वड आश्रय बइठा जई, त्रिण्हे एकठा थाइ ॥४॥ यक्ष वसई इक तिण वडइ, पणि तसु तेज पडूर । अणसहतठ उठी गयो, वडायक्ष हजूर ।।५।। ते कहइ कुण वरजी सकइ, एतउ पुरुष प्रधान । अवधिज्ञान मइ ओलख्या, दीजई आदर मान ॥६॥ बडउ यक्ष आयउ वही, पलिंग विछायो पास । सखर तलाई पाथरी, उसीसा विहुं पास ||७|| सुखसेती सूता त्रिण्हें, प्रह ऊगमतइ सूर। सहुको भबकी जागीया, वागा मंगल तूर ॥८॥ रामचंदनइ पुण्यइ करि, तिण यक्षइ ततकाल। । देवनीमी नगरी नवी, नीपाई सुविसाल || गढमढ मन्दिर मालीया, ऊँचा बहुत' आवास । राजभुवन रलियामणा, लखमी लील विलास ॥१०॥ कोटीधज विवहारिया, वसई लखेसरी साह । गीतगान गहगट घणा, नरनारी उछाह ॥११॥ सीता लखमण रामनई, देखी थयो अचंभ। अटवी मांहि अहो २, प्रगटी नगरी सयंभ ॥१२॥ नगरी कीधी मइंनवी, यक्ष कहई सुसनेह । मसकति एह छइ माहरी, पुण्य तुम्हारा एह ॥१३।। १ महन Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लखमण राम सीता रह्या, तिहां बरसाला सीम। रामपुरी परसिद्ध थई, नगरी निःजोखीम ॥१४|| अटवीमईभमतउ थकउ, वीजइ दिवस अदूर। कपिल विप्र तिहों आवीयो, देख नगरी नूर ॥१५॥ ढाल १: राग-प्रासारी वेसर सोना की घरि देवे चतुर सोनार । वे० । वेसर पहिरी सोना की रझे नदकुमार । वे० । ए गीत नी ढाल । नगरी तिहां देखी नवी, ऊपनो कपिल संदेह । पूछइ नगरी नारिनई, कुणनगरी कहउ एह ॥१॥ नगरी रामकी, सुणि वांभण सुविचार न०। नगरी रूडी रामकी, सरगपुरी अवतार ।।२।। न०|| नगरी करि दीधी नवी, देवै रामनइ एह । लखमण राम सुखई रहइ, तई साभली नहीं तेह ॥३ न०॥ सूरवीर अति साहसी, वड दाता वड चित्त । दीन हीननई ऊधरई, धइ मन वंछित वित्त १४ न०॥ वलि विशेष साहमी भणी, द्यइ बहु आदर मान । भोजन भगति करई घणी, ऊपरि फोफल पान ||५ न०। कहई वाभण लोभी थकउ, किणही परि लहुं राम । सुणि बांभण कहई यक्षिणी, इम सरिसई तुझ काम ।।६ न० ॥ इणनगरी पइसइ नहीं, सांझनी वेला कोइ । पूपिणि रब दिसि बारणइ, जिणमदिर छइ जोइ ॥७ ना Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहां जे जिण पूजइ नमइ, साध वांदइ कर जोडि । सूधइ मनि जिन ध्रम करइ, मूढ मिथ्यामति छोडि |८ न०॥ कपिल भेद लहइ सांभली, जिन ध्रम सूधई चित्त । साध समीपि जायइ सदा, देव जुहारई नित्त । न०॥ प्रतिवूधड ध्रम साभली, कीधउ गांठिनउ भेद । श्रावकना व्रत आदस्था, समकित मूल उमेद ॥१० न०॥ लहि जिन धर्म खुसी थयो, दलिद्री जेम निधान । विप्र आयो घरि आपणइ, कहइ विरतांत विधान ॥११ न०॥ चउथा खंड तणी भणी, पहिली ढाल इम जोइ । समयसुन्दर कहइ पुण्यथी, रनि वेलाउल होइ ॥१२॥ न०। [ सर्वगाथा २७ ] दहा ६ वांभणी बात सुणी करी, संतोषाणी चित्त । कहइ प्रियुं मइ पिण आदस्यउ, जिन ध्रम साचउ तत्त ॥१॥ कपिल वांभण नै' वाभणी, वेडं श्रावक सिद्ध । देव जुहारई दान द्यइ, गुरु वचने प्रतिबुद्ध ॥२॥ अन्य दिवस अरथी थकउ, कपिल लेइ निज नारि । रामनो दरसण देखिवा, आव्यो नगर मझारि ॥३॥ धरम तणइ परभाव थी, रोक्यो नही किण लोकि । राजभुवनि आन्यो वही, रह्यो लखमण अवलोकि ॥४॥ १-अनइते Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज करतूत संभारतो, पाछो नाठो जाम । निज नारी की गयउ, तेड्यउ लखमण ताम ॥५॥ महापुरुषानइ देखिनई, कीघउ चरण प्रणाम । पूछ्यो राम किहाँथकी, आव्यउ स्युं तुम नाम || ते कहई हुँ छु पापियउ, कपिल छइ माहरु नाम । घरथी बाहर काढिया, जिण तुम्हनइ गई माम ||७|| करकस वचन मइ बोलिया, आगण वइठा देखि । आयो किम ऊठाडियइं, वलि सापुरुष विशेखि ८॥ हुँ अपराधी हुँ पापियो, तुम्हे खमज्यो अपराध । अवगुण कीधां गुण करई, अनम नाणई षाध ॥६। सर्वगाथा ३६॥ ढाल २ बोजी राग वयराडि ११) जाजारे वाँधव तु वडउ ए गुजराती गीतनी ढाल । अथवा वीसारी मुन्हें वालहइ तथा हरियानी राममीठे वचने करी, संतोष्यो रे देई आदर मान । तुझ दूषण विप्र को नही, पांतरावइ रे नरनई अगन्यांन ।।१।। सगपण मोटर साहमी तणउ, कांई कीजई रे तेहनइ उपगार । भोजन दीजइ अति भला, वलि दीजइ रे द्रव्य अनेक प्रकार ॥२ स० ।। धन-धन तुंजिनध्रम लियो, वलि मुफ्यो रे अगन्यान मिथ्यात । कपिल जनम त सफल 3 कीयो, अम्हारो रे साहमी तुं कहात ।।३स० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम परसंसी तेहनइ, जीमाड्यउरे भोजन भरपूर । स्त्री भरतार पहिराविया, धन देई रे घणउ कीधा सनूर ॥४ स०॥ संप्रेड्या घर आपणई, कर साहमी रे बछल सुविसाल । कपिलई संयम आदस्यो, केतलइ इकरे वलि जातइ कालि ।।५सoll वरसालो पूरो रही, वलि चाल्योरे राम अटवी मझारि । यक्ष करई पहिरावणी, राम दीधउरे स्वयंप्रभहार ।।६ स०॥ लखमणनई कुडल दीया, सीतानई रे चूणामणि सार । वीणा पणि दीधी वलो, वलिखाम्योरे अविनय अधिकार ७ स०|| राम चल्यां पछि अपहरी, ते नगरी रे जाणे इन्द्रजाल । चउथा खंड तणी भणी, ए बीजेरे समयसुन्दर ढाल ।८स०। सर्वगाथा ॥४४॥ दूहा २ राम तिहाथी चालिया, विजयपुरी गया पासि । वड पासइ विश्रामिया, राति तणी रहवासि ॥१॥ बड हेठइ लखमण सुण्यो, विरहणि नारि विलाप । लखमण आधेरउ गयो, संभलिवानी टाप ।।२।। सर्वगाथा ॥४६|| ढाल त्रीजी३ (३) देखो माई आसा मेरइ मनकी सफल फलीरे। आनन्द अगि न माय, एगीतनी ढाल || सुण वनदेवी मोरी वीनती, साम्हो जोइ रे। हुँ निरभागिणि नारि, इण भवि नाह न पामियर लखमण कुमार रे, परभव होइज्यो सोइ ॥१॥ सु० आ० ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) इम कहिनइ ऊँची चढी, पासी गलइ ल्यइंजाम । लखमण द्रोडि पासई गयो, जाइ बोलावी ताम ।।२। सु०॥ मां मां मरईकां कामिनी, पासी नाखी नोडि । तुज्म पुण्ये हुँ आणीयो, पूरि तुं बछित कोडि ॥३। सुना लखमण फरसइ खुसीथई, झीली अमृतकुंड जाणि । लखमण लेई आवीयो, राम पास हित आणि ॥४१ सुगा चंदइ कीघो चंद्रणो, सीता दीठी ते नारि । कहइ हसि देउर ए किसी, चंद्ररोहिणी अणुसारि ॥५॥ सु०॥ लीलामई लखमण भणइ, ए देराणी तुज्झ । बात कही पासीतणी, थइ अस्त्री मुज्झ ।।६। सु०॥ सीता वात पूछंइ वली, तु कुण केहनी पुत्रि । कहि तुझ दुख केहउ हुँतउ, पासी लीधी कुण सूत्रि ।।७१ सु०। ते कहइ सुणि नगरी इणइ, राजा महीधर नाम । इन्द्राणी नाम एहवउ, पटराणी अभिराम ॥८सु॥ वनमाला वल्लभ घणु, हुं तस पुत्री चंग। बालपणइ बइठी हुती, बाप तण उछंगि ।।६। सु०।। राजसभा सवली जुडी, मांगण करई गुणग्राम । बोलइ घणी विरुदावली, लखमणनो लेई नाम ॥१० सु०॥ लखमण ऊपरि ऊपनो, मुझ मनि अति महाप्रेम । दूरिथका पणि ढूकडा, कमलिनी सूरिज जेम ॥११॥ सु०॥ एह प्रतिज्ञा मइ करी, इण भवि ए भरतार । दसरथ सुत लखमण जिको, प्रियु देजे करतार ।।१२। सुना Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) बाप वीजा कुमरा भणी, देतउ हुँतो दिन राति । पणि मंइ को वाछ्यो नही, लखमणनी मन वात ॥१३॥ सु० अन्य दिवस वापइ सुण्यो, दीक्षा दसरथ लीध । भरतनइ राजा थापीयो, राम देशवटउ दीध ॥१४॥ सु०॥ सीता लखमण साथि ले, वनमईभमइंनिसदीस। वाप विषाद पाम्यो घणो, स्युं कीधो जगदीस ॥१५॥ सु०॥ इन्द्रपुरी नगरी धणी, सुन्दर रूप कुमार। चाप दीधी मुम तेहनइ, मइ मनि कीधउ विचार ।।१६। सु०॥ कइ लखमण परशुं सही, नही तरि मरणनी बात । दृष्टि वंची परवारनी, हुं नीसरी गई राति ॥१७ सु०॥ वड वृक्ष हेठि उभी रही, पासी माडी जाम । किणही पुण्य उदय करी, लखमण आव्यो ताम ।।१८। सु०॥ वनमाला वात आपणी, सीतानइ कही तेह । ढाल त्रीजी चउथा खंडनी, समयसुन्दर कहइ एह ।।१६। सु० सर्वगाथा । ६५ । दूहा ७ जेहवइ वनमाला कहइ, सीता आगलि वात । तेहवइ पोकारी सखी, बनमाला न देखात ॥१॥ सुभट चिहुँ दिसि दोडिया, जोबा लागा तास । जोता जोता आवीया, रामचंदनइ पास ॥२॥ वनमाला दीठी तिहा, राजानइ काउ आइ। लखमण राम आया इहा, वनमाला मिली जाइ ॥ ३ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) महिधर राय सुखी थयो, मुग मांहि ढल्यो वीय । विछावणो लह्यो उघतां, धानपछउ त्रेसीय ॥४॥ राम समीपइ अवीयो, राजा करी प्रणाम । स्वागत पूछइ रामनई, भलइ पधात्या स्वाम ।।५।। पइसारो करि आणियो, आपणइ भुवन मझारि । रलीय रंग वद्धामणा, आदर मान अपार ॥ ६॥ रामचंद नइ आपीया, ऊँचा महल आवास । बनमाला महिला मिली, लखमण लील विलास ।।७।। सर्वगाथा ||७२॥ ढाल ४ (४) राग गउडी। हिव श्रीचद सकल वन जोतुं ए देसी। इण अवसरि आयो इक दूत, नंदावर्त नगरी थी नूत । अतिवीरिज राजा मुंकियो, महिधर पासि आवी कूकियो ।॥ १॥ अम्ह सामी बोलाय तुम्हें, तुम्हनइ तेडण आव्या अम्हे । भरत संघाति थयउ विरोध, वीजा पणि वोलाया जोध ॥२॥ बहु विद्याधर जस सादूल, प्रमुख तेडाया जे अनुकूल । हिव तुम्हें आवउ उतावला, भरत मारिनई जोडा तला ॥३॥ सीहोदर नइ लीधर साथि, हय गय रथ पणि मेली आथि । भरत अयोध्या थी नीसरी, साम्हउ आव्यउ साहस करी॥४॥ महिधर सुणि अणवोल्यो रह्यउ, पणि लखमण थी नगयउ सह्यउ । कहे दूत किमि थयो विरोध, भरत ऊपरि अतिवीरिज क्रोध ॥शा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) दूत कहइ तु सुणि महाभाग, अम्ह सामी दीठउ ए लाग । लखमण राम गया वनवास, भरतनई पाडु आपण पासि || दूत मुकिनइ भरतनइ काउ, मानि आणि किम बइठउ रह्यउ । आण न मानइ तउ था सज्ज, लहुं आपल देखि सकज्ज || दूत वचन राजा कोपियो, भरत कहइ क्रोधातुर थयो।' अतिवीरिज नइ कहतां एम, सत खंड जीभ थई नही केम ॥८॥ केसरि सीहन सेवइ स्याल, रविनइं किसी ताराओसिपाल । दुरभाषित नइ देइसि दंड, मारि करिसी बयरी सतखंड ॥४॥ दूत कहइ तुं गेहे सुर, ते राजानो सबल पड़ । इम कठोर कहतइ ते दूत, झालि गलइ नाख्यउ रजपूत ॥ १० ॥ पछोकडि मारो काढीयो, तिण जाई प्रभु कोपइ चाढीयो। भरत गिणइ नइ तुझ नईगांन, फोकट केहल करइ गुमान ॥१२॥ दूत वचन सुणि कोपउ चड्यो, मेलि कटकनइ साम्यउ अड्यो। थयो विरोध थे कारण एह, तिण महिधर नइ तेडइ तेह ।। १२ ।। कहइ महिधर आवा छा अम्हे, दूत आगइ थी पहुची तुम्हें । राम कहइ सुणि महिधर राज, एतउ आज अम्हारो काज ।।१३।। भरत अम्हारउ भाई तेह, साहिजनी बेला छइ एह। द्यउ तुम्हेंपुत्र अम्हारइ साथि, अतिवीरिजनइं दिखाडाहाथ ।।१४।। महिधर सुत दीधा आपणा, सीता सहित राम लखमणा। रथ बइसी नइ साथइ थया, छाना सा तिन नगरी गया ॥ १५॥ नंद्यावर्त नगरों नइ पासि, डेरा ताण्या सखर फरास । सिंहासण वइसास्या राम, सीता लखमण उत्तम ठाम ॥ १६ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समी सांझ कोधो आलोच, सीता कहइ मुझ ऊपनि सोच । अतिवीरिज सांभलियइ सवल, भरत जद्धकिम करिस्यइ निवल ॥१७॥ भरत कदाचित जउ हारिस्यइ, तर तुम्हनइ मेहणउ लागिस्यइ । लखमण कहई चिंता मत करइ, जयहोस्यइ परमेसर करइ ॥१८॥ राम कहइ सूरिज प्रकटइ, काल विलंब न करिवउ घटई। कोइक करिवउ सही उपाय, राति गई इण अध्यवसाय ॥१९॥ प्रहऊठी जिन मंदिर गया, देवजुहारी नि.पापथया ।। पूजा कीधी भलइ प्रकार, सफल थयउ मानव अवतार ॥२०॥ अधिष्टायक देवी गण पालि, रामनइ प्रगट थई ततकाल । कहइ तुम्हे चिंता म करउ काई, अतिवीरिज पाडिसि तुम्ह पाइ ॥२१| चज्था खंडनी चउथी ढाल, राम अजी वनवास बिचाल ।। समयसुंदर कहइ जउ हुइ पुण्य, तु ते वसती थाई अरण्य ॥२२॥ [ सर्वगाथा ६४] दूहा ४ देवी सहु सुभटां तणठ, कीघउ नटुई रूप । देवी हुकमइ राम ते, ले चाल्यउ जिहां भूप ॥१॥ राज सभा सवली जुड़ी, विचि बइठउ राजान । राम जाई ऊभा रह्या, प्रच्छन रूप प्रधान ||२|| नदुई पणि उभी रही, राजा आगलि तेह । अतिवीरिज आदर दीयो, दीठी सुंदर देह ।।३।। राम रूप नायक कह्यउ, जउ करइ राजि हुकम्म ।। तउ नटुई नाटक करई, भाजइ सहू भरम्म ||४|| [ सर्वगाथा ४] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल पाचवों ॥ राग गउडी॥ वाज्यउ वाज्यउ मादल कउ धोकार, ए गीतनी जाति । महिमा नइ मनि बहु दुख देखी, वोल्यउ मित्र जुहार ए देसी ॥ राजा हुकम कीयो नाटक कउ, नदुई बाल कुमारि ।। चंदवदन मृगलोयणि कामिणी, पगि झाझर झणकार ॥११॥ ततत्थेई नाचत नदुई नारि, पहिल्या सोल शृंगार। राम नायक मन रंगी नचावते, अपछर के अणुहारि ॥२ त० गीत गान मधुर ध्वनि गावति, संगीत के अनुहारि। हाव भाव हस्तक देखावति, उर मोतिण कउ हार ॥२ त०॥ सीस फूल काने दो कुण्डल, तिलक कीयो अतिसार। नकवेसर नाचति नक अपरि, हुं सवम सिरदार ।।४ तक। ताल खाव वजावति वासुली, अरु मादल धोंकार। अंग भग देसी देखावत, भमरी द्यइ वार-वार ।।५ तना ताल उपरि पद ठावति पदमिनि, कटि पातलि थणभार । रतन जडित कंचुकी कस वांधति, ऊपरि ओढणिसार ॥६ त०॥ चरणाचीरि चिहूं दिसि फरकइ, सोलसज्या सिणगार। मुख मुलकति चलति गति मलपति, निरखति नजरि विकार ||७ तoll नाटक देखि मोही रह्यो राजा, मोह्या राजकुमार । राज सभा पणि सगली मोही, कहईए कवण प्रकार ।।८ तoll ऐ ऐ विद्याधरी ए कोई, के अपछर अवतार। के किन्नर के पाताल सुंदरी, सुंदर रूप अपार ।। तना Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) तिण अवसरि नटुइ नृप पूछयो, भरत विरोध विचार । मानि हिवई तू आण भरत की, मुँकि मूरिख अहंकार ॥१० त०॥ अम्ह वचने तु मानि भरत नइ, ए तुम सरण अधार। लागि-लागि रे भरत ने चरणे, नहि तरि गयो अतवार ॥११ त०॥ कोप करी राजा ऊपाड्यो, मारण खडग प्रहार। नटुई मिल चोटी थी झाल्यो, हूयो हाहाकार ॥१२ ता खडग उपाडि कहइ इम नटुई, मानि के नाखिस्यां मारि । लखमण चोटी झालि लेई गयो, राम तणइ दरवारि ॥१३ त०] राम सीता हाथी वइसी नई, गया जिनराज विहार। सीता कहई मुकि २ गरीवनइ, ए नहिं तुझ आचार ।।१४ तक। सीता वचने मुंफ्यो अतिवीरिज, वरत्या जय जय कार । समयसुंदर कहई ढाल ए पांचमी, नाटकनो अधिकार ।।१५ त०ll [ सर्वगाथा ११३] दूहा २२ कहइ लखमण तुं भरथनो, साचा सेवक थाइ। अतिवीरिज वयराग धरि, राम समीपइ जाइ ॥१॥ कहइ इण राजई मुम सत्यो, ए अपमाननो ठाम । हुँसंसार थी ऊभग्यो, संयम लेइसि सामि ||२|| राम कहइ ते दोहिलो, संयम खडगनी धार । हिवडा भोगवि राज तु, हुए आगइ अणगार ।।३।। राजा वयरागइ चड्यो, पुत्र नइ दोधो राज। गुरु समीप दीक्षा ग्रही, सात्या आतम काज ||४|| Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ( ७५ ) तप संयम करइ आकरा, उद्यत करई विहार। पुत्र विजयरथ ते थयउ, भरत नउ अगन्याकार ॥५॥ लखमण राम विजयपुरई, रहि केतला एक दोह। बनमाला तिहा मुकि नई, आघा चाल्या सीह ।।६।। खमंजलि नगरी गया, बाहिर रह्या उद्यान । लखमण पूछी राम नई, माहि गयउ सुणइ कानि ॥७॥ सत्रुदमन राजा कहई, जे मुझ सकति प्रकार । सुरवीर सहइ तेहनई, पुत्री अति सार ॥८॥ लखमण कोतुक देखिवा, गयउ राजा नइ पासि । आदर मान घणउ दीयउ, वइठउ मन उल्हास ॥६॥ रूप अधिक देखी करी, राजा पूछ्यो एम । किम आव्या तुम्हें कवन छउ, कहो वात धरि प्रेम ।। १० ।। भरत तणउ हूं दूत छु, आयो काम विशेषि । पांच सकति तु मुकि हुँ, सहिसि तमासो देखि ।। ११ ।। जितपदमा राजा सुता, देखी लखमण रूप । सूरपणो काने सुणी, अपनो राग अनूप ॥१२॥ लखमणनई छानो कहई, राजकुंयरि कर जोड़ि। महापुरुप तुं मत मरइ, जीवि वरसनी कोडि ।। १३ ॥ कहइ लखमण तुं वीहि मा, ऊभी देखि तमास । कहइ राजा नई कां अजी, ढोल करउ नहि हास ॥ १४ ॥ इम कहइ राजा उठीयो, रह्यो ठाण वय साप । मुंकी पाच अनुक्रमइ, सकति पराक्रम दाखि ।। १५ ।। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सकति जिमण करई, वीजी डायई हाथि । त्रीजी चउथी काख मई, पाचमी दातां साथि ॥ १६॥ लखमण सकति सह ग्रही, लागो न को प्रहार । कुसम वृष्टि देवे केरी, प्रगट्य ट जय-जय कार ।। १७ ।। लखमण कहइ एक माहरट, सहि तुं सकति प्रहार । राजा लागो कांपिवा, हूउ ते हाहाकार || १८ ।। जितपद्मा कहइ छोडिदे, खमि अपराध कृपाल। हिव हुँ तो थई ताहरी, भगत थयो भूपाल ।। १६ ।। कहइ राजा हिव परणि तुं, मुझ पुत्री गुण गेह । कहइ लखमण छइ माहरई, भाई जाणइ तेह ।। २० ।। सत्रुदमन तिहां जाइनई, प्रणमी रामना पाय। तेडी आव्यउ नगर मइ, रामचन्दनइ राय ॥ २१ ॥ जितपद्मा परणी तिहां, लखमण लील विलास । केइक दिवस तिहा रही, वलि चाल्या वनवास ।। २२ ।। सर्वगाथा॥ १३५ ॥ ढाल ॥राग गउड़ी॥ जंबुद्वीप मझार म० ए सुवाहु संधिनी ढाल नगर वंसस्थल नाम, पहुता पाधरा, राम सीता लखमण सहूए, तिण अवसरि तिहाँलोक, दीठा नासता वालवृद्ध तरुणा बहूए ।॥ १॥ रामइ पूछया लोक, केहनइ भयकरी, नासइ भाजइ वीहताए, राजा राणी मंत्रि, धसमसता थका, आतमनई हित ईहताए ॥२॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) किण को परवत पासि, रुड महा निसि, सुणियइ शवद वीहामणउए मतको करइं विणास, आवि अम्हारडउ, मरणतणउ भय अति घणउए। कहइ सीता सुणि नाह, आपे पिणि हिवई, इहाँ सुनासां तउ भलउए । राम कहइ मतबीहि, नासइ नहिं कदे, उत्तम नर मांडइकिलउए ||४|| सीतानउ अहि हाथ,राम उच्यो चड्यउ, लखमण नई आगइ कीयो ए। गिरिऊपरिगया तेथि, दीठा साधवी, देखत हिंयड हरखीयलए ॥५॥ कठिन क्रिया तप जप, करइ आतापना, चरम ध्यान तत्पर थकाए । तिण्हि प्रदक्षिण देइ, रामसीता सहू, वांदइ साधनइ उछकाए ॥६॥ उरग भुयगम भीम, गोणस अजगर, साधु बीठ्यउ सोपकरी ए। धनुष अग्र सुं राम, छेडि दूरइं कीया, देह उघाड़ी साधरीए ।॥ ७ ॥ फासू पाणी सेति, चरण पखालिया, सीता कीधी चंदनाए। रामइ वाई वीण मधुर सुरई करी, मुनिगण गाया इकमनाए ॥ ८॥ सीता करि शृंगार, सारंगलोयणा, साधु भगति नाटक करइए। पूरव वयर विशेखि, कोई सुर निसिभर, उपसर्ग करइंतिण अवसरइए है। अगनि सीरीषा केस, आखि विली जिसी, निपट नासिका चीपडीए। काती सरिखी दाढ, अति बीहामिणी, भाल उपरिभृकुटी चडीए ॥१०॥ काती नइ करवाल, करि झाली करी, नाचई कूदई आंफलइए। काया मनुष्यनी काटि मांस, खायमुखि, हसइ घणुंनइ हूकलइए ।११। मुकई अंगिनी झाल, खांउ खाउ खांउ करइ, भूतप्रेत अंवर तलईए। क्रूरमहा विकराल, भीम भयकर काल, कृतांत रीसई बलइए ॥ १२ ॥ सीता देखी भूत, वीहती रामनइ, आलिंगन देई रहीए। रामकहइ मत वीहि, कर साहस प्रिया,रहिमुनिवर ना पाय ग्रहीए ।।१३।। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) जा लगि भूत पिसाच, अम्हे त्रासवां, इम कहि रामनइ लखमणाए । लाठी लीधी हाथि, अनइ आफाली ऊंची, तेभूत नाठा ततखिणाए ॥१४॥ उपसर्ग-कारी देव, जाण्यो ए नर, राम अनइ लखमण सहीए। जोर न चालइ मुज्झ तुरत नासी करी,अपणइं ठामि गयो वहीए ॥१५॥ ते मुनिवर तिणराति, सुकल ध्यान नई चड्या, घातिक करम नउखय कीयोए। पाम्यो केवलन्यान, भाण समोपम, लोकालोक प्रकासीयोए ॥ १६ ॥ कनक कमल वइसारि, वाई ढुंदुभी, केवल महिमा सुरकरइए । राम कहइ कर जोडि, कहउ तुम्हें भगवन, ए कुण सुर द्वष कां धरइए । छट्ठो ढाल रसाल, चउथा खडनी, साधुनइ केवल ऊपनोए। समयसुन्दर कहइ एम, द्वेपनो कारण, भिलो सहु को इकमनोए ।।१८।। [ सर्वगाथा ५२] ढाल ७ (७) कपूरहुवइ अति ऊजलोरे वलि रे अनूपम गध एगीतनी ढाल ॥ राम सीता लखमण सुणउरे, पांछला भवनो वयर । विजय परवत राजा हूं तोरे, उपभोगा तसु वयर ॥ १॥ पूरव वयर केवलि एम कह ति, एतउ उपसर्ग साधु सहति । पू० । कीधा करम न छूटीयइरे, सुख-दुख सहुको सहति ।। २ पू० ला० ॥ अमृतसर राजा तणउरे, दूत हुतउ सुविचित्र । राणीसुलुबघउ रहइरे, वसुभूति नामइ मित्र ।। ३ पू०॥ भूप हुकम्मि वसुभूति सु रे, दूत चाल्यो परदेश । विप्रइ दूतनइ मारियोरे, पापी पाडुई लेस ।। ४ । पू० ।। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) पाछइ आवो इम कहइरे, राजा आगलि वात । दूत पाछउ मुनइ वालियोरे, कहइ वीजउ न सुहात ॥ ५। पू० ।। राणी अति हरषित थईरे, वांभण सु बहु प्रेम। काम भोग सुख भोगवइरे, विप्र कहइ वलि एम ।। ६ । पू०॥ उदित १ मुदित २ सुत ताहरारे, एकरिस्य अंतराय । मारि परा तेहनइ रे, जिम सुख भोगन्या जाय ॥ ७ ।पू०॥ वाभणी भेद जणावीयोरे, उदितकुमर नइ तेह।। तुझ माता मुम नाह सुं रे, कुकरम करई निसंदेह ॥ ८ । पू० ॥ खडग सु माथो बाढियो रे, उदितइ मास्यो विप्र । वित्र मरीनई अपनो रे, म्लेच्छपल्ली नइ खिप्र॥ । पू० ॥ उदित मुदित बिहुँ बाधवे रे, आव्यो मनि संवेग। धिग २ ए संसारनइ रे, अनरथ पाप उदेग ।। १० । पू० ।। विहुँ बाँधब दीक्षा ग्रही रे, मतिवर्द्धन मुनि पास। उग्र तपइ तप आकरा रे, मोडइ भवनो पास ॥ ११ । पू०॥ समेतसिखर जात्रा भणी रे, चाल्या मुनिवर वेइ । म्लेच्छ पालि माहे गया रे, म्लेच्छे द्वेष करेइ ।। १२ । पू० ।। साधुनइ मारण उठीयो रे, क्रोधी काढि खडग्ग । सागारी अणसण करी रे, मुनि रह्या मेरु अडिग्ग ॥ १३ । पू० ॥ सत्रु मित्र सरिपा गिण रे, भावना भावइ अनित्य । देही पंजरइ दुखनउ रे, मुगति तणा सुख सत्य ॥ १४ । पू०॥ . पल्लीपति नइ अपनी रे, करुणा परम सनेह । मारतउ राख्यो म्लेछ नइ रे, उत्तम करणी एह ॥ १५। पु।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) काईक धरम विराधियो रे, कीधो अनुक्रमि काल । गुरुडाधिप देवता थयां रे, खेमंकर भूपाल ।। ३८ । पू०। ते अणुद्धर पणि एकदा रे, कौमुदी नगर मझार । तापस सेती आवीयो रे, अगन्यान कष्ट अपार ।। ३६ । पू० । वसुधारा राजा तिहीं रे, पिण तापसनो भक्त । मदनवेगा तसु भारिजा रे, ते जिन धरम सुं रक्त ।। ४० पू०। इक दिन राणी आगलई रे, वसुधारा राजान । तापस परसंसा करई रे, को नहि एह समान ।। ४१ । प० ।। राणी तउ सुध श्राविका रे, सह न सकई कहइ राय । ए अगन्यांन मिथ्यामती रे, मुम नइ नावइ दाय ।। ४२ । पू० । साचा साध तो जैनना रे, जीवदया प्रतिपाल। निरमल सील पालइ सदा रे, विषय थकी मन वाल ।। ४३ । पू० सत्रु मित्र सरिषा गिणइ रे, नहि किणसुं राग रोस । आप तरई नई तारवइ रे, निरुपम गुण निरदोस ।। ४४ । पू० । राणी वचन सुणी करी रे, रीसाणउ नर राय । तुं जिनधरम नी रागीणी रे, तिण तापस न सुहाय ॥४५॥ पू० । राणी कहइ राजन सुणउ रे, तापसनी एक वार । दृढता देखउ धरमनी रे, सगली लहिस्यउ सार ॥ ४६ । पू० । इम कहि राणी आपणी रे, बेटी रूप निधान । मुकी,तापसनी मढी रे, निसि भर नव जोवान ॥ ४७ । पू० ॥ ते कन्या गई एकली रे, प्रणम्या तापस पाय । करजोडी करइ वीनतो रे, साभलो करि सुपसाय ।। ४८। पू०॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) मुझ नइ काढी बाहिरी रे, माता विण अपराध । सरण आवी तुम्ह तणईरे, घउ दीक्षा मुझ साध ॥ ४६ | पू०॥ नव जोवन दीठी' भलो रे, कुंक् वरणी देह। चन्द्रवदनि मृगलोयणी रे, अपछर जाणो एह ॥ ५० पू० ।। ते कन्या देखी करी रे, तापस पणि तिण वार । चूकठ अणुधर चित्तमई रे, जाग्यउ मदन विकार ।। ५१ । पू० ॥ कहइ अणद्धर सुणि सुन्दरी रे, मुझनइ सरणो तुज्म । कामअगनि करि वलि रही रे, टाढी करि तनु मुज्म ।। ५२ | पू० ।। आवि आलिंगन दे मॅनइ रे, मानि वचन क्हइ एम । आलिंगन देवा भणी रे, वांह पसारी प्रेम ।। ५३ । पू० ॥ तितरइंतिण कन्या कह्यो रे, अहो अकज्ज अकज्ज । मुझ नइ को अजी नाभड्यो रे, हुं तो कन्या सलज्ज || ५४ । पू०॥ जइ संग वांछइ माहरो रे, तउ तापसध्रम छोड़ि। मुनइ मा पासि मांगीलई रे, मागता का नहि खोडि ॥५५॥ पू० ।। अमुकइ घरि छइ माहरी रे, माता चालि तुं तेथि। कन्या पूठई चालियो रे, ते गई गणिका जेथि ।। ५६ । पू० ॥ गणिकानई पाये पडी रे, वोनति करई वार-वार । ए पुत्री द्य मुझ भणी रे, मानिसि तुझ उपगार ।। ५७ । पू० ॥ छांनउ रह्यो राजा सुणइ रे, तापस वचन सराग। पाछी वाहे बांधियो रे, फिट निरलज निरभाग ।। ५८। पु०॥ देसथी बाहिर काढियो रे, थयो तापसथी विरत्त । मयणवेगानई इम कहिइ रे, तू कहिती ते तत्त ॥५६ । पू०॥ १ जोरइ चढी २ मा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) साध तिहाथी चालिया रे, पहुता गिरि समेत । विधि सेती जात्रा करी रे, अणसण लीधउ तेथि ।।१६। पू० ।। पहिलइ देवलोकि देवता रे, उपना वेउ उदार । म्लेछ संसार भभी करी रे, आव्यो नर अवतार ।। १७ । पू० ।। तापसी दीक्षा आदरी रे, कीधो अगन्यान कष्ट। ज्योतिपीयां माहि ऊपनोरे, पणि परिणामे दुष्ट ।। १८ । पू०॥ नगर अरिष्टपुर तिसइ रे, प्रियवन्धू राजान । तेह तणइ वे भारिजा रे, जीवन प्राण समान ।। १६ पू०।। पदमाभा नइ कनकामा रे, अपछर जाणि प्रतिखि । ते सुर देवलोक थी चवीरे, ऊपना पदमामा कूखि ॥ २० । पू० ॥ एक रतनरथ रूयड़उरे, नामई विचित्र रथ अन्न । जोतिषी सुरपणि तिण समइरे, कनककाभा कूखि उपन्न ।। २१ । पू० ।। नाम अणुधर एहवोरे, मा वोपे तसु दीध । राजदेई वडा पुत्रनइ रे, राजा संयम लीध ॥ २२ । पू० ।। प्रियबन्धू मुनि पामीया रे, सरग तणा सुख सुट्ठ। अणुद्धर अति मच्छर धरई रे, विहुं भाई उपरि दुट्ठ॥ २३ । पू०॥ लागउ देसनइ लूटिवारे, बाहिर काढ्यो भूप। तापस व्रत लीधउ तिणई रे, पणि प्रद्वेष सरूप ।। २४ । पू० ॥ राजा रतनरथ अवसरई रे, विचित्ररथ संयोगि । राज छोड़ी संयम लीयो रे, गया पहिलइ देवलोगि ॥ २५ । पू० ॥ सुख भोगवि देवातणा रे वेडं चव्या समकालि। सिद्धारथपुरनो धणी रे, खेमंकर भूपाल ।। २६ । पू०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमला पटराणी तणा रे, उपना पुत्ररतन्न । देसभूपण कुलभूपणा रे, नाम गुणोनिष्पन्न ।। २७ । पू० ।। राजा भणिवा घालिया रे, नेसालई वे पुत्र । काल घणे ते तिहा रह्या रे, भणि गुणि थया सुविचित्र ॥ २८ ॥ पू। पूठई मां बेटो जिणी रे, कमलूसवा तसु नाम । रूप लावण्य गुणे भरी रे, सकल कला अभिराम ॥ २६ | पू॥ सकल कला सीखी करी रे, निज घरि आया कुमार। दीठो कन्या रूबड़ी रे, जाग्यो मदन विकार ।। ३० । पू। वहिनिपणुं जाणइ नही रे, मन माहि चिंतवई एम । तात कन्या आणी उहा रे, अम्ह निमित्त सप्रेम ।। ३१ । पू। पुत्री किणही भूपनी रे, मृगलोयणि सुकुमाल । सुख भोगविस्यां एहसुं रे, हिव अम्हे चिरकाल ।। ३२ । पू०। तिण अवसरि जस वोलियो रे, किणही भूपनो एम। धन-धन खमंकर प्रभू रे, धन-धन विमला तेम ।। ३३ । पू०। उत्तम कन्या जेहनइ रे, कमलूसवा कहवाय । वे भाई ते सांभली रे, कहइ अनरथ हाय-हाय ।। ३४ । पू० । अहो अम्हे अगन्यांन अधिले रे, वहिनसुं वाछ्यो भोग । घिग धिग काम-विटंबना रे, काम विटंव्या लोग ।। ३५ । पू० । इम मनमाहे चितवई रे, जाण्यो अथिर संसार। सुव्रतसरि पासई जई रे, लीधर संयम भार ।। ३६ । पू० । खेमंकर दुखियो थयो रे, दोहिलो पुत्र वियोग। रात दिवसि रहइ झुरतो रे, परिहत्या भोग संयोग ।। ३७ । पू० । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४ ) ए विरतात देखी करी रे, प्रतिवृध्यो नरराय। श्रावकनो भ्रम यादर्यो रे, मिथ्यात दूरि गमाय ।। ६० । पू० ।। तापस पिणि निंदीजतो रे, कुमरण मुंवो तेह । भूरि संसार माहे भमी रे, दीठा दुक्ख अछेह ।। ६१ । पू० ।। वलि मानव भव पामीयो रे, लीधो तापस धर्म । काल करी थयो देवता रे, अनलप्रम सुम कर्म ।। ६२ । पू० ॥ अवधिज्ञान प्रजुजुता रे, अम्हनई दीठा एति । पूरवलउ वयर साभरयो रे, उपसर्ग कीया इण हेति ॥ ६३ । पू० ॥ उपसर्ग करितउ वारियो रे, राम तुम्हे ते देव । विण भोगव्यां किम छूटई रे, करम सवल नितमेव ।। ६४ । पू० ।। केवलि सासो भजियो रे, सांभल्यो सहु विरतात । राम सीता लखमण कहइ रे, धन-धन साध महंत ।। ६५ । पू०॥ केवलीनी पूजा करई रे, राम भगति मनि आणि । सीता कहई धन-धन तुम्हे रे, जनम तुम्हारो प्रमाण ।। ६६ । पू० ।। महानुभाव मोटा तुम्हे रे, देवता नई पूजनीक । राग द्वेष जीता तुम्हे रे, उपसर्ग सह्या निरभीक ।। ६७ । पू० ॥ केवल लखमी पांमिया रे, जे जगमइ दुरलंभ। सीता साध प्रसंसती रे, शिव सुख कीधा सुलंभ ॥६८ ॥पू०।। [इण अवसरि इहां आविउ रे, गरुडाधिप शुभ मन्न । केवलि नइ प्रणमी करी रे, राम कहइ सुवचन्न ॥] साध भगति कीधी भली रे, तिणइ तूठो तुम्ह । जे मांगे ते द्यु, अम्हे रे, अचिंत सकति छइ अम्ह ।। ६६ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) राम कहई किण आपदारे, सानिधि करिज्यो सांमि । केवली महिमा साभली रे, नगरी-नगरी ठाम-ठाम ॥ ७० । पू०। नगर-नगर ना राजवी रे, तिहाँ आया सहु कोय । राम कीधी पूजा साधनी रे, ते देखी रह्या जोय ।। ७१ । पू० । वंसत्थल पुरनो धणी रे, आयो सुरप्रभ भूप । राम सीता लखमण तणी रे, कीधी भगति अनूप ॥ ७२ । पू० राम आदेश तिणि गिरइ रे, सहु राजवीये तार। जिनप्रासाद करावियो रे, प्रतिमा रतन उदार । ७३ । पू०। कीधी रामइ तिणि गिरइ रे, क्रीडा अनेक प्रकार। ते भणी रामगिरि तेहनत रे, प्रगट्यो नाम उदार ।। ७४ । पू० । सातमी ढाल पूरी थई रे, साभलिज्यो इक मन्न । चउथउ खंड पूरो थयो रे, समयसुंदर सुवचन्न ।। ७५ । पू० । [ सर्वगाथा २२८] इतिश्री सीताराम प्रवन्धे केवलि महिमा वर्णनो नाम चतुर्थ खंडः।। खंड ५ दहा ५ हिव वोल्युं खंड पाचमो, पाच मिल्या जसवाद । पांचामाई कहीजियई, परमेसर परसाद ॥१॥ सीताराम सहू बली, आगई चाल्या धीर । दण्डकारण्य वनइ रह्या, कन्नरवान तीर ॥२॥ नदी स्नान मज्जन करई, वन फल मीठा खाई। वस कुटीर करी रहइ, सुखइ दिवस तिहाँ जाइं ॥३॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) अडकधान आंबा फणस, दाडिम फल जंभीर। लखमण आणइ अति भला, वन सुरभीना खीर ॥४॥ खाता पीतां विलसतां, केक दिन गया जेथि। तेहवई साधु वि आविया, पुण्य योग करी तेथि ॥५॥ ढाल १ ॥राग केदारो गोडी ॥ चाल-यावो जुहारो रे अमारउ पास, मननी पूरइ आस । साध वे आयोरे अंबरचारि, पहुचाइ भव पार । तप कर दीपई तेहनी देह, निरुपम गुण मणि गेह ।। १ । सा०। वंदना कीधीरे लखमण राम, वे कर जोडी ताम । आनंद पांम्योरे दरसण देखि, चंद चकोर विशेषि ।। २। सा०। सीता वांद्या रे मुनिवर वेइ, त्रिहि प्रदक्षिणा दे।। सीता वोली रे द्यो मुझ लाभ, वइसउ तउ सूझतो डाम ॥३। सा०। सीता थइ रे रोमंच सरीर, सखर विहरावी खीर। नारंग केला रे फणस खजूर, फासू दिया रे भरपूर ॥ ४ । सा० सानिधि कीधी रे समकित दृष्टि, थइ वसुधारा वृष्टि । दुंदुभी वागी रे दिव्य अकास, अहो दान सवल उलास ।। ५। सा०। सीता कीधो रे सफल जनम्म, त्रोड्या अशुभ करम्म । दुरगंधउ हुतोरे पंखी एक, थयो रिषी देखि विवेक ॥ ६ । सा०। आवी वांद्या रे साधना पाय, तुरत सुगंध ते थाय । साध प्रभावइ रे रतन समान, देह तणो थयो वान ॥७१ सा०।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचंद देखी रे पंखी सरूप, अचिरजि पाम्यो भूप । रामइ पूछ्यो रे साध त्रिगुप्ति, नामई करउ भवलुप्ति ॥ ८॥ सा० । भगवन भाखो रे ए विरतात, कौतुक चित्तन मात । कहत किम पंखी रे तुम्हारो पाय, पडियो दूर थी आय ।। ६ । सा० दुरगंध देही रे थई क्यों सुगंध, साध कहउ संबंध । साध जी भाखइ रे मधुरी वाणि, राम पूरव भव जाणि ॥१० सा०। राजा हुंतउ रे दंडकी नाम, कडलपुरनउँ सामि । मक्खरि नामारे तसु पटराणि, श्रावक धरमनि जाणि ॥११ । सा०। पिणि मिथ्याती रे राजा तेह, साधसु तसु नही सनेह । एक दिन दीठो रे साध महात, काउसिग रह्यो एकात ।। १२ । सान राजा घाल्यो रे साधु नई कंठि, साप मुयो गलि गंठि' । साधनु देखी रे अगन्यान अंध, राजा करई क्रम बंध ।। १३ । सा०। साधइ कीघउ रे अभिग्रह आप, जा लगि छइ गलई साप । हुँनहिं पालं रे काउसग ताम, रहिस्युं सुद्ध प्रणाम ।। १४ । सा०। राजउ दीठो रे वीजई दीह, तिमहीज साध अवीह । राज्या रंज्यो रे उपसम देखि, वली वयराग विशेपि ।। १५ । सा०। दंडकी राजा रे चितवइ एम, ए मुनि कुंदन हेम । तपसी मोटउ रे ए अणगार, गुणमणि रयण भंडार ।। १६ । सा०। हा मइ कीधो रे मोटा पाप, साधनइ कीधो सताप । हुं महापापी रे आसातनाकार, छुटिसि केण प्रकार ।। १७ । सा०। मै तो जाण्यो रे आज ही मर्म, साचो श्री जिन धर्म । साप उतास्यो रे कंठथी तेह, साधु वाद्या सुसनेह ।। १८ । सा०। १-लेइ उलठि। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) अपराध खाम्यो रे चरणेलागि, जिन ध्रम आदस्यो भागि। राजा आयो रे आपणइ गेह, साध भगत करतेह ।। १६ । सा० । तिण नगरी मइ तापस रुद्र, रहइं पणि मनमा क्षुद्र । नृपनइ दीठो रे साधनइ भक्त, मच्छर आण्यो विरक्त ।। २० । सा० साधनइ मारे केण प्रपंच, इम चिंतवि कियो संच । तापस कीधो साधनो वेप, साध उपरि धस्यो द्वष ॥ २१ । सा० । जइ नइ पईठारे अंतेउर मांहि, राणी विडंवी साहि । राजा दीठो रे आपणी मीटि, बाहिर काढ्यो पीटि ।। २२ । सा०। मूलथी मास्यो रे तापस साध, अपणो कीधो लाध । राज्या कोप्यो रे तेणई मेलि, साधनई एकठा भेलि ॥२३ ।। सा० घाणी पील्या रे सगला साध, एकतणई अपराध । अगन्यान आंधउरे अन्याई राय, न करी विचारणा काय ||२४|| सा० साध एक कोई गयो थो अनेथि, ते पिणि आयो तेथि । लोके वार्यो रे तेथि म जाय, आगई अनरथ थाय ॥२२॥ सा० साध वहीनइ रे गयो तिण ठाम, अनरथ दीठो ताम । पापी राजा रे रिषि निरदोषि, पोल्या चड्यो तिण रोषि ॥२६।। सा० साध विचात्यो रे सूत्र कहेइ, समरथ सज्जा देइ । चक्रवति सेना रे चूरइ साध, लवधि पुलाक अराध ॥२७॥ सा० साधई मात्यो रे राति अबीह, चिहुं पहुरे चारि सीह । साधमास्यो रे मछीगर एग, टाल्यो मच्छ उदेग ||२८|| सा० सुमंगल दहिस्यइ रे मुनि प्रत्यनीक, राजानइ निरभीक । नमुचिनई माख्यो रे विष्णुकुमार, दूपण नहीय लिगार ।।२६|| सा० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) तेजोलेश्या रे मुंकी तेण, नगर वाल्यो सहिजेण । राजाराणी रे बल्यो सहु कोइ, सर्वत्र समसान होइ ॥३०॥ सा० देश बल्यो रे सहु ते ठाम, दंडकारण्य थयो नाम । दंडकी राजा रे भमी संसार, दंडकारण्य ममार ॥३१।। सा० पंखी हूयो रे गृद्ध कुबंध, करम करो दुरगंध । अम्हनइ देखी रे थयो सुभ ध्यान, जातीसमरण न्यान ॥३२॥ सा० ए प्रतिवूधो रे वंदना कीध, त्रिणहि प्रदक्षिणा दीध । धरम प्रभावइ रे सुंदर देह, थई पखी वात एह ॥३३।। सा० . रामनइ सुणी रे साध वचन्न, रोमंचित थयो तन्न । कहइ तुम्हें वारुरे कह्यो विरतांत, अम्हनई साध महांत ॥३४॥ सा० मुनि प्रतिबोध्यो रे पंखी गृद्ध, आदत्यो जिनध्रम सुद्ध । पाडूया जाण्या कर्म विपाक, जेहवा फल किंपाक ॥३शा सा० सूधउ पालइ रे समकित धर्म, न करइं हिंसा कर्म । मूठ न बोलइ रे पालइ सील, परिग्रह नही विण डील ॥३६॥ सा० राति न खायइ वरज्जइ मंस, न करइ पाप नो अंस। ए ध्रम पालइ रे आतम साध, मुगति तणइ अभिलाष ॥३७॥ सा० साध भलायो रे पंखी तेह, सीतानइ सुसनेह । सार सुधि करिजे रे एहनी नित्य, सीता कहइ पूज्य सत्य ॥३८॥ सा० साध सिधाया रे आपणी ठाम जप तप करई हितकाम । सीता कीधी रे तसु सुजगीस, परिचरिजा निसिदीस ॥३९। सा० पंखी थयो रे सीता सखाय, मनगमतो सुखदाय । तस तनु सोहई रे जटा अभिराम, पंखी जटायुध नाम ॥४०॥ सा० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६० ) साधनई दीधो रे भलई प्रस्ताव, दानतणई परभाव । रामन थई रे रिधि अदभूत, माणिक रतन' परभूत, ॥४१॥ सा० देवता दीधो रे रथ श्रीकार, चपल तुरंगम च्यार | रथ वइसीनइ रे सीताराम, मन वंछित भमइ ठाम ॥४२।। साक ममता देखइ रे कोतुक वृंद, पामई परमाणंद । खंड पांचमानी रे पहिली ढाल, समयसुंदर कहइरसाल ॥४३॥ सा० [सर्वगाथा ४८] दूहा ६ सीता लखमण राम बलि, दंडकारण्य ममारि। पहुँता तिहा कोइक नदी, तिहीं वन खंड उदारि । १॥ रामचंद सीता सहित, उत्तम मंडप माहि । बइठा लखमण नई कहइ, आणी मन उच्छाहि ॥२॥ गिरि बहु रयणे भन्यो, नदी ते निरमल नीर । वनखंड फल फूले भस्या, इहाँ बहु सुख सरीर ।।३।। माता बाधव मित्र सहु, ले आउ इणि ठाम । आपे सहु रहिस्यां इहाँ, नवो वसावी गाम ॥४॥ तउ वलतो लखमण कहइ, ए मुझ गम्यो विचार । मुझनइ पिण इहीं उपजइ, रहतां हरष अपार ॥२॥ इम ते आलोची करी, दसरथ राजा पुत्र । जाउ तिहीं रहइ तेहवइ, जे थयो तेसुणो तत्र ॥६॥ [ सर्वगाथा ५४] १-मणि माणिक Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) ढाल २ ढाल :-सुणउरे भविक उपधान वृहा विण, किम सूझइ नवकार जी । अथवा-जिनवर सु मेरो मन लीनो, ए देसी । तिण अवसरि लंकागढ़ केरो, रावण राज करेइजी । समुद्रतणी पाखतियां खाई, दससिर नाम धरेइजी ।।१।। ति० तेहतणी उतपति तुम्हें सुणिज्यो मूलथकी चिरकालजी । वैताढ्य परवत उपरि पुर इक, रथनेउर चक्रवालजी ॥२॥ ति० । मेघवाहन विद्याधर राजा, इन्द्र सुं वयर छइ जासजी । अजितनाथनई सरणइं पश्ठो, इन्द्र तणो पड्यो त्रास जी ॥३॥ तिक चरणकमल वादीनइ बइठो, भगति करई करजोडि जी। मेघवाहन राजा इम वीनवई, भव संकट थी छोड़ि जी ॥४॥ ति० तीर्थ करनी भगति देखीनई, रंज्यो राक्षस इंदजी। मेघवाहन राजानइ कहइ इम, सुणि मेटुं तुम दंद जी ॥२॥ ति० लवण समुद्र मझार त्रिकूटगिरि, उपरि राक्षसदीप जी। सर्गपुरी सरिपी छइ नगरी, तिहां लका जिहां जीप जी ॥६॥ ति० तिहां जा तुं करि राज नरेसर, मुझ आगन्यां छई तुझजी। तिहां रहतां थकां कोउ नहि थायई, अवर उपद्रव तुम जी ॥णा ति० वलि पृथ्वीना विवर माहे छइ, आठ जोयण उचानिजी। पातालपुर पई दंडगिरि हेठइ, दुप्रवेस शुभ शांतिजी ।। ८ । ति०॥ ते पणि नगरी मंइ तुम दीधी, जा तुं करि आणंदजी । मेघवाहण लंका जइ बइठो, राज करई निरदंदजी ॥६। ति०॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ । राक्षसदीप राखइ विद्याधर, तिणि राक्षस कहवाइ जी। पिणि राक्षस अन्लेरा केई, सुरनहीं छइ इण ठाइजी ।। १० । ति०॥ मेघवाहन विद्याधर वसई, बहु राजा हुया केइजी। तसु क्रमि रतनाव अंगज, रावण राज करेइ जी ।। ११ । ति०॥ प्रवल प्रचण्ड त्रिखंड तणो धणी, त्रैलोक्य कंटक तेहजी। तेज प्रताप तपई रवि सरिखउ, अरिवल गंजण एहजी ।। १२ । ति०॥ वालपण वापइ पहिरायो, देव संबधी हारजी। तसु रतने बालक नवमुहढ़ा, प्रतिबिम्बा अति सार जी ॥१३ । ति०॥ दसमुहडा देखी बालकना, रतनाव थयो प्रेमजी । दीधउ नाम दसूठण दिवसइ, ए दसवदन ते एमजी ॥१४ । तिना इकदिन अष्टापद गिरि ऊपरि, बहता थम्यो विमानजी । भरत कराया चैत्य मनोहर, उल्लंघ्या अपमानजी ॥१५ । तिoll चित चमफ्यो तिहां देखि दसानन, तप करतो रिषि वालि जी। इण रिपि सहीय विमान थम्यो मुझ, कीधउ कोप चण्डालजी ।१६तिका अष्टापद ऊपाड्यो उंचड, भुजादंड करि जेणजी। चैत्य रक्षा भणी वलि करि चाप्यो, बालि रिपीसरतेणजी ।।१७। तिoll मुक्यो मोटो राव सवद तिणि, रावण बोजो नाम जी। ते रावण राजा लंकागढ, राज करई अभिरामजी ।। १८ । ति०॥ चन्द्रनखा नामइ तसु भगिनी, चन्द्रमुखी रूपवन्त जी। खरदूपण नइ ते परणावी, जीवसमी गिणइ कन्तजी ।।१६ । तिoll पाताल लंकानो राज दीधो, रावण निजमनि रंगजी। चन्द्रनखा अगजात वे वेटा, संघ संयुक्त सुचंगजी ।।२०। ति०॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयुक्त विद्या साधण चाल्यो, वारीतो सूरवोर जी। दंडकारण्य गयो एकेलो, कुंचरवा नदी तीर जी ॥२१ । ति०|| गुपिलमहावंसजालि माहे जई, विद्या साधइ एह जी । पग उचा मुखनोचौराखो, धूम्रपान करे तेहजी ॥ २२ । ति०॥ बारह वरस गया साधन्ता, वलि उपरि च्यार मासजी। तीन दिवस थाकइ पूरइ थयइ, लहियइ लील विलासजी ।।२३।तिला पंचमा खण्ड तणी ढाल वीजी, रावण उतपति जाणजी। समयसुन्दर कहइ हुँछ, छदमस्थ, केवलि वचन प्रमाणजी ॥२४। ति० सर्वगाथा | दूहा १२ तिणअवसरि लखमण तिहा, भवितव्यता विशेपि । वनमाहि भमतो अवीयो, लिख्या मिटइं नही लेख ॥ १॥ दिव्य खडग दीठो तिहां, वंस उपरिली जालि । केसर चन्दन पूजियउ, तेजइ माकझमाल ॥२॥ लखमण ते हाथे लियो, वाह्यो तिण बस जालि। ते छेदंतइ छेदियो, मस्तक बंस विचाल ॥३॥ कनक कुण्डल काने विहुँ, मस्तक कमल सुगन्ध । दीठो पृथिवीतलि पड्यो, उंचो तासु कबन्ध ॥ ४॥ लखमण पणि विलखो थयो, धिग मुझ पुरुपाकार । धिग वीरज धिग वाहवल, धिग धिग मुझ आचार ॥ ५॥ ए कोइ विद्या साधत, विद्याधर जप जाप। निरपराध मई मारियो, मोटो लागो पाप ॥६॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४ ) इणपरि आपो निंदतो, करतो पश्चात्ताप । राम समीपइ आवियो, खडग लेइ नई आप ।। ७ ।। रामभणी लखमण कह्यो, ते सगलो विरतांत । राम कहइ कीजइ नहीं, ए अनरथ एकांत ।। ८॥ तीथंकर प्रतिषेधियो, अनरथदंड एकति । आज पछई तुं मत करई, एहवउ पाप अभ्रांत ।।६।। चंद्रनखा आवी तिहां, प्रति जागरण निमित्त । मुयो देखि निज पुत्र नइ, धरती ढली तुरत्त॥१०॥ मूर्छागत थई मावडी, दोहिलो पुत्र वियोगि। वलि पाछी वलि चेतना, करिवा लागी सोग ।। ११ ।। करम विटंबइ मोहनी, करई अनेक विलाप । चंद्रनखा विलिखी थई, व्याप्यो सोग संताप ॥ १२ ॥ सर्वगाथा ॥१०॥ ढाल ३ तोरा नडउ रज्यो रे लाषीरण जाती 'ए गीतनी ढाल' तोरा कीजइ म्हांका लाल दारू पिअइजी, पड़वइ पधारठ म्हाकालाल । लसकर लेज्योंजी तोरी अजब सूरति म्हाको मनड़उ रज्योरे लोभी लज्यो जा॥ बोलडउ देयो संवुक्क पुत्र, साम्हो जोवो जी । विद्यापूरी साधउ पुत्र, कां तुम सोयो जी। तोरी मावडी झूरेरे पुत्र जी बोलड़ो द्यो जी। हा पुत्र हा अंगजात हा हा वालेसर जी ।। १॥ १---दुखिनी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) हा मन वच्छल हा जीवन प्राण राजेसर जी। तोरी मावडी रोइरे पुत्र जी रण मईजी ॥२॥ वो०॥ विद्यापूरी दिको पुत्र किहां तुं चाल्यउ जी। दंडकारण्य में जाइ पुत्र मइ तू नई पालउ जी। तोरी मावडी दुखी रे पुत्र जी आवि नई जी॥३। वो० । साज लइ हुँ आवी पुत्र पहिरउ वागो जी। मीठा भोजन जीमो पुत्र, सूता जागो जी ।। तोरी मावडी तेडइ रे पुत्र उठि नइ जी ।।४। वो० । तुं कुलदीवो तुं कुलचंद, तुं कुल मंडण जी। तुं आधार तु सुखकार, तु दुख खंडण जी। तोरी मावडी कहइ रे पुत्र, तो विण क्युं सरईजी ।५।। बो० ॥ तुं का रीसाणो वालिभ पुत्र, आवो मनावु जी। भामणो जावू बोलो पुत्र, हुँ दुख' पाव जी। तोरी मावडी मरइ रे पुत्र, बोल्या वाहिरी जी ।। ६ । वो०। हा पापी हा दिरदय देव, हा हत्यारा जी। हा गोमारा हा दुराचार, हा संहारा जी। म्हारउ रतन उदाल्यो का तंड, पापिया जी ॥ ७ । बो० । हा पापिण भइ पाप अघोर, केई कीधा जी। थापण मोसा कीधा केइ, पर दुख दीधा जी। रतन उदा लीधा केइ कोई केहना जी ।। ८ । वो० ॥ अथवा केहना पुत्र वियोग, कीधा पापिणी जी। अथवा केई राजकुमार, खाधी सापिणी जी। कादमिया विष विछथई माणस मारिया जी ॥ ॥ वो०॥ १ सुख Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा केई तापस साध, मई संताप्याजी। अथवा लूटी लीधा द्रव्य, गला केहना काप्याजी । आग लगाडी वाल्या गाम, त्रियंच वालियाजी ।। १०॥ वो०॥ को मइ मारी जूनइ लीख के व्रत भांगाजी । के ग्रभ गाल्या चोख्या द्रव्य, ए पाप लागाजी। पुत्रनई वियोग मोनइ दुख पाड्याजो ।। ११ । वो० ॥ चन्द्रनखा इम कीया विलाप मोहनी वाहीजी। पुत्र न वोलई मुँयो कूण, राखइ साही जी। पीटी कूटी रही रोई रडवडी जी ।। १२ ।। वो० ॥ किण मास्यो ए माहरो पुत्र ढुंढ़ी काढू जी। जउ देखु तो तेहनइ मालि, मारु वाढूजी। जोती भभइ रे दंडकारण्य मइरे ।। १३ । वो० ॥ पंचमा खण्डनी त्रीजी ढाल पूरी कीधी जी। इहां थी हिव अनरथनी कोडि, चाली सीधी जी। समयमुन्दर कहइ ते सुणउ जी ॥१४ । वो० ॥ सर्वगाथा ||१०४॥ दहा ६ चन्द्रनखा भमती थकी दीठा दसरथ पुत्र । रूप अनोपम देखि करि, विस्मय पड़ी तुरत्त ॥१॥ पुत्रसोग वीसरि गयो, जाग्यो मदन विकार । इण सेती सुख भोगवु, नही तर धिग अवतार ।। २ ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७ ) कन्यारूप करी नवो, पहुंची राम समीपि । हावभाव विभ्रम करइं, कामकथा उदीपि ॥३॥ ऐ ऐ काम विटंबना, काम न छूटइ कोइ । पुरुष थकी ए अठगुणो,' अस्त्रीनई ए होइ ।।४।। रामउं पूछ्यो कवण तु, सुंदरि साचो बोलि। किण कारण वनमई भमई, एकली निपट निटोल ।।५।। वणिक सुता हुं ते कहइ, वंसस्थल मुझ गाम । मावाप माहरा मरिगया, हुं आवी इण ठाम ॥ ६ ॥ कामी १ लिंगी २ वाणियो ३, कपटी ४ अनई कुनारि। सांच न बोल पांच ए, छट्ठउ वली तयार ६ ॥ ७ ॥ हिव मुझ सरणो तुम्ह तणो, हाथसुं झालउ हाथ । प्रारथिया पहिडइ नही, उत्तम करइं सनाथ ।। ८॥ मौनकरी वइसी रह्या, रांम उत्तम आचार। पडउत्तर दीधो नही, पणि कुण थयो प्रकार ।। ह॥ सर्वगाथा ।। १२३ ॥ ढाल ४ सहर भलो पणि साकडो रे, नगर भलो पणि दूर रे । हठीला वयरी नाह भलो पणि नान्हडोरे लाल | आयो २ जोबन पूररे हठीला वयरी | लाहो२ लइ हरपालका रे लाल। एहनी ढाल नायकानी ढाल सारिखी छह । पणि याकणी लहरकउ छइ ॥ चन्द्रनखा विलखी थइ रे, वोलावी नहीं राम रे चतुरनर । फोकट आपो हारियो लाल, पणि को न सत्यो कामरे चतुरनर।॥१॥ १ चउगुणउ २ हीरउ रे Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८ ) अस्त्रीचरित न को लहइ रे लाल । जोवो २ चित्त विचारिरे॥च०आoll खुद-खुद शवद तुरंगनोरे, गुहिर जलद गरजाररे। च०। कोन लहइ भवितव्यतारे लाल, वरसण रहण विचार रे । च० रामउपरि रीसई चडीरे, राची विरची नारिरे । च० ॥ आपसुं आप विलूरियोरेलाल, उर करि अधर विदारिरे ।। २ । च० । रोती रडवडती' थकीरे, पहुंती आपण गेहरे। च०। खरदूपण विद्याधरई रे लाल, प्रिया पूछी ससनेह रे।४। च०। तुझनई संतापी क्णिइ रे, कहिते नाखुं मारि रे । गदगद सरि रोती कहइ रे लाल, चंद्रनखा ते नारि रे ।।५।। किणही भमते भूचरे रे, खडग लियो चंद्रहास रे । च० । संवुक मास्यो माहरो रे लाल, हुं गई पुत्रनई पासि रे ।। ६ । च० । हुँ अवला अण वांछती रे, जोरई आणी हरि रे । च०। कीधी मुझ काया इसी रे लाल, नख दंतासु विलूरि रे ।। ७ । च० । हुँ छुटी किणही दुखे रे, जिम तिम राख्यो सील रे। च०। प्रियडा पुण्य तुम्हारडंइ रेलाल, हुं आवी अवहीलि रे॥८। च०॥ खरदूषण कोपइ चड्यो रे, दीधी दमांमे चोट रे। च०। चडतरा तूर वजाडिया रे लाल, धदुसमण सिर दोट रे। 8 । च० चउद सहस साथे चड्या रे, सुभट कटक सूरवीर रे । च० । दूतमुक्यो रावण भणीरे लाल, आविज्यो अह्मारी भीररे ।। १० । च०। , गयणागणि ऊडी गयो रे, खरदूषण जिहा राम रे । च० । देखी कटक सीता डरी रे लाल, बाजई तूर विराम रे ।। ११ । च०। १ रसवती Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) रामचंद्र इम चिंतवइ रे, लखमण मात्यो जेहरे । तेहना वाधव आवीया रे लाल, वेढि कारण नहि एहरे ॥ १२॥ चे० ए अनरथ तिण कामिनी रे, कीधौ प्रियु भंभेरि रे॥ च० धनुष लेउ निज हाथमई रे लाल, नहितर लेस्य घेर रे ।। १३ । चे० तेहवई लखमण ऊठियो रे, कहइ बांधव नइ एम रे च०॥ मुझ वांधव वइठां थकां रे लाल, जुद्ध करो तुम्हे केम रे॥१४ । च०। लखमण धनुष चडावियु रे, साम्हउ गयउ सूरवीर रे । च०॥ सीहनाद जु हूं करु रे, तु मुझ करियो भीर रे ।। १५ । च०॥ तुम्हें सीतानइ राखिज्यो रे, हूं झझिसि जाईवीर रे । च०। देखी लखमण आवतो रे लाल, चाच्या विद्याधर तीर रे। १६ । च०। सुभटे हथियार वाहिया रे, मोगर नइ तरवारिरे। च०। लखमण नइ लगा नहिरे लाल, जिम गिरि जलधर धाररे ॥ १७। च०। तीर सडासड मुंकिया रे, लखमण वजाकार रे । च०। सुभट कटक उपरि पडइरे लाल, करइ यम भड ज्यु संहाररे ।।१८। च०। मस्तक छेदई केहनो रे, केहनी दाढी मुंछ रे । च। वलि छेदई रथनी धजा रे, केहना हयनी पुंछ रे ।। १६ । च०। चपल तुरंगम त्रासवरे, नीचा पडई असवार रे। च०। रथ भाजी कुटका करई रे लाल, कायर करइंपोकार रे ।। २० । च०। ऊंची सुंडि उल्लालता रे, हाथी पाडई चीस रे । च०। पायक दल पाछा पडई रे, आधा नावई अधीस रे । २१ । च० लखमण परदल भांजियो रे, एकलइ अडिग अवीह रे । च०। हत प्रहत करि नांखीयो रे लाल, हस्ति घटा जिमि सीह रे । २२ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) चद्रनखा दउडी गइ रे, भाई दसानन पासि रे। च० । पुष्प विमान वइसी करी रे लाल, रावण आयो आकास रे ।।२३। च । रावण दोठी आवतई रे, सीता राम समीपि रे । च०। काया कंचण सारिखी रे लाल, रूप रही देदीप रे ।। २४ । च०। रति रतिपति पासइ रही रे, इंद्राणी इन्द्र पासि रे । च० चंद्रन पासइ रोहिणी रे लाल, जिम सोहइ सुप्रकास रे॥२५॥ च० चपल लोचन अणियालडा रे, मुख पूनिमकउ चन्द रे । च०। अधर प्रवाली ऊपमा रे लाल, वचन अमीरस विद रे । २६ । च० पोन पयोधर पदमिनी रे, गंगापुलिण नितंव रे। च०। उरु केली थभ सारिखा रे लाल, पग कूरम प्रतिविम्बरे ।। २७ । च०॥ एहवी सीता देखिनई रे. कामातुर थयो तेह रे । च०। रावणमनमांहे चिन्तवइ रे ला० धिग मुझ जीवत एह रे ।। २८ । च०॥ धिग मुझ विद्या जोरनई रे ला०, धिग मुझ राज पडूर रे। जस मृगनयणी एहवी रे ला०, नहिं नयण हजूर रे ॥ २६ । च० ।। अथवा प्रियुपासईथकारे, किम साम्हो जोवाय रे। ए बांछइ किम मुझनई रे ला०, तउ करूं कोउ उपाय रे॥३० [चा अवलोकनि विद्या बलई रे, जाण्यो सर्व संकेतरे। लखमण जे कीधो हुतउ रे लाल, रामसेती अभिप्रेतरे ॥ ३१ । च०॥ सिंहनाद सबलो कीयो रे लाल, रावण राक्षस तेमरे। राम सवद ते सांभल्योरे ला०, सीतानइ कहइ एमरे ॥ ३२ । च० ।। हुँ लखमण भणी जाउं छु रे, तुं रहिजे इण ठाम रे । ए तु जटायुध जालवे रे ला०, आज पड्यो तुझकाम रे ।। ३३ । च०॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) लखमण साम्हठ चालतां रे, कुसुकन वास्यो राम रे। तो पणि धनुप आफालतोरेला, गयो बांधव हित कामरे ॥३४ । च०॥ सीता दीठी एकली रे, हाथ सुं झड़फी लीधरे। मयंगलइ ज्युं कमलनी रेला, रावण कारिज कीधरे ॥ ३५ । च० ।। दीधा जटायुध पंखीयइ रे, पांखा सेती प्रहार रे।। रावण तनु कीयो जाजरो रे ला, सामिभगत अधिकार रे ॥३६ । च०॥ तिण तडफडतो पंखीयो रे, काठो धनुप सुं कूटि रे।। नीचो धरती नाखियो रे ला, कडिवांसो गयो त्रुटि रे ॥ ३७ । च०॥ पुष्प विमान वइसारनइ रे, ले चल्यो सीता नारि रे। सीता दीन दयावणी रे ला, विलबइ अनेक प्रकार रे ।। ३८ । च०॥ रावण जातउ चितवइ, एतो दुखिणी आजरे। जोर करूँ तो माहरो रे ला, सुस जाइ सहु भाजिरे ।। ३६ । च० ।। साध समीपइ मइंलीयो रे, पहिलो एडवो सुस रे । हुँ अस्त्री अणबाछती रे, भोगवु नहि करि हुँस रे।। ४० । च०॥ रह्या अति संतोपता रे, अनुकूल थासई एहरे।। मुझ ठकुराई देखिनइ रेला, धरिस्यइ मुझ सु सनेह रे॥४१ । च०॥ राम संग्रामइ आवियो रे, लखमण दीठो तामरे। कहइ सीता मॅकी तिहारे ला, कां आया इणि ठामरे ॥ ४२ । च० ।। राम कहइ हुँ आवियोरे, सांभलि तुझ सिंहनाद रे । मइ न कीयो लखमण कहइ रे ला, करिवा लागो विषाद रे॥ ४३ च०॥ तुह्मनइ छेतरिवा भणी रे, कीधो किण परपंच रे । तुम्हे जावो उतावलारे ला, सीता राखो सुसंचरे ॥४४। च०॥ १-कसक Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) बांधव वात सुणीकरी रे, पालो आयो राम रे। सीता तिहा देखइ नहीं रे ला, जोई सगली ठाम रे ।। ४५। च०॥ चउथी ढाल पूरी थई रे, पाचमा खण्डनी एहरे । राम विपलाप जिके कीया रे ला, समयसुन्दर कहइ तेह रे ॥ ४६ ।च० [ सर्वगाथा १५८] दूहा ८ ध्रसकइ स्यु धरती पड्यो, मुरछागत थयो राम । खिण पाछी वली चेतना, विरह विलाप करइ ताम ॥१॥ हाहा प्रिया तू किहां गई, अति उतावलि एह । विरह खम्यो जायइ नहीं, मुमनइ दरसण देहि ।।२।। म करि रामति छांनी रही, मइ तू नयणे दोठ। हांसो मकरि सभागिणी, बोलि वचन वे मीठ ॥ ३ ॥ प्रांण छुटई तो वाहिरा, तूं मुझ जीवन प्राण। तुम पाखइ जीवू नहीं, भावई जांणि म जांणि ॥४॥ इम विलाप करता थकां पंखी दीठो तेह । सीता हरण जणावतो, मरतां तणो सनेह ॥५॥ रामनइ करुणा ऊपनी, दीधो मंत्र नउकार । पंखी सुधो सरदाउ, ए भुझनइ आधार ॥ ६॥ तिरजंच देही छोडिनइ, पामी देही दिव्य । देवलोक सुख भोगवई, जीव जटायुध भव्य ॥ ७॥ सीता विरहे रामवलि, करइ विलाप अनेक । जीवनप्राण गयो पछी, किहांथी रहइ विवेक ।।८।। सर्वगाथा ॥१६७॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) ढाल ५ ॥राग मारुणी॥ "माफि रे बाबा वीरगोसाई" एगीतनी ढाल ।। रामई सीता खबर करावी, दण्डकारण्य भमारि जी। वलि आसई पासई ढुंढावी, न लही वात लिगार ॥१॥ रे कोई जाणड रे। कोई खवरि सीतानइ आणइ रे। किण अपहरी राय राणई । को०। आ० ।। इण समइ एक विद्याधर आयो, लखमण पासि उदासजी। चन्द्रोदय अनुराधा नन्दन, राम विरहियो जासजी ॥२॥ रे० खरदूषण संताप्यो तेहनइ, वयर वहइ तसु साथि जी। करी प्रणाम कहइ लखमणनउ, द्यो मुझ वासइ हाथ ।। ३ ।। रे० हुँ सेवक तोरो थयो सामी, लखमण कीधो तेमजी । सवल विद्याधर मिल्यो सखाई, पुण्यउदय करि एम ॥४॥ रे० लेई विरहियो साथइ लखमण, करिवा लागो जुद्ध जी। खरदूपण देखी लखमणनई, कहिवा लागो क्रुद्ध ॥ ५॥ रे० रे रे दूठ धीठरे भूचर, मुम अंगजनइ मारि जी। वलि मुझ साम्हउ जुद्ध करईतूं, देखि मनावुहारि ।। ६ ।। रे० कहइ लखमण रे जीभ वाहइ ते, नर नहि पणि निरवुद्धिजी। सुभटातणा पराक्रम कहिस्यइं, सगली कारिज सिद्धि ॥ ७॥रे० वचन सुणी अति कुप्यो विद्याधर, करुं लखमण सिंहार जी। खडग वाहइ खरदूषण जेहवई, लखमण दीयो प्रहार जी ॥ ८ । रे० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) चद्रहास खडगस्यु छेद्यो, खरदूषणनो सीस जो। बेटा पासि वापनई मुक्यो, लखमण लही जगोस जी ॥ ६ । रे० वीजो कटक दिसोदिसि भागो, जीतो लखमण जोध जी। करई प्रणाम रामनइ आवी, टाली वयर विरोध जी ।। १० ।। रे०। किहां सीता दीसई नही पासई, राम कह सुणि बात जी । मो आवतां पहिली किण अपहरी, भेद न को समझात जी ॥११॥ रे० वलि कहराम कवणए खेचर, महापुरुप महाभाग जो॥ कहई लखमण सगली वातनी, युद्ध सीम सोभाग जी ।। १२॥ रे। करि सीतानी खबर विरहिया, सीता विण श्री राम जी। छोडई प्राण तिवारईहुँ पिणि, काष्ठभक्षण करु ताम जी ॥१३॥ रे० ते भणी जा तुं देस प्रदेसे, जल समुद्र मझारि जी । पइसि पातालि ढुंदि गिरि कानन, करि सीतानी सार जी ।। १४ ।। रे० तहति करि विरहियो चाल्यो, जोवई सगली ठामजी । तेहवई एक विद्याधर वरतई, रयणजटी तसु नाम जी ।।१५।। रे । तिणि रावण ले जाती दीठी, करती कोडि विलाप जो । हाक व करि तिणि हाकोटयो, रे किहा जायसि पाप जी ।। १५ ।। रे रयणजटी ते पूठवई द्रोड्यो, कहिवा लागो एम जी। रामतणी अस्त्री सीता ए, तु लेजायई केम जी ।।१।। रे० । रावण मंत्र अंजुजी तेहनी, विद्या नांखी छेदि जी। कंबुसेल परवत उपरि पड्यो, थयो मूर्छित तिणि भेदि जी । समुद्रवाय करि थयो सचेतन, ते खेचर रहइ तेथि जी ।। तिणि सीतानी खबरि कही पिणि, वीजइ न लही केथि जी ।।१९ ।। रे० Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) मणि पडी समुद्र मोहि किम लाभइ, करइ राम अति दुक्ख जी। मकरि दुक्ख कहई विद्याधर, हूं करिसु तुझ सुखुजी ।। २० ।। रे । सीतानई आणिसी उतावलि, चालो इहा थी वेगि जी। ल्यउ पातालपुरी तुम्हे नगरी, मारो मुहकुम तेग जो ॥ २१ ।। रे । वचन मानि रामरथ वइंसी, चाल्या चित्त उदास जी। लीधो साथि विरहियो खेचर, पहुता नगरी पासि जी ।। २२ ॥ २० । चन्द्रनखा सुत सुदि विढंतो, जीतो ततखिणि रामजी। सहु पैठा पातालपुरी मइ, जाणी निरभय ठाम जी ।। २३ ।। रे । मंदिर महुल लह्या अति सुंदर, सरगपुरी परतक्ष जी। __ सीता विरह करी दुख साल्या, रामचंद्र नई लक्ष जी ॥ २४ ॥ रे० । पांचमा खंडतणी ढाल पांचमी, सीताराम वियोग जी। करमथकी छूटइ नही कोई, समयसुंदर कहइ लोग जी ।। २५ ।। रे । [ सर्वगाथा १६२ ] दूहा २३ हिव सीता रोतो थकी, रावण राखइ एम । मारग मइ जोतो थको, मधुर वचन धरि प्रेम ॥ १ ॥ कामी रावण इम कहइ, सुणि सुंदरि सुजगीस। चीजा नामई एक सिर, हूं नामु दससीस ॥ २॥ मुकि सोग तु सर्वथा, आणि तु मन उल्हास । साम्हो जोइसि रागसु, हुं तुझ किंकर दास ॥३॥ कां बोलइ नहि कामिनी, घर मुझ को आदेश । सोम्हो जोइ सभागिणी, मुझ मनि अति अंदेस ॥ ४ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जउ तुं हंसि बोलड नही, तो पणि करि एक काम । दे निज चरण प्रहार तुं, मुझ तन आवई ठाम ॥५॥ सीता सुंदरि देखि तु, पृथिवी समुद्रासीम। तेहनो हुँ अधिराजीयो, भाजु दुरजण भीम ॥ ६ ॥ राजरिद्धि अति रूयड़ी, तु भोगवि भरपूर । इंद्र इंद्राणीनी परई, पणि मुझ वंछित पूरि ॥ ७ ॥ इम वेखास घणा कीया, रावण कामी राय ! सीता उपराठी रही, कहइ कोपातुर थाय ।। ८ ।। हा हतास हा पापमति, हा निरलज निरभाग। पररमणी वांछईजिको, ते तो कालो काग ।।४॥ आज पछी मुझ एहवी, मत कहइ बात सपाप ॥ कां मइलो करइ बंस नई, कां लाजविईमाबाप ॥ १०॥ नरग पडई का बापडा, काइ लगाइ खोडि । रावण हुयो कुसीलियो, कहिस्य कवियण कोडि ।। ११ ।। कां तु परणी आपणी, छोडि कूलीनी नारि। परणी बांछइ पारकी, मूरख हियइ विचारि॥ १२ ॥ इण परि घणु निभ्रंछियो, राणो रावण सीति । बार-बार पाए पडई, कहइ मुझसु करि प्रीति ॥ १३ ॥ सीताइ तृण सरिखउ गिण्यउं, सीधो उत्तर दिद्ध। तो पणि लंका ले गयो, रावण आसा वद्ध ।। १४ ॥ देवरमण उद्यानमई, मुंकी सीता नारि। आडंबरखें आप ' पिण, पहुतो भवन मझारि ।। १५ ।। १-यापणइ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) सिंहासन बइठ सभा, रांणो रावण जाम । चंद्रानखा रोती थकी, ततखिण आवी ताम ।। १६ ।। साथे ले मंदोदरी, प्रमुख दसानन नारि । सुणि वाधव हुँ दुख भरी, मुझ वीनति अवधारि ॥ १७ ॥ खरदूषण मुम प्राणपति, वलि सवुक सुपुत्र । ए विहुंनो मुम दुख पड्यो, नहि जीवणनो सूत्र ।। १७ ॥ अरि करि गजण केसरी, तूझ सरीखा जसु भाई। तसु भगिणी नईदुख पडइ, तर हिव स्युं कहिवाइ ।। १६ ।। रावण कहइ तु रोउ मां, मकरि सहोदरि दुखु । पाछा नावइंजे मुआ, सरिज्या हुवई सुखु दुखु ॥ २० ॥ हुवनहारी वात तेवइ, करम तणइ परणामि । दानवदेव लाघइ नही, मरण बेला थिति ठाम ।।२१ ॥ थोड़ा दिनमाहि देखि हुँ, मारू दुसमण तुज्झ । मुंकु यमघरि प्राहुणो, तउ हुँ वाधव तुज्झ ।। २२ ।। वहिनभणी आसासना, इम दे वहु परकारि । आप अंतेउर माहि गयो, जिहां मंदोदरि नारि ।। २३ ।। सर्वगाथा ||२१|| ढाल राग बंगालो "इमसुणि दूतवचन कोपिउ राजामन्न" एमृगावती नी चौपइनी वीजा खडनी दसमी ढाल । दीठ३ मंदोदरि कंत, दिलगीर चितावंत । कहइ अन्य वालिभ लोक, मुंआ न कीधो सोक ॥ १॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) जिम खरदूषणनइ नास, नाखई घणा नीसास । भोजन न भावई धान, खायई नहीं तुं पान ।।२।। आवइ नहीं तुझ उंघ, न्याय नीति नाखि उल्लंधि। मोसु न मेलइ मीटि, मुंकइ घणी मुखिसीटि ।।३।। तब मुंकि सगली लाज, बोलीयो रावण राज | जो करई नहिं तुं रोस, जो करई मुझ संतोष ।। ४॥ तउ कहुं मननी वात, विण कह्या नावई धात । भरतानी तुं भक्त, ते भणी कहिवो युक्त ॥५॥ मंदोदरी कहइं नाह, साच काइ मुझ उछाह । मनि रीस न करइ कोइ, जे मनुष्य डाहो होइ ॥ ६ ॥ प्रीतम जिको प्रिय तुज्झ, ते बात अतिप्रिय मुज्म । तु कहइंजे मुझ काज, ते करूं तुरत हुँ आज ॥७॥ तब कहई रावण एम, अपहरी सीता जेम। आणी इहां मइ तेह, पणि धरइ नहीं ते नेह ।। ८॥ जो तेहनादरइ मुज्म, तो साच कहुं छु तुज्झ । मुझ प्राणजास्य छूटि, हुं मरिसि हियड़ो फूटि ।।६।। तातइ तवई जलविंद, नवि रहइ तिम मुझ जिंदि। मइकही माहरी बात, तु करिज्यु मुम' पोसात ॥१०॥ मंदोदरी कहइ नारि, सीता नहीं सुविचारि। तु सारिखो जे भूप, देवता सरिखो रूप ॥ ११ ॥ १--तुम Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) खास करतो जाणि, नादरच तो तसु हाणि ।। अथवा ते सुभगा नारि, रमणी सिरोमणि सार ।। १२ ।। तो सारिखा जिहारत्न, जोगीन्द्र जाणो (जोग ) तत्र । अथवा किसो जंजाल, ते नारि अबला वाल ।। १३ ।। जोरई आलिंगण देहि, मनतणी साध पूरेहि। तब कहइ रावण एम, सुण प्रिया इम हुइ केम ।। १४ ।। अनंतवीरज साध, मई धरमनो मरम लाध । ते पासि लीवर सुंस, एहवउ आणी हुंस ।। १५ ।। करिजोरि पारिकी नारि, भोगवु नहिं अवतारि। ए पणिजउ सुंसअभग्ग, पाल कदाचि सुमग्ग ।। १६ ।। मुझ पड्या दुरगति माहि, काढइ ताणी सहि साहि । व्रत भांजता बहु दोप, व्रत पालता संतोप ॥१७॥ संस लीयो मोटउ कोइ, भागो तो दुरगति होइ । लघु सुंस लीधउ तोइ, पाल्यो तो सुभगति होइ ।। १८ ॥ तिण करूं नही हुँ जोर, नवि करु पाप अघोर । वलि कहई मंदोदरि एम, तो एथि आणी केम ।। १६ ।। पाडीयउ नाह वियोग, वइठी करइ छइ सोग । रावण कहई प्रिया जाणि, आसावधइ मइ आणि ॥ २० ॥ जाण्यो हुस्यइ मुझ एह, भारिजा अति सुसनेह । मदोदरी डाहियार, चित कीयो एह विचार ॥ २१ ॥ जो पणि न कीजइ आम, तो पणि करूं ए काम । वहि गई सीता पासि, साथे सहेली जास ।। २२ ॥ २-इच्छा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) वइसी करी कहइ एम, दिलगीर थाई केम । रावण जिसो भरतार, पुण्य हुइ तो द्य३ करतार ।। २३ ।। कल्पवृक्ष दुरलभ जेम, प्रीतम दसानन तेम। ए रतनाश्रवनो पुत्र, एहन राजस सूत्र ।। २४॥ ए रूप तो कंदर्प, रूठो तो कालो सर्प । अपछरानइ दुरलंभ, बाछते तुंनउ अचंभ ॥ २५॥ भोगवि तुं भोग सुरम्म, करि सफल आपणो जम्म । कहइ जनक तनया ताम, ए ताहरो नहि काम || २६ ।। जे सती हुवइ लवलेस, ते न घइ ए उपदेस। जे हुयइ सुभगाचार, ते न द्यइ कुमति लिगार ।। २७ ।। मंदोदरी तु जाणि, किम प्रीति होवई प्राणि । मंदोदरी कहइ जेम, तुं कहइ वात छइ तेम ।। २६ ॥ जो पडई कारण कोइ, तउ अजुगतो पणि होई। पति प्राण धारण कज्जि, इम कह्यो मइ निरलज्जि ॥ २६ ।। मुनिव्रत विराधन नित्त, निज जीवितव्य निमित्त । वलि करि दसानन आस, आवीयो सीता पासि ॥ ३०॥ तुझ पतिथकी कहि केण, ओछठ छ गुणे जेण । तुं नादरई मुझ काइ, ए निफल दिन सहु जांई ।। ३१ ।। सीता कहई करि रीस, तु साभले दससीस । मुम दृष्टि थी जाइ दूरि, मत छिवइ अंग हजरि ।। ३२॥ जो हुयइ साक्षात इंद, अथवा तु हुयई असुरिंद। वलि हुवई तु कामदेव, जठ करई अहनिसि सेव ।। ३३ ।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) तउ पणि न वाछुतुज्म, करि सकते करि मुज्मा पापिष्ट इहाथी गच्छि, नाखीयो इम निभ्रंछि ।। ३४ ॥ चितवइ वलि ऊपाय, केलवु माया काय । वीहती जिम ते आय, मुझ आलिंगन द्यइ धाय ॥ ३५ ।। आथम्यो सूरिज जेथि, अंधकार पसत्यो तेथि। रावण विकुा सीह, बेताल राक्षस वीह ।। ३६ ।। इम किया उपसर्ग एणि, सीता न वीही तेण । नवि आवि रावण पासि, नवि थई चित्त उदासि ।। ३७ ।। विलखा थयो दससीस, हाथ घसइ हा जगदीस । स्यु थयो हे जगनाथ, धरती पड्या बे हाथ ।। ३८ ॥ फालथी चूको सीह, एहवइ अगउ दीह । आया विभीषण सर्व, वर सुभट धरता गर्व ।। ३६ ।। प्रणमति रावण पाय, पुछइ विभीषण राय। ए नारि रोती कवण, रावण रह्यो करि मुंण ।। ४०॥ सीता कहइ सहु वात, रावण तण अवदात । हुँ जनकराजा पुत्रि, भगिनी भामण्डल सूनि ॥४१॥ रामनी पहिली नारि, नाम सीता सुविचारी। अपहरी आंणी एण, रावण कामवसेण ।। ४२ ॥ सदगुरु' तणई परसाद, मत करई तु विषवाद । दससिरनई करि अरदास, मेल्हीसि पतिनई पास ।। ४३ ।। आसासनां इम देइ, रावण भणी पभणेई। परकी नारी एह, तइं कांइ आणी तेह ।। ४४ ॥ १-देवगुरु Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) जेहवी आगिनो माल, विसकन्दली विकराल । वाघणि मुजंगो होइ, परनारि कह्इ सहु कोइ ॥ ४५ ॥ ए नारि रावण जाणि, अनरथ दुखनी खांणि । का कुलनई चईतुं क्लक, का खोयई अपणी लंक ।। ४६ ।। कां जस गमाङ कुराहि, का पडदुरगति मांहि । प नारि पाछी मॅकि, मसलति थकी म चूकि ॥४७॥ रावण कहई ए भूमि, मोहरी छइ करि फमि । ते माहे अपनी साइ, परकी किम कहवाइ ॥४८॥ नम गति कहतो पाप, चड्यो महल उपरि आप । वनारि पुष्प विमाणि, ले गयो सीताप्रांणि || ४६ ।। नतुरंग सेना साथि, रावणउ लीधी आथि । बाजिन बाजरं तर, अति सबल प्रबल पडूर ॥ ५० ॥ गयउ पुष्पगिरिनगि , उद्यान तिहा अति चंग। नाग्लन नारिंग, बहु फणस चपक चंग।। ५१ ।। बहु नागनई पुन्नाग, जिहाँ घणा सरला लाग। आलोग निलक उतंग, सहकार वृन्न सुरंग ।। ५२ ।। कंगण तणा मोपान, जिहा जल अमृत समपान । एडवी वावडी नीर, सीता मुकी दिलगीर ॥ ५३॥ राया तगर आदेन, सुन्दर वणावी वेम। योगा रवाप रसाल, चामली मादल ताल || ४ || ना ले नाटय माज, नई भावी सुग्व काशि। गीता सागर सरत गान, आलापताननई मान vil Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता खुसी हुयइ केम, लंकेस सु धरई प्रेम । तउ पणि न भीजइ सीत, राम विना नावइं चीत ॥५६ ।। नवि करइ भोजन पान, नवि करई देह सनान । नवि करइ कुसमनो भोग, बइठी करइ एक सोग ॥ ५७ ।। वलि कहइ मुडइ एम, मइ कीयो एहवो नेम । श्रीराम लखमण दोय, कहइ कुसल खेम छइ सोय ॥ ५८ ॥ जा सीम न सुणु कन्न, ता सीमे न जिमुं अन्न । सीतातणो विरतंत, नटुवी काउ जइ तत ॥ ५६ ॥ भोजन न वाछइ जेह, किम तुम्हनई वाछइ तेह । इम सुणी रावण राय, थयो तहवइ कहिवाय ॥ ६०॥ खिण रोयइ करइ विलाप, खिण कहइ पोतई पाप । खिण करइ गीतनई गान, खिण करइ जापनईध्यान ॥ ६१ ।। खिण एक धइ हुँकार, कारण विना वार बार। नाखई मुखइ नीसास, खिण खंचिनइ पडइ सास ।। ६२ ।। खिण आगणइ पडइ आइ, खिण एक नीसरि जाइ। खिण चडब जाइ आवासि, पातालि पइसइ नासि ॥६३ ॥ खिण हसई ताली देइ, खिण मिलइ साई लेइ । खिण द्यइ निलाडइ हाथ, खिण गलहथो खिण बाथ ॥ ६४॥ खिण कहइ हा हा देव, इम कीजीयइ वलि नैव । एक वसी हीयडइ सीत, नहि वात वीजी चीत ॥ ६५ ।। विरही करइ जे वात, ते किण कवी कहवात' । मई कही थोडीसी एह, रावणइ कीधी जेह ।। ६६ ।। १ तेकिणइ कही न जात Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) अपाडियो केलास, जिण भुजासु सुखास । जिण भाजिया अरि भूप, तेहनो एह सरूप ।। ६७ ॥ वलि करई रावण खिप्र, तिहां नगर चिहुँ दिसि वप्र । भुरजे चडावी नालि, दारू भरी सुविसाल ।। ६७ ।। मुखि दीया गोला लोह, कांगरे कांगरे जोह । माड्या सतनी जंत्र, वलि कोया मंत्रनई तंत्र॥ ६६ ।। रावणइ सीता तेथि, राखी रूडी परि एथि आजी पणि न मुंकइ आस, सीता रहइ आवास ।। ७० ॥ ए कही छट्ठी ढाल, रावण विरह विकराल । कहइ समयसुंदर एम, पाइयो प्रमदा प्रेम ।। ७१ ॥ सर्वगाथा ॥२८॥ दूहा ६ तिण अवसरि आयो तिहा, राजा श्री सुग्रीव । किकिंधानगरी थकी, पिण दिलगीर अतीव ॥१॥ खरदूपण मास्यो जिए, ते मोटा सूरवीर । राम अनई लखमण कुमर, ए करिम्यई मुझ भीर ।। २ ।। इम चिंतवि पातालपुरि, गयो सुग्रीव नरेश। साथई सेना अति घणी, पणि मनमई अंदेस ।।३।। राम चरण प्रणमी करी, आगइ वडठो आवि। कुसल खेम छ। पूछीयो, राम तिण प्रस्तावि ॥ ४ ॥ जंबूनंद नाम निपुण, मंत्री कहइ करि जोडि । देव तुम्हारउ दरसणई, मीधा वंछित कोडि ॥५॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) पणि अम्ह कुसल किहां थकी, ते सुणिज्यो सुविचार। तुम्हे समरथ साहिब वड़ा, करो अम्हनइ उपगार ॥६॥ किंपिकध परवत उपरई, किंक्विध नगर सदीव । आदीतरथना पुत्र वे, वालि अनइ सुग्रीव ।। ७॥ वाली बलसाली सवल, मोटी जेहनी माम । रांवण खवि खीजी रह्यो, पणि नकरइ परणाम ।। ८ ॥ वयरागई संयम लीयो, सुग्रीव पालई राज। नाम सुतारा तेहनई, पटराणी सुभ काज ॥8॥ ।। सर्वगाथा १६५ ॥ ढाल ७ उल्लालानी, अथवा भरत थयोऋपि राया रे। अथवा “जगि छइ घणाइघणेरा, तीरथ भला भलेरा” एतवननी ढाल ।। इण अवसरि एक कोई, कपटइ सुग्रीव होई।। विद्याधर तारा पासे, आव्यो परम उल्हासे ॥१॥ तारा जाण्यो ए अन्न, ते नहीं लक्षण तन्न । नासीनइ गइ दूरि, जई कहइ मंत्रि हरि ॥२॥ ते विद्याधर दुट्ठ, सिंहासन उपविट्ठ । तेहवइ बालिनो भाई, आव्यो महलमइ धाई ॥३॥ दीठो आप सरूप, बीजो सुग्रीव भूप । तुरत थयो लथपथ, नाख्यो दे गलहत्थ ।। ४ ।। बीजइ कीयो सिंहनाद, लागो माहो माहि वाद । मुंहते विहुनइ धिक्कात्या, जुद्ध करता ते वाख्या ॥५॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) निरति पडइ नहि काइ, वे सुग्रोव कहाई॥ ६ ॥ दक्षिण दिसि गयो साचो, उत्तर दिसि गयो काचो। तारा रक्षा उदिस्सि, वालि नदन चंदरस्सि ॥ ७ ॥ थाप्यो मंत्रि प्रधान, सहुको रहइ सावधान । इम तारा थकी वेऊ, वियोग पमाड्या छइ तेऊ ।। ८ ।। साचउ सुग्रीव वहतो, हनुमत पासि पहुतो। आपणो दुक्ख जणायो, कटक करी नई ते आयो ।।६।। किंकिध नगरीनई पासि, अलीक लाउ भेद तास । साम्हो कटक करेई, आयो द्वष धरेई ॥ १० ॥ करिवा लागा वे जुद्ध, कुण मठो कुण सुद्ध। सरिखी देखी वे देह, हनुमंत पड्यो संदेह ।। ११ ।। हनुमंत अण कीधइ काम, पहुतो आपणई गाम । हिव एक तुम्ह तणुं सरणं, सुग्रीव प्रणमति चरणं ।। १२ ।। बोल्या राघव ताम, अम्हे करिस्या तुम्ह काम | तुम्हें आव्या भलइ एथि, मत जावो हिव केथि ॥ १३ ॥ करिवउ तेहनो घात, ए छथोडीसी वात । पणि हिव सांभलो तुम्हे, दुखिया छु आज अम्हे ।। १४ ।। सीता लेगयो अपहरि, दुष्ट दुरातमा छल करि। ते रिपुनो कोई नाम, जाणइ नही तसु ठाम ।। १५ ।। ते भणी तुम्हे पणि निरति, थायइ तो करो किण धरति ।। बोल्यो सुग्रीव राय, राम तुम्हारइ पसाय ।। १६ ।। १-राति Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) साते दिवस माहे देखो, निरति आणिसि लेज्यो लेखो। नहि तरि आगि मां पइसुं, वोल्युं पालिसि अइसु ॥ १७ ।। एह वचन अभिराम, सुणि हरषित थयो राम । सुग्रीव सार्थ तुरत्त, किंकिंध नगरी संपत्त ।। १८ ॥ आवतो सांभलि एम, झूठो सुग्रीव तेम ।। आडइ थई नइ जुद्ध, करिवा लागो ते क्रुद्ध ॥ १६ ॥ माया सुग्रीव सीधउ, सत सुग्रीवनइं दीधो। सबल गदानो प्रहार, पाड्यो धरती निरधार ॥ २० ॥ मूर्छित थयो ते अचेतन, खिण माहि वलिय सचेतन । पहुतउ रामनईपासई', मननी वात प्रकासई ॥ २२ ॥ किम न करी मुझ भीर, तुम्हें हुँता मुझ तीर । राम कहइ नहि निरति, कुणत्त, छइ कुण कुदरति ॥ २२ ॥ तिण मइ तेह न मात्यो, हिवतुंइहा रहि हास्यो । हुं एकलो तिहां जाइसि, तुझ वयरीनईहूं घाइसि ॥ २३ ॥ इम कहि श्रीराम तेथि, गया ते सुग्रीव जेथि । रामनो तेज प्रताप, सहिन सकई तेह आप ॥ २४ ॥ तुरत विद्या गइ नासी, मूलगी देह प्रकासी । साहसगति नामइ लेह, विद्याधर हुतो जेह ।। २५॥ लोके ओलख्यउ तुरत्त, एतो तेहीज कुदरत । देखि बानरपति ऋद्ध, तिण सेती माड्यो युद्ध ॥३६॥ बिढतो वानर राय, वास्यो लखमण धाय । साहसगति करी गर्व, वानर बल भागो सर्व ॥ २७ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) रामइ जीवतो झाल्यो, यम रांणानइ ले आल्यो। साहसगति मुयो देख्यो, सुग्रीवनो हियो हरख्यो ।। २८॥ सुग्रीव लखमण राम, आव्या आपणइ गाम | राख्या उद्यान माहे, घरि गयो आप उछाहे ।। २६ ।। तारा राणी नइ मिलियो, विरहतणो दुख टलियो। अश्व रतन बहु भेटि, दीधा रांमनइ नेटि ।। ३० ॥ लुबधो रहइ तारा सेती, कहुँ तेहनी बात केती। पणि प्रतिज्ञा वीसारी, चूको सुग्रीव भारी ।। ३१ ॥ सुभट तिहा सहु मिलिया, विरहिय प्रमुख जे वलिया। तेरह सुग्रीव कन्या, चंद्रप्रभादिक धन्या ॥ ३२ ।। रांम आगलि आवी तेह, इम वोनवइ सुसनेह । अम्हारो भरतार, दि सामी करतार ।। ३३ ।। राम उपरि दृष्टि पोती, पासि ऊभी रही जोती। पिण श्रीराम न जोयड, सोता विरह वियोगइ ॥ ३४ ॥ राम विनोद निमित्त, नाटक करई एक चित्त । तउ पिणि दृष्टि देवई, केहनइ न बोलावई ॥३५ ।। सीतानो एक ध्यान, ते विन सहु सुनो रान । लखमणनइ कहइ राम, सीधो सुग्रीव काम ।। ३६ ॥ पणि सुग्रीव निचिंत, किम बइठो ग्रही एकंत । परवेदन कुण जाणइ, काम कीधो कवण पिछाणइ ।। ३७ ।। काम सख्या वैद्य वइरी, थायइ इम दीसई छइरी । तां लगि सहु करइ सेव, ता आराधईज्युं देव ।। ३८॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) तां लगि प्रगटइ सनेह, तां पगि झटकइ खेह । जां लगि पोतानो काज, सीमा नइ सहु साज ॥ ३६ ।। काम सीधा पछइ सोई. वात चीतारई नहि कोई। एहवा रांम वचन्न, साभलि लखमण कन्न ॥४०॥ गयो सुग्रीवनई पासइ , एहवो आकरो भासई . रे तुं कृतघन खेचर, तू तो अधम नरेसर ॥४१॥ वीसास्यो आगीकार, नहि उत्तमनइ आचार। तुं आपणो बोल्यो पालि, उठि तूं आलस टालि ॥ ४२ ॥ नहि तर सुग्रीव (साहसगति ) जेम, तुझनई करिसि हुँ तेम । इण परि निभ्रंछयो बहुपरि, सुग्रीव थरहस्यो भय करि ॥४३॥ लखमण नइ कहइप्रणमी, सामी अपराध मुझ खमी। हुँ लाज्यो हिव अति घणु, ते परमारथ हुँ भणुं ॥४४॥ मइ मतिहीण न जाण्यो, त्रूटई अति घणो ताण्यो । हुँ रहुं महल आवासि, राम रहइ बनवासि ॥ ४५ ॥ तारा मुझ प्रिया सुखिणी, सीता विरहिणी दुखिणी। मुझ वयरी मास्या राम, रामनउ वयरी समाम ॥ ४६॥ तुम्ह कियो मुम उपगार, मुझथी न सस्यो लगार। पहिलो करइ उपगार, अमूलिक तेह संसार ॥४७॥ उपगार कियां उपगार, क्रय विक्रय व्यवहार। उपगार कीधा जे कोई, पाछो न करई ते होइ ॥४८॥ सींग विना सहि ढोर, भूमिका भार कठोर । इम आपणी निंदा करतो, उपगार चित्तमई धरतो ॥४॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) लखमण सुं इम कहतो, रामतणइ पासि पहुतो। कीधो राम नई प्रणाम, करजोडी कहइ आम ||५|| हिव हुं जाउंछं स्वामि, निरति करिसि ठामि ठामि । तुम्हें धीरप धरिज्यो, मुझ उपरि कृपा करिज्यो॥५१॥ एहवई सातमी ढाल, पूरी थई ततकाल । समयसुंदर इम बोलई, सीतानई कोइ न तोलई ॥५२।। पाचमो खंड रसाल, पूरुं थयो सात ढाल। समयसुंदर कहइ आगई, कहतां दिन घणा लागई ॥५३।। सर्वगाथा |३४|| इति श्री सीताराम प्रबन्धे सीता संहरणनाम पचम खडः समाप्तः ।। खंड ६ दहा १४ मात पिता प्रणमें सदा, जनम दीयो मुझ अण । वांटुं दीक्षागुरु वली, धरमरतन दीयो तेण ||१|| विद्यागुरु वांदु वली, ज्ञान दृष्टि दातार। जगमाहिं मोटो जाणिज्यो, ए बिहुँनो उपगार ।।२।। ए त्रिहुनई प्रणमी करी, छट्ठो खंड कहेसि । पटरस मेली एकठा, सगला स्वाद लहसि ।।३।। सुग्रीव सेवक साथि ले, निसस्यो खबरि निमित्त । भामंडल भाई भणी, मुंक्यो लेखु तुरत्त ||४|| १-मुदा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) गाम नगर वन गिरि गुहा, जोतो थको सुग्रीव । कंबुसेल सिखरई चढ्यो, सुणी रतनजटि रोव ॥शा सुग्रीव पृछ्यो का इहा, दुखियो रहइ अत्यन्त । ते कहइ सुणि सुग्रीव तं, सगलो मुझम विरतंत ॥६॥ रावण सीता अपहरो, ले जातो थको दीठ। मइ सीतानई राखिवा, केडइ कीधी पूठि ॥७॥ जुद्ध करतां रांवणइ, दीधो सकति प्रहार । विद्या छेदी माहरी, तिण हुँ करुं पोकार ||८|| राम समीपइं पणि हिवई, जा न सकं करु केम । सुग्रीव ऊपाडी गयो, राम समीपि सप्रेम ||६|| रतनजटी विद्याधरई, प्रणमी रामना पाय । कहइ सीतान ले गयो, रावण लंकाराय ||१०|| वात कही सहु आपणी, झगडठ कीधो जेम । मुम विद्या छेदी तिणई, आवी न सक्यो तेम ||११|| सीता खवरि सुणी करी, हरष्यो श्रीरामचंद। रोमाचित देहो थई, सिंची अमृत बिंद ॥१२॥ सीता आलिंगन सारिखो, सुख पायो सुजगीस । डीलतणा आभरण सहु, कर राम वगसीस ॥१३॥ रामचन्द्र पूछ्यो वली, विद्याधर कहो मुज्म । लंका नगरो छई किहां, किहा ते सत्रु अबुज्म ॥१४|| Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) मल्लि तीरथ तणा वीसपाटां तणी', कोडि षट साध सीधा संथारइ । कोडि त्रिण साधनी वीसमा जिन तणी, मुगति गई बात सहुको सकारइ एक कोडि साध मुगति गया नमितणा, इणिधणी कोडिवलि सिवनिवासी नाम ए कोडिसिल तेणि कारण कही, ए सहु वात प्रकरण प्रकासी ॥२०॥ वाम भुजदंड करि प्रथम वासुदेव ते, कोडिसिल गगनि उंचीउपाडई ।। सीस वोजइ त्रिजई कण्ठतांई करी, उर लगी जोर चउथउ दिखाडई। हृदय लगि पांचमो करई छठो कडई, सातमो साथलां सीस आणइ आठमो जानु लगि एम नवमो वली, भूमि थी आंगुला च्यार तांणइ । कोडिसिल पासि कोहुको मिल्यो आविनइं,लखमणाकुमर नवकारसमरी वाम भुजदंड सू कोडिस्सिलइ उद्धरी, धन्य हो धन्य कहई अमर अमरी। देवता फूलनी वृष्टि करी ऊपरई, राम सुग्रीव सहु सुभट हरण्या। कोडिसिलवादि सम्मेतसिखरइं गया, नयण जिनराजना धुंभ निरख्या राम लखमण विमाने सहु वइसिनइ, नगरि केकिंध पहुता सकोई। राम कहई सुणो सुग्रीव सहु को तुम्हे, वइसि रह्या केम निश्चित होई ।। लंकगढ़ लेण चालउ सहु को सुभट, मत कदे मुझ विरह अगति ताती। सीत वलि जाइस्यइ तो मरण माहरो, थाइस्यइ फाटस्यइ दुख छाती ।। सुभट मुग्रीव कह देव सुणो वीनती, जुद्ध रावण संघातइम मडउ । जेण विद्यावलई तेण अधिको सदा, आजलगि तेज तेहनउ अखंडठ ।। तेभणी तेहनो भाइ छड अति वलर, परम श्रावक अनइ परम न्याई। परम उपगारकारी विभीषण सबल, प्रार्थना भंग न करई कदाई ।। १-पेढी लगइ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) दूत मुंकी करी तेहन प्रारथो, तेह रावण भणी सीख देस्य। राम कहई इहाँ कुंण एहवो दूत छ, जेह इण काम सोभाग लेस्य॥ एह खेचर माहे को नही एहवो, जे लंका जाइनई काम सारई। जेण दुरगम विषम लंकगढ पइसता, दैत्य देखइ तुता झालि मारई ।। पणि अछई पवननो पुत्र एक एहवो, नाम हनुमंत एहवो कहीजई। ते सापुरसनई देव उहा तेडिया, तेहनी बात सहुको पत्तीजइ ।।३।। बात ए चित्त मानी सहू को तणई, मुंकियो दूत सिरभूति नामा। जाइ हनुमंतनइ बात सगली कहई, लखमणाकुमर सु थया संग्रामा ।। खरदूपण संवुक मास्या सुणी, अनंगकुसुमा हनुमत नारी । वाप वाधव तणो दुक्ख लागो सवल, रोण लागी घणु वारवारी ॥३३॥ सर्व अंतेउरी सहित मंत्री मिली, दुक्ख करती थकी तेह राखी। प्रोतिकर भूतिकर पूछियो दूतनई, ते कह बात सहु सत्यभाखी ॥३४ मारि मायावि सुग्रीवन रामचंद, नारि तारा मुँकावी महातई। हिव श्री सुम्रोव उपगार करिवा भणी, सीत मुंकाविवा करई एकातइ । सुता सुग्रीवनी नारि हनुमतनो, नाम कमला घणु दूत मानइं। रामगुणि रजियो गयो किंकिंधपुरि, वेगि हनुमंत वइसी विमानई। कीयो परणाम सुग्रीवनई जाइकरि, तेण श्री रामनई पासि आण्यो । आवतो देखिन राम ऊभाथया, आपणो काम मीठो पिछाण्यो ॥३७ देइ आदर घणो राम साईए मिल्या, कुसल खेम पूछिनई हरष पाम्यो। लखमण कुमर सनमान दीधो घणो, हनमंत रामनईसीस नाम्यो ।। भणई हनुमंत श्रीरामन तुम्हतणा, गुण सुण्या चंद्रकिरणा सरोखा। जनक धनुप चाढियो प्रगट पछाडियो, कपट सुग्रीव कीधी परीखा ॥ १ जेहनउ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) ढाल १ । राग रामगिरी ।। 'भणइ मदोदरी दैत्य दसकध सुणि' ए गीतनी ढाल । अथवा चब्यउ रण जूमिवा चडप्रद्योत नृप-ए बीजा प्रत्येक्वुद्ध ना खडनी, ढाल । सुणउ श्रीराम लंकापुरी छइ जिहां, बदइ विद्याधरा हाथ जोड़ी। दैत्य रावण तिहा राय अति दीपतो, कोइ न सकई तसुमान मोडी | लवणनामइ समुद्र माहि राक्षसतणो, दीप एक देव मोटउ सुणीजई। सात जोयण सयांते तेह पिहुलप्पणइ, इहा थकी दूरि तेतो कहीजड ।२। तेहमाहे त्रिकूटनाम परवत तिहीं, पांच जोयण सयापिहुलमान । बलिय नव जोयण उंचपण तेहनो, तेह उपरि लंकापुरी थान ||३|| तेथि परचंड राजा दसानन अछई, तेह त्रैलोक्य कंटक कहावई। नवग्रह नेण सेवक कीया निजतणा, विधि तणई पासि कोद्रदलावइ ।। वलि विभीषण कुंभकर्ण नृप सारिखा, जेहनइ भाई जगमंइ वदीता। अतिसवल इंद्रजितइ मेघनाद सरिषा', सुभट पिण तेहना किण न जीता। विषमगढ़ नालिगोला विषम भूमिका।। वलि विपम चिहुं दिसइ समुद्र खाई । अभंग भड अतुलबल कटक अक्षौहिणी प्रथमथी कुण सकइ तेथि जाई॥६॥ सु० जे तुम्हारई रुचइ ते करो हिव तुम्हे, तेहनइ आज कोई न तोलई। दैत्य रावण तणी बात सगली सुणी, लखमणा कुमर तब एम बोलइ ७ १-अगना Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) जे हरइ पारकी नारि निरलज निपट, अधम तेहनी किसी कहो बड़ाई। राम कहइ रे सुभट सुणहु विद्याधरा, देखि कुण हेलि करूं तेथि जाई ८ पारको स्त्री हरई को नही आज थी, एहवी वात करूं हुं प्रमाणु। लंकागढ़ लूटिनइ मारि पाधर करु , छेदि दस सोसनइ सीत आणु ।।8।। भणि जंबुवत साहिब सुणो वीनतो, चतुर विद्याधरी ए कुमारी। तुम्हतणी रागिणी आवि आगई खड़ी, आदरो वात मानो हमारी १० भोग संजोग तुम्हे एहसुं भोगवो, सीत वालन तणी बात मूको। अन्यथा दुक्ख भागी हुस्यो एहवा, मूढ़ नर पथिकनर जेमवूको ||१|| भणइ लखमण इम म कहि भुं जंबुवंत तु, उद्यमे जेण दालिद्र नासइ । गोह पन्नग भणी मारिनइ औषधी, वलइलीधो लोक एम भासई १२ जेम तिण औपधी वलय लीधो निपुण, तेम अम्हे मारि रिपु सात लेस्यां जपइ जंववंत मंत्रीस सुग्रीवनो, एह उप्पाय अम्हे कहेस्यां ॥ १३ ॥ एकदा रावणइ अनंतवीरज मुणी, पूछियो केहथी मुज्म मरणं । ते कह्यो कोडिसिल जेह ऊपाडिस्यई, तेहथी मरण डर चित्त धरणं १४ भणई लखमण भुजादंड आफालतो, देखि तु माहरो वल प्रचंडं । सिंधु देसइ गयो राम सुग्रीव सुं, खेचरे भूचरे करि घमंडं ॥१।। सु० कोडिसिल नाम एकासिला तेथि छई, भरतखंडवासि देवी निवासां । एक जोयण उछेधांगुले ऊंचपणि, पिहूल पणि तेतली सुप्रकासा ।।१६।। शांति गणधर चक्रायुध मुनि परिवरयो, सिद्धि पामी तिहासुद्ध भावई बत्तीस पाटांगुली तेहथी तिहां वली, मुनि तणी कोडि बहु मुगतिपावई कुंथु तीरथ अठावीस जुगसीम वलि, सिद्धिगइ साध संख्यात कोडी। अरतणा साधवलि पाट चउवीस लगि, वारकोडि मुगतिगया कमंत्रोडी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) हुँ जाउंहुकम द्यो एकलो लकागढि, मारि भांजं भुजादंड सेती। वेगि रावण हणी सीत आणुं इहां, तुम्हे रहो एथि एवात केती ॥४०॥ भणइ श्रीराम हनुमंत एक वार तुं, तेथि जा सीतनइ कहि संदेसो। तुझ विरह करी रामजीवई दुक्खई, मुज्झ विरहई जिसो तुज्म अंदेसो ।।४१॥ तु प्रिया जिमतिमकरी रहे जीवती, जीवतो जोव कल्याण देखई। जाम लखमण लेई साथि आवु तिहां, धर्म वीतराग नई करी विशेष माहरा हाथनी आ देजे मुंद्रडी, सीतनई जेम वेसास होई। आवतो तेहनी राखड़ी आणिजे, मुझ नई पणि हुवई सुखु सोई ।।४३ 'एम समझाविनई रामचंद मुकियो, वीर हनुमत सेना संघातइ । खंड छठातणी ढाल पहिली इसी, 'समयसंदर भणो भलीय भांतई॥ सर्वगाथा ॥५॥ दहा २५ आकासई ऊडी गयो, हनुमंत सेन समेत । पहुतो गढ लंकापुरी, पणि रुध्यो गढ तेथि ॥१॥ हनुमंत पूछयो केण कियो, ए ऊँचो गढ़ संच। कहइ. मंत्री राक्षस तणो, सहु माया परपंच ।।२।। कूड यंत्र माहे तिसइ, असालिया मुख दिट्ठ। दाढ विडंवित उग्र विष, अहि वेढियो अनिट्ठ ||३|| वज़ कवच पहिरी करी, हनुमंत गयो हजूर । कूड यंत्र प्राकार सहु, भांजि किया चकचूर ॥४॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) तस मुखमइ पश्ठो तुरत, गदा हाथि हथियार । उदर विलूरी नीसस्यो, नखना दिया प्रहार || आसालिया विद्यातणो,, वज्रमुख सुणी पोकार । जुद्ध करई हनुमंत सुं, आरक्षक अहंकार ॥६॥ हनुमंते वज्रमुख मारियो, चक्र सुं छेदिउ सीस । अधो लंक सुंदरो सुता, आवी वापनी रीस ||७| हनुमंत सुं रण मंडियो, जेहवई नाख तीर । तेहवइ तेहनइ हाथ थी, धनुष पूँटि ल्यंइ वीर ।।८।। मोगर सकति मुंकइ वली, लंकासुदरि जाम । हथियार हाथ थी इँटता, दृष्टि पड्यो रूप ताम || कामातुर हनुमंत थयो, ते पणि हनुमंत देषि । ' कंदर्पने वांणेकरी, वींधाणी सुविशेषि ||१०|| लंकासुंदरी चिंतवई, इण विण जीव्यु 'फोक। . कहइ जिम तई मुझ मन मोहिउ, मई पणि तुम सहु थोक ।।११।। हाथ संघातइं हाथ मुझ, हिवइ तु झालि सुजाण । हनुमंत लंकासुंदरी, , कोधो वचन प्रमाण ||१२|| खोलई वइसारी करी, गाढालिंगन दिद्ध । विद्यावलि तिण बिकुरवी, नगरी तेथि समृद्ध ।।१३।। रात ते साथे रही, हनुमंत चाल्यो प्रभात । अधो लंकसुंदरि भणी, जुद्धतणी कहि वात ।।१४।। पहुतउ ते लंकापुरी, गयो विभीषण गेह । करि प्रणाम ऊमो रह्यो, कर जोडी सुसनेह ।।१५।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) आदर देनई पूछियो, राय विभीषण तेह । कहउ किण काम आवीया, तब हनुमंत कहई एह ।।१६।। रांम सुग्रीव हुं मुंकियो, प्रभो तुम्हारई पासि । नीति निपुण तुम्हें सांभल्यो, सुणो एक अरदास ॥१७|| रामतणी सीता रमणि, आणी रावण राय। पणि पररमणी फरसता, निज कुल मइलउ थाय ॥१८॥ कुण न करइं रिधि गारवउ, नारि सुं कुण न मुज्म । विधिना कुंण न खंडीयो, कुण चूको नहि बुज्म ।।१६।। जउपिणि जगत इसो अछइ, तर पिणि जाणउ एम । निज वाधव रावण तणी, करउ उपेक्षा केम ॥२०॥ रांवण समझावी करी, पाछी मुंकउ सीत। कहइ विभीपण मइ कही, पहिली घणी कफीत ।।२१।। तउपणि ते मांनइ नही, वलिहुँ कहिसि विशेषि । विसनी रांवण अति हठी, स्युं कीजई तुं देखि ।।२२।। हनुमंत चाल्यो तिहांथकी, पहुतो सीता तीर। दीठी सीत दयामणी, दुरवल क्षीण शरीर ॥२३।। जेहवी कमलनी हिमवली, तेहवी तनु विछाय । आंखे आंसू नाखती, धरती दृष्टि लगाय ॥२४॥ केसपास छूटइ थकई, डावई गाल दे हाथ । नीसांसा मुख नाखती, दीठी दुख भर साथि ॥२५॥ सर्वगाथा ।। ८३ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) ढाल बोजी राग मारुणी ___ लंका लीजइगी, सुणि रावण लका लीजइगी । ओ आवत लखमण कउ लसकर, ज्य घन उमटे श्रावण । ए गीतनी ढाल । सीता हरिखीजी, निज हीयडइ सीता हरिखीजी। हनुमंत दीध रामना हाथनी, मुंद्रडी नयणे निरखीजी ॥१॥ सी० हलुयइ २ हनुमंत जाई, सीत प्रणाम करेई । मुद्री खोला माहे नाखी, आणंद अगि धरेई ॥ २ ॥ सी० मुंद्रडी देखि सीता मन हरषी, जाणि हुयो प्रिय सगम । अमृतकुंडमाहे जाणे नाही, विहस्यो तनु थयो संभ्रम ।। ३ ।। सी० रतन जडित रंगीलो ओढणा, सीता वगिस्य उत्तम । हनुमंतनइ वलि पूछइ हरपइ, कुशलखेम छइ प्रीतम ॥४॥ सी० कहइ हनुमंत संदेसो सगलो, राम कह्यो जे रंग भरि । सुणि सीता वलि अतिघणुं हरपी, देखि भणइ मंदोदरि ॥ ५॥ सी० सुंदरि आज तु किम हरपित थई, संतोषी मुझ प्रियुडइ । कोप करइ सीता कहइ का तु, फोकट फाटइ हियडइ ।। ६ ।। सी० हरपनो हेतु जाणि तुं ए मुझ, प्रियुनी कुशलि खेमी। इणि सापुरस मुद्रडी आणी, आणंद तेण करेमी ।। ७॥ सी० पूछउ सीता कहि तु कुण छइं, केहनो पुत्र तुं परकज। कहइ हुँ पवनंजय नो नंदन, अंजनामुंदरि अंगजु ।। ८॥ सी० हनुमंत माहरो नाम कहोजइ, सुग्रीवनउ हूं चाकर। सुग्रीव पणि रामनो चाकर, राम सहूनो ठाकुर ।। ६ ।। सी० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) तुम विरहइ मुझ प्रियु दुख मानई, अधिको दुखु नरगथी। वेधक जन कहई प्रीतम संगम, अधिको सुखु सरगथी ।। १० सी० तिण कारण मुनिवर वाछह नही, प्रीतम संगम कोई। जे भणी प्रीतम विरह दुखनो, पालण पछइ न होई ।। ११॥ सी० कहइ सीता सुणि ए वात इम हीज. तउपणि विरला ते नर । न करई प्रेम तणो जे प्रतिबंध, पणि हुं नहि साहसधर ।। १२ ॥ सी० बलि आखे आसू नाखती, कहा सीता हनुमंतनई। लखमण सहित रामचंदकहितउ, किहां दीठो मुझ कंतन ।। १३ ।। सी० सरीर समाधि अछंइ मुझ प्रियुनइ, के मुद्रडी पडि पाई। कहइ हनुमंत सांभलि तुं सामिणि, आरति म करे काई ।। १४ ।। सी० कुशल खेम तुझ प्रीतमनई छइ, वसई किकिंध विशेप । पणि प्रियुनइ एतो छइ अकुसल, तुम मुख कमल न देखई ।।१५।। सी० पणि श्रीराम कह्यो छई इमरे, जाना तुझ पास। तुझ सरिपा कहि सुभट किता तिहा, वलि सीता इम भास३ ॥१६॥सी० कहइ हनुमंत मुझ माहे तउ छइ, सुभटपणो निज गेहई । राम समीपि जे सुभट अभंग भड, तेह तणइ हुं छेहइ ।।१७।। सी० इण अवसरि मन्दोदरी वोली, सुणि एहन बल एतल । रावण आगइ वरुणादिक रिपु, मारि भाज्या एकलमल ।।१८।। सी० ए सरिखो कोई सुभट नहीं इहा, तुष्टमान थयो रावण । चंद्रनखा निज भगिनी तनया, परगावी सुखपावन ।।१६।। सी० १-नगरी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) पति अनंगकुसमानो ए नर, पणि थयो धरणीधर वर । कहइ हनुमंत सभिलि मदोदरी, तसु उपगार अधिकतर ॥२०॥ सी० प्रत्युपकार करण भणी सुंदरि, दूतपणउ अम्ह भूषण । पणि तुसीता विचि थइ दूती, ते मोटो तुझ दूपण |२१|| सी० जिण कारणि कवियण कहइ एहवा, अन्य रमणि नी संगति । अस्त्री प्रीतम नइ वांछइ नहीं, वर तजई प्राण अहंकृत्ति ॥२२॥ सी० कोपकरी मंदोदरी कहा किम, सुग्रोव वानर प्रमुखा । दसमुख पंचानन सेवा तजि, राम मुंबक भजई विमुखा ॥२३।। सी० तिण कारणि तु छोडि रामनइं, भजि रावण राजेसर । सुणि हनुमंत तुं करि आतम हित, ए मुझ पति परमेसर ॥२४॥ सी० अहंकार वचन सुणि सीता कहई, कां तुंमुझ पति निदइ । वजावरत धनुप जिण चाड्यो, जगत सहू पद वंदइ ।।२।। सी० रिपु गज घटा विडारण केसरि, लखमण जास सहोदर। थोडा दिवसमईतु पणि देखिसि, प्रगट रूप परमेसर ॥२६॥ सी० तुझ पति अपराधी नई देस्यइ, मुझ पति डंड प्रबलतर। पापी जीव भणी जिम प्रायश्चित्त, धइ गीतारथ सदगुर ॥२७। सी. वचन सुणी सीता ना कोपी, मंदोदरि करइ भरछन । पापिणि माहरा पतिनै इम तु, का बोलइ ए कुवचन ॥२८॥ सी० यष्टि मुष्टि प्रहारै सीता, मारण माडी पापिणी । फिट फिट करि हनुमंत निभ्रंछी, निरपराध संतापणि ||२६|| सी० कहइ मंदोदरि जइ रावणनइ, हनुमंत दूत समागम | सेना सुं हनुमंत नइ भोजन, सीता द्यइ सुमनोगम ||३०|| सी० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) आप एकातइ वइसी सीता', राम नाम धरि हिया। गुणि नउकार पछड़ कर भोजन, अवधि पूगी तिण लीयइं॥३१॥ सी० हनुमंत सीता नइ इम विनवइ, वइसी खवइ मुझ स्वामिनी । जिम श्रीराम पासिई लेइं जाऊँ, सुख भोगिवी तु सुहागिनी ॥३२॥ सी० कहइ सीता रोती हनुमंत नई, एह बात नहीं जुगती। पर पुरुप सु फरसुनहिं किदिहुं, ऊडण की नहिं सगती ॥३३।। मी० आप राम आवइ जो यहां किणी, तो जाउंतिण सेती। जा हनुमंत रावण करई उपद्रव, ढील म करि खिण जेती ॥३४|| सी० मुझ वचने कहिजे प्रीतम नई, पडिलाभ्यो गुरु ग्यानी। थयो नीरोग जटायुध पंखो, वृष्टि थई सोना नी !॥३॥ सी० वलि देजे चूडामणि माहरी, सहिनाणी प्रीतम नई। इम कहिनइ कीधी सीख तिणसु, हनुमंत कल्याण तुम्हनई ॥३६॥ सीता रोती नई हनुमंत द्यइ, इम मा बीहिसि२ वहुपरि । आया देखि राम नई लखमण, इहाँ बइठी धीरज धरि ॥३७॥ सी० हनुमत सीता चरण नमीनई, चाल्यो संदेशा हारण । रावण केडि मुँकिया राक्षस, सूल थी मारण कारण ॥३८॥ सी० वन माहे गयो हनुमंत वानर, तितरई दीठा परदल । विविध वृक्ष उनमूली माड्या, गदा हाथि अतुली बल ॥३६॥ सी० रिपु दल त्रुटि पड्या समकालई, हनुमंत उपरि तत्क्षण। हनुमंत रिपुदल भाजी नाख्या, वृक्ष प्रहार विचक्षण ||४०|| सी० १-इकवीसमइ दिवसइ सीता १-जा तु मत २-वामी सि Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) वलि सहु सुभट मिलीनई धाया, हनुमंत ऊपर असिधर । हनुमंत हण्या गदा हथियारइ, अंधकार जिमि दिनकर ॥४१॥ मी० सुभट दिसोदिसी भाजि गया सहु, सीह सबद जिम मृगला । नासइ नाग गरुड देखीनई, अथवा सेन थी बगला ॥४२॥ सो० __ वलि हनुमंत चड्यो अति कोपई, वानर रूप करी नई। पाछो वलि लंकापुरि आयो, कौतुक चित्त धरी नई ॥४३।। सी० धर पाडतउ तोरण तेहना, तोडतो हाथा सुं। त्रासंतो गज तुरग सुभट भट, वीहावतो वाथा सुं ॥४४॥ मी० लंका लोकनक्षोभ उपजावतो, गयो रांवणनई पासई । रांवण निज नगरी भाजती, देखी नइ इम भासई ॥४॥ सी० रे रे सुभट इंद्र वरुण यम, इम मई हेलइ जीता। केलासगिरि उंचउ अपाड्यो, ए मुझ विरुद वदीता ॥४६॥ सी० ते मुझ विरुद गमाड्या वानर, मुम नगरी त्रासंतई। वाई वेगि चढत री भेरी, केडि करूं नासंतइ ॥४७॥ सी० गय गूडउ पाखरो तुरंगम, रथ समूह जोत्रावो। पालिहार पाचे हथियारे, सनद्ध वद्ध हुइ' धावो ॥४८॥ सी० वेगि करी वानरडो मारुं, इम कहिनइ चडइ जितरइ । कर जोडी वीनवइ पितान', कुमर इंद्रजित तितरई॥४६॥ सी० कीडी ऊपरि केही कटकी, हुकम्म करो ए अम्हनइ । जिमहुँ वानर मालि जीवतो, तुरत आणी द्यु, तुम्हनई ॥५० सी० १-था Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) ले आदेस पितानो इंद्रजित, गज चडि हनुमंत सनमुख । पहरि सन्नाह शस्त्र ले चाल्यो, साल्यो सबलो अरि दुख ॥५१।। सो० मेघनाद पणि साथई चाल्यो, गज चडि सेना सेती। अरिदल मिल्या मांहोमहि वेडं, विच थोड़ी सी छेती ।।५२|| सी० युद्ध करता हनुमत आपणी, नासती सेना निरखी। आप ऊठि अतुलीवल सगली, राक्षस सेना धरखी ।।५।। सी० निजसेना भागी देखीनई, इन्द्रजित चड्यो अमरसई। तीर सडासडि नाखई ततपर, जिम नव जलधर वरसइ ।।५४|| सी० हनुमंत अद्धचंद्र वाण सु, आवता छेद्या ते सर । वलि मुकई रावणसुत मोगर, तेम सिला लि वानर ।।५।। सी० राक्षस सुत मुकइ वलि सबलो, सगति प्रहार धरि मच्छर। लघलाघवी कला करि टाल्यो, हनुमंत कपि विद्याधर ॥५६।। सी० इन्द्रकुमरि नागपासे करि, हनुमंत देही वाधी। रांवण पासि आणि ऊभो कीयो, कहइ ए तुम्ह अपराधी ।।५७) बात कहइ सगली हनुमतनी, रावण आगलि राक्षस । सीता दूत ए सुग्रीव मुंक्यो, गढ़ भागो जिण धसमस ॥५८। सी० इण मास्यो वलि वजमुख राजा, लंकासुंदरि लीधी। बानर रूप पदमवन भागर, लकामइ हेल कीधी ।।५६।। सी० इम अपराध सुणीनई रावण, रूठउ होठ दंत ग्रहि। साकलि सुं बांधो मारई, कहइ अपणउ कीधउ एह लहि ॥६०॥ सी० रे पापिष्ट दुष्ट निरलज तुं, अधम सिरोमणि वानर । भूचर नउ तु दूत थयो, तो नहि पवनंजय कुयर ।।६१।। सी० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहि अंजणासुदर अगज, आचारे ओलखियइ। वलि दस दिवसे दोहिलो सहियई, पणि अपणी माम रखियइ ॥६२॥ हनुमंत कहइ हसीनइ तुझ माहि, नहि उत्तमनो लक्षण । असमंजस बोलइ का मुहडइ , का करई अपवित्र भक्षण ।।६३॥ सी० उत्तम हूइ परनारि सहोदर, अधम हरइ परनारी। नहि तू रतनाव नो नंदन, का हुयउ कुल क्षयकारी ॥६४॥ सी० इण वचने रांदण अति कोप्यो, हुकम करई सुभटान। देखो दुष्ट वचन वोलतो, पालण मारि कटानइं ॥६५॥ सी० सांकल वाँध सिहर मई सगलइ, घर-घर गली भमांडउ । लंका लोक पासि हीलावउ, दुख वानरनइ दिखाडउ ।।६।। सी० रावणरीस वचन सुणी वानर, वल करि बंधन छोडई। जिम मुनिवर सुभ ध्यान धरी नई, तुरत करम वध त्रोडइ ।।६७|| सी० ऊडि गयो उंचो आकासई, सीता दूत जिम समली । भांज्यो भुवन सहस जिहा थाभा, चरण लता दे सवली ॥६॥सी० पडतइ भुवन धरा पिण कॉपी, सेषनाग सलसलिया। लंका लोक सबल खलभलिया, उदधि नीर ऊछलिया ।।६।। सी० इम हनुमंत महातम अपणो, देखाडी लंकाम। किंकिंधनगरी नई चाल्यो, राम वधावणि कामई॥७॥ सी० सीता हनुमंत जातउ जाणी, असीस द्यइ जस लेजे। द्यइ पुष्पाजलि साम्हो हुई नई, कुशल खेम पहुचेजे ॥७१।। सी० खिण एक माहि गयो ऊडीनई, किंकिंध नगरीमइ । सुग्रीव पासि गयो सुखसेती, भलो काम कीयो भीमई ॥७२॥ सी० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) सुग्रीव उठि दीयो बहु आदर, राम पासि ले आयो। ऊठ्यो राम देखि आवंतो, परमानंद मनि पायो ||७३|| सी० करि प्रणाम हनुमंत चूडामणि, रामचंद नई दीधी। सीता मिलण समो सुख पायो, हीयडई आगलि लोधो ।।७४|| सी० वीजी ढाल भणी अति मोटी, हनुमंत दूत गमन की । समयसुंदर कहइ खंड छठा नी, रसिक माणस सुखजनकी ।।७।। सी० सर्वगाथा ।। १५८ ॥ दहा ११ कहइ सीता नई कुशल छई, हनुमंत वोलइ एम । तिहां जाता नइ आवतां, वात थई छइ जेम ||१|| संदेसो सीता कह्यो, थोडा दिवस मंझारि। जो नाया तउ जीवती, नहि देखो निजनारि ॥२॥ सीता सहिनाणी सुणो, सुणी तास संदेस । आपो निदइ रामजी, आणइ मनि संदेश ।।३।। धिग धिग जीवित तेहनो, धिग धिग तसु अवतार । जसु महिला रिपु मंदिरे, निवसनित निरधार ||४|| रामनइ आमणदूमणो, देखी लखमण ताम । कहइ सोचा' म करो तुम्हें, सीतल परना काम ||५|| लखमण तेडाया सुभट, सुग्रीवादिक झत्ति । ते कहई भामंडल अजी, नायो करो निरत्ति ।।६।। ढील नहि छह अम्ह तण, चालो लंका जेथि । पिण किम तरिस्या भुज करी, आडो समुद्र छईएथि ||७|| १-चिन्ता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) सिंहनाद खेचर कहड, एतो वात अयुक्त । आतम हित ते कीजियई, संत तणो ए सूक्त ।।८।। हनुमंत भागा जेहना, लंका भुवन प्राकार । ते रावण कोपी रह्यो, अम्हनइ नाखिस्यमारि ॥६॥ चंदरसमि तेतइ कहइ, सिंहनाद सुणि एह । कुण वीहइ रावण थकी, अम्ह वल कटक अछेह ।। १० ॥ राम तणकटकई मिलई, कुण कुण सुभट अभंग । नाम सुणो हिव तेहना, जे कर सवलो जंग ॥ ११ ।। || सवगाथा १६६ ।। ढाल ३ पद्धडी छदनी अति सवल घनरति सिंहनाद, घृतपूरह' केवलि किल प्रल्हाद । कुरुभीमकूट नई असनिवेग, नलि नील अंगद सवल तेग ॥ १॥ वजू बदन मंदरमालि जाण, चद्रजोति केता करूं बखाण । रणसीह सिंहरथ वजूदत्त, लागूल दिनकर सोमदत्त ॥ २॥ रिजुकीर्ति उलकापातु धोर, सुग्रीव नई हनुमंत वीर। वलि प्रभामंडल पवनगत्ति, इंद्रकेत नइ प्रहसंत कित्ति ।। ३ ।। भलभला एहवा सुभट भट्ट, वानर कटकमइ अति प्रगट्ट ॥ चंद्ररसमि विद्याधर वचन्न, सुणि करई वानर रण जतन्न ।। ४ ।। तिण वेलि कोपइ चड्या राम, चाडियो त्रिसलि नजरि स्याम ।। आफालियो निज धनुप चाडि, सिंहनाद कीधो बल दिखाडि ।।५।। १-घृतवरह Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) जिसो प्रलयकाल सूरिज प्रचंड, तिसो राम देखी तप अखंड । सुग्रीव प्रमुख वानर सलज्ज, दसवदन उपरि थया सज्ज ॥६॥ भगसिर तणउ जे प्रथम पक्ष, रविवार पाचम दिन प्रत्यक्ष। शुभ लगन वेलि विजय योग, राम कीयो चालणरो प्रयोग ॥ ७ ।। भलभला शकुन थया समस्त, निरधूम अगनि साम्ही प्रशस्त ।। आमरण पहिरे सधव नारि, हासला घोड़ड करइ हेपार ।। ८॥ निग्रंथ दरसण नयण दिछु, वायउ पवन अनुकूल पिट्ठ ।। चामर धजा तोरण विचित्र, गजराज पूरण कुंभ छत्र ॥६॥ संखनउ सवद सवच्छि गाय, नवलीयो दक्षिण दिसई जाय। अतिवृद्ध पुरुषनईसिद्ध अन्न, साभल्यो भेरी सवद कन्न ।।१०।। खीर वृक्ष ऊपरि चलित पक्ष, वासियो वायस वाम पक्ष । बीजा थया वलि शकुन जेह, सहु कहई कारिज सिद्ध तेह ।। ११ ॥ चाल्यो लंका दिसि रामचंद, साथइ विद्याधर तणा वृंद। नक्षत्र वीट्यो चंद जेम, आकास सोहइ राम तेम ।। १२ ।। सुग्रीव हनुमंत नइ सुसेण, नलनील अंगद शत्रुसेण । एहनइ वानर चिन्ह जाणि, वाजते तूरे वहइ विमाणि ।। १३ ।। खेचर विरोहिय चिन्ह हार, सिंहरथ तण तोसीहसार। मेघकंत नइ मातंग मत्त, रणसुर खेचर ध्वजारत्त ॥१४ ।। इण परि विमाने वाहनेषु, गजरथ तुरंगम चिन्ह देखु । आप आपणे वइसी विमान, विद्याधर कीधुं प्रयाण ।। १५ ।। लखमण सहोदर साथि लिद्ध, वानरे मारकि फोज किद्ध । जिम लोकपाले करीय इंद, सोहइ त्युं सुभटे रामचंद ॥ १६ ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) गयणे व सहु जाणि पक्षि, देवता दीसईते प्रत्यक्ष। अनुकमइ बेलघर समीप, गया समुद्र काठइ' तिहां महीप ।। १७ ।। आवतो वानर सैन्य देखि, करई जुद्ध सवलो नृप विशेप । ततकाल जीतो नलिईतेह, रामना प्रणासड पाय एह ।। १८ ॥ आपणी कन्या चतुर च्यार, लखमण भणी घइ अति उदार। तिहा रह्या रंग सु एक राति, वलि चालिया उठी प्रभाति ।। १६ ।। ततखिण गया लंका समीपि, उतस्या नीचा हंसदीपि । राजा तिहा हंसरथ प्रसिद्ध, सेवक थई बहु भगति किद्ध ।। २० ।। मुकियो माणस रामचंद, वेगि आवि भामंडल नरिंद। रामइ कियो तिणठामि मेल्हाण, पणि पड्यो लंकापुरी भंगाण ।। २१ ॥ ऊछली समुद्रनी जाणि वेल, खलभली लंका तेण मेल । आविया बानर दल उलट्टि, खिण माहि नगरी थई पलट्टि ॥ २२ ॥ दसबदन वाई मदन भेरि, ततकाल सुभटे लियो घेरि । वाया वली रण तणा तूर, तिण मिल्या रण झूमार सूर ।। २३ ।। आवीया सगला सूरवीर, वडवडा रावण तणा वजीर। हिव एण अवसरि करि प्रणाम, वाधव विभीषण कहइ आम ।। २४ ॥ इन्द्र समो राम नी रिद्धि आज, अति सवल वानर तणउ अवाज । राम सुं रावण म करि झुज्म, तुं मानि हित नी बात मुझ ।। २५ ।। का सुजस खोवई आलिमालि, का पाप करि पईस पयालि। भलभली ताहरई नवल नारि, तिणा थकी अधिकी नहि संसारि ॥२६॥ १नाम Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) सीता भणी पाछी संप्रेडि, नहीतरि न छोडई राम केडि । इम सुणि विभीपण तणा वोल, कहई इन्द्रजीत तु रहई अबोल ।। २७|| इहाँ तुझ ऊपरि नहिं बंधाण, बीहा तो वइसी रहि अयाण । संग्राम करि बहु सुभट मारि, आणी जिणइ ए सीत नारि ॥२८॥ रावण तिको किम तजइ तेह, परमान्न भूख्यो जेम एह । किम अमृत मुंकई त्रिष्यो जेह, दससीस तिम सीता सनेह ।। २६ ।। वलतो विभीषण कहइ एम, तुं सत्रुभूत सुत थयो केम। जे वचन तु एहबा जंपेइ, ते आगि मांहि इंधण खिवेइ ॥३०॥ लंका तणो गढ़ भाजि भूक, करि महल मंदिर ट्रक-ट्रक । जदि आवि लखमण कीघ हेल, तदि सीत देस्यो मुंकि खेल ॥३१॥ एकलो राम जीतो न जाय, लखमण सहित किम युद्ध थाय । एक सीहनई पाखस्यो होइ, कुण सकइ साम्हो तास जोइ ।। ३२ ।। ए मिल्या सुभट मिल्या अनेक कोडि, सुग्रीव हनुमंत साथ जोडि । नलनील अंगद अनलवेग, तेहनी अति आकरीज तेग ।। ३३ ।। पाछी सीता देता ज भव्य, आपणो राखो जीवितव्य । हुँ कहुँ केती अधिक बात, बीजी न सूझई काईधात ।। ३४ ॥ इम सुणी विभीषण कठिन बोल, कोपीयो रावण अति निटोल। उठीयो आपणो खडग काढि, मारु विभीपण सोस वाढि ।। ३५॥ तेतइ विभीषण वकि, सूरवीर साम्हो थयो सटक्कि' । उनमूलि थयो थंभ एक, मार दसानन टलइ उदेग ।। ३६ ।। १-~मटकि Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) जुद्धकरण लागा ततकालि, कुंभकर्ण भाई पड्यो विचालि काट्यो विभीषण रांवणेण, निज नगर थी कोपातुरेण ।। ३७ ॥ राजा विभीषण करिय रीस, अक्षोहिणी ले साथि तीस । गयो हंसदीप सवलड पडूरि, वाजते वाजे नवल तूर ।। ३८।। पड़ो खलभली वानर कटकि, चाडिउ धनुप रामइ झटकि। लखमण लिउ र विहास खग्ग, सावधान सुभट्ट थया समग्ग ।। ३६ ।। वांनरा केरो कटक देखि, वीह्यो विभीपण अति विशेपि । रामचंद्रनइ मुकियो दूत, जई कहई वीनति ते प्रभूत ॥ ४०॥ सीता तणो देता प्रबोध, मुझ थयो भाई सुं विरोध । हुँ आवियो हिब तुम्ह पास, तुं सामिनईहूं तुझ दास ।। ४१|| साभलो दूतना वचन सार, राम मंत्रि सु माडयो विचार । मंत्रीस मतिसागर कहेड, कहो वात कूड नी कुण लहेइ ॥ ४२ ।। मत रावण करि कपट कोइ, मुफ्यो विभीपण भाई होइ । वेसास करिवो नहीं तेण, पंडित वृहस्पति कहइ जेण ॥ ४३ ॥ मतिसमुद्र कहइ जल पणि छई एम, तो पणि न थायइ एम केम । सीता विरोध सुणियइ प्रसिद्ध, धरमी विभीपण नय समृद्ध ।। ४४ ॥ ते भणी निरदूपण कहाय, पछइ तुम्हें जाणो महाराय । सुणि राम मुकई प्रतीहार, तेड विभीपण सपरिवार ।। ४५॥ आयो विभीषण तुरत तेथि, श्रीराम बइठा हुँता जेथि। कर जोडि चरणे कीयो प्रणाम, अति घण आदर दियो राम ॥ ४६॥ कहइ सीत काजि विरोध मुज्झ, थयउ तेण आयो सरणि तुझ । हरपिया हनुमंत सुभट सर्व, सूरिमा जागी चड्या गवे ।। ४७ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) तेहवइ भामंडल भुवाल, आवियो माकझमाल भाल । श्रीराम आदर मांन दिद्ध, बानरे बहु प्रतिपत्ति किद्ध ।। ४८॥ तिहां हंसदीव' किताक दीह, रह्या राम लखमण अबीह ।। ए खंड छट्ठा तणी ढाल, त्रीजी पूरी थई तिण विचाल ।। ४६ ।। मुझ जनम श्री साचोर मांहि, तिहां-च्यार मास रह्या उछांहि । तिहा ढाल ए कीधी इकेज, कहइ समयसुंदर धरिय हेज ।। ५० ॥ सर्वगाथा ॥२१॥ दूहा ३१ लंका साम्हा सहु चल्या, पहुता संग्राम ठाम । वीस जोयण माहे रह्यो, कटक तणो आयाम ॥ १॥ कुंभकरण सामंत सहु, निज-निज कटक ले साथि । रावण नई पासइं गया, सहु हथियारे हाथि ॥२॥ राक्षसपति पूज्या सहू, वस्त्राभरण विशेषि । आदर मान घणो दीयो, चथा युगति ते देखि ।। ३ ।। एकवीस सहस नई आठसई, सत्तरि गजरथ सार। एक लाख नव सहस वलि, सढ त्रिणसय पालिहार ॥४॥ पांसठि सहस छसइ वली, दस अधिका केकाण । संख्या एक अक्षोहिणी, तेहनो ए परिमाण ॥५॥ १-हंसदीव याठ दीह Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) च्यारि' सहस अक्षोहिणी, रावण कीधी सज्ज । एक सहस अक्षोहिणो, वानर तणी सकज्ज ॥ ६ ॥ पांच' सहस अक्षोहिणी, थई एकठी प्रगट्ट । तेहवई रामतणो कटक, आयो नगरी निकट्ट ।। ७॥ घर थी नीसरता थका, खिण एक थयो विलंव । आप आंपणी अस्त्री कीयउ, पासई मिल्यउ कुटंब ।। ८ ।। काचित नारी इम कहई, प्रोतम कंठइ लागि। साम्हे घाये झझिजे, पणि मति आवइं भागि।।।।। काचित नारी इम कहइ, जिम तई मुझ नइ पूठि । नहीं दोधी तिम शत्रुनई, पणि देजे मा ऊठि ॥१०॥ काचित नारी इम कहइ, तिम करीज्ये तू कत । घा देखी तुझ पूठिनउ, सखियण मुझ न हसंत ।। ११ ॥ का० काचित नारी इम कहइ, रणमइ करतउ झूज्म । प्रेमपियारा प्राणपति, मत चीतारइ मुज्झ ।। १२ ।। काचित नारी इम कहइ, तिम मुग्वि लेने घाय । जिम मुख देतो माहरई, नख खिति साम्हो आय ॥१३।। काचित नारी इम कहइ, पाघडी मूके मुज्म । जिमहुं अति वहिली मिलु, सरगपुरी मई तुझ ॥ १४ ॥ काचित नारी इम कहइ, जय पामी घरि आवि । ए अस्त्री वीर भारिजा, मुझनइ विरुद कहावि ॥ १५॥ १- मामडल सेना सहित वानर तणी सकज। एक सहस अक्षोहिणी, राम कटकि थई सज्ज । ६ । २-चार सहस अक्षोहिणी, रावण कटक प्रकट्ट । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काचित नागे इम कहर, ए बात तुज वसाण । मत दिव मुम रंडापणो, जयश्री लहे. सुजाण ||१६|| काचित नारो इम काड, रे कालुया केकाण । भर रण माहे भेलिजे, घा वाजता समांण || १७ ॥ काचित नारी उम कहर, भागउ नुण्यो वर्याण। तउ सगपण ए आपणई, तुं भाइ हु भयणि || १८ ।। काचित नारी उम कहइ, रण तूं भूमि मरीसि । अपछर मइ मुझ ओलखे, हुँ तुझ वली वरीमि ।। १६॥ कचित नारी इम कहइ, विरह खमेसि हुँ कम । प्रीतम गलि विलगी रही, गज गलक कमलिनी जेम ॥ २० ॥ काचित नारि उम कहइ, भागा नहीं भय कोउ। जिम तिम आवे जीवतउ, सुख भोगवस्यां दोइ ॥२१॥ काचित नारी इम कहइ, जिम झूम झूमार । जेम पवाड़े गाइजई, ले पडिजे सिरदार ।। २२।। सुभट कहइ सुणि कामिनी, म करउ अम्ह असूर । अम्ह पहिली लेजाइस्य, जस कोई मत सूर ।। २३ ।। सुभट तिके ज सराहियर्ड, जे रण पहिलो भेलि। सेना भांजइ सत्रुनी, अणिए अणिए मेलि ॥२४॥ अरि करि दंत उपरि चडी, हणइ ऊपरि सिरदार । धड़ विण घा मारइ धसी, ते साचा झूझार ॥ २५ ॥ एक जोर अमरस तणउ, बीजउ अस्त्री प्रेम । मांहो मांहि भाट भडि, हुई थोडी-सी एम ॥ २६ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) समझावी सहु कामिनी, सुभट चल्या सहु कोइ । वली रावण ना कटक मइ, कुण-कुण भेलो होइ ।। २७॥ साढी च्यार कुमारनी, कोडि सुं रावण पुत्र । मेघनाद नई इन्द्रजित, गजारुढ़ गया तत्र ।। २८॥ चडि विमान जोतीप्रभइ, ले त्रिसूल निज हाथि । कुंभकरण राजा चल्यो, सुभट तणो ले साथि ।। २६ ।। राणउ रावण चालियो, वइसी पुष्प विमान । पृथिवी नभ आपूरतउ, बाजते नीसाण ॥३०॥ भूकपादिक चालता, हुया महा उतपात । रांवण ते मान्या नहीं, भावी न मिटइ बात ।। ३१ ।। सर्वगाथा ||२५०॥ ढाल ४ । राग सोरठ जाति जांगड़ानी ॥ हो संग्राम राम नइ रावण मंडाणा, जलनिधि जल ऊछलिया। इंद्र तणा आसण खलभलिया, शेषनाग सलसलिया ॥ १ हो सं०॥ प्रवल वेउं दल दीसई पूरा, अणिए अणिए मिलिया। सूरवीर उंचा ऊछलिया, हाक बुंव हूंकलिया ॥२ हो सं०॥ समुद्रवेलि सारिषउ राक्षस बल, दीठउ साम्हर आयो। रांम तणउ पणि वानर नठ दल, त्रूटिनइ साम्हो धायो॥ ३ हो संगा कुण कुण राम कटक नई बानर, नाम सुणउ कहुँ केता। जयमित्र १ हरिमित्र २ सवल ३ महावल ४, रथवर्द्धन ५ रथनेता ६ ॥ १० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) बढ़रथ ७ सिंहरथ ८ सूर : महासुर १०, सूरपवर ११ सूरकता १२ । सूरप्रभ १३ चंद्राभ १४ चंद्रानन १५, दमितारी १६ दुरदंता १७ शहो० देववल्लभ १८ मनवल्लभ १६ अतिवल२०, सुभट प्रीतिकर२१ काली २२ सुभकर २३ सुप्रसनचंद २४ कलिंगचंद्र २५, लोल २६ विमल २७ गुण माली २८ ।। ६ ।। हो० अप्रतिघात२६ सुजात३० अमितगति ३१, भीम३२ महाभीम३३ भा[३४ कील ३५ महाकील ३६ विकल २७ तरंगगति ३८, विजय ३६ सुसेण ४० बखाणुं ॥ ७ ॥ हो० रतनजटी ४१ मनहरण ४२ विरोहिय ४३, जल वाहन ४४ वायुवेगा ४५ सुग्रीव ४६ हनुमंत ४७ नल ४८ नील ४६ अंगद ५०, अनल ५१ अतुलीवल तेगा ॥ ८॥ हो० ॥ इम अनेक विद्याधर वानर, वली विभीषण ५१ राजा। सन्नद्ध वद्ध हुया सगलाई, करता वहुत आवाजा ॥६॥ हो० पूरा सहु पाचे हथियारे, सुभट विमाने वइठा । रामचंद आगइ थया रण मई, प्रथम फोज मइ पइठा ॥ १०॥ हो. सरणाई वाजई सिंधुडई, मदन भेरि पणि वाजई। ढोल दमामां एकल घाई, नादई अंबर गाजइ ॥ ११ ॥ हो० सिंहनाद करई रणसूरा, हाक धुंब हुंकारा । कांने सवद पड्यो सुणियइ नहीं, कीधा रज अंधारा ॥ १२ ॥ हो० युद्ध माहोमाहि सवलो लागो, तीर सडासडि लागी । जोर करीनई घा मारता, सुभटे तरुयारि भागी ।। १३ ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) कुहक वांण छूटइ नालि गोला, बिंदूक वहइ बिहुँ पासे। रीठ पडइ मोगर खडगांरी, अगनि ऊडइ आकासे ॥ १४ ॥ हो० साम्हे घाए झूझइ सूरा, धड विण राणी जाया। दल रांवण रउ भाजत देखी, हत्थ विहत्थ भड धाया ॥ १५॥ हो तिण बानर नो कटक धकाया, पाछा पग दिवराया। तितरइ राम तणां हलकास्या, नील अनइ नल धाया ।। १६ ।। हो० हत्थ विहत्य हथियारे मास्या, राक्षस बल मचकोड्यो। राति पडी आथमियो सुरिज, वे दल विढवो छोड्यो ॥ १७ ॥ हो० वीजइ दिन वलि रण झूझता, बानर सेना भागी। हाक मारि नइ हनुमत ऊठ्यो, सबल सुरिमा जागी ॥१८॥ हो० पवनपुत्र आवउ पेखी, कहइं राक्षस कोपंता। काल कृतांत जिसो ए कोप्यो, आज करइ अम्ह अंता ।।१६।। हो. साम्हो थई मुंकइ सर' धोरणि, सुभट सिरोमणि माली। हनुमंत वाण क्षुरप्र संघातई, बाढ़ी नाखई विचाली ।।२०।। हो० वजोदर राजा बहि आयो, हनुमंत सन्नाह भेद्यो । काढ़ि खडग कोपातुर हनुमंति, वजोदर सिर छेद्यो ॥२१॥ हो० रावण सुत जंबुमालि प्रमुख नई, हणइं हनुमंत वलि हेल। हाथ त्रिसूल लेई नइ धायो, कुभकरण तिण वेलई ॥२२॥ हो० कुंभकरण आवतो देखी, चंदरस मि चंद्राभा। रतनजटी भामंडल धाया, जिम भाद्रव ना आभा ॥२३॥ हो० १-बदृका छूटइ चिहु पासि २--रण Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) दशनावरणी विद्या थंभा, कुंभकरणइ छलि लीधा। हाथ थकी हथियार पड्यो सहु, निद्रा घूर्मित कीधा ॥२४॥ हो० ते ऊपरि त्रूटीन धायो, सुग्रीव वानर राजा। मुंकी निज पडिवोहिणी विद्या, जागरूक थया साजा ॥२५॥ हो० सुभटवली सावधान थई नइ, जुद्ध करण रण सूरा । कुंभकरणनइ सुभटे भागो, वलि वागा रण तूरा ||२६।। हो इन्द्रजित विढता आड आयो, कहई वीनति अवधारो। तुम्ह आगई संग्राम करिसि हुं, तुम्हे वासोवपुकारो ।२७। हो० इम जंपंत गज उपरि चडि, रिपसेन सर वीधी। भामंडल सुं सुग्रीव धायो, सवल झडाझडि लीधी ॥२८॥ हो० तुरगी तुरगी सुं तरुयारे, रथी रथी सुं प्रहारे। गजी गजी सु जंग मंडाणो, पालिहार पालिहारे ॥२६|हो. कहइ इन्द्रजित तुझ मस्तके छेदिसि, सुणि तुं सुग्रीवराया। कां तुं लंकापति छोडीनई, सेवइ भूधर पाया ॥३०॥ हो० कंकपत्र सर मुँकइ इन्द्रजित, सुग्रीव आवता छेदई। मेघवाहन भामंडल पणि वलि, एक एकनई भेदई ॥३१॥ हो० वतनाम विरोही रुध्यो, विद्या वलि रण माहे। सुग्रीवनई वांव्यो नागपासई, विद्या हथियार वाहे ॥३२॥ हो० घनवाहन भामंडल बांध्यो, देखि कटक डमडोल्यो। लपमण राम समीपई आवी, एम विभीषण बोल्यो ॥३३॥ हो० सुभट अम्हारा रावण बेटे, नागपास करि बांध्या 1 कुम्भकरण हनुमन्त नइ बांध्यो, बलराक्ष ना वाध्या ।। ३४ ॥ हो? Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) रांम हुकम अंगद नृप ऊठ्यो, कुंभकरण दल मोडई। हाक मारि हनुमन्त वीर तितरई, नागपासि निजत्रोडइं॥३शाहो० हनुमन्त वीर अनइ अंगद नृप, वेऊ विमाने वश्ठा । लखमण कुमर विरोही विद्याधर, भर रण माहे पइठा ॥३६॥ हो० लखमण सहु संतोऽया वचने, पास बंधण जे पडिया। इन्द्रजित कुमर विभीषण तेहवइं, वे माहोमांहि अडिया ॥३७॥हो. इन्द्रजित कुमर चिंतवा लागो, ए मुझ वाप नी ठामई। जुद्ध करी जीता पणि नहि जस, ओसरिवो इण कांमई ॥३८॥ हो। ओसरतो भामंडल सुग्रीव नइ वांधी नइ नीसरीयो। देखी रांमभणी कहइ लखमण, आरति चिंता भरियो ।।३।। हो० इसा सुभटां विण किम जीपायइ, रावण विद्या पूरउ । रांम हुकम लखमण सुर समस्यो, आयो वोलतउ सूरो॥४०॥हो० चउथी ढाल थई ए पूरी, पिणि सग्राम अधूरो । समयसुंदर कहइ सुर करई सानिधि, पुण्य हुयइ जउ पूरो ॥४शाहो. सर्वगाथा ॥२६॥ दूहा १८ रामचन्द नइ देवता, दोधी विद्या सीह । गुरुड तणी लखमण भणी, तेहथी थया अवीह ।। १ ।। प्रहरण सन्नाहे भस्या, रथ दीधा वलि दोय । नामई वजूवदन गदा, लखमण नै धइ सोय ॥२॥ हल मूसल दीया राम नइ , रथ जोत्राया सीह । विहुं रथ वइठा वे जणा, हनुमन्त साथि ग्रहीह ॥३॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयासंग्राम मांहे वली, लखमण राम उल्हास । गरुड घजा तसुदेयतां, नागपामि गया नासि ॥४॥ भामंडल सुग्रीव सहु, मुकाणा ततकाल । आइ मिल्या श्रीराम नइ, गयो जीव जंजाल ।।५।। पूछइ करि जोडी प्रभो, सकति किहा थी एह । राम कहई तुम्हे साभलो, जिम भाजईसन्देह ।।६।। जलभूषण देसभूपणा, मुनिवर परवत शृंगि। उपसर्ग सहता ऊपनो, केवलज्ञान सुरंग ।। ७ ।। अम्हनइ वर दीधो हुँतो, गुरुडाधिप तिण ठाम । आज अम्हे ते मांगियो, सीधा वंछित काम ।। ८॥ विद्याधर इम साभली, रंज्या साधु गुणेण । परससा करइ पुण्यनी, पुण्य करो सहु तेण ||६|| करवा लागा जुद्ध वलि, कटक देउं बहु बार। सुग्रीव सुभटे जीपिया, राक्षस ना झूमार ॥ १० ॥ रावण उठ्यो रीस भरि, रथ बइसी रण सूर । सुभट सहू वानर तणा, भांजि कीया चकचूर ।।११।। वानर कटक धकेलियो, देखि विभीसणराय। सन्नद्ध वद्ध हुई करि, रावण साम्हउ धाय ।। १२ ।। रावण कहइ जा माहरी, दृष्टि थकी तू दूरि। वाधव वध जुगतो नहीं, नावे मुज्म हजूरि ॥ १३ ॥ वदइ विभीषण एम पणि, जुगति नही' छइ काई। रिपु नई बीहतो पूठि धइ, कायर ते कहवाइ ॥ १४ ॥ १-न दोसइ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) रांवण कहई जुगतो किसो, तई कीधो छइ काज । तजि रतनाव वंस नइ, अरि चाकर थयो आज ||१५|| वदइ विभीषण दसवदन, सुणि तइजुगत न कीध । परस्त्री आणी पापिया, कुलन लांछन दीध ।। १६ ।। जुगत बात तउ मई केरी, दियो अन्याई छोडि । न्यायवंत पासई रह्यो, मुझनई केही खोडि ।। १७ ॥ अजी सीम गयो फ्युं नहीं, मानि अम्हारउ वोल। सीता पाछी सूपि तु, भूलि मानिपट निटोल ॥ १८ ॥ सर्वगाथा ॥२०६॥ ढाल पांचमो ॥ खेलानी ॥ इमसुणि रावण कोपियो जीहो, माडियो जुद्ध विभीपण साथि के। बांण वाहइ ते विहंगमा जीहो, तीर भाथा भरी धनुष ले हाथि के ॥शा राम रांवण रण माडियो जीहो, झूझइ छइ राणी रा जाया झूमार के। हाक मारई मुखि हुकलईजीहो, सूर नइ वीर वडा सिरदार के ॥२॥ इन्द्रजित लखमण सु अड्यो जीहो, कुभकरण करई राम सु जुद्धके । सीह अड्यो साम्हो नीलसु जीहो, नल सु अड्यो दुरमद अति क्रुद्धके ॥३॥ सयंभु सुभट अड्यो सुंभु सुं जीहो, इम अनेरी वलि सुभट नी कोडि के। सूर पुरुष चड्या सूरिमा जीहो, कायर कापइ छइ निज वल छोड़ि के ॥४॥ लखमणइ इन्द्रजित वाधियो जीहो, राम बाध्यो कुंभकर्ण सगर्व के । इम मेघवाहन प्रमुख नइ जीहो, वाधीया नागपासे करी सर्व के ॥५॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) वानरे आपणई कटक मईजीहो, आणिया राक्षस बांधणे वंधि के । इण अवसरि विभीपण प्रतइ जीहो, क्रोध करी नइ कहई दसकंध के || सहि तुं प्रहार एक माहरो जीहो, जो रणसुर छः सबल जूमार के। कहई विभीषण एक घाइ सुजीहो, मुंकि प्रहार अनेक प्रकार के l वांधव मारण मकियो जीहो, रावणई सवल त्रिसूल हथियार के। लखमण आवतो ते हण्यो जीहो, वांगसुं चपु पुण्यप्रकार के ||८|| कोपीयई रावणई करि लीयो, अमोघ विजय महा सगति हथियार के। आगलि दीठे ऊभउ रह्यो जीहो, मरकत मणि छवि वरण उदार के 118|| श्रीवछ करि सोभित हियो जीहो, गरजध्वज लखमण महासूर के। लंकापति कहई फ्यु ऊभ रह्यो जीहो, रे धीठ माहरी दृष्टि हजर के 1१०1 गजचडी लखमण माडियो जीहो, संग्राम रावण सुं ततकाल के । सकति मुंकि राणइं रावणइंजीहो, ऊछली अगनिनी झाल असराल के।११ लखमण नई लागी होयई जीहो, ऊछली वेदना सहिय न जाय के। धुसकि नइधरणी उपरि पडयो जीहो,मुरछित थयो गया नयण मीचायके लखमणनइ धरती पड्यो जीहो, देखिनई राम काई रण घोर के। छत्र धनुप रथ छेदिया जीहो, दीया दस सिर नई प्रहार कठोर के।।१३।। लंकपति भय करी कांपियो जीहो, मालि सकइ नहीं धनुप हथियारके । नवे-नवे वाहने झूझतो जीहो, राम कीधो रथ रहित छवार के ॥१४॥ मार सिक्युं नहि मूलथी जीहो, पिणि निभ्रंछियो वचन विशेषि के। रे रे त लखमणनई हण्यो जीहो,हिवाई हुतुनइ करुयते देखि के।।१।। रथ थकी रावण उसख्यो जीहो, पउठो लंकापुरी मांहि तुरन्त के । मई माहरो रिपु मारीयो जीहो, तेण हरपित थयो तेहनो चित्त के ॥१६॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) राम सुणी सहोदर तणी जीहो, वध तणी वात द्रोडी आयउ पासके । सगतिमात्यो पृथिवी पड्यो जीहो, देखिनईदुखु लायो घणो तासके।१७/ विरह विलाप करतो थको जीहो, नाखतो आसु नोर प्रवाह के। मूर्छित थई पृथिवी पड्यो जीहो, सवल सहोदर नो दुख दाह के ॥१८॥ सीतल जल सचेतन करयो जीहो, राम विलाप करई वली एम के। हा वछ ए रणभूमिका जीहो, अठि सहोदर सूइजइ केम के ॥१६॥ रा० समुद्र लाघो इहा आवीया जीहो, सवल संग्राम माहे पड्या आज के। तु कां अणवोल्यइ सी रह्यो जोहो ,किम सरिस्सइइम आँपण काज के।। विरह खमुं किम ताहरो, जीहो वोलितु वच्छ जिम धीरज होइ के । राज नइ रिद्धि रमणी किसी जीहो, वाधव सरिसो ससारि न कोइ के अथवा पूरव भव मई कीया जीहो, जाणीयइ छइ कोई पाप अघोर के सीता निमित्त इहाँ आवीया जीहो, पड्यो लखमण हिव केह नुं जोर के रे हीया का तुं फाटइ नही जोहो, वजू समो हुवो केण प्रकार के। जे विना खिण सरतो नही जीहो, तेह बोल्यां थई अतिघणो वार के ॥ पाच सकति मुंकी तुज्झ नइ जीहो, सत्रुदमनि तेतउ टाली तुरन्त के। एक रावण तणी सकति तईजीहो, झालि न राखी वाधव किम मत्तिके ऊठि वाधव धनुष ए हाथि लइ, साधि हुँ तीर लगाइ मा वार के। ए मुझ मारण आवीयो जीहो, सत्रुनइ कहि कुण वारणहार के ।।२।। इणि परि बाधव दुख भत्यो जीहो, राम करइ घणा विरह विलाप के। कहइ सुग्रीव नइ हिव तुम्हे जीहो, आप आपणी ठाम सहु जाय आप के मुझ मनोरथ सहु मनमाहि रह्या जीहो, सुणि विभीपण राजा कहुँ तेह के तई उपगार मुझ नई कियो जीहो, मुझ पछतावो रह्यो एहके ।।२७| Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) प्रत्युपकार मई तुज्झ नई जीहो, करिन सक्यो ते सालइ घणु वोल के । नही सीता दुख तेहवो जीहो, जेहवो ए बोल दहइ छइ निटोल के २८ सुग्रीव प्रमुख सुभट सहू जीहो, आपणइ घरि जात्यई सहु कोइ के। तुं पणि जा घरि आपणजीहो, हिब मुझ थी कांइ सिद्धि न होड के। राम वचन इम साभली जीहो, जंपइ जंबवंत विद्याधर एम के । राम अंदोह दुखु का करो जीहो, विरह विलाप करो तुम्हे केम के ॥ हुवो हुसियार धीरज धरो जीहो, उत्तम सुख दुख एक सभाव के। सूरिज तेज मुंकइ नहीं जीहो, जगतइ आथमइ तेण प्रस्ताव के ॥३शारा० अति सबल संकट पड्यो सहइजीहो, साहसंवत पुरुष संसारि के।। वजूनो घात पृथिवी सहइ जीहो, नवि सहइ तु तू एम विचार के ||३२|| लखमण सकति विद्या हण्यो जीहो, मूर्छित थयो पणी नही मुंयो एह के। को उपचारे करी जीविस्यई, जीहो ए वातनो इहां नहीं संदेह के ॥३३॥ ते भणी उपचार कीजीयइ जीहो, राति माहे तुम्हें मत करो ढीलि के। नहि तउलखमणमरिस्वइ सही जीहो,जउरविकिरण तसु लागिसइ डोलिके. राम आदेस विद्याधरे, जीहो विद्या बलिइकीया सात प्रकार के। सात सेना सवली सजी, जोहो सात सेनानी सवला सिरदार के ॥३॥ नल पहिलइ रह्यो वारणइ, जीहो धनुष चडावी नई खंचि करि तीर के नील वीजइ रह्यो वारणई, जीहो हाथ गदा लेई साहस धीर के ।।३६/अतिवल हाथि त्रिसूल ले, जीहो त्रीजइ बारणइ रह्यो सूरवीर के। कुमुद रह्यो चउथई वारणइं, जीहो पहरि सन्नाह कडि वांधि तूणीर के हाथि भालउ ग्रही नउ रह्यो, जीहो पाँचमई बारणइ परचंडसेन के। सुग्रीव छट्टई वारणइ, जोहो झालि रह्यो हथियार वलेन के ॥३८॥ रा० भामंडल रह्यो सातमई, जीहो बारणइ विरुद वाँची रह्यो सूर के। सुभट रह्या सगली दिसइ, जीहो अभंग भड अतुलबल प्रवल पडूर के। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) लखमणनी रक्षा करइ, जीहो सहु सावधान रहइ सुविशेष के। आवि रावण तिहाँ दुखकरइ, बांधव पुत्र वे वाधिया देखि के ॥४०॥ हां कुंभकरण हा वाधवा, जीहो इन्द्रजित पुत्र हा मेघनाद के । मो जीवतइ तुम्हें वाधीया, जीहो धिग मुझनइ पड्यो करइ विपवाद के धिग विलसित विधाता तणो, जीहो जिण मुझनईदुख एवडउ दीध के जउ कदाचित लखमण मुंयो, जीहो तुउ करिस्य का ए किसुं सीध के ॥ बांधव पुत्र वाधे थके, जीहो परमारथ थकी हुं वाधीयउ नेटि के। रांवण चिंतातुर थको, जीहो कहइ परमेसर संकट मेटि के ॥४३॥ रा० तिण अवसरि वात भिली, जोहो सीतापणि करई दुखु विलाप के। लखमण सकति सुं मारियो, जीहो पृथिवी पड्यो माहरइ पोतई पाप के करुणसरि आक्रंद करई, जीहो दीन दयामणी वचन कहइ एम के। हुँ हीन पुण्य अभागिणी, जीहो माहरई कारज थयो दुःख केम के ।४५॥ हे लखमण जलनिधितरी, जीहो आवियो हुँ निज बाधव काजि के। ए अवस्था (हिव) पामीयो, जीहो बांधवनइ कुण करिस्य सहाजि के। है है हु वालक थकी, जीहो काइ मारी नहीं फिट करतार के। जेहना पग थकी मारीयो, जीहो मुझ प्रियु नइ जीव प्राण आधार के 1. हे देवर तुम्हनइ देवता, जीहो राखिज्यो सुगुरु तणी आसीस के।। सील सतीयां तणो राखिज्यो, जीहो जीविज्यो लखमण कोडि वरीस के इणपरि सीता रोती थकी, जीहो राखी विद्याधरे बांभीस दे के। तुज्म देठर मरिस्यइ नहीं, जीहो वचन अमगल मात न कहेइ के ||४|| छठ्ठा खंडनी पाचमी, जीहो ढाल मोटी कही एणि प्रकार के। समयसुदर कहई हुं स्यु करूं, जोहो गहन रामायन गहन अधिकार के ।। सर्वगाथा ३५६ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) दहा १२ मीतायइ धीरज धत्यो, तेवइ खेचर एक। राम कटक मई आवियो, मनि धरी परम विवेक ॥११॥ पणि भामंडल रोकियो, आवंता दरवारि। घूछयो कहि किम आवियो, ते कहइ सुणि सुविचार ॥२॥ लखमण नइ जउ जीवतो, तुं वांछइ सुभमत्ति । तउ जावा दे मुझ नइ, रांम समीपइ झत्ति ॥३।। जिम हुँ तिहां जाई कहुँ, साल उधरण उपाय । भामंडल हरपित थकउ, राम पासि ले जाय ॥४॥ विद्याधर इम वीनवइ, राम नइ करी प्रणाम । चिंता म करउ जीविस्थड, लखमण ते विधि आम ॥५॥ आणंद रामनई अपनो, कहइ तुझ वचन प्रमाण । भद्रक तुझ होइजो भलो, तुं तउ चतुर सुजाण ||६|| कहि तुं किहाँ थी आवियो, लखमण जीवइ कम । रामई इण परि पूछियो, विद्याधर कहइ एम ||७|| सुरगीत नाम नगर धणी, ससिमंडल सुपवित्र । उदर शसिप्रभा अपनड, हुं चंद्रमंडल पुत्र |८| गगन मंडल भमतइ थक३, मइ तसु लाधी वइर। सहसविजय नइ जाँगीयो, मुफ नई देखी वइर ।।६।। वेद करता तेण मुंम, दीघउ सकति प्रहार । पड्यो अयोध्या पुर तणइ, हुँ उद्यान मझार ॥१०॥ दुखियो भरतइ देखियो, मुझ न पड्यो ससल्ल । चंदनरत छांटी करी, कीधो तुरत निसल्ल ॥ ११॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) मइ पूछयो श्री भरतनई, कहो ए जल परभाव । किम जाण्यो किहां पामीयो, ते कहो सहु प्रस्ताव ।। १२ ।। सर्वगाथा ॥ ३७१ ॥ ढाल प्रोहितियारी अथवा सघवीरी रांम कह सुण विद्याधर वात हो, पहिले इण नगरी मइ मरकी हुंती प्रजा पीडामी दिनराति हो, दाय उपाय विहाँ लागइ नहीं ॥ १॥ रा० थयो नीरोग द्रोण भूपाल हो, परिवार सेती भरतइ साभल्यो ते तेडायो ततकाल हो, पूछयो मामा किम रोग गयो टली ॥ २॥रा० द्रोणमुख राजा कह्यो एम हो, माहरइ बेटी विसल्या छइ घरे तिण गरभ थकी पणि खेम हो, कीधोमाता नो रोग गमाडीयो ॥शारा० ते जिनसासन सिणगार हो, मानइ तेहनइ सहुँ को जिम देवता। ते स्नान करती नारि हो, लागउ पाणी नो धावि नइ बिटुयो॥४॥रा० तेहनो ततखिण गयो रोग हो, तिण नगरी मइ वात प्रसिद्ध थई। ते जल लेई गया लोग हो, रोग रहित सहु नरनारी थया ।।शा रा० थयो भरतनइ अति अचरज्ज हो, तेहवइ चउनाणी साध समोसस्था । गयउ भरत वादण थई सज्ज हो, पूछइ वे करि जोडी साधनइ ।।।रा० कहउ भगवन पूरव जनमि हो, इण कन्यायइ पुण्य किसा किया। ए कन्या करेउ धम्मि हो, सुर नर नारी सहु विसमय पड्या ||७|| रा० कहइ न्यानी एम मुर्णिद हो, विजय पुण्डरीकणि चक्रनगर भलो। तिहां राजा तिहुंणाणंद हो, चक्रवर्ती केरी पदवी भोगवइ ।। ८ ।। रा० तेहनी पुत्री रुववत हो, अनंगमुदरी नामइ अति भली। ते सकल कला सोभंत हो, जोवन लहरे जायइ उल्लटिउ ||| रा० Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) ते रमती घर उद्यान हो, दीठी प्रतिष्ट नगरी नड राजीयइ। पुणवसु तेहनउ अभिधान हो, सवलो विद्याधर ते कामी घj ||१०रा० तिण अपहरी कुमरी तेह हो, चक्रवर्ति सुभटे जुद्ध सबलो कीयो । तसु जाजरी कीधी देह हो, भागउ विमान नई कन्या भूपडी ||१|| ते अडवी डंडाकार हो, पडता दुखीणी कुमरी अति घणुं। करइ दुखु अनेक प्रकार हो, अवाण असरण तिहा रहइ एकली ।।१२।। वरई अरिहंत नउ ध्यान हो, सहुं संसार असार करी गिणई। तमु सूधू समकित ज्ञान हो, तप करइ अट्ठम दसम ते आकरा ||१|| ते भोजन करइ इकवार हो, फल फूल खायइ तप नइ पारण: । उण रहणी रहता अपार हो, त्रिणसइ वरसां सीम तप कीयो आकरो १४ संलेपण कीधी एम हो, अणसण की, चउविहार याकरूं। तसु धरम ऊपरि वहु प्रेम हो, वलि तिण कीधउ अभिग्रह एवउ ॥१३॥ सउ हाथ उपरि मुम नीम हो, इहाथी अधिकी धरती जाउं नहीं। इम दिवस छठ्ठा लगी सीम हो, रहतां चडते परणामे चडी ।।१६। रा० तेहवइ मेरु प्रतिमा वादि हो, आवतइ दीठी किण विद्याधरई। ते पभणईएम आणंद हो, चालि पिता पासि मुकुं तुज्म नई ॥१७ारा० कहइ कन्या ताहरी ठाम हो, तुं जा ताहरउ अधिकार इहा नहीं। ते पहुतो चक्रपुर गाम हो, वात कहइ सगली चक्रवर्ति नइ ।।१८॥ रा० पुत्री नइ ते गयो पासि हो, चक्रवति प्रेम घणउ पुत्री तणो । अजगिर आवी गली तारु हो, किमही न टलइ ए भवितव्यता ॥१६॥रा० ते विरतांत देखी वाप हो, द्रउडी नई आयो नगरी आपणी । वे करतउ कोडि' विलापहो, वइराग आयउ मन माहे आकरउ ।।२०।। १-विरह Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) राय लीयो संयम भार हो, बाइस सहस बेटा सुं परिवस्य । ते जाणती मंत्र अपार हो, पणि तिण अजिगरनइ वास्यो नहीं ।।२१।।रा० तसु मेरु अडिग रह्यो मन्न हो, सुख समाधि संघात ते मुँई । ते धरमणि कन्या धन्न हो, ते देवलोक माहे देवी ते थई ।।२२।। रा० ते खेचर पुणवसु नाम हो, कन्या नइ विरह करि दुखियो थयो। तिण व्रत लीधो अभिराम हो, तपजप कीधा तिण अति घणा॥२३शारा० ते काल करी थयो देव हो, तिहाथी चवी नइ ते लखमण थयो। तिहां भोगवि सुख नितमेव हो, ते पणि देवी तिहा कणि थी चवीं ॥२४॥ थइ द्रोण नरिंदनी धूय हो, नामइ विसल्यो कुमरी विस्तरी। तसु पूरव पुन्य प्रभूय हो, तिण न्हवणोदकि रोग टलइ सहू ॥२॥ रा० वलि पूछ्यो मुनिवर तेह हो, कहउ किम भगवन मरगी ऊपनी । कहइ मुनिवर कारण एह हो, गजपुर वासी विमउ वाणियउ २ारा० ते पोठभरीनइ एथि हो, आयो वहु भार करी नई आक्रम्यो। एक भइ सउ पडियो तेथि हो, किणही तसु सार नई सुद्ध करी नही २७ ते मुंयो सहि बहु दुखु हो, करम थोडा किया अकाम निरजरा । लह्या वायुकुमार ना सुखु हो, जातीसमरण करि पूरवभव जाणोयो ।। ते कोप चड्यो ततकाल हो, मरगी उपजावई सगली गाम मई। पणि सील प्रभाव विसाल हो, रोग विसल्या न्हवणोद कि गया ।।२६।। ए भरतनई कह्यो विरतंत हो, साधइ भरतइ पणि मुझ नइ दाखियो। मई ते तुम्ह कह्यो तुरन्त हो, तुम्ह न्हवणोदक आणो तेहनो ॥३०|| रा० १-सबला Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) ते पाणी तणइ प्रभावि हो, सहिय सहोदर लखमण जीविस्य । इम जाण्यो भेद ते जीव हो, अति घणउ रामनई संतोप ऊपनो ||३१|| ए छठ्ठा खंडनी ढाल हो, छट्ठी पूरी थई वात छती कही। ते सुणता सखर रसाल हो, समयसुंदर कहइ चतुर सुजाण न३ ॥३२॥ रा० सर्वगाथा ||४०३|| दूहा १३ जंबु नदादिक मत्रि सुं, आलोची नइ राम । भामंडल मुंक्यो तिहा, नगर अयोध्या ठाम ॥ १॥ भरत देखि नइ ऊठियो, पूछइ कुशल नइ खेम । ते कहई कुशल किहा थकी, वात थई छइ एम ॥ २॥ सीता रावण अपहरी, सबलउ थयो सग्राम । लखमण नइ लागी सकति, दुखियो वरतराम ॥३॥ भरत वात ए साभली, कोप चड्यो ततकाल । ऊठ्यो अति उतावलो, करि झाली करवाल ॥४॥ रे रे किहां रावण तिको, ते देखाडो मुज्झ । जिण मुम वांधव नइ हण्यो, तिण सेती करु झुज्झ ॥५॥ भामंडल आडइ पड़ी, भरत नै वरिज्यो ताम। विषम समुद्र खाई विषम, विषमो लंका ठाम ॥ ६ ॥ भरत कहइ तो स्यु करु, भामंडल कहइ एम । आणि विसल्या स्नानजल, जीवइ भाई जेम ॥७॥ भरत कहइ ए केतलो, न्हवणोदक नी बात । जावो विसल्या ले तुम्हे, जल जोखीम कहात ॥ ८ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ । मुनिवर पिण भाख्यो हुतो, चीता आव्यो तेह । लखमण नई महिला रतन, होम्यई कन्या एह ॥६॥ इम कहिनइ मुंक्य उ तुरत, द्रोणमेघ नइ दूत । ते कन्या आपै नहीं, सीह जगाओ सूत ||१०|| जुद्ध करण ततपर थयो, गई केकेई ताम । अति मीठे वचने करी, समझायो हित काम ||११|| बहिनि वचन बहु मानियो, मुंकी कन्या तेह। सहस सहेली परिवरी, रूपवंत गुण गेह ।।१२।। सखर विमान वइसारिनई, पहुती कीधी तेथि । संग्रामई सकतई हण्यो, लखमण सूतो जेथि ॥१३॥ सर्वगाथा ||४१६।। ढाल ७ राग मल्हार 'श्रावण मास सोहामणउ ए चउमासिया' ए गीतनी ढाल । राम नई दीधी बधावणी, आई विसल्या एथ्योजी। हरखित श्रीरामचंद हुया, पूछयो कहो कहो केथ्यो जी । कहो केथि तेवइ राजहंसी, परिवरी हसी करी । ऊतरी नीची मानसरवर, जेम तिम ते कुयरी ।। चिहुँ दिसईचामर वीजती नइ, सहेली साथई घणी। पदमणी लखमण पासि पहुँती, राम नउ दीधी वधावणी ।।१।। लखमण नउ अंग फरसीयो, हाथ विसल्या लायोजो। सकति हीया थी नीसरी, अगनि मुंकती जायोजी ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंकति जायइ अगनि माला, हनुमंत काठी ग्रहो। कामिनी रूपइ कहइ सुणि तुं, दोस माहरउ को नही ।। तु मुंकि मुझ नइ वात सांभलि, मई सहु को संतापीयो। हुँ सकति रूप अमोघ विजया, लखमणनो अंग फरसियो ।।२।। अष्टापद नाटक कीयो, रावण आणी रंगोजी। नृत्य करइ मंदोदरी, भगवंत भगति अभगोजी ।। भगवंत भगति अभंग करता, वीण तात त्रूटी गई। तिण मुजा थी नस काढि साधी, भगति भगवंत नी थई । ए सकती दीधी नागराजा, रावण अपरि रंजीयो । ए आज पहिली किण न जीती, अष्टापद नाटक कीयो ||३|| आज विसल्या मुझ तणो, जीतउ तेज प्रतापोजी। पूरव भव तप आकरा, इण कन्या कीया आपोजो ।। कीया आकरा तप एणि हुँ. हिव जाउंछु मुझ छोडि दे । सापुरुष खमि अपराध माहरउ, बात जुगती जोड़ि दे। इम छोडि दीधी सकति नइ हिव, आगला संबन्ध सुणो। कीयो राम नइ परणाम कन्या, आज विसल्या मुझ तणो ||४|| लखमण पासि वइठी जई, आदर दीधो रामोजी । कर सुं लखमण फरसीयो, सुरचंदन अभिरामोजी ॥ अभिराम लखमण थयो वइठो, सावधान थयो तदा । पूछियो कहो ए विरतात कुग, ए कहइ राम सुणो मुदा। रावणइ सकति प्रहार मुक्यो, तुं पड्यो अचेतन थई । इण कुंयरि तुझ नइ दीयो जीवित, पीडा सहु दूरइ गई ।।५।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) मंदिर प्रमुख सुभट मिल्या, प्रगट्या परम प्रमोदोजी। लखमण कुंमर निपेधिया, कीजइ किस्सा विनोदोजी ।। कीजीयइ झूठ विनोद केहा, जीवतइ रावण अरी। कहई राम रावण हण्यई सरिखो, गुंजतई तई केसरी ।। श्रीराम वचनइ सुभट साजा, विसल्या कीधा वली । कन्या ते लखमण नइ प्रणावी, मदिर प्रमुख सुभटा मिली ॥३।। ए विरतात सुण्यो सहू, रावण सेवक पासोजी । उंडउ आलोच माडियो, महेता सेती विमासोजी ॥ सुविमासि नई मिरगाक मंत्री, करइ एहवी बोनती। तु रूसि भावई तुसि सामी, कहिसु तुझ नइ हित मती ।। ए राम लखमण सवल दोखई, एइनइ लसकर बहू । जिण तुज्झ वांधव पुत्र बाध्या, ए विरतांत सुण्यो सहू ।।७।। सकती विद्या नाखी हणी, तेहनइ किम पहुचायोजी। सीता पाछी सुपियइ, तर सहु जंजाल जायोजी ॥ जंजाल जायइं मोल थायई, तो भलो हुयइ सर्व नो। तेहनइ आगली भाजीयइ तउ, किसो वहिवो गर्व नो ।। लंकेस कहइ मइ वात मानी, पणि सीतानइ मेल्हणी । अनइ मेल करिस्युं राम सेती, सक्रति विद्या नी हणी ||८|| उम आलोची मुकियो, दूत एक परधानोजी। करि प्रणाम श्रीराम नई, वीनति करई वहुमानोजो ।। वहुमान रावण एम बोलइ, मेलि करि पाछा वलो । रण थकी मनुष्य संहार थास्य३, पाप करम थकी टलो ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) माहरो महातम अधिक जाण', इन्द्र नेण हरावियउ । मत करइ राम संग्राम मुझ सुं, इम आलोची मुंकियर ॥६|| पंचमुख पणि गिरवर रहते, गजी न सकइ कोयोजी। तउ दसमुख किम गजियइ, राम विमासी जोयोजी ।। विमास नई तु मुकि माहरा, सुभट पुत्र सहोदरा । तु सासहि सीता माहरइ घरि, मेल करि सुमनोहरा ॥ लंकातणा दो भाग देस्यु, दूत वचन न सरदह्यो। राम कह्यो ते सुणिज्यो सहू को, पंचमुख पणि गिरवर रह्यो ॥१०॥ राज सुं काम कोई नहीं, अन्य रमणि नहि कामोजी । तुम पुत्रादिक छोडिस्यु, द्यइ सीता कहइ रामोजी ।। कहइ राम तेहवइ दूत वोल्यो, म करि राम तुंगव ए। तु जुद्ध करतो सहिय हारिसि, राज सीता सर्व ए। ए दूत ना दुरवचन साभलि, भामंडल कोप्यो सही। काढ़ियो खडग प्रहार देवा, राज सुं काम कोई नहीं ॥११॥ लखमण आडउ आवियो, दृत न मारइ कोयो जी। दूत निभ्र छी नासीयो, ले गयो माम गमायो जी ।। गयो दूत मांम गमाइ सगली, वात रावण नइ कही। जीवतउ राम कदे न मु कइ, सीतान जाणे सही। ए तत्व परमारथ कह्यो मई, त्रुटिस्यइ अति ताणीयो। ताहरई आवई चिन्त ते करि लखमण आडो आवियो ।।१२।। रावण एम विमासए, पणि मन माहि उदासोजी। जउ वयरी हुं जीपिस्यु, तर पिण पुत्र नो नासोजी ।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सउ पुत्र नो पणि नास थासइ, कहर किसी पर कीजीयइ । सुरंग देई सुत आणीजै, तर पणि कुजस लहीजीयइ ।। बहुरूपिणी साधिन्यु विद्या, करिसुतसु अरदास ए। हुँ देवता नई अजेय थास्यु, रावण एम विमास ए ॥१३॥ दुरजय वयरो जोपि नई, सुत आणी निज गेहोजी। सीता सुं सुख भोगवं, मनि धरी अधिक सनेहोजी ।। मनि धरी अधिक सनेह सवलो, साहिवी लका तणी । सहुपुत्र मित्र कलत्र सेती, करिसि सुख साता भणी ।। इम चितवी नई सातिनाथ नो देहरो उद्दीपिनइ । चंद्रया तोरण तुरत बाध्या, दुरजय वयरी जीपिनई ।।१४।। फूलहरो गुंथावियो, पूजा सतर प्रकारोजी। वार मुनिसुव्रत तणइ, जिन मन्दिर अधिकारोजी॥ जिन मंदिरे मंडित करावी, धरा देस प्रदेस ए । लंका तणे देहरइ दीधउ मंदोदरि आदेस ए॥ सा करइ नाटक स्नात्रपूजा, महुच्छव मंडावियो। दिन आठ सीम करई अठाई, फूलहरो गुंथावियो ॥१५॥ बाजिन तूर वजाडिया, महिमा मंडी सारोजी। नंदीसर जिमि देवता,, करइ अठाई उदारोजी ।। उदार निज गृह पासि शांति नई, देहरइ पइसइ मुदा । करि स्नान मजन लंक सामी, करि प्रणाम मन मइ तदा ।। कुट्टिम तलई लंकेस बइठो, भगति भाव दिखाडिया । देहरो फटिक रतन तणउ ते, वाजिन तूर वजाडिया ।।१६।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) नगर ढंढेरो फेरियो, वलि वरतावी अमारोजी। आविल तप जप आखडी, हुक्म कीयो तसु नारोजी ।। तसु नारि मंदोदरि नगरी, माहि धरम करावए । दिन आठ सीम लगी अहिसा', सील वरत पलावए । वलि कहई जे कोइ पाप करिस्यई, तेह ऊँचउ टेरित। जाणिज्यो गूदरिस्य नहीं को, नगर ढ ढेरो फेरइ ।।१७|| लोक सको लंका तणो, लागो करिवा धर्मोजी। लोक थकी लह्यो बानरे, रावण विद्या नो मर्मोजी ।। रावण विद्या नो मर्म लाधो, जउ विद्या ए सीझिस्य। तो देवता पिण एहनइ का, सही संग्राम न जीपिस्य। ते भणी लंका माहि जई नई, त्रास उपजावा घणो । बहू रूपिणी विद्या न सीमइ, लोक सको लंका तणउ ॥१८॥ वलिय विभीषण इम कहइ , अवसर वारू एहोजी। देहरई श्रीशातिनाथ नई', बइठउ रावण तेहोजो ॥ बइठउ ते रावण जाइ झालो, पछइ को न सकइ ग्रही। श्रीराम कहई तु सुणि विभीपण, बात कहइ साची सही ।। पणि जुद्ध कीधा विण न मारु, वलि विशेपइ देहरई। पणि करिसि कोई उपाय बीजो, वलिय विभीपण इम कहई ॥१६॥ सुग्रीवादिक मुकिया रावण, क्षोभ निमित्तो जी। लंका नगर माहे गया, सेना सजी विचित्रो जी। १-दिन आठ लगइ एहवु करावी २-मेहल सिइ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्र सेना सजी सबली, गया देखइ लोक ए। मुदमुदित क्रीडा करइ सगला, नहीं तिल पणि सोक ए॥ अहो पुत्र भाई कुंभकरणादिक सुभट सह बॉधिया । तउपणि न कोई करई चिंता, सुग्रीवादिक मॅकिया ||८|| विभीषण सुत सुभीषण कहइ, वइर बिना सहु कोयो जी। हताहत पर जात करउ, जिम कोलाहल होयोजी ।। करउ सबल कोलाहल नगर मई, लकागढ़ भाजो तुम्हें । आवास मंदिर महुल ढावो, हित वचन कहुं छं अम्हे ।। सहु मिली सुभट तिम हीज कीधो, एह उपद्रव कुण सहइ । समकाल सगलइ सोर ऊठ्या, विभीषण सुत सुभीषण कहई ।।२।। राखि राखि लंका धणी, लोक करइ पुकारोजी। दउडो दउडो' वाहरू, चडि आवउ असवारोजी ।। असवार आवो करउ रक्षा, वानरे गढ भेलियो। ए नगर मारि विध्वंस नाख्यो, धूडि धर्माणी मेलियो ।। अठियो रावण चुंब सभिलि, जोध जंग करण भणी। वारियो मंदोदरी नारि, राखि राखि लंका धणी ॥२०॥ साति भुवन सानिधिकरा, देवता ऊठ्या वेगोजी। सबल कोलाहल खलभली, देखी लोक उदेगोजी ।। उदेगि देखी देवताए, विभीषण वानर भडा । खिण एक माहे मारि भागा, सुर आगइ किम रहइ खडा ।। देवता वीजा देहराना, ऊठीया क्रोधातुरा । करई जुद्ध सातिना देव सेती, साति भुवन सांनिविकरा ।।२।। १-घाउ धाउ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) सातिनो देव हरावीयो, नासि गयो ततकालोजी । वानर वलि गढ भांजिवा, ढ़का करइ ढक चालोजी ।। ढक चाल वानर तणो, देवता दोइ आविया। पूर्णभद्रनई मांणिभद्र नामइ, रावण दिस ते धाविया ।। वानर ऊठ्या वेटिकारे वामाणि भइ तब बोलीयो । रे सुणो वानर बात माहरी सातिनउ देव हरावीयो ।।२४|| रांवण ध्यान धरम धरी, बइठउ देहरा माहोजी।। इन्द्र साक्षात आवइ इहाँ, ते पणि न सकइ साहोजी ।। कोइ साहि न सकइ कदे तेहनइ, खोभावइ पणि को नही वानरे रावण पासि जाता, मंधि नई राख्या सही ।। वलि जुद्ध करतां देवते पिण, गया नासी डर करी। पणि पाथरे वानर पछाड्या, रावण ध्यान धरम धरी ।।२।। देव भणइ राघव भणी, दिइ ओलंभउ एहोजी। शांति जिणेसर देहरई, रावण बइठउ तेहोजी ।। वइठउ दसानन देहरा मई, नगर केम विधंसोयो। दसरथ तणा अंगज कहीजउ, न्याय धरम रहीजोयो ।। प्रज पीड करतां वानरा नइ, तुम्हें राखो जग धणी । लखमण कहइ सुणि देवता तुं, देव कहइ राघव भणी ।।२६।। न्याय धरम माहि जे रहइ, तेहनउ कीजइ पक्षोजी । तुं विपरीत पणो करइं, ते नहि जुगत प्रतक्षोजी ।। ते नही जुगत प्रतक्ष तुं हिव, रहि मध्यस्थ पणइ सदा । महाभाग कोप तुं मुंकि मनसुं, वात मुझ सांभलि मुदा ।। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) वहुरूपणी विद्या थई तड, तेज एहनो कुण सहइ । ते भणी करिस्यइ विघन एहनइ, न्याय धरम माहि जे रहई ।।२७॥ देव भणई लखमण अणी, प्रजालोक नई मूकोजी। वीजउ जे रुचईते करई, न्याय धरम थी म चूकोजी ।। म चूक धरम थकी करउ सहु, इम कही गया सुरवरा । हिव रामचंद उपाय करिस्यइ, मुँकिस्य सेवक खरा ।। ए खंड छठ्ठो थयो पूरो, सात ढाल सोहावणी । कहइ समयसुंदर सील पालो, देव भणई लखमण भणी ॥२८॥ सर्वगाथा ||४४४|| इति श्री सीताराम प्रवधे राम रावण युद्ध, विमल्या कन्या समुद्धत, लखमण शक्ति, रावण समाधारित बहु रूपिणी विद्यादि वर्णनों नाम षष्ठः खण्ड : समाप्त : - खाड ७ दूहा २२ सात क्षेत्र मिलइ सामठा, तउ सगला सुख होइ। तिण कारणि कहुँ सातमो, खंड सुणो सहु कोय ॥१॥ हुँ नहि थातउ आखतो, जोडंतो ए जोड। रामायण मोटा हुवई, सुणिज्यो आलस छोडि ।।२।। अंगद प्रमुख कुमर घणा, हय गय रथ आरुढ । रांवण नइ खोभाविवा, मूक्या राम अमूढ ।।३।। पइठा लंका माहि ते, करता कोडि किलेस । निरख्यो रावण भुवन तिहा, अति दुरगम परवेस ॥ ४ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) तिहा जंत्र पुरुष खलीजता, मोहीता चित्राम । मरकत मणि थामे करी, रंधीता ठाम ठाम ।। ५ ।। देखा एक फटिक धरइ, तरुणी सुंदर देह। दिस भूला पूछइ किहां, शातिनाथ नो गेह।। ६ ।। ते अतर पाछउ न घइ, माली कुमर करेण । तितरई देखी लेपमय, लाज्या परस्परेण ।। ७ ।। आगई जाता एकना, दीठो देतो साद। पूछयो तिण देखाडियो, शांतिनाथ प्रासाद ॥८॥ सेना वाहिर मुंकिनइ, कुमर जे अंगद नाम । देहरा माहे पइसि नइ, कीधो जिन परणाम ॥६॥ रावणनइं निभ्रांछि नइ, दीघउ सवल उलंभ। रे सीता नइ अपहरी, ए स्यठ मांड्यो दभ ।। १० ।। जउ तुं त्रिभुवन नाथ नउ, आगइ रह्यो न हुंत । तउरे अधम करंत हुँ, यम पणि ते न करंत ॥ ११ ॥ इम अनेक निभ्रंछना, कीधी तेण कुमार। वांधी पाछे बाहियां, अंतेउरी उदार ।। १२ ।। आभ्रण ऊतारी लीया, वस्त्र लीया ऊतारि । वांधी चोटी सु सहू, कामिनी करई पोकार ।। १३ ।।। रे पापी तई छल करी, अपहरी सीता नारी। हुँ तुझ नारी देखता, ले जाउ छु वारि ॥ १४ ॥ जर तुझ माहे सकति छइ, तर तुं आडउ आवि। केस झालि मंदोदरी, निसर्यउ इम बोलावि ।। १५ ।। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) ' वालि कहइ रावण देखि तु, तुम वाल्हेसर नारि । हुँ वानर पति थाइसुं, धिगधिग तुझ अवतार ।। १६ ।। हीयो हाथ सुं ढाकती, खोस्या आभ्रणचीर । आँखे आंसू नाखती, देखि तुं नारि दिलगीर ॥ १७ ।। करई विलाप मंदोदरो, हे वाल्हेसर सार। वानर जायई अपहरी, करि बाहर भरतार ।। १८ ।। लका गढनो तुं धणी, इवडी ताहरी रिद्धि । वलि मांडो त साधना, केही थास्यइ सिद्धि ।।१६।। का वइठी तु मौन करि, अठि - ऊठि प्रीउ वेगि। छेदि सीस वानरतणो, जेम मुझ टलइ उदेग॥ २० ॥ इम विलाप मन्दोदरी, कीधा अनेक प्रकार । रावण सुणि डोल्यो नहीं, ध्यान थी एक लिगार ॥२१॥ अडिग रह्यो रोवण इहा, जाणे मेरु गिरिंद। साहसोक सिरोमणी, रतनाश्रव कुलचन्द ।। २२ ।। ढाल १ । राग रामगिरी ॥ 'छानो नइ छिपी नइ वाल्हो किहा रहिउ' एगीतनी ढाल । विद्या नई सीधीरे बहुरूपिणी, रांवण पुण्य विशेपिरे। सबल रावण साहस करी, मेरु अडिग मन देखिरे ।।१।। वि०।। प्रगट थई परमेसरी, कई करजोडी एमरे । दसमुख द्यइ मुझ आगन्या, तुं कहइ ते करूं तेमरे ।। २ ॥ वि०॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) इम कहिनइ रे गई देवता, आपणइ ठाम आणंद रे। अठार सहस अन्तेउरी, तेहवई जाणावड ते दन्द रे ॥३॥वि० ॥ चरण नमी नइ करई वीनती, कंतजी सुणउ पोकार रे। अम्हानइ विगोइ इण वानरे, तुम सिर थकां भरतार रे॥४॥वि० ॥ कहइ रे रावण कोपइ चड्यो, तुम्हें करउ लील विलास रे । नाम फेडु रे वानर तणो, तउ मुझ देज्यो साबासिरे ।। ५॥ वि०॥ नीसस्यौ शाति ना चैत्य थी, स्नान मज्जन करि सार रे । पूजा कीधी वीतरागनी, आभ्रण पहिल्या उदार रे।। ६ ।। वि० ॥ भोजन कीधा रावण अति भला, सज्जन संतोष्या सहु कोइ रे । आनंद विनोद करतुं थकु, सुभट साथिइ थया सोइ रे ॥७॥वि०॥ विद्यानी परीक्षा करिवा गयो, रावण क्रीडा उद्यान रे । ह्य गय रथसुं परिवस्थर, मनि धरतउ अभिमान रे।। ८॥ वि० ॥ रांवण रूप कीधा घणां, महियल सुमारइ हाथि रे। पदम उद्यान माहे गयो, सेवक लीधा सहु साथि रे ॥॥ वि०॥ कटक देखी रांवणतणो, सीता वीहती चिंतवइ एम रे। इन्द्र पणि जीपी न सकइ एहनइ, मुझ प्रियु जीपिस्यइ केम रे॥१०॥विoll छूटीसि किम राक्षस थकी, सवल चिता करई सीत रे। तिण अवसरि रावण भणई, सुणि सुदरि सुविदीत रे ॥११॥वि०॥ राग मगन मई आणी इहा, पणि न सक्यो करी भोग रे। व्रत भंग थकी वीहतइ थकई, वलि विरुयो कहि लोग रे ॥१२॥वि०॥ पणि हिव भोगविस्युं सही, कारणि व्रत भंग जाणि रे । पुष्पविमान वइठी थकी, तु पणि मन सुख माणि रे ॥१३॥वि० ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) सुणि रावण सीता भणइं, मुझ ऊपरितु ताहरु सनेह रे । थोडोई पणि जो धरइ, जाणि परमारथ एह रे ॥१४॥वि०|| लखमण राम भामंडला, जा जीविस्यइ ता सीम रे । हुँपणि जीविसि तां लगी, एहवो जाणिजो नीम रे ।।१५।।वि०॥ इम कहती धरणो ढली, ए ए मोहनी कर्म रे। मरण समान सीता थई, रावण जाण्यो ते मर्म रे ॥१६॥वि०|| अवसर देखिनई इम कहई, हा हा मई कीधउ अन्याय रे । निरमल कुल मइ कलंकियो, कुमति ऊपनी मुझ काइ रे॥१णावि०॥ अत्यन्त राग मगन थका, हा हा विछोह्या सीता राम रे । भाई विभीषण दूहव्यो, मइ कीधो भुण्डो काम रे ॥१८॥वि०|| जउ हुँ सीतानइ पाछीसुपस्यु, तऊ लोक जाणिस्य उ आम रे । देखो लंकापति वीहतई, ए कीधो असमत्थ काम रे ॥१६॥वि०॥ हिव मुझ इम जुगतो अछइ, संग्राम करू एक वार रे । लखमण राम मॅकीकरी, वीजा नो करूं संहार रे ॥२०॥वि०॥ इम मन मइ अटकल करी, उठ्यो संग्राम निमित्त रे। तिणि समईतिहा उपद्रव हुवा, भूकंपा दिग्दाह नित्त रे॥२शावि० आडउ कालउ साप ऊतस्यो, चालता पड्यो सिर छत्र रे । सेठ सेनापति मंत्रवी, वारीजतो यत्र तत्र रे ॥ २२ ॥ वि०॥ नगरी लंका थकी नीसस्यो, सजि संग्रामनो साज रे। बहुरूपिणि इन्द्ररथ सज्यो, तिहां बइठो जाणे सुरराज रे।।२३।।वि० आगइ हजार हाथी कीया, पाँच पूरे हथियार रे। माथइ मुगट रतने जड्यो, काने कुडल अति सार रे ||२४||वि०॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) मेघाडम्बर सिर धत्त्यो, चामर वीजतो सार रे ।। वाजिन वाजइ अति घणा, भेदी मदन भंकार रे ।।२।।वि०॥ आप समा विद्याधरा, सुभट सहसदस साथि रे। इन्द्र तणी परि सोहतो, रावण हथियार हाथि रे ॥२६॥वि०॥ एहवइ आडम्बर रावण आवतो, दीठो दसरथ तणे पुत्रि रे । जगत्र प्रलय जलधर जिसउ, कालकृतान्त नइ सूत्रि रे ॥२७॥वि०॥ भणई लखमण भो भो भड, वावो मदन भेरि वेगिरे। सहु को महारथ सज करो, गय गुडो बाधव तेग रे॥२८॥वि०॥ चपल तुरंगम पाखरो, प्रगुणा' थावो पालिहार रे। टोप सन्नाह पहिरो तुम्हे, वेगि म लावो वार रे ॥२६॥वि०॥ हुकम सुणी सहु को जणा, आया श्रीराम नई पासि रे । केसरी रथई रामचंद चड्या, लखमण गरुड उल्हास रे ॥३०॥विना हय गय रथ वयसी करी, वीजा सुभट सिरदार रे। भामण्डल हनुमन्त सहु, राजवी रण झूझार रे ॥३१॥वि०॥ सहु मिली आया रणभूमिका, रणक्रीडा रसिक अपार रे। सखर सकुन थया चालता, जयत जणावइ निरधार रे ॥३२॥वि०॥ सातमा खंड तणी भणी, ए पहिली मई ढाल रे। समयसुदर कहइ आगइ सुणो, कुण-कुण थया ढक चाल रे॥३३।। सर्वगाथा ||५५| -सज Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) दहा १७ अरिदल साम्हो आवतो, देखी रावणराय । करि आगई रथ आपणो, साम्हो आयो धाय ।।१।। आम्हो साम्हो वे मिल्या, दल वादल असराल । निज-निज धणी हकारिया, ते झझई ततकाल ॥२॥ युद्ध थयो ते केहवो, ते कहिय अधिकार | कहतां पार न पामियई, पणि कहुं एक लिगार ।। ३ ।। रुधिर तणी बूही नदी, नर संहार निसीम ।। रामायण सवलो मच्यो, महाभारथ रण भीम ॥४॥ इण अवसरि गज रथ चड्यो, राक्षस कटक प्रगट्ट । हत प्रहत हनुमंत कीयो, दूरि गयो दहवट्ट ॥५॥ कोप करी आव्यो तिहां, मन्दोदरी नो बाप । तोरे मारे तेहनइ, करि काठउ ग्रहि चाप ।। ६॥ सर वींधी हनुमन्त सकल, कंचण रथ कीयो चूर । बलि रावण दीधउ नवो, विद्याबल भरपूर ॥ ७॥ रथ रहित कीधा तिणई, भामण्डल हनुमन्त । सुग्रीवादिक पणि सुभट, पणि पाला मम्झन ॥ ८॥ देखि विभीषण ऊठियो, सबल करत संग्राम । रावण सुसरई वींधियो, तीरा सु तिण ठाम ।। ६ ।। भेदि विभोपण भेदियो, केसरीरथ तिण तीर । रामचंद उठ्या तुरत, करुं विभीपण भीर ।। १० ।। १-सोम Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) तीर सडासड मारिनई, तुरत कीयो ते दूरि । रावण उठ्यो रीस भरि, नजरि करी अतिर ।। ११ ।। रांवणनइ देखी करी, लखमण उठ्यो वेगि । रे तसकर ऊभउ रहे, देखि मोरितुं तेग ।। १२ ।। रे भूचर रावण कहई, तुझसुं करंता युद्ध । हु लाजु तुं जा परउ, विद्या मुज्झ विसुद्ध ।। १३ ॥ लखमण कहई लाज्यो नही, पर नी हरतो नारि । रे पापी इण पगि रहे, आq गर्व उतारि ।। १४ ।। रे पापिष्ट निकृष्ट तुं, निरमरजाद निलज्ज । इम निभ्रंछी नाखियो, रावण कियो अकज्ज ।।१५।। रावण अति कोप्यो थको, भलका नाखई भीड । गगन सरे करि छाइयो, जाणो अड्या तीड ॥ १६ ॥ लखमण वार्या आवता, कंकपत्र करि तेह। । शस्त्र रहित रावण कियो, राखी सवली रेह ।। १७ ॥ सर्वगाथा ||७२॥ ढाल बीजी ॥ हो रंग लीयाँ हो रंग लीयां नलद० एहनी जाति ।। रावण वहु रूपिणी बोलावी, ते पणि वेगि ऊभी रही आवी ॥१॥ रावण लखमण सेती ममइ, पिण काई अगली बात न सूझई ॥२॥ २--याव्या Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) रावण मेहशस्त्र नई मूकई, लखमण पवण उडाडी फूकई॥३॥ रावण अन्धकार बिकुरवई, लखमण सूरिज तेज सुं हरवइ ॥४॥ रावण साप मुँको वीहावई, लखमण गुरुड मुंकी नइ हरावई ॥५॥ इण परि खेद खिन्न घणो कीधो, लखमण रावण नई दुख दीधो ।।६।। संनिधि करिवा तिण प्रस्तावड, देवी बहरूपिणी तिहां आवइ ।। ७ ॥ बहुरूपिणी परभाव विशेपइ, लखमण रण माहे इम देखइ ।। ८ ॥ सुन्दर मुकुट रतन करि मंडित, रावण सीस पड्या अति खण्डित ।।६।। केऊर वीर वलयकरी सुन्दर, मणिमय मुद्रिका श्रेणि मनोहर ।।१०।। एहवी वीस भुजा पडि दीखइ, लखमण जाणइ मुज्म जगीसइ ॥१॥ लखमण आपणई चित्त विचास्यो, मई तो रावण राक्षस मास्यो ।।१२।। तेहवई रावण ऊठी आयो, ततखिण बेटि पडीनइ धायो ।॥ १३ ॥ अपणा सहस भुजादण्ड कीधा, भुज-मुज सहस शस्त्र तिण लीधा।।१४।। तरुयारि तीर भाला अणीयाला, तोमर चक्र मोगर विकराला ।।१५।। रावण शस्त्र मुकइ समकालइ, लखमण आवता सगला टालइ ॥ १६ ॥ लंकानाथ चड्यो अहंकारई, आपणो चक्ररतन चीतारई ॥ १७ ॥ ततखिण चक्र आवी करि बइठो, रावण लोचन अमीय पइठो ॥ १८॥ ते चक्र सहस आरे करी सोहइ, मनोहर मोती माला मोहइ ।। १६ ।। ते तउ चक्र रतनमय दीपई, ते थकां वयरी कोइ न जीपई ॥२०॥ रावण चक्र मुफ्यो तिण वेला, लखमण सुभट कीया सहु भेला ||२शा राघव सुग्रीव हनुमंत वीरा, भामंडल नृप साहस धीरा ॥ २२ ॥ तिण मिली रावण हथियार छेद्या, सुभटे साम्हा आवता भेद्या ।।२।। तो पिण चक्र वहीनइ आयो, लखमण कर अपरि ते ठायो ।। २४ ।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) देखी सुभट सहु को हरष्या, ए सही वासुदेव करि परख्या ।।२।। अम्हनई अनन्तवीरिज कह्यो पहिलो, ते पणि वचन थयो सहु वहिलो ए तो वासुदेव बलदेवा, ऊपना सुरनर करिस्यइ सेवा ।। २७ ॥ लखमण हाथि रह्यो चक्र देखी, रावण चितवई चित्त विद्वेपी ।। २८ ।। जेहनइ चक्र रतन हुयइ हाथई, जेहनइ पुण्डरीक छत्र नइ माथई ॥२६|| तेहनी सेव करइ राय राणा, तेहनी आन करइ परमाणा ।। ३० ॥ धिग मुझ विद्या तेज प्रतापा, रावण इण परि करई पछतापा ॥३१॥ मुझनई भूमिगोचर निभ्रंबई, मुझनई लखमण जीपिवा वांछइ ॥३२॥ हाहा ए संसार असारा, बहु विध दुखु तणा भंडारा ॥३३॥ हाहा राज रमणि पणि चंचल, जोवन उलट्यो जाय नदी जल ||३४|| हाहा कडुआ करम विपाका, जेहवा निंब धतूरा आका ॥३॥ धिग धिग काम भोग संयोगा, दुरगति दायक अंति वियोगा ॥३६॥ सोलइ रोग समाकुल देहा, कारिमा कुटुंब संबंध सनेहा ॥३७॥ इम हुँ जाणतो पणि मुरछांणो, पारकी स्त्री हरतो पांतराणो ॥३८॥ हा हा धिग धिग मुज्म जमारो, मई तो निफल गमाड्यो सारो ||३|| इम वइराग चड्यो लंकेसर, विभीषण बोल्यो देखी अवसर ॥४०॥ राजन मांनि अजी मुझ वचनं, सीता पाछी सुपि सुरचनं ॥४१॥ भोगवि राज पडूर लंका नो, मानि वचन ए लाख टंकानो ॥४२|| तो पिण रांवण वात न मानई, किम ही सीता पडई मुझ पानई॥४३ लखमण कहइ भो रावण राणा, तु हिव कां करई खाचाताणा ||४४|| हिव तुंमानि वचन बाधव नो, जो तुपुत्र छइ रतनाव नो ॥४॥ जर तुं जीवत वाछ। अपणउ, तर तुं थारे राक्षस समझयो ||४६।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) रावण रोस करि कहइ जाण्यो, तई तउ चक्र तणो बल आण्यो ॥४७॥ इम वोलइ तो रावण दीठो, लखमण जाण्यो ए तो धीठो ॥४८|| लखमण चक्ररतन ले मुंकई, ते पणि रावण थकी न चूकइ ॥४६॥ ए चक्र रावण नइ थयो एहवो, पर आसक्त नारी जन जेहवो ॥२०॥ जे तिण करि झाल्यो सुविचारी, तेहिज फिरि नइ थयो क्षयकारी ।।१।। रावण लखमण चक्र प्रहारई, ततखिण ढलि पड्यो धरती तिवारई ।। जाणे प्रबल पवन करि भागो, रावण ताल ज्यु दीसिवा लागो ॥५३॥ जाणे केतु ग्रह ऊपरती, किंवा त्रुटि पड्यो ए धरती ॥५४॥ रावण सोहइ पडियो धरती, जाणे आथमत उ सउ दिनपती ॥५५il रावण पडतउ देखी त्राठा, राक्षस सुभट सहु जायइं नाठा ।।६।। तव सुग्रीव विभीषण भाखई', इम आश्वासन देई राख ॥५॥ तुम्हनइ ए नारायण सरणं, मत को आणो डर भय मरणं ॥५८|| सगलउ रावण कटक नउ मेलो, जई थयो रामचद नइ भेलो ५६ ढाल ए सातमी खंडनी जाणो, बीजी ढालइ मास्यो रावण रांणो ॥६० पामी जयत पताका रामई, इम कहइ समयसुदर इण ठामई ॥६१।। ॥ सर्वगाथा १३३।। ढाल त्रीजी रे रगरत्ता करहला मो, प्रीउ रत्त आणि । हु तो ऊपरि काढिनइ, प्राण करूं कुरवाण ||१|| सुरंगा करहा रे, मो प्रीउ पाछउ वालि, मजीठा करहा रे ए गीतनी ढाल राग मारुती रावणनइ धरती पड्यउ, देखि विभीषण राय । आपघात करतउ थकउ, राख्यो घणे उपाय ॥१॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) राजेसर रावण हो, एकरसउ मुखि बोलि । हठीला रावण हो, साम्हर जोइ सनेह सुं। तुं का थयो निठुर निटोल ॥ रा० । अकिणी ।। मुरछागत थई नइ पड्योरे, दोहिलो वाधव दुखु । वाय सचेत कीयो वली रे, पिण विलाप करइ लक्खु ।।२।। रा० तो सरिखा महाराजवी रे, लंकागढ ना नाथ । नवग्रह निज वस आणिया, तु इन्द्र नइं घालतो वाथ ।।३।। रा० एहवो तुं पणि पामीयोरे, ए अवस्था आज । तउ जग मई थिर का नहीं रे, उठि उठि महाराज ||४|| रा० इह लोक परलोक हित तणो तई, वचन न मांन्यो मुज्म । तउ पणि वाधन ऊठि तुं, हुँ बलिहारी जाउं तुज्म ॥५॥! रा० खम्मि अपराध तुं माहरो रे, कां थायइ कठिन निटोल। हीन दीन मुझ देखिनई, तुं दिइ मुझ वांधव बोल ॥६॥ रा० इण अवसरि अंतेउरी, मंदोदरि दे आदि । सपरिवार आवी इहाँ, करई विलाप विषाद |७|| पियारा प्रीतम हो एक रसउ ॥ आकणी। धरणी ढलि अंतऊरी रे, मूर्छागति थई तेह, बलि सचेत थई सुदरी रे, करइ विलाप धरि नेह |८पी० हा जीविन हा वल्लहारे, हा अम्ह जीवनप्राण । हा गुण गरुया नाहलारे, हा प्रियु चतुर सुजाण ||६|| पि० हा राजेसर किहां गयो रे, अम्हनइ कुण आधार । नयण निहालो नाहला रे, वीनति करां बारबार ।।१०॥ पि० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) रे हतियारा देव तई, कां हत्यो पुरुप प्रधान । अम्ह अवलानई एवडु, तइ दुखू दीध असमान ॥११॥ पि० उम विलाप करती थकी रे, अंतेउर नइ देखि। केहनइ करुणा न ऊपजई रे, वलि विरही नइ विशेखि ।।१२।। पि० विभीपण मंदोदरी रे, दुखु करंता देखि। रामचन्द्र आवी तिहारे, समझावई सुविशेष ॥१३॥ पि० भावी वात टलइ नहीं रे, वयर हुवइ मरणात । मन ह्टकी ल्यउ आपणउ रे, म करउ सोक अश्रांत ||१४|| रा० प्रेत ऋतूत करो तुम्हे रे, राम कहइ सुविचार । विभीषण सहु को मिली रे, करई रावण संसकार ।।१५।। रा० वावना चंदन आणीया रे, आण्या अगर उदार। चय उपरि पउढाडियो रे, कीयो किसुं करतार ।।१६।। रा० रावण नइ संसकारि नई रे, लखमण राम उदास रे। पहुता पदम सरोवरई रे, द्यइ जल अंजल तास ॥१७॥ रा० इंद्रवाहन कुभकर्ण नइ रे, मुंकाव्या श्रीराम । सोक मुंकउ सुख भोगवउ रे, द्यइ आसानना आम ।।१८॥ रा० ए संसार असार मई रे, कवण न पांमइ दुखु । इम चिंतवता चित्त मई रे, गया मन्दिर मन लुखु ।।१६।। रा० त्रीजी ढाल पूरी थई रे, सातमा खंड नी एह। लमयसुंदर कहई साभलो, वयराग नी वात जेह ॥२०॥ रा० ॥ सर्वगाथा १५३ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) दहा ६ तिण अवसरि वीजा दिनई, लंकापुरी उद्यान । अप्रमेयवल नाम मुनि, आया उत्तम ध्यान ॥ १ ॥ साथ छप्पन्न सहस मुनि, साधु गुणे अभिराम । शुभ लेश्या चड्यो साधजी, अप्रमेयवल नाम ।। २ ।। अनित्य भावना भावतां, धरतां निरमल ध्यान । आधी रातइ अपनो, निरमल केवलन्यान ।।३।। केवल महिमा सुर करई, वायड बाजित्र तूर । मुनि वांदण आवइ भविक, ग्रह ऊगमतइ सूर ॥४॥ देव तणी सुणि दुन्दुभी, लखमण राम समेत । विद्याधर साथे सहू, आया वंदण हेत ।।५।। कुंभकरण वलि इन्द्रजित, मेघनाद सुविलास । त्रिण्ह प्रदक्षिण देकरी, वठा केवलि पास ॥६॥ सर्वगाथा || १५६ ॥ ढाल ४ राग बंगाल ॥ ॥ जानी एता मान न कीजीयइ ए गीत नी ढाल | लखमण राम विभीषण वइठा, वइठा सुग्रीव राय रे । कुंभकरण मेघनाद सहुको, बइठा आगइ आय रे॥ १ ॥ द्यइ केवली भगवंत देसना, हां ए संसार असार रे। जन्म मरण अभवास जरादिक, दुखु तणो भंडार रे ।। २ ।। य० ॥ डाभ अणी ऊपरि जल जेहवो, तेहवो जीवित जाणि रे । संध्याराग सरीखो यौवन, गरथ ते अनरथ खांणि रे ।।३।। द्य० ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) इन्द्रधनुष सरिखी रिधि जाणो, अथिर अनित्य संसार रे। आसू ना आभला सरीखा, प्रिय संगम परिवार रे ॥४॥ द्य० ॥ काम भोग गाढा अति भंडा, जेहवा फल किंपाक रे। मुख मीठा परिणामइ कडुया, जेहवो नींव नइ आक रे ॥॥ द्य० ॥ विरह वियोग दुख नानाविध, सोग संताप सदाई रे । सोलह रोग समाकुल काया, कारिमी सहु ठकुराई रे ।। ६॥ द्य० ॥ जरा राक्षसी प्रतिदिन पीडइ, मरणे आवई नेडउ रे। छाया मिस माणस तिण मुफ्या, जमराणा नो तेडउ रे ॥णा द्य० । मायाजाल जंजाल मुकि द्यो, वलि मुंको विषवाद रे। वलि मानव भव लहतां दोहिलो, म करो धरम प्रमाद रे ॥८॥ ध०॥ विषय थाकी विरमउ तुम्हें प्राणी, विषय थकी दुख होइ रे। सीतासंगम बाछा करतो, राणो रावण जोई रे॥६॥ द्य० ॥ साधतणी देसना सांभलि, ऊपनो परम वयराग रे। कुंभकरण मेघनाद इन्द्रजित, इण लाधो भलौ लाग रे ।। १०॥ द्य०॥ परम संवेगइ केवलि पासई, लोधो संयम भार रे। मन्दोदरि पति पुत्र वियोगइ, दुखु करई वार वार रे ।। ११ ।। द्य० ॥ संयमसिरी पहुतणो प्रतिबोधी, पाम्यो परम संवेग रे। मन्दोदरि पणि दीक्षा लीधी, अलगुं टल्यो उदेग रे ।। १२ ।। द्य० ॥ सहस अठावन दीक्षा लीधी, चन्द्रनखादिक नारी रे। तप जप सूधो संयम पालई, आतम हित सुखकारी रे ॥१३ द्य० ॥ प्रतिबूधा बहुला तिहां प्राणी, साभलि ध्रम उपदेसा रे। समयसुन्दर कहइ ए ढाल चउथी, सातमा खण्डनी एसा रे ॥१४॥१०॥ सर्वगाथा ॥१७३ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) ढाल ५ ॥राग परजियो कालहरो मिश्र ।। सिहरा सिरहर तिवपुरी' रे, गढा बडो गिरिनारि रे। राण्या सिरहरि रुकमिणी रे, कुंयरा नन्द कुमार रे॥१॥ कसासुर मारण याविनइ, प्रह्लाद उधारण, रास रमणि घर आज्यो । घरि आज्यो हो रामजी, रास रमणि घरि आज्यो ।।२।। ॥ एगीतनी ढाल ॥ जयतसिरी पामी करी रे, लपमणनइ श्रीराम रे। सुग्रोव हनुमन्त साथि ले रे, भामण्डल अभिराम रे ॥१॥ लंकागढ़ लीधउ, लेई नइ विभीपण नइ दीधउ । राम लंकागढ़ लीधउ । गढ़ लीधर हो हो रामजी। राम लंकागढ़ लीधउ। आं०॥ लंकागढ रलियामणउ रे, सुंदर पोलि प्रकार रे। चउरासी चउहटा भला रे, सरगपुरी अवतार रे ॥ २॥ ले० लखमण राम पधारिया रे, लंका नगरी माहि रे। पइसारो सवलो सज्यो रे, अति घणो अंगि उछाह रे ॥ ३॥ ले० गडखि चडी कहइ गोरडी रे, ऊ लखमण ऊ राम रे। चामरधारी पूछियउ रे, कहउ सीता किण ठाम रे ॥४॥ लं० पुष्पगिरि परवत तणई रे, पासई पदम उद्यान रे। सीता तिहां वइठी अछइ रे, धरती प्रियुनो ध्यान रे ॥शाल. १-मधुपुरी। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) राम खुसी थका चालिया रे, तुरत गया तिण ठाम रे। गज थी नीचा ऊतत्वा रे, सीता दीठी श्रीराम रे ॥६।लं० दुख करती अति दूवली रे, विरह करीनइ विछाय रे । सीतापणि श्री रामजी रे, आवता दीठा धाय रे ॥७॥ लं० दूर थकी देखी करी रे, आणंद अंगि न माय रे । अखि आँसु नाखती रे, ऊभी रही साम्ही आय रे ||८|| लं० विरह माहि दुख जे हुयइ रे, संभात्यो थकउ सोइ रे। ते वाल्हेसरनइ मिल्या रे, कोडि गुणउ दुख होउ रे ॥६।। लं० सीता नइ रोती थकी रे, रामजी हाथे झालि रे। है दयिता दुख मुकि देरे, कहइ प्रियु साम्हो निहालि रे ॥१०॥ लंक हिव तुं धरि धीरज पणो रे, सुख फाटी हुयइ दुखु रे। जग सरूप एहवो अछइ रे, दुख फीटी हुयड सुखु रे ।।११।। लं० पुण्य विशेष प्राणीया रे, पांमइ सुखु अपार रे । पाप विशेपई प्राणीया रे, पामइ दुख किवार रे ।।१२।। लं. इणपरि समझावी करी रे, दे आलिंगन गाढ रे।। सीता संतोपी घणु रे, हीयो हुयो अति ताढ रे ।।१३।। लं० लांणे सींची चंदनई रे, झीली अमृत कुंड रे। छांटी कपूर पाणी करी रे, इम सुख पाम्यो अखंड रे ॥१४॥ लं० सीता राम साम्हो जोयो रे, राम थया अति हृष्ट रे। चक्रवाक जिम प्रह समइहै, चकवाकी नी दृष्टि रे ॥१५।। लं० राम सीता घेउं मिल्या रे, जेथयो सुखु सनेह रे । ते जाणइ एक केवली रे, के वलि जाणईतेहरे ॥१६॥ लं० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) सीता सहित श्रीराम नइ रे, निरखी सुर हरखंत रे। कुसुम वृष्टि ऊपरि करइ रे, गंधोदक वरपंति रे ।।१७॥ लं० परसंसा सीता तणी रे, वलि करइ देवता एम रे। धन धन ए सीता सती रे, साचो सील सुं प्रेम रे ।।१८।। लंक रावण खोभावी नही रे, अठि कोडि रोमराइ रे। मेरु चूला चालइ नही रे, पवन तणी कंपाइ रे ।।१६।। लं० लखमण सीतानइ मिल्यो रे, कीघउ चरण प्रणाम रे। सीता हियडइ भीडीयो रे, बोलायो लेइ नाम रे।।२०। लंक भामंडल आवो भिल्यो रे, वहिन भाई वहु प्रेम रे। सुग्रीव हनुमंत सहु मिल्या रे, आणंद वरत्या एम रे||२१|| लं० हिव श्रीराम हाथी चडी रे, सीता सहित उछाह रे। लखमण नई सुग्रीव सु रे, पहुता लंका माहि रे ।।२२।। लं० सीस उपरि धरता थका रे, मेघाडंवर छत्र रे।। चामर वीज बिहुं दिसइ रे, बाजई बहु वाजिन रे ।।२३।। लं० जय जय शवद बंदी भणइ रे, सुहव द्यइ आसीस रे ॥ रांमचंद राजेसरू रे, जीवउ कोडि वरीस रे ॥२४|लंक रावण भुवण पधारिया रे, रामचंद नरराय रे। गज थी नीचा ऊतरी रे, पहिला देहरइ जाय रे॥२शा लंक सांतिनाथ प्रतिमा तणी रे, पूजा कीधी सार रे। तवना कीधी तिहां घणी रे, पहुचाइ भवपार रे ।।२६।। लंक तवना करि बइठा तिहां रे, लखमण नई हनुमंत रे। रतनाव सुमालि नइ रे, विभीषण मालवंत रे ॥२७॥ लंक Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) रामचंद्र परिचाविया रे, सहू सोकातुर तेह रे । सोक मुंकी ऊठी करी रे, पहुता निज निज गेह रे ॥२८॥ लं० इण अवसरि विभीषणइ रे, सपरिवार श्रीराम रे। आपणई घर पधराविया रे, सहस रमणी अभिराम रे ॥२६॥ लंक स्नान मज्जन भोजन भला रे, भगति जुगति सुविचित्र रे । सहु मिली कीधी वीनती रे, राज्याभिषेक निमित्त रे ॥३०॥ लंक रामचंद कहइ माहरइ रे, राज सु केहो काज रे। पंच मिलीनईथापीयो रे, भरत करइ छइ राज रे॥३शा लं० रामचंद लंका रह्या रे, सीता सु काम भोग रे। इंद्र इंद्राणी नी परई रे, सुख भोगवइ सुर लोग रे ॥३२॥ लं० लखमण पणि सुख भोगवइ रे, राणी विसल्या साथ रे। बीजा विद्याधर वहू रे, पासि रहइ ले आथि रे ॥३३।। ल. राम अनइ लखमण वली रे, दे आपणो सहिनाण रे। पूरवली कन्या सहू रे, आणावी अति जाण रे ॥३४|| लं० ते सगली परणी तिहां रे, के लखमण के राम रे। सुख भोगवई लंकापुरी रे, राज करई अभिराम रे ॥३।। लंक पचमी ढाल पूरी थई रे, सातमा खंडनी एह रे। कहई (समय) 'सुदर' सीलवंतनी रे, पग तणी हुँ छु खेहरे ॥३६॥ालं.. सर्वगाथा ॥२०॥ दूहा १७ अन्य दिवस नारद रिषी, कलिकारक परसिद्ध । वलकल वस्त्र दीरघ जटा, हाथ कमंडल किद्ध ।।१।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८८ ) लभ थी नीचड ऊतस्यो, आयो सभा मझारि । आदर मान घणो दीयो, रामचंद सुविचार ||२|| रामई पूछ्य किहा थकी, आया रिपि कहइ एम। नगर अयोध्या थी कहउ, भरत नइ कुशल छइ खेम ||३|| कुशल खेम तिहा कणि अछड, पणि तिहां अकुशल एह । तुम्ह दरसण दीसइ नही, साल अधिक सनेह ।।४|| सोता रावण अपहरी, लखमण पड्यो संग्राम । इहो थी विसल्या ले गया, दुखी सुण्या श्रीराम ॥५॥ आगइ खबरि का नहीं, तिण चिता करइ तेह । झूरि भूरि माता मरइ, दुखु तणो नहि छह ॥६॥ नारद वचन सुणी करी, लखमण राम दयाल । सहु दिलगीर थया घ[, नयणे नीर प्रणाल ||७|| नारद तुम्हे भलो कीयो, बात कही सहु आय । नारद रिपि संप्रेडियो, पूजी अरची पाय ||८|| राम अयोध्या जाइवा, उछक थया अत्यंत । राम' विभीषण पूछियो, ते वीनवइ वृतांत ॥६॥ . सोलह दिन ऊभा रहो, रामइ मानी बात । भरत भणी मुंक्या तुरत, दूत चल्या परभात ॥१०॥ तुरत अयोध्या ते गया, भरत नइ कियो प्रणाम । सगली बात तिणइ कही, ले ले नाम नइ ठाम ॥११॥ १-राय Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) तेह विसल्या कन्यका, तिहाँ आवी ततकाल । लखमण नइ जीवाडियो, काढी सकति कराल ॥१२॥ लखमण रावण मारीयो, मुंकी पालो चक्र। सीता सु सुख भोगवइ, रामचंद जिम शक्र ॥१३॥ विद्याधर राजा तणी, कन्या स्त्री सिरताज । परणी राम नइ लखमणई, भोगवई लंका राज ||१४॥ भरत दूत नइ ले गयो, माता पासि उल्हास । विहाँ पिणि वात तिका कही, लाधी लील विलास ॥१॥ दूत भणी माता दीया, रतन अमलिक चीर । अति संतोप्यो दूतनई, बेगा आवो चीर ॥१६॥ भरत राम भइया तणो, सुणि आगमन आवाज । पइसारो करिवा भणी, सजइ सामग्री साज ॥१७॥ ॥ सर्वगाथा २२६॥ डाल६ ॥ राग मल्हार ।। वधावारी ढाल भरत महोछच माडियउ, चुहरावी हे गली नगर ममारि। अयोध्या राम पधारिया, पधाख्या हे वलि लखमण वीर ॥अ०॥ गंधोदक छांटी गली, विखस्या हे फूल पंच प्रकार ||१|| अ० केसर रइ गारइ करी, लीपाव्या हे मंदिर तणा वार। मोती चउक पूरावीया, वारि वाध्या हे तोरण तिण वार ||२|| अ० २-भाया Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) घरि घरि गूडी उछलइ, हाट छाया हे पंचवरण पटकूल। छतउ बाजार छायाविउ, चंदूवा हे चिहुंदिसि वहुमूल ॥३॥ अ० बाध्या मोती मुंबखा, मणि माणक हे रतनां तणी माल । लंवी बांधी लहकती, ठाम ठाम हे वलि लाल परवाल ॥४॥ अ० केलि थामा ऊंचा किया, सोना ना हे तिहां कलस विसाल। वनरमाल वाधी वली, लोक बोलइ हे आयो पृथिवी नो पाल ||५|| अ० इण अवसरि विद्याधरे, आवीनइ हे विभीपणनइ आदेश ।। अ० ॥ रतनवृष्टि कीधी घणी, घरे घरे हे त्रिक चउक प्रदेस । अ०६॥ उत्तुंग तोरण देहरा, अति ऊंचाहे अष्टापद गिरि जेस। कंचणमय कीधा तिहा, कोसीसा हे मणि रतन ना तेम ।। ७ ।। अ० जिन मंदिर महोछव घणा, मंडाव्या हे पूजा सतरप्रकार। नगरी अयोध्या एहवी, सिणगारी हे सुरपुरी अवतार ॥ ८॥ अ० हिव दिन सोला गयेहुँते, लंकाथी हे चाल्या श्रीराम । सीता विसल्या साथिले, सहोदर हे लखमण अभिराम ॥६॥ अ० सहु परिवार ले आपणो, चडी बइठा हे राम पुष्प विमान । साकेत साम्हा चालिया, विद्याधर हे साथि अति सोभमान ||१०॥अ० हय गय रथ वाहन चड्या, विभीषण हे हनुमंत सुग्रीव । राम संघात चालिया, देखता हे गिरि वन पुर दीव ॥११॥ अ० राम दिखाडइ हाथ सुं, अस्त्रीनइ हे आपणा अहिठाण । इहां सीतानई अपहरी, पडिलाभ्या हे इहां साधु सुजाण ॥ १२ अ०॥ आया आकास मारगइ, खिगमाहे हे निज नगर साकेत । चतुरंगिणी सेना सजी, साम्हो आयो तिहां हे भरत सुहेत ॥१३।। अ० Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) सुभट विद्याधर सहु मिल्या, सहु हरण्या हे नगरी नर नार। ढोल दमामा दुडबड़ी, भेरि वाजइ हे भला भुंगल सार ॥ १४ ॥ अ० ताल कंसाल नइ बांसुली, सरणाई हे चह चहइ सिरिकार । सर मंडल मादल घुमइ, वीणा वाजइ हे झालरि झणकार ॥ १५॥ अ० बत्रीस बद्ध नाटक पडइ, गीत गायइ हे गुणियण अतिचंग। बंदी जण जय-जय भणड, रुडी बोलइ हे विरुदावली रग ॥१६ ।। अ० आकास मारिग आवता, देखीनई हे लोक हरप अपार । पूरणकंभ ले पदमिनी, बधावइ हे गायइ सोहलउ सार ।। १७ ॥ अ० गउख उपरि चडी गोरडी, कहइ केई हे देख उ ए रामचंद । ए लखमण केई कहइ, ए सुग्रोव हे ए विभीषण नरिंद ॥ १८ ॥ अ० ए हनुमत सीता सती, विसल्या हे ए लखमण नारि । बडवखती केई कहइ, वे भाई हे राम लखमण बलिहारी ।। १६ ।। अ० अटवी मइ गया एकला, पणि पामी हे रिधि एह अनंत । के कहइ सोता सभागिणी, चूकी नहि हे रावण सु एकंन ।। २०॥अ० धन्य विसल्या केई कहइ, जीवाड्यो हे जिण लखमण कंत । हनुमंत धन्य केई कहइ, सीता नइ हे कह्यो प्रियु विरतंत ।।२१।। अ० पुष्पविमान थी ऊतरी, साभलता हे इम जन सुवचन्न । पहुता माता मंदिरई, मा दीठा हे बेउ पुत्र रतन्न ।। २२ ।। अ० सौमित्रा अपराजिता, केकई हे थयो आणंद ताम । ऊठीनइ ऊभी थई, पुत्रे कीधउ हे माता चरण प्रणाम ।। २३ ।। अ० माता हियडई भीडिया, बेटा नइ हे पुचकास्या बोलाइ । बहू सासू ने पगे पड़ी, कहइ सासू हे पुत्रवंती तूं थाइ ॥ २४ ॥ अ० Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) भरत सत्रुवन आविनइ, ऊ भाई हे नम्या अति बहु प्रेम । वात पूछी मा पाछिली, ते दाखी हे मह थई जिम तम ! २५ ।। अ० स्नान मज्जन भोजन भला, जीमाच्या हे कर दीधा तंबोल ! घरि-घरि रंग वधामणा, राज माहे हे थया अति रंगरोल ||२६|| १० सीतादिक स्त्रीनइ दिया, रहिवान हे रुडा कनक आवास ! दासी दास दीया घणा मणि माणिक हे सहू लील विलास ॥२७अ० इम माता वाधव प्रिया, परवार ना हे पुरवर मनकोटि। मन वंछित सुख भोगवड, श्रीराम नई हे लाखमण तणी जोडि ।।२८॥अ० इक दिन भरत नइ अपनो, मनमाहे हे वारू अति वयराग। करजोडी कहइ रामनई, मुफ वीनति हे तुम्हें सुणो महाभाग रहायक एह तुम्हे राज मोगयो, हुँ लेसि हे संयम तणो भार । ए संसार असार छ, म जाण्यो हे बहु दुख भंडार ॥३०॥ स० पहिलो पणि मुझ नई हुतो, दीक्षा नो हे मनोरथ अतिसार । दसरथ राजा राज नइ, छोडी नई हे लीधो संयम भार ।। ३१ । अ० पणि जणणी आग्रह करी, राज लीधो हे मइ तो मन विण एह । हिव ए राज नई ल्यठ तुम्हें, अम्हारइ हे मनि धरम सनेह ॥३२॥अ० राजलीला सुख भोगवर, मन मान्या हे करउ वछित काज । राम कहइ वापई दोवो, कांइ छोडउ हे भाई भरत ए राज ॥ ३३ ॥१० वृद्धपणई संयम ग्रहे, जुबांनी हे माहे नहि व्रत लाग । इंद्री दमता दोहिला, वलि दोहिलो हे सहु स्वाद नो त्याग ||३४|| अब भरत कहइ भाई सुणो, संयम हे दोहिलो कह्यो तेह । वृद्धपण पणि नादरई, भारी क्रमा हे नर संयम एह ॥३।। अ० Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) तरुणा केइ हलुकमा, व्रत आदरइ हे आपण उछरंग। ते भणी मुझ आदेस धौ, मन मान्यो हे अम्ह संयम रंग ॥३६॥ अ० आदेस लीधो राम नो, तिण वेला हे तसु भाग संयोग। श्रीकुलभूपण केवली, पधास्या हे गयो वांदिवा लोग ॥३७|| अ० भरत नरेसर भावसुं, व्रत लीधो हे नृप सहस सघाति । सामग्री सबली सजी, राम कीधो हे महुछव वहु भांति ।।३८।। अ० तप संयम करइ आकरा, सुध साधइ हे राजरिषि सिवपंथ । आप तरई अउरा तारवई, नित वांदु हे ते हुँ भरत निग्रंथ ॥३६॥ अ० छठ्ठी ढाल पूरी थई, राम लाधा हे अयोध्या सुख लील। भरतई दीक्षा आदरी, समयसुंदर हे कहइ धन पालइ जे सील ||४०० सर्वगाथा ||२६६|| दहा १२ इण प्रस्तावई वीनव्यो, राम नई राज्य निमित्त । सुग्रीव प्रमुख विद्याधरे, ते कहइ राम तुरन्त ॥ १ ॥ राज्य द्यउ लखमण नई तुम्हें, वासुदेव छइ एह । तिण पाम्यई मईपामियो, मुझ पद प्रणमई तेह ।।२।। सहु राजा सहु मत्रवी, सहु अधिकारी लोक। मिली महोछव मांडियो, मेल्या सगला थोक ॥३॥ गीत गान गाईजते, वाजंते वाजिन । वलि चामर वीजीजते, सिरि ऊपरि धरि छन ।।४।। कनक पदम' वइसारि नइ, वे वांधव सुसनेह । कनक कलस जलसु भरी, मिल्या विद्याधर तेह ॥५॥ १-पट्ट १३ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) तिण कीधो अभिषेक तिहां, राम हुवा बलदेव । पटराणी सीता सती, लखमण पणि वासुदेव ॥ ६ ॥ पटराणी लखमण तणी, थई विसल्या नारि । लोक सहू हरषित थया, वरत्या जय-जयकार ॥ ७॥ राम विभीषण नइ दियो, लंकानगरी राज । कीयो किंकिध नो धणी, सुग्रीव सहु सिरताज ।। ८ ॥ हनुमंत नई श्रीपुर धणी, कीयो मया करि राम । चद्रोदर सुत नई दियो, पाताल लंका ठाम ॥ ६ ॥ रतनजटी नई थापियो, गीतनगर रो राय। दक्षिण श्रेणि वैताढ्य नउ, भामंडल सुपसाय ॥ १० ॥ यथायोग बीजा भणी, दीधा देस नइ गाम । विद्याधर संतोषीया, सीधा वंछित काम ॥ ११ ॥ अर्ध भरत साधी करी, अरि वसि करि आवाज | लखमण राम वे भोगवइ, नगर अयोध्या राज ।। १२ ।। सर्वगाथा ||२७८|| । हाल ७ राग सारंग ॥ आंबो मउस्यो हे जिण तणइ ए गीतनी ढाल ।। सीता दीठउ हे सुदणउ, अन्य दिवस परभात । पति पासइ गई पाधरी, सहु कही सुपन नी बात ॥ १॥ सी० ॥ सामी सींह मई देखीयो, अंगइ अधिक उछाह । ते उतरतो आकास थी, पइसतो मुझ मुख माहि ।।२।। सी० ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) वलि हुँ जाणुं विमानथी, धरती पडी धसकाय । झवकि जागी नइ हुँ झलफली, कहउ मुझ कुण फल थाय ॥शासी०॥ राम कहइ सुणि ताहरइ, पुत्र युगल हुस्यड सार । पणि तुं पडी जे विमान थो, ते कोइ असुभ प्रकार ॥४॥ सो०॥ ते तू उपद्रव टालिवा, करि कोइ धरम उपाय | प्रियु पासइ इम सांभली, सीता चिंतातुर थाय ॥५॥ सी०॥ सीता मन माहे चितवई, अहो मुझ दुख नउ अंत । अजि लगि देखो आयइ नहीं, पोतइ पाप दीसंत ॥ ६ ॥ सी० ॥ रे देव का तूं केडर पड्यो, कुण मइ कीयो अपराध । त्रिपतउ न थयो रे तुं अजो, वन्दि पाडी दुख दाध ।। ७ ।। सी० ॥ अथवा स्यउं दोस देवनो, अपणा करमनो दोस । भव माहे भमतां थकां, सुख तणो किसो सोस ।। ८॥ सी० ।। इम मन माहे विमासतां, आयो मास वसंत। छयल छवीला रंगई रमई, गुणियण गीत गायंत ।। ६ ।। सी० ॥ केसर ना करइ छांटणा, ऊडई अबल अवीर। लाल गुलाल उछालियई, सुन्दर सोभइ सरीर ॥ १० ॥ सी० ।। नरनारी तरुणी मिली, खेलइ फूटरा फाग । मील नीर खंडोखली, रमलि करइ धरि राग ।। ११ ॥ सी० ॥ लखमण राम तिणइ समइ, क्रीडा करण निमित्त । अन्तेउर परिवार ले, पहुता वाग पवित्त ।। १२ ।। सी० ॥ सीता सुं रमइ रामजी, विसल्या सुं वासुदेव । एक सीता सेती मोहीया, राम रमइ नितमेव ॥ १३ ॥ सी० Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) पेखी सउकि प्रभावती, प्रमुख धरई मनि द्वष। सीता वसि कीयो वालहो, अम्हनइ नजरि न देख ॥ १४॥ सी० सउकि मिली मनि चींतव्यउ, ए दुख सह्यउ रे न जाय । चित्त उतारिस्यां एहथी, करि कोइ दाय उपाय ।। १५ ।। सी० ॥ रमलि करी घरि आवीया, इक दिन महुल मझारि । सउकि मिली सहु एकठी, सीता तेडी संभारि ।। १६ ।। सी० ॥ आदर मान देई करी, पूछी सीता नइ वात । कहो रावण हुँतो केहवो, दसमुख जेह कहात ॥ १७॥ सी० पदमवाडी मई बइठां थकां, सीताजी तुम्हें तेह। रावण अविसि दीठो हुस्यइं, रूप अधिक तसु देह ।। १८ ॥ सी०॥ तेहनउ रूप लिखी करी, देखाडउ अम्ह आज । कहइ सीता मइ दीठउ नही, तिणसं नहि मुम काज !! ५६ ।। सी० ॥ मइं रोती ते जोयो नही, सउकि कहइ वलि ताम । तउ पणि अंग उपांग को, जे दीठो अभिराम ॥ २० ॥ सी०॥ ते देखाडउनइ सामिनी, कहइ सीता सुविवेक । मई नीचइ मुखि निरखीउ, रावण पदयुग एक ॥ २१ ॥ सी० ॥ बीजो क्यु मई दीठो नही, तउ वलतो कहइ तेह। पग पणि अम्हनइ दिखाडि तूं, अम्हनइ मनोरथ एह ।। २२ ।। सी०॥ तव सीतायइं आलिखीया, रावण ना पग बेउ।। सोकि गई घरे आपणे, रांवण ना पग लेउ ।। २३ ।। सी० ॥ अन्य दिवस मिली एकठी, कह्यो श्रीराम नई एम । तुम्ह सरिखा पणि राजवी, राचइ कारिमइ प्रेम ।। २४ । सी० ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) लपटाणा प्रेम जेहसुं, जिण तुम्हनई वसि किद्ध । ते सीता तुम्हे जाणीज्यो, रावण नई प्रेम विद्ध ॥२५॥ सो० ॥ राम कहइ किम जाणियइ, अस्त्री कहई सुणि देव । रावण ना पग माडिनइ, ध्यान धरई नितमेव ।। २६ ।। सी०॥ दीठी वार घणी अम्हे, पणि चाडी कुण खाई। आज कही अम्हे अवसरई, अणहुंती न कहाय ॥ २७॥ सी०॥ अस्त्री चरित विचारियई, अस्त्री चंचल होइ । अन्य पुरुष सुं क्रीडा करइ, चित्त अनेरडठ कोइ ।।२८ ॥ सी० ॥ अन्य पुरुप सुं साम्हो जोवइ, अनेरा नो ल्यइ नाम । दूषण द्यइ अवरां सिरई', कूड कपट नो ए ठाम ॥२६|| सी० ॥ जो ए वात मानो नहीं, तो देखो पग दोय । राम विमास्यु ए किम घटइ, दूधमा पूरा न होइ ।। ३० ।। सी० ॥ किम वरसइ आगि चन्द्रमा, किम चालइ गिरि मेर । किम रवि पच्छिम अगमइ, किम रवि राखइ अंधेर ॥३१॥ सी० ॥ जो सीता पणि एहवी, तब स्त्री केहो वेसास । ते भणी सउकि असांसती, कहइ छइ कूडी लबास ॥ ३२|| सी० ॥ पणि ए सीता सती सही, राम नइ पूरी प्रतीति । सातमी ढाल पूरी थई, समयसंदर भली रीति ॥ ३३॥ सी० ॥ सातमो खंड पूरो थयो, साते ढाल रसाल। समयसुदर सीलवंतना, चरण नमइ त्रिण्हकाल ॥ ३४ ॥ सी०॥ सर्वगाथा ॥३१२॥ इति श्री सीताराम प्रवन्धे रावणवध, सीतापश्चादानयन । श्रीरामलखमणायोध्याप्रवेश, सीताकलंकप्रदान वर्णनोनाम सप्तम खण्ड।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) [खण्ड ८॥ दूहा १४ आठ प्रवचन माता मिल्या, सूघट संयम होइ। आठमो खण्ड कहूं इहां, सलहइ सील स. कोइ ।। १ ॥ इम चिंतवतां राम नई, अन्य दिवस प्रस्तावि। सीता डोहलो उपनउ, गरभ तणई परभावि ॥२॥ जिनवर नी पूजा करूं, दीना नई धुदान । सूत्र सिद्धन्त हे साभलु, साधु नइ घुसनमान ।।३।। तिण डोहलइ अणपूजतई, दुर्वल थई अपार । रामई मिणदूमणी, दीठी सीता नारि ॥४॥ रामइ पूछयो हे रमणि, तुझनई दूहवी केण । किंवा रोग को ऊपनो, कइ कारणि अंवरेण ।।५।। जे छइ बात ते मुज्म कहि, कह्यो सीता विरतंत । एहवंउ डोहलउ ऊपनो, ते पहुचाडो कंत ॥ ६ ॥ रांम कहइ हु पूरिस्युं, म करे दुखु लिगाररे। तुरत मंडावी देहरे, पूजा सतर प्रकार ।। ७ ।। देतो दान दीना भणी, मुनि वादिवा निमित्त । अंतेउर सुं चालियो, राम धरम धरि चित्त ।। ८॥ देहरे देव जुहारि करि, पूजा करी प्रधान । गुरु वांदी घरि आवीया, राम सीता बहुमान ॥ ६॥ सीता डोहलउ पूरीयो, धरम सम्बधी तेह । सुख भोगवइ संसार ना, राम सीता सुसनेह ॥ १०॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) एहवइ सीता नारि नी, फुरकी जिमणी आंखि । कहिवा लागी कंतनई, मुख नीसासा नाखि ।। ११ ।। कहई प्रीतम ए पाडुई, असुभ जणावइ एह। . एह उपद्रव जिम टलइ, करि उपचार तुं तेह ॥ १२ ॥ तीर्थस्नान करि दान दे, भजि भगवंत अभिधान । सीता सगलो ते कियो, पणि ते करम प्रधान ।। १३ ।। अस्त्री माहे ऊछली, एहवी सगलइ वात । पूर्वकर्म प्रेरी थकी, सीता नी दिन-राति ।। १४ ।। ढाल १ ॥राग मारुणी ॥ अमा म्हाकी चित्रालंकी जोइ। अमां म्हाको । मारुडइ मइवासी को साद सुहामणो रे लो॥ ए गीत नी ढाल । सहियां मोरी सुणि सीता नी वात । सहिया मोरी। आपण घरि रावण राजीयइ रे लो। स०।। ते कामी कहवाइ ॥स०॥ ते पासइ बइठा पणि लोक मई लाजीयइ रे लो ।। १।। स०॥ तीता सतीय कहाइ । स०॥ पणि रावण भोगव्यां विण सहो मुंकइ नही रे लो ।। स०॥ भूख्यो भोजन खीर ।। स०॥ बिण जीम्या छोडइ नही इम जाणउ सही रे लो ॥११॥ स० ॥ १-नउ नाम Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) स० तिरस्यो न छोडइ नीर ।। स०॥ पंडित सुभाषित रसियो किम तजइ रे लो ॥२॥ स०॥ दरिद्री लाधो निधान ॥ स० ॥ किम छोडइ जाणइ इम वलि नहि संपजइ रे लो॥३॥ स०॥ स० तिण तुं निश्चय जाणि ।। स०॥ भोगवि नई मुंकी परही सीता रावणइ रे लो । स० ॥ रामइ कीधउ अन्याय ॥ स ।। सीता नइ आपणइ घर माहि आणिनइ रे लो॥ ४॥ स०॥ स० लोकां मई अपवाद ॥ स०॥ सगलइ ही सीता श्रीरामनो विस्तस्यो रे लो।। स० ।। स० अंतेउर परिवार ॥ स०॥ वीहते लोके इम कह्यो तेने मनइ धस्यो रे लो ॥ ५॥ स०॥ स० एक दिवस एक ठामि ।। स०॥ नगरी मई महिला ना टोल मिल्या घणा रे लो ।। स०॥ तिहां एक वोली नारि ।। स०॥ अस्त्री मई सबला पुण्य आज सीता तणा रे लो ।। ६ ।। स०॥ स० देवी नइ दुरलंभ ॥ स० ।। ते रावण राजा सुं सीता सुख लह्यो रे लो ।। स०।। स० सीता सतीय कहाय ।। स० ॥ ए न घटइ एवडी बात इम वीजी क्यो रे लो।॥ ७॥ स०॥ एक कहइ वलि एम ॥ स०॥ अस्त्री नो सील तालगि कहियइ सावतो रे लो॥ स०॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) जां लगि कामी कोइ ॥ स॥ प्रारथना न करई बहुपरि समझावतो रे लो॥ ८॥ स०॥ एहनइ रावणराय ॥ स० ॥ वीनति नव नव वचने वसि कीधी घणुं रे लो ।। स०॥ राची अस्त्रा रंगि ॥ स०॥ तन मन धन सगलो आपइ आपणुं रे लो॥॥ स० ॥ एक कहइ वलि एम ॥ स०॥ सीता नइ जाणो तुम्हे जगि सोभागिणी रे लो ।। स० ॥ नारी सहस अढार ॥स० ॥ मंदोदरि सारिखी सहु नइ अवगणी रे लो॥१०॥ स० ॥ लंकागढ नो राय स०॥ सीता सुं लपटाणो राति दिवस रह्यो रे लो। स० ॥ मनवांछित सुख माणि ॥ स०॥ सीता पणि कीधो सहु जिम रावण कह्यो रे लो॥ ११॥ स०॥ साचो ते सोभाग ॥ स०॥ सीलरतन साचइ मन पूरउ पालीय रे लो। स०॥ न करइ वचन विलास ॥ स०॥ पर पुरुषा संघात परचउ टालियइ रे लो॥ १२ ॥ स०॥ जुगति कहइ वलि एक ।। स० ।। कुसती जउ सीता तर किम आणी धणी रे लो ।। स०॥ कहइ अपरा वलि एम ॥ स० ॥ . अभिमानई आणी रमणी आपणी रे लो ॥१३ ।। स० ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (,२०२ ) कहइ कामिणी वलि काई । स० ।। आणीतउ मानी कां रांम सोता भणी रे लो। स०॥ कहइ वलि वीजी कांइ ।। स०।। सीता सुं पूरवली प्रीति हुंती घणी रे लो ।। १४ ।। स० ॥ जे हुयइ जीवन प्रांण ।। स० ॥ ते माणस मूकंता जीव वहइ नहीं रे लो ।। स०॥ अपजस सहइ अनेक ॥ स०॥ प्रेम तणी जाइयइ किम वात किण कही रे लो॥ १५ ।। सक। एक कहइ हित वात ॥ स० ॥ लोकां मई अन्याई नृप राम कहीजीयइ रे लो ।। स०॥ कुल नइ होइ कलंक ॥स०॥ ते रमणी रूडी पणि किम राखीयइ रे लो।। १६ ।। स० ॥ ऊखाणउ कहइ लोक ॥ स०॥ पेटइ को घालइ नहीं अति वाल्ही छुरी रे लो।। स० ॥ राम नई जुगतउ एम ।। स०॥ घर मइ थी सीता नई काढइ बाहिरी रे लो ।। १७ ॥ स०॥ सेवके एहवी वात ॥ स०॥ नगरी मइ साभलिनइ राम आगइ कही रे लो ।। स० ॥ राम थया दिलगीर ॥ स०॥ एहवी किम अपजस नी बात जायइ सही रे लो॥ १८ ॥ स०॥ १-न्याई। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) अन्य दिवस श्रीराम ॥ स० ।। नष्ट चरित नगरी मई रातई नीसख्या रे लो। स०॥ किणही कारबारि ॥ स० ॥ छाना सा ऊभा रहि कान ऊंचा धत्यारे लो ।। १६ ।। स० ॥ तेहवई तेहनी नारि ॥ स०॥ वाहिरथी असूरी आवी ते घरे रे लो । स०॥ रीस करी भरतार ॥ स०॥ अस्त्रीनइ गाली दे ऊठ्यउ बहुपरे रे लो ॥ २०॥ स० ॥ रे रे निरलज नारि ॥ स०॥ तुं इतरी वेला लगि बाहिर किम रही रे लो।। स० ॥ पसिवा नहि घुमांहि ।। स० ॥ हुँ नहिं छु राम सरिखउ तुं जाणे सही रे लो ।। २१ ।। स०॥ सुणि कुवचन श्रीराम ॥ स०॥ चिंतविवा लागा मुझ देखोद्य मेहणो रे लो ।। स०॥ खत उपरि जिम खार ।। स०॥ दुखमाहे दुख लागो राम नइ अति घणो रे लो ।। २२।। स०॥ राम विचास्यो एम ॥स०॥ अपजस किम लोकां मांहि एहवउ ऊछल्यो रे लो ।। स०॥ सीता एहवी होइ ॥ स०॥ सहु कोई वोलइ लोक कुजस टोले मिल्यो रे लो ॥२३॥स० ॥ पर घर भंजा लोक । स०॥ गुण छोडी अवगुण एक वोलपारका रे लो ।। स०॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ । चालणि मइदउ मुंकि । स०॥ छाती नइ थूला देखाडइ असारका रे लो॥ २४ ॥ स०॥ ते को नहीय उपाय । स० ॥ दुसमण नउ किणही परि चित्त रंजीजीयइ रे लो ।। स०॥ सूरिज पणि न सुहाइ ॥ स०॥ घुयड नई रातई केही परि कीजीयइ रे लो॥ २५ ॥स०॥ सीत नो पालण आगि । स० ।। तावड नो पणि पालण ताढी छाहडी रे लो।। स०॥ तरस नो पालण नीर ।। स०॥ माणस ना अवेसास पालण बाहडी रे लो ॥२६॥ स०॥ सहु ना पालण एम ।। स०॥ पणि दुरजण ना मुखनो पालन को नही रे लो॥ स०॥ साचउ साचइ' झूठ ।। स०॥ मई मइलो माहरो कुल वंस कियो सही रे लो।। २७ । स०॥ कुजस कलंक्यो आप ॥स०॥ अजीताई सीता नइ छोडुतउ भली रे लो ॥ स०॥ इम चिंतवतां राम ॥ स० ॥ इण अवसरि आव्या तिहां लखमण मन रली रे लो ॥ २८ ॥स०॥ चिंतातुर श्रीराम ॥स०।। देखीनइ दुख कारण लखमण पूछीय३ रे लो॥ स०॥ १-भावइ। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) तुम्ह सरिखा पणिसूर ।। स०॥ सोचा नई चिंता करि मुख विलखो कियो रे लो ।। २६ ।। स०॥ कहिवा सरिखउ होइ । स०॥ तउ मुझनई परमारथ बांधव दाखीयइ रे लो । स० ॥ राम कहइ सुणि वीर ।। स०॥ तेस्यु छ जे तुम्ह थी छानो राखियइ रे लो ।।३० ॥ स०॥ लोग तणउ अपवाद ॥ स० स०।। सीतानो सगली वात ते रामइ कही रे लो। स० रावण लंपट राय ॥ स० स०॥ सीता तिहा सीलवंतो कहि ते किम रही रे लो॥३१॥ एहवी सामलि वात ॥ स० स०॥ कोपातुर लखमण कहइं लोको साभलो रे लो । स०। सीता नउ अपवाद । स० स०॥ जे कहिस्यइ तेहनउ हुँ मारि तोडिसी तलो रे लो॥३२| स० राम कहइ सुणि वच्छ । स० स० ॥ लोकां ना मुहडा तउ वोक समा कह्या रे लो। स०। किम बुदीजइ तेह ।। स० स०॥ कुवचन पणि लोकां ना किम जायई सह्या रे लो॥३३।। स० सुणउ लखमण कहइ राम।। स० स०॥ भख मारइ नगरी ना लोक अभागियो रे लो। स० । साचउ सीता सील ।। स० स०॥ ए वात नउ परमेसर थास्यइ साखियो रे लो।। ३४|| स०. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) जउ पणि वात छड एम ॥ स०स०॥ तउ पणि विण छोड्या मुम अपजस नूतरइ रे लो । स०। इण परि चित्त विचारि ।। स० स०॥ वात सहु ल्याई राम सुणिज्यो जे करइ रे लो ।।३।। पहिली ढाल रसाल || स० स०॥ साभलत्तां सुघड़ा नउ हीयडउ गहगहइ रे लो । स० . कीधा करम कठोर ।। स० स०॥ विण वेयां छूटइ कुण समयसुंदर कहइ रे लो ।। ३६ ॥ स० सर्वगाथा ॥५०॥ दहा २६ लखमण तउ वास्या घj, पणि न रह्या श्रीराम । तुरत वोलायउ सारथी, जसु कृतांतमुख नाम ||शा रे रे सुणि तु सारथी, सीता वहिलि वइसारि। छोडि आवि तुं एहनइ, अटवी डंडाकार ॥२॥ लोक मांहि तु इम कहेइ, डोहला पूरण काजि । तीरथनी जात्रा भणी, ले जाउं छं आज ॥३।। राम वचन मांनी करी, सारथि सीता पासि । आवी नइ इम वीनवई, देवि सुणउ अरदास ॥४॥ मुम आदेश दियउ इसो, श्रीरामइ सुणि मात । सीता डोहलो पूरि तूं, तीरथ जात्र सुहात ॥शा रथ वइसउ तुम्हे मातजी, सीता गुणि नउकार । रथ बइसी चाली तुरत, ले अरिहंत आधार ।।६।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) सारथि थयउ उतावलो, खेडयो पवन नइ वेगि। सीता सममि पडइ नहीं, पणि मन मई उद्वेग ।।७।। आगइ जातां देखीयो, सुका रूंख नी डालि। कालउ काग करुंकतो, पांख वे ऊँची वालि ॥८॥ नारी वलि निरखी तिहां, करति कोडि विलाप। रवि साम्ही ऊभी रही, छूटे केस कलाप || फेकारी पणि बोलती, सुणि सीतायई कानि । अशुभ जणावइ अपशकुन, निरती वाद निदान ॥१०॥ भवितव्यता टलिस्यइ नहीं, किसी करु हिव सोच । गाम नगर गिरि निरखती, चली चित्त संकोच ॥१२॥ 'पहुती सीता अनुक्रमइ, अटवी माहि उदास । अंव कदंबक आबिली, ऊँचा ताल आकास ।।१२।। चांपड मरुयउ केवडउ, कुंद अनइ मचकुंद । खयर खजूरी नारियल, बकुल अनइ अरविंद ॥१३॥ भार अढार वनस्पति, गुहिर गभीर कराल । सीह बाघ नइ चीतरा, भीपण शबद भयाल ॥१४॥ एहवी अटवी देखती, कहइ सारथि नई एम। किम आणी मुझ एकली, राम न दीसई केम ॥१॥ नहिं पूठइ परिवार को, ए कुण बात विचार। कहइ सारथि पूठइ थकी, आविस्यइ तुझ परिवार ॥१६॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) मत चिंता करई मातजी, इणि परि धीरप देइ । नदी लांधि पइलइ तटई, गयो सीत नई लेइ ॥१७॥ रथ थी ऊतारी करी, कहइ सारथि कर जोडि। आंख आँसू नाखतो, वसि इहीं रथ छोडि ॥१८॥ हीन भाग्य सीता निसुणि, बात किसी कहुँ तुज्म । रामचंद ठइ थकई, हुक्म कीयो ए मुझ ||१|| सीता नई तुं छांडिजो, अटवी डंडाकार। सीता एह वचन सुण्यो, लागो वन प्रहार ।।२०ll मुरछागत धरणी पडी, वलि खिण थई सचेत । कहि रे सारथि मुज्म नई, इहा आणी किण हेत |२|| कहि रे अयोध्या केतलई, जई नई आपुं साच । सारथि कहइ अलगी रही, राम नी विरुई वाच ॥२२॥ राम कृतांत जिसर कुप्यो, न जुयइ साम्हउ तुज्म । कठिन करम आया उदय, तुं छोडी वन मज्झि ।।२३।। हुँ निरदय हुँ पापीयो, जे करूं एहवो काम । कीधा विण पणि किम सरई, सामि रीसायइ राम ||२४|| चाकर कूकर सारिखा, घिग ए सेवा वृत्ति। सामि हुकम मारइ सयण, बांप नई बांधव झत्ति ।।२।। सीता छोड़ी रांन मई, सारथि पाछउ जाइ । विरह विलाप सीता किया, ते केतला कहवाय ॥२६॥ सर्वगाथा ॥७॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) ढाल बोजी ॥ राग मारुणी॥ मांखर दीवा न वलइ रे कालरि कमल न होइ। छोरि मूरिख मेरी बाहडिया, मीया जोरईजी प्रीति न जोइ । कन्हइवा वे यार लवासिया, जोवन जासिया वे, वहुर न आसिया। ए गीतनी ढाल । ए गीत सिंघ माहे प्रसिद्ध छ।। सीता विलाप इसा करइ रे, रोती रांन मझारि। विण अपराध का वालहा, मुँनई छोडी डंडाकार ।।१।। पियारा हो वाल्हेसर रामजी, इम किम कीजयइ हो, छेह न दीजयइ ।। आकणी ।। हा वल्लभ हा नाहला रे, हा राघव कुलचंद।। मुम अवला नइ एवडउ, तइ का दीधउ दुखदंद ॥२॥ पि० विण पति विण परिवार हुँ रे, किम रहुँ अटवी मॉहि । कुण सरणो मुझ नई हिवइ रे, जा रे जीवित जाहि ॥३।। पि० साबासि लखमण तुझ नई रे, कां तइ उपेक्षा कीध । तुं माहरो सील जाणतो का, राम नई हटकि न लीध ॥४॥ पि० भउजाई नई वालहो रे, देउर हासा ठाम । तुझ सुं पणि कहि मई कदे रे, हासो कीधो सकाम ||५|| पि. हे तात तई राखी नहीं रे, हे भामंडल भाइ । सासरइ पहिड्यइ पाधरी रे, अस्त्री पीहरि जाइ ॥६॥ पि० तउ पणि तात राखो नहीं रे, नाण्यो पुत्री सनेह । पहिड्या पीहर सासरा रे, मुम संकट पड्यो एह ॥७॥ पि० १४ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) स्नेह भंग कीधउ नहीं रे, अविनय न कोयउ कोइ । सरदहजे मत सुंहणई, पियु सील खड्यउ पणि होइ ||८पि० अथवा कत तुम्हें कदे रे, विण अविचास्यो काज । कीधो नहिं पणि माहरा के, पाप प्रगट थया आज पि०॥ अथवा मई भवि पाछिलई रे, व्रत भागउ चिर पालि। रतन उदाल्यो केहनउ के, मां थो विछोह्या वाल ॥१०॥पिoll अथवा किणही साध नई रे, दोधो कुडउ आल। अस्त्री नई भरतारसुमई, पाड्यो विछोहउ विचाल ॥११शापि०॥ एहवा पाप कीधा घणारे, तिण ए अवस्था लाध । नहि तरि मुझनई वालहउ किम, छोडइ विण अपराध ||१२||पि०l अथवा दोस देऊं किसा रे, नहिं छइ केहनो दोस। दोस छइ माहरा कर्म नो, हिव रांम सुं केहो रोस ।।१३शापि०ll कीधा करम न छूटीयइ रे, विण भोगव्या कदेय । तीर्थकर चक्रवर्ति पणि सहु, भोगवि छूटी तेय ||१४||पि०॥ सुख दुख केहनइ को न घरे, छइ अपना किया कम । दोस नहीं हिव केहनो रे, वात तणो ए मर्म ॥१शापि०॥ धन धन नारी ते भली रे, तेहनो जनम प्रमाण । बालपणइ संयम लीयो जिण, छोड्यो प्रेम बंधाण ॥१६॥पिका प्रेम कादम खूता नहीं रे, विषय थकी मन वालि । काज समाऱ्या आपणा रे, तेहनई वादु त्रिकाल ॥१७॥पिना इम विलाप करती थकी रे, सीता रान मझार। 'तिहा बीहती वइसी रही रे, समरंती नउकार ॥१८॥पि०॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) पुंडरीकपुर राजीयो रे, वज्रजंघ जसु नाम । गज झालण तिहां आवियो रे, तसु नर आया तिण ठाम ॥१६ापि०॥ तिण दीठी रोती तिहा रे, सीता दुखिणी नारि । पणि रूपइ अति ख्यडी रे, मरंती लावण्य धार ॥२०॥पिना देखी सीता ते चिंतवइ, किं इंद्राणी एह।। किंवा पाताल सुन्दरी रे, किंवा अपछर तेह ।।२२।। पि०॥ किंवा कंद्रप नी प्रिया रे, अचरजि थयो अपार । जई राजा नई वीनव्यो रे, सीता सकल प्रकार ।।२२।।पि०॥ सुणि राजा चाल्यो तिहा रे, सबद सुण्यो आसन्न । कहइ राजा काईक छइ रे, एतो नारि रतन्न ।।२३।।पि०॥ राजा नी अंतेउरी रे, गर्भवती छड काइ। स्वर लक्षण करि अटकली रे, किणि कारण इहां आइ ॥२४॥पि०॥ इम कहिनई नृप मूकिया रे, निज नर सीता अंति । ते देखी नर आवता रे, सीता थई भयभ्रंति ॥२५॥पि०॥ थरहर लागी कांपिवा रे, आभ्रण दूरि उतारि। मत छिवजो मुझ नारि नई रे, इम कहइ सीता नारि ॥२६॥पि०॥ ते कहइ आभ्रण को न ल्यइ रे, नहिं को केहनइ काम | अम्हनई वज्रजंघ मुंकिया रे, कुण ए किम इण ठाम ॥२७॥पि०|| कुण तु केहनी कामिनी रे, किम एकली रही ऐथि । इम पूछतां आवियो रे, वनजंघ पणि तेथि ॥२८॥पि०॥ देखी विसमय पामीयो रे, ऐ ऐ रूप अपार । हा हा किम ए कामिनी रे, दुखिणी एण प्रकार॥२६पि०॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) कहइ राजा जे पापीयो रे, अस्त्री एह रतन्न । इहा मुंकीनइ घरे गयो रे, यंत्रमय तेहनो मन्न ||३०|पिका राजा वइसी पूछीयो रे, किण छोडी इण ठाम । तई अपराध किसो कियो रे, कहि आपणो तुं नाम ॥३१॥पि०॥ सोकातुर बोलइ नहीं रे, सीता नारि लिगार। मतिसागर महतो कहइ रे, सुणि सुंदरि सुविचार ||३२|| पिoll सोक मुंकि तुंसवेथा रे, ए संसार असार । खिणभंगुर ए भाव छ। रे, जीवित अथिर अपार ॥३३॥पिका लखमी पणि चंचल घणुं रे, जाणे गंग तरंग। भोग संयोग ते सुंहणो रे, विहडइ प्रीतम संग ॥३४॥पिका भव माहे भमता थका रे, केहनइ दुखु न होइ । केहनइ रोग न ऊपजइ रे, वाल्हउ बिहडइ सोइ ॥३शापिका सुख दुख सउ नई सरिखा रे, म करि दुखु लिगार। धीरपणो मन मईधरी रे, बोलि तुं बोल विचार ॥३६॥पिok सामी एह छइ माहरो रे, वज्रजंघ जसु नाम । पुडरीकपुर राजीयो रे, जिन धरमी अभिराम । ३७॥पि०॥ पर उपगार सिरोमणी रे, महाभाग दातार । दृढ समकित धर दृढव्रती रे, अति उत्तम आचार ॥३८॥पिता ए अति उत्तम साहमी रे, साहमीवच्छल एह । एहनी संगति तुज्झनई रे, आविस्यइ दुखु नउ छेह ॥३६॥पिoll ते भणी एहसुं बोलि तुरे, कहि अपणी तुवात । इम मंत्री सममावतां रे, सीता अपनी सात ॥४०॥पि०॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) साहमी सबद सुणी करी रे, हरपी हीयडइ मुज्म । कर जोडी सीता कहइ रे, साहमी वंदना तुझ ॥४१॥पि०॥ सीता वात सहु कही रे, अपनी आमूल चूल । जिम रावण गयो अपहरी रे, राम हुवो प्रतिकूल ॥४२॥पि०॥ सउकि लोक अपजस सुणी रे, राम मुंकी वनवास। बात कहइ रोती थकी रे, नाखंती नीसास ॥४३॥पिणा बात सुणी सोता तणी रे, बज्रजघ कहइ एह । हे रमणी तुं रोइ मा रे, कारिमो कुटंब सनेह ॥४४॥पि०॥ कहि संसारमइ कुण सुखी रे, नारिकि ना दुख होइ। कुंभीपाक पचावणो रे, ताडना तर्जना जोइ ॥४५॥पि०|| तिरजंच दुख सहइ बापडा रे, भूख त्रिपा सी ताप। भार वहइ परिवस पड्या रे, करता कोडि विलाप ॥४६॥पि०॥ देवता पणि दुखिया कह्या रे, विरह वियोग विकार। एक एकनी अस्त्री हरइ रे, मुहकम मारामारि ॥४ापि०ll मनुष्यतणी गति मई कह्या रे, विरह वियोग ना दुक्ख । जनम मरण वेदन जरा रे, ताडन तर्जन तिक्ख ॥४८॥पि०|| आप थकी तु जोइनई रे, सुख दुख हुयइ जग माहि । भव वन महि भमतां थकां रे, कदि तावड कदि छांह ।।४ापि०॥ ए संसार सरूप छड रे, जांणिनई तुंजीव वालि। धरम बहिनि तु माहरइ रे, सील सुधइ मनि पालि ॥५०॥ पिना Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) चालि नगर तुं माहरइ रे, दुखु जलंजल देहि। जिनध्रम करि बइठी थकी रे, नरभवनो फल लेहि ॥५शापि०) पछइ करे तुं ताहरइ रे, जे मनि मांना तेह। सीता वाधव जाणि नई रे, इम बोलइ सुसनेह ॥५२॥पि०॥ हे वांधव तुं माहरउ रे, मई तुम सरणो कीध । वज्रजंघ नृप पालखी रे, तुरत अणावी दीध ।।५३।।पि०|| पइसारो सवलो करी रे, पुडरीकपुर माहि। सीता आंणी आवासमई रे, अंगइ अधिक उछाह ॥४ापि०॥ वीजी डाल पूरी थई रे, आठमा खंडनी एह । समयसुन्दर कहि कारिमो रे, अस्त्री पुरुष नो नेह ।।५।।पिता सर्वगाथा || १३१ ॥ दूहा १५ नगर लोके सीता तणो, देखी रूप उदार । अचरजि पामी चित्त मई, बोलइ विविध प्रकार ||१|| के कहइ गुण अवगुण तणों, भेद न जाणइ राम । दुरलंभ देवा नई जिका, ते सीता तजी आम ||२|| पुण्यहीन पामी थकी, भोगवि न सकइ लच्छि। रतन रहइ किहाँथी घरे, आवणहार अलच्छि ॥३॥ के कहइ अस्त्री एहवो, रे रे दैव सुणेइ । जर द्यइ माग्यो रूप तो, तो सीता सरिखो देव ॥४॥ दूषण संभावीजतो, नहि छइ इण मई कोइ । पिण दुसमण किणही दीयो, आल इसो छिद्र जोइ ॥५॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) वनजंघ राजा घणो, दोधो आदर मान । स्नान मन्जन भोजन भला, संतोषी सुविधान ॥६॥ . महुल दीयो रहिवा भणी, धण कण रिद्धि समृद्धि । दासी दास दीया घणा, रहइ तिहा सुप्रसिद्ध ||७|| भाग्यवंत जायइ जिहा, रान वेलाउल तेथि। पुण्य किया पहड़इ नहीं, सुख लहइ सीता एथि ।।८।। हिव कृतांत मुख सारथी, सीता नई वन छोडि । रांमचंद आगइ कही, बात सहू कर जोडि ||६|| नदी लाघि जिम ऊतरया, जिम छोडी वन माहि । जिम मुरछाणी जिम थई, वली सचेत निरुछाह ॥१०॥ रोती मृग रोवरावीया, वलि तुझ नइ कह्यो एम ।। सीता ना मुखथी कहुं, झूठ कहुं तो नेम ।।११।। जेम परीक्षा विण कीया, मुझ नइ छोड़ी रन्न । तिम मत छोडे कंत तु, श्री जिन धरम रतन्न ॥१२॥ वलि अपराध अजाणती, मई कोइ कीधो होइ। मिलियइ कइ मिलियइ नही, प्रीतम खमिजो सोइ ॥१३॥ रामचंद इम साभली, सीता तणा वचन्न । गुण ग्रहतो गहिलो थयो, रामचंद नो मन्न ||१४|| वज्राहत धरणी पड्यो, मूर्छागत थयो राम । विरह विलाप करइ घणा, थयो सचेतन जाम ।।१।। सर्वगाथा ॥१४॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) ढाल त्रीजी । नोखा रा गीत नी जाति ।। माल्याड, दृढाड़ मई प्रसिद्ध छ। राग--मल्हार हा चंद्रवदनी हा मृगलोयणी, हा गोरी गजगेलि । चतुर सुजाण रे सीता नारि, कनक कलस जिसा ।। पयोधर जुग तिसा हा! मनमोहनि वेलि ||१|| चतुर सुजाण रे सीता नारि, महुल पधारो रे सी०। विरह निवारो रे सी०। निसि सूतांनींद नावई, दिवसई अन्न न भावई । तुं मुझ जोवन प्राण ॥च० भा०। केसरि कटि लंकाली कामिनी, वचन सुधारस रेलि। च०। अपछर साक्षात एह, प्रीतम सुं सुसनेह ।। च० गुण ताहरा चीतारु केता, हालति चालति ढेलि ॥२॥ च० प्रियभाषिणी प्रीतम गुणरागिणी, सुघड़ घणुं सुविनीत । च० नाटक गीत विनोद सहू मुम, तुझविण नावइ चीत ॥३॥ च० सयने रंभा विलासी, गृहकाम काज दासी, माता अविहड़ नेह । मंत्रिवी बुद्धि निधान । धरित्री क्षमा निधान, सकल कला गुण गेह ॥४॥ च० गुण ताहरा'चीतारु केता, तुम सम नहिं को संसारि । च० हा हुं हिव कहउ कदि देखिसि, सीता मुख सुखकार ॥५॥ च० अस्त्रीरतन किहां रहइ माहरइ, हा हा हुं पुण्यहीन । च० तुझ विण सूनो राज अम्हारो, वचन कहइ मुख दीन ॥६॥ च० Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) धिग-धिग मूढ सिरोमणि हुं थयो, दुख तणी महाखाणि । च० दुरजण सोके तणे दुरवचने, हुई हांसी घरि हाणि ||७|| च० हा हा रतन पड्यो हाथां थी, किम लाभई कहउ एह । च० जे नर लोक तणई कहई लागई, हाथ घसइ पछइ तेह ।।८।। च० ते रूप ते सील ते गति ते मति, ते विनय विवेक विचार। च० सीता मांहि जिके गुण दीठा, ते नहीं किहा निरधार ॥६॥ च० कदि जीवती सीता नइ देखिसि, धन वेला घडी साइ। च० किम एकली रहती हुस्य३ रन मइ, कोइ जीव ना खिस्यइ खाइ ।।१०च० स्वापद जीव थकी जो जीवति, छूटिस्यइ सीता नारि। च० तो पणि माहरो विरह मारिस्यइ, जीविस्यइ केण प्रकारि ॥१शाच० इम विलाप करता तिहा आयो, लखमण राम नई पासि। दुखु म करि धरि धीरप वाधव, सुणि मोरी अरदास ॥१२॥ च० जिण जीवनै सरिज्यो हुयइ जे दुख, ते दुख तेहनइ होइ । च० छठी राति लिख्या जे अक्षर, कुण मिटावइ सोइ ।।१३।। च० इण परि अति समझाव्यो लखमण, अलप सोग थयो राम । नगरी दुखु करइ सीता नई', समरि समरि गुण ग्राम ॥१४|| च० फिट-फिट देव विधाता तुझ नई, कुण कीधो ए काम । च० कां तई कष्ट सती सीता नई', इवडो दीधो आम ॥१५॥ च० नगर माहि अस्त्री नो मंडण, रूप सील अभिराम । च० सीता एक हुंती ते काढी, कुण कीधो तई काम ।।१६।। च० नगरी लोक निपेध्या सगला, गीत विनोद प्रभूत । च० राम कहइ लखमण करो सगलो, सीता प्रेत ऋतून ॥१७॥ च० Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) देव पूजो मुनिवर नई वादो, सोग मूंको परहो आज । च० सीता गुण समरंतर वरतइ, रांमचंद करइ राज ||१८|| च० कितरेके दिवसे पड्यो ओछो, सीता ऊपरि राग । पाच दिवस हुवड प्रेम नो रणको, पछ३ दरसण लगि लाग ||१धाच० त्रीजी ढाल पूरी थई इतरई, आठमा खंड नी एह ! च० समयसुंदर कहई ते दुख पामई,जे करई अधिक सनेह ॥२०॥ च० सर्वगाथा ॥१६६॥ दहा २३ वज्रजंघ राजा घरे, रहती सीता नारि। गर्भलिंग परगट थया, पांडुर गाल' प्रकार ||१|| थण मुखि श्याम पणो थयो, गुरु नितंब गति मंद। नयन सनेहाला थया, मुखि अमृत रस विद ॥२॥ सुपन भला देखइ सदा, पेखइ पंजर सींह । गर्भ प्रभावइ ऊपजइ, सुभ डोहला सुदीह ।।३।। पूरे मासे जनमिया, पुत्र युगल अति सार। देखी देवकुमरि जिसा, हरखी सीता नारि ॥४|| वनजंघ राजा किया, वद्धावणा प्रगट्ट । उछव महोच्छव अति घणा, गीत गान गहगट्ट।।। सहु कुटंव संतोपीयो, भोजन भगति जुगत्ति। सखर दसूठण तिहां, राजा यथा सकत्ति ॥६॥ १–सातमी। २-नाल। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) अनंगलवण एहवो दीयो, प्रथम पुत्रना नाम मदनांकुस बीजा तणो, नाम दीयो अभिराम जा माता माथई मुंकिया, सरसव रक्षा काजि । सुखइ समाधि वध तिहा, वे भाई बहु साजि IIll इण अवसरि तिहां आवीयो, विद्या वल सपन्न । नाम सिद्धारथ जोतिषी, खुल्लक अति सुप्रसन्न ||६|| तीरथ चैत्य जुहार नई, आवड निज आवास । खिण माहे साधक खरउ, ते ऊडइ आकास ॥१०॥ ते आयो भिक्षा भणी, सीता मंदिर माहि। करि प्रणाम पडिलाभियो, आणी अधिक उछाह ||१|| भली परइठ भोजन कियो, खुसी थयो सुविशेष । सीतानइं पूछ। इराँ, बेटा बेउं देखि ॥१२॥ कहि वालक ए केहना, कहइ सीता विरतांत । खि सांस नाखती, जिम छोडी निज कात ।।१।। म करि दुखु खुल्लक' कहइ, बखतवंत ए पुत्र । तुं पणि सुख पामिसि सही, सगलो हुस्यइ ससुत्र ॥१४॥ जाण प्रवीण कुमर थया, बहुत्तरि कला निधान । सुरवीर अति साहसी, सुंदर रूप जुवान ॥१॥ बजजंघ राजेन्द्र पणि, निज कन्या सुजगीस । दीधी लवणाकुस भणी, ससिचूलादि बत्रीसि ।।१६।। १-लिगार तु | Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) मदनाकुस पाणिग्रहण, एकठो करण निमित्त । मुंक्यो दूत उतावलो, पृथिवीपुर संपत्त ।।१७|| पृथु राजा तिहां राजीयो, कनकमाला तसु धूय । वनजंघ मागइ नृपति, अंकुस नई कहइ दूय' ॥१८॥ वचन सुणी राज्या कुप्यो, कहइ साभलि रे दूत। कुल अगन्यात नई कुण दियइ, निज कन्या रजपूत ।।१।। तुम नई इम कहतइ थकइं, जीभ छेदण नो दंड। पणि अवध्य कह्या दूत नर, एहवी नीत अखंड ॥२०॥ दोठइ मारगि जा परो, कहि सामी नई जाइ। पृथु पुत्री आप३ नहीं, करि तुझ थी जे थाय ।।२१।। वनजंघ राजा भणी, कह्यो दूत विरतांत । लागउ तेहना देस नइ , लूटण भणी अश्रांत ॥२२॥ सुणी देस निज भाजतो, मुक्यो वजूरथ राय । वजूजघ ते वांधीयो, बिढतो साम्हो थाय ॥२३॥ सर्वगाथा ॥१८॥ ढाल चउपई नी पृथु राजा सामग्री मेलि, रण निमित्त उठ्यो तिण वेलि। वनजंघ सुत तेडावीया, ते पणि तुरत उठी धावीया || रण निमित्त वजडावी भेरि, सुभट मिल्या सब चिहुं दिसि घेरि। रवण अंकुस पणि चाल्या साथि, सूरवीर नहीं किण ही रइ हाथि ||२|| १-देय । २-~वाय Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) कहइ मात बालक छो तुम्हे, तुम्ह आधार वइठां छां अम्हे। चउकडिया गाडा नो भार, बछड़ा किम निरवहइ निरधार ॥३॥ तिण कारण तुम्हे बइठा रहउ, मातो नो जीवित निरवहउ । कहइ पुत्र तू बोलइ किसुं, एहवं वचन दयामणि जिसु ॥४|| बडा लहुडा नो किसो विचार, लहुडा पणि करई काज अपार । अंकुस लघु पणि गज वसि करइ, लहुडउ वजू पणि गिरि अपहरइ ॥५॥ दीवउ लहुडो पणि तम हरइ, साप मुंबइ तो माणस मरइ । गज भाजइ हरि नो छावडो, तेज प्रताप बडो तेवडो lll पुत्र तणी सुणि एहवी वात, आसीस दीधी पुत्र नई मात । करि संग्राम नई जस पामिज्यो, कुसले खेमे घेरि आविज्यो । कुमरे स्नान मज्जन सहु कीया, भोजन करि आभ्रण पहिरीया। जरह जोत नई सिरि ऊपरि टोप, रण चढता रो बाध्यो कोप | माता नई कीधो परणाम, लीधो सिद्धि तणो वलि नाम। रथ ऊपरि वइठा ते सुर, बजडाया चढता रण तूर ।।६।। दिवस अढी ना चाल्या गया, वनजंघ नई भेला थया । अणीए अणी कटक ये मिल्या, माहोमाहि सुभट ऊछल्या ॥१०॥ सवल थयो भारथ संग्राम, तेह मइ वर्णव्यो घणी हि ठाम । त्रुटि पड्या लव अंकुस वेइ, सत्रु सुं सवलो वेढि करेइ ।।१।। सिंहनाद नासइ गज घटा, तिम नाठा वयरी उतकटा। अज्ञात वंस बल देखो रही, कुमर कहइ का जावउ वही ।।१२।। - १-इसु। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) सकल कटक भागो देखियो, कुमर पराक्रम थी चमकीयो। पृथु राजा आवी नई मिल्यो, सह संताप हिव अलगो टलो ||१३|| निज अपराध खमावइ राय, प्रौढ़ पराक्रम वंस जणाय । उत्तम कुलि उपन्ना तुम्हे, ए वात जाणी निश्चय अम्हे ॥१४॥ वनजंघ नइ पृथु राजान, माहोमाहि मिल्या बहु मान । एहवइ नारद रिपि आवियो, सगलाही नई मनि भावियो ।।१।। वजंघ पूछी उतपत्ति, कुमर तणी नारद कहइ झत्ति । सुरिज वंसी एह कुमार, सीता राम थकी अवतार ॥१६॥ नि.कलंक सीता नई आल, लोके दीधो थयो जंजाल । अपजस राखण भणी अपार, रामई मुंकी डंडाकार ॥१७॥ एहवा कुमर तणा अवदात, सहु हरखित थई नई कहइ बात। सीहणि ना सीह एहवा होइ, जुगत पराक्रम एहनो जोइ ॥१८॥ रिपि नइ पृछ्यो कुमर हजूरि, नगरी अयोध्या केतो दूरि । सो जोयण ते इहा थी होइ, कहइ नारद जाणइ सहु कोइ ॥१६॥ जिहा तुम्ह पिता रहई श्रीराम, काको लखमण पणि तिण ठाम । कुमर बात सुणी कोपीया, दाखिण वाप तणा लोपीया ॥२०॥ मात अम्हारी छोड़ी राम, कुण अखन कीधो इण काम । वनजंघ सुणो वीनती, लव कहइ सज्ज थावो अम्ह वती ॥२१॥ नगर अयोध्या जास्या अम्हे, मदत अम्हारी करिज्यो तुम्हे । जुद्ध करी नई लेम्या वयर, आजथो को छोडइ नहीं वयर ।। २२ ।। वजजंध कहइ प्रस्तावि, सर्व हुस्यइ सुसता' समभावि। एहवई पृथु पुत्री आपणी, कनकमाला दीधी कुस भणी ॥ २३ ॥ १-सम सासतइ समावि । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) परणावी आडम्बर घणई, केइक दिवस रह्या सुखपणई । इहाथी चाल्या कुमर अवीह, साहसीक सादूला सीह ॥ २४ ॥ देस प्रदेस तणा राजान, हटकि मनावी अपणी आण। गंगा सिंधु नदी ऊतरी, साध्या देस दिसोदिस फिरी ।। २५ ।। कासमीर कावलि खंधार, गिरि कैलास तणा वसणार । जवन सबर बब्बर सकराय, सहु साध्या वनजंघ सहाय ।।२६ ।। सगले ठामे जय पामीया, कुसले खेमे धरि आवीया। पइसारो कीधो परगट्ट, नगर माहि थया गहगट्ट ।। २७ ॥ माता नई कीधो परणाम, हीयडइ माता भीड्या ताम । पाछली सगली पूछी वात, वनजंघ कह्या अवदात ॥ २८॥ हय गय रथ पायक परवार, तेह तणो लाभइ नहिं पार । राजा चाकरी करइ हजूर, कुस लव केरो प्रवल प्रडर ।। २६ ।। रूपवंत नई रलियामणा, कुस लव वेऊं सोहामणा। राज रिद्धि गई अतिहि बाधि, वे भाई रहइ सुखइ समाधि ।। ३०॥ आठमा खंड नी चउथी ढाल, कह्यो कुस लव संबन्ध विचाल। समयसुंदर कहइ हुयइ जो पुण्य, राजरिद्धि पामीयइ अगण्य ।। ३१ ।। सर्वगाथा ||२२०॥ दहा १८ वलि आव्यो नारद तिहां, अन्य दिवस रिपिराय । आदर मान घणो दीयो, कुस लव ऊभे थाय ।। १ ।। इम नारद आसीस घइ, सीमो वंछित काज । लखमण राम तणा तुम्हें, लहिज्यो अविचल राज ॥२॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) ६ कुमर कहइ नारद कहउ, कुण ते लखमण राम । वली वात कहि पाछिली, नगरी नाम नई ठाम ॥३॥ कुमर वेउ कोपइ चड्या, करिस्या रांम सुं वेढि । लेस्यां वयर माता तणो, रण मई नाखिस्या रेढि ॥४॥ वनजंघ नई जई करो, अम्हे जावां छां तेथि । कहइ वनजंघ जय पामि नई, वहिला आविज्यो एथि ।।५।। तुरत भेरि वजवाइ नई, कुमर चड्या कोपाल । हय गय रथ सेना सजी, मिल्या सीमाल भूपाल ।।६।। आडम्बर सुंचालता, सुणि सीता निज वात । रामचन्द प्रियु गुण समरि, मन मईदुख न मात ॥७॥ सीता रोती इम कहइ, अनरथ होस्यइ एह। सिद्धारथ कहइ भय नहीं, गुण ऊपजिस्यइ छेह ॥ ८॥ कुमर कहइ माता प्रतई, कां रोवइ हे माय । दीसइ दीन दयामणी, विलखइ बदन विछाय॥६॥ तुझनई कहि किण दूहवी, अथवा वेदन व्याधि । अम्हथी अविनय को हुवो, अथवा काई उपाधि ।। १०॥ कहइ सीता जे थे कह्या, कारण नहिं ते कोइ । पणि झूमो छो बाप सूं , ए मुझ नई दुख होइ ।। ११ ।। वाप वेटा बिहु मांहि जे, भाजय मरइ संग्राम । जिम तिम दुखु मुज्झ नइ, कुढग पड्यो ए काम ॥ १२॥ पुत्र कहइ सुणि मातजी, म करिसि दुख लिगार। राम अनइ लखमण प्रतइ, नहिं मार निरधार ।। १३ ।। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) पणि सेना भांजिस सही, करिसि मान नो भंग। तुं बइठी आणंद करि, सुणिजे जे करूं जंग ।। १४ ॥ इम माता समझाविनइ, गज ऊपरि चड्या गेलि । नगर अयोध्या सामुहा, कुमरे दीधी ठेलि ।। १५ ।। दस हजार नर विपम सम, धरती करतां जाइ। करि कुठार तरु छेदता, पूठ सेना थाइ ॥ १६ ॥ कटक घणो किहां पार नहि, बहुला पडइ बाजार । जोयण जोयण अन्तरतरई२, धइ मेल्हाण कुमार ॥ १७ ॥ नगर अयोध्या ढकडा, जितर गया कुमार। तितरई खबरि किणइ कही, आया कटक अपार ॥ १८ ॥ सर्वगाथा ।। २३८॥ ढाल ५ ॥राग तिलंग धन्यासिरी ॥ 'कोइ पूछो वांमण जोसी रे, हरि को मिलण कदि होसी रे ।। १ ।। ॥ एगीतनी ढाल || केइ आया कटक परदेसी रे, राम की अयोध्या लेसी रे॥१॥ के० कोप्यो राम कहइ कोई रे, अकाल मरणहार होई रे॥२॥ के० राम हुकम सेवक नई दीधो, सिह गरुड वाहन सज कीधो रे॥शाके० सामंत भूपाल बोलाया रे, रामचंद पासई मिलि आया रे ॥४॥ १० अति सवल कटक राम पासइ रे, नारद देखी नई विमासइ रे ॥५॥ के० भामंडल पासइ रिषि जाई रे, सगली युद्ध वात सुणाई रे॥६॥ के० १-हेलि २-आतरइ। १५ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम रामइ सीता काढो रे, वजूध सन्तोषी गाढी रे ।। ७ ।। के० लव कुश वे वेटा जाया रे, तप तेज प्रताप सवाया रे ॥ ८॥ के० तिण साध्या देस प्रदेसा रे, पणि माता नामनि देसा रे ।। ६ ।। के० आपणइ वाप ऊपरि आया रे, कटकी करि साम्हा धाया रे॥१०॥के० मोटो मत अनरथ थाई रे, समझावइ तिहा कोइ जाई रे॥१शा के० तुम्हनमइ वात जणावी रे, हिवइ जुगत कीजइ तिहां जाइ रे ॥१२॥ भामण्डल सुणनइ धायो रे, चित मांहे अचरज पायो रे ।। १३ ।। के० उड्यउ ते तुरत आकासइ रे, आयो सीता नइ पासइ रे ।। १४ ।। के० वाप वांधव नइ निरखी रे, सीता पणि अति घणं हरखी रे ॥१५॥ ऊठी नई साम्ही आवी रे, रोती ते वात जणावी रे॥१६॥ के० माता पिता नई भाई रे, कहइ दुख म करि तु वाई रे ।। १७ ।। के० तुझ अंगज जीपिवा लोचइ रे, पणि किम रांम सं पहुचइ रे ॥ १७॥ के० किम भुज सुं जलनिधि तरिय रे, आकास अंगुल किम भरिय रे ॥१६॥ मेरुगिरि त्राकडि कुण तोलइ रे, जलनिधि कुण राखइ कचोला रे ||२०|| चालो आपे तिहा जावां रे, सहु साथ नई जई समझावां रे ।।२शाके० सीता नई विमान बइसारी रे, चाल्यो ते अम्बरचारी रे ।। २२ । के० जातां लागी नहि वारी रे, लेई पुत्र नइ पासि वइसारी रे ॥ २३ ॥ के० जनक राजा वैदेही रे, भामंडल सुं ससनेही रे ॥२४॥ के० सीतादिक सहु को हरण्यां रे, कुमर प्रतापी निरख्या रे ।।२शा के० कुमर आदर मान दीधा रे, 'सहु को आपणइ पक्ष कीधा रे ।।२६।। के० । पांचमी ए ढाल सइ भाखी रे, 'कहइ सुन्दर ग्रथ नी साखी रे ॥२७॥के० . सर्वगाथा ॥२६॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) दहा ७ एहवइ केसरि रथचड्या, रामचंद रण सूर । गरुड रथई लखमण चड्या, वाजंते रणतूर ।।१।। विद्याधर वलि वन्हिसिख१, वालिखिल्ल२ वरदत्त३ । सीहोदर४ सीह विक्रमी, कुलिस६ श्रवण हरदत्त८ ॥२॥ सूरभद्रह विद्रुम१० प्रमुख, पाच सहस झूमार। सुभट मुगटमणि अति सवल, निज-निज रथ परिवार ।।३।। पांच सहस ते सुभट सुं लखमण नई श्रीराम । नगरी वाहिर नीसस्या, मेघ घटा जिम स्याम ||४|| ते दल देखी आवतो, लवणाकुस पणि वेउ । सूरवीर साम्हा थया, सुभट नई साथ लेउ ।।शा अंग१ कलंगर जलंधरी३, सिंहल नई४ नेपाल५ । पारस मागध७ पाणिपथ८, बबरदेसह भूपाल || इत्यादिक अति सुभट नर, साथ सहस इग्यार। अणिए अणि आवी मिला, जुद्ध कर झूमार ||७|| सर्वगाथा ॥२७॥ ढाल ६ ॥राग खंभाइती॥ . "सूबरा तुं सुलताण, वीजा हो। वीजा हो थारा सूबरा ओलगू हो." ___ए गीत नी ढाल, जोधपुर, नागोर, मेडता, नगरे प्रसिद्ध छइ। - लागो सवल संग्राम, वेदल हो, वेदल झूझइ नगरी वाहिरई हो ॥ वहइ गोला नालि तीरे हो तीरे हो, वरसइ मेह तणो परइ हो। १॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) भाला मारइ भीम भा० भेदइ हो। भे० वगतर टोप विहुं गमा हो । करि लवकइ' करिवालक क० कालइ हो। कालइ आभइ वीजलि ऊपमा हो ||२|| ऊडई लोहडे अगि। ऊ हाथी हो । हा० पाडइ चीस चिहुं दिसाहो । हाक बूंव हुंकार। हा० सुभटा हो। सु० ऊपर सुभट पडइ धस्या हो ॥ ३ ॥ अंधारउ आकास । अ० छाया हो। छा० रवि ससी बहुली रज करी हो । चूहा रुधिर प्रवाह । बू० मात्या हो । मात्या माणास तिरजंच बहुपरी हो ॥४॥ पडइ दमामां रोल। प० एकल हो। एकल घाई बाजइ ऊतावली हो।।। सिंधुडइ वलि राग। सिं० सरवि हो । स० सरणाई चहचहइ भली हो ।।५।। धरती नर संग्राम । ध० गयणे हो। ग० खेचर संग्राम तिम थयो हो ।। भामंडल भूपाल। भा० कुंयरां हो। कु० केरी भीर करण गयो हो ॥ ६ ॥ विद्य प्रभ सग्रीव । वि० महावल हो। म० राजा पवनवेग खेचरा हो ।। १--मत्रकइ। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) सुणि कुस लव उतपत्ति । सु० हूवाहो । हू. उदासीन वृत्ति अनादरा हो ॥ ७ ॥ सुरसेलादिक भूप। सु० सीता हो । सी० देखी सन्तोप पामिया हो। अचिरजि देखई आइ । अ० निज सिर हो । नि० सीताचरणे नामिया हो ॥ ८ ॥ एहवइ कुस लव वेडं । र० ऊठ्या हो। ऊ० संग्राम करिवा साहसी हो। लखमण राम नई देखि । ल० ऊपरि हो। ऊ० वेडं त्रूटि पड्या धसी हो ॥६॥ आया देखी राम। आ० मूंकइ हो । मुं० तीर सडासडि सामठा हो॥ कीधो लेव पणि कोप । की० तोरे हो। ती० नोड्या राम ना कामठा हो ॥ १० ॥ रथ कीधो चकचर। र० वीजा हो । बी० लीधा धनुष नई रथ वली हो । ते पणि भागा तेम । ते० विसमय हो। वि० पाड्यो राम महाबली हो ॥ ११ ॥ तिम लखमण सुं जुद्ध । ति० लागो हो । ला० कुस नई कांकल पाधरइ हो । वजूजंध करइ भीर। व० लव नी हो। ल० कुस नो भामंडल करइ हो ।। १२ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) रे सारथि कहइ राम । रे० साम्हा हो। सा० घोडा रथ नाखेडि तूं हो।। अरि नाखं उखेडि । अ० सारथि हो । सा० कहइ राजेन्द्र म छेडि तूं हो ।। १३ ।। तीरे माऱ्या अश्व | ती० न वहा हो। न० माहरी वे पणि बाहडी हो। कहि इमहिज श्रीराम ! क० माहरा हो । मा० हल मुसल थया लाकड़ी हो ।। १४ ।। हुवा सहु हथियार। हु० देवता हो । देवताधिष्ठित पणि निफल सहू हो। लखमण राम ना सर्व। ल० लखमण हो। ल० सासई मांहि पड्यो बहू हो ।। १५ ।। ऊपाडी सिलकोडि। ऊ रावण हो। रा० मारयो लंका गढ लीयो हो। हिवणां हार केम । हि० कुस नई हो। कु० मारण निज चक्र मूकियो हो ।। १६ ।। ते गयो कुमरनइ पासि । ते० दीधी हो । दी० चक्र त्रिहि प्रदक्षिणा हो॥ पालो आयो वेगि। पा० प्रभव्यउ हो। प्र० नहि ते सगपण अति घणा हो ॥१७॥ सुभट कहइ सहु एम । सु० वाणी हो । वा० खोटी साधुतणी हुई हो। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ( २३१ । ए होस्यइ वासुदेव । ए० लखमण हो। . , ल० हुवो दिलगीरी अई अई हो ।।१८।। बलदेवनइ वासुदेव । ब० वीजा हो।' . बी० केई भरतमइ अवतत्वा हो।। सिद्धारथ कहइ आई। सि० लखमण हो। ल० दीसउ कां चिंता भस्या हो ।।१६।। तु साचो वासुदेव । तुं० वलदेव हो। ब० साचो राम जाणो सही हो ।। साची साधनी वाणि । सा० गोत्रमई हो। गो० कईयइ चक्र प्रभव नहीं हो 2011 कहइ लखमण ते केम ! क० नारद हो । ना० सिद्धारथ ते सहु कहइ हो ।। ए श्री रामना पुत्र । ए० कुश लव हो । कु० सीताना पुत्र गहगहइ हो ॥२१॥ राम तज्या हथियार । रा० पाछिली हो। पा० वात संभारी सीतातणी हो॥ आणंद अंगि न माय । आ० साम्हो हो । सा० चाल्या पुत्र मिलण भणी हो ॥२२॥ कुश लव पणि सुणि वात । कुस० रथथी हो। र० उतरि साम्हा आवीया हो । प्रणम्या रामना पाय। प्र० हियडइ हो। हि० भीडी सतोप पामिया हो ||३|| Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) राम करइ पछताप । रा० धिग धिग हो। धि० सीता छोडी निराश्रया हो। गर्भवती गुणवंत । ग० जेहनी हो। जे० कूखि पुत्ररतन थया हो ॥२४॥ धन धन वनजंघ राय। ध० सीता हो । सी० आणी जिण अपणे घरे हो । वहिन करी बोलावि । व० राखी हो। रा० रूडइ जीव तणी परे हो ॥२५॥ माहरइ पोतइ पुण्य । मा० तुम्हां हो। तु० सरीखा पुत्र सकज इसा हो। कहउ सीता नी बात। क० किणपरि हो। कि० रहइ छइ हिव जागी दिशा हो ।।२६।। लव कहइ जेहवइ वात । ल० तेहवइ हो । ते० लखमण तिहां आव्या वही हो। कुस लव कीयो प्रणाम । कु० जईनइ हो। ज० लखमण मिलियो गहगही हो ॥२७॥ वरत्या जय जय कार । ब० वागा हो । वा० वाजिन तूर सोहामणा हो। प्रगट्यो आणंद पूर । प्र० विहुंदलि हो। वि० माहे रंग वद्धावणा हो ॥२८॥ सीता सुण्यो मेलाप । सी० वेटा हो। वे० मिलीया वापना रंगइ रली हो ।। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) वइसी दिव्य विमान । व० पहुती हो । प० सीता तिण नगरी वली हो ||२६|| आठमा खंडनी एह । आ० छठ्ठी हो । छ० ढाल रसाल पूरी थई हो || समयसुंदर कहइ एम । स० चिंता हो । चि० आरति सहु दूरई गई हो ||३०|| सर्वगाथा ||३०२|| दहा ६ हिव श्री राम सुपुत्रनो, मेलापक सुख खाणि । लखमण सुं हरखित थया, बजडाया नीसांण ॥१॥ रलीरंग वद्धावणा, वागा नंदी तूर | दल वेड भेलाथया, प्रगट्या आणंद पूर ॥ २ ॥ राम भामंडल वे कहइ, वज्रजंघनइ एम | तु बांधव तु मित्र तु, तूं वाल्हेसर प्रेम ॥ ३ ॥ ए तं कुमर उठेरिया, मोटा कीधा आम । अम्हनर आंणी मेलीया, सीधा वंछित काम ॥ ४ ॥ सहजइ पणि होवइ सुहृद, चंद सूर जिम के | अंधकार दूरइ हरइ, जग उद्योत करेइ ॥ ५ ॥ महोच्छव मोटो माडियो, नगर अयोध्या मांहि । कुश लव कुमर पधारिया, गीतगान गहगांहि ॥ ६ ॥ सर्वगाथा ॥ ३०८ ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) | खाड ९॥ दहा १० हिव नवमो खंड बोलिस्यु, नवरस मिल्यां निदान । मन वंछित सुख पामियइ, निरमल नवे निधान ।।१।। अन्य दिवस श्री रामनई, जंपवे कर जोडि । सुग्रीव विभीषण प्रमुख, हित कहतां नहि खोडि ॥२॥ पुंडरीक नगरी रहइ, सीता दुखिणी सामि । पतिनइ पुत्र वियोगिनी, किम राखइ मन ठामि ।।३।। राम कहइ सुणि मुज्झनई, सीता विरहो थाय । दुखु घणो दामई हीयो, पणि कुणि करु उपाय |४|| मइ छोडी वल्लभ थकी, लोक कुजस भडवाय। तुम्हे मिलीनइ तिम करउ, जिमवेतड़ सचवाय ||५|| दाय उपाय करो तिको, मिलइ सीता जिम मुज्म । कलंक सीतानो उतरई, सहु जिम पडइ समझि॥६॥ राम वचन इम सांभली, भामंडल सु तेह । सुग्रीव विभीषण प्रमुख, विद्याधर सुसनेह ॥७॥ सीता पासि गया तुरत, कीधउ चरण प्रणाम । आगई बइठा आविनई, तिन बोलाया ताम ॥ll कर जोडी नइ ते कहई, सभलि सीता वात । आवउ नगरी आपणी, राम दुखी दिन राति ॥ तुम्ह दरस देखण भणी, अति ऊमाह्यो लोक । तरसई मेहतणी परई, वलि दिनकर जिम कोक ॥१०॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) ढाल १ ॥तिल्ली रा गीतनी॥ ॥ मेडतादिक नगरे प्रसिद्ध छइ ।। हो सुग्रीव राजा सुणो मोरी बात, गद्गद स्वरि सीता कहइ रे लाल । हो सु०। दुखु सवलउ मुझनइ दहइ रे लाल ||१| हो सु० । विण अपराध मुझनई तजी रे लाल । हो सु०। ते दुखु मुझ सालि अजी रे लाल ||२|| हो सु०। हुं दुख नी दाधी घणु रे लाल। हो सु० काम कहुं आवण तणउ रे लाल ॥३॥ हो सु०। नगरी अयोध्या मालिए रे लाल । हो सु०। प्रिय सुं न वइसु पटसालिए रे लाल ||४|| हो सु० । अथवा तिहा एकइ कामई आवणो रे लाल । हो सु० करि धीज साच दिखाड़णो रे लाल ||५|| हो सु० । कलंक उतारूँ तिहा आपणो रे लाल । हो सु० । पछइ करूँ धर्म जिन तणो रे लाल ||६|| हो सु० । चालो तुम्हारा बोल मांनिया रे लाल । हो सु०। सीता साथि ले चालिया रे लाल ||७|| हो सु०। आणी अयोध्या उद्यानमई रे लाल । हो सु० । मुंकी सीता सुभ ध्यानमइ रे लाल ||८|| हो सु० । रातिगई प्रह फूटियो रे लाल। हो सु०। अंतराई क्रम त्रुटियो रे लाल || हो सु०। आवी वनमई अतेउरी रे लाल । हो सु० । आगति स्वागति तिण करी रे लाल ॥१०॥ हो सु० ।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) ढाल 9 ।। राग खंभायती सोहलानी जाति ।। देशी-"अम्मा मोरी मोहि परणाविहे। अम्मा मोरी जेसलमेरा जादवा हे।। जादव मोटाराय, जादव मोटाराय हे । अम्मा मोरी कडिमोडी नइ घोडइ चडइ हे॥" ढाल ए गीतनी सुण सखी मोरी वात हे, सुण तखी। कुस लव कुमार पधारिया हे। चालो जोवा काजि, चा० सु० । सहर सकल सिणगारिया हो ।।१।। बांध्या तोरण वारि हे, वां० सु० खलक लोकाई देखण नइ गई हे। वइठा कुमर विमान, व० सु० दरसण देखी अति हरपित थई हे ॥२॥ लखमण नइ श्रीराम, ल० सु० कुमर संघातइ विद्याधर घणा हे । अपछर देखई आवि । अ० सु० रूप मनोहर कुमर सोहमणा हे ॥३॥ नारी निरखण रूप । ना० सु० काम अधूरा मुंकी ऊलली हे। काचित मुंकी थाल । का० सु० आधइ भोजन कीधइ मलफली हे ॥४॥ काचित एकइं आखि । का० सु० काजल घाली नारि नीसरी हे। काचित रोतो बाल । का० सु० दूध धावंतो थण थी परिहरी हे ।।५।। काचित छूटे केस । का० सु० नणदल पासई सिर गुंथावती हे। ' काचित एकई वाहि। का० सु० पहिरी कंचुकी नीसरि धावती हे ॥६॥ काचित उलटउ चीर। का० सु० पहरी ओढणा लीधो हाथमइ हे। काचित कुंडल एक। का० सु० काने घाल्यो वीजइ हाथमइ हे॥७॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) काचित खाडती सालि । का० सु० मूसल मुंकी अखल ऊपरइ हे। काचित ऊफणतो दूध । का० सु० भो मुकी द्रोडी बहु परइ हो ||८|| काचित घरनो बार। का० सु० मुंकी ऊघाडउ गई देखण भणी है। काचित त्रुटोहार । का० सु० जाणइ नही हलफली अति घणी हे ।।६।। इम धसमसती नारि। इ० सु० गउखि चडी के के गलिए रही है। देखई कुमर सरूप। दे० सु० अचिरजि आणी हीयडइ गहगही हे ॥१०॥ कहइ वलि देई एम । क० सु० धन्य सीता जिण एहवा जणमीया हे। धन्याकन्या पणि एह। ध० सु० जि० । चउरी चडिकर मेलाविया हे।।१। इम सलहीता तेह । इ० सु० बाप काका सु चिहुंदिस परिवर्या हे। पहुता निज आवासि । प० सु० सकल कुटुंव केरा मन ठस्या' हे ॥१२॥ गया अंतेउर माहि । ग० सु० हेजइ अंतेऊरी सहू आवी मिली है। दे आलिंगन गाढ । दे० सु० रंग वधामण पुगी मनरली हे ।।१३।। आठमा खंडनी एह । आ० सु० ढाल थई ए पूरी सातमी हे। कही कुमरनी बात । क० सु० समयसुंदर कही मुझ मनरमी हे ॥१४॥ एतउ आठमउ खंड । ए० सु० पूरे कीधो इणपरि अति भलउ हे। साचउ सीता सील । सा० सु० समयसुंदर कहिस्य३ मामलउ हे ॥१॥ __ सर्वगाथा ॥३२३।। इति श्री सीताराम प्रवधे सीता परित्याग १ वर्जघगृहानयन कुश लव युद्ध कुशलव कुमारायोध्याप्रवेशादि वर्णनोनाम अष्टमः खडः सम्पूर्णः । १-उछा । स Tv Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) 'तिण अवसरि राम आवीया रे लाल । हो सु०। निज अपराध समाविया रे लाल ||११|| हो सु० । प्रियुडा सुणि मोरी अरदासं, सीता कहा पाए पडी रेलाल हो प्रि। कर जोडी आगइ खडी रे लाल ||१२|| हो प्रि० । तुझनई वचन हुँ किसा कहूँ रे लाल । हो प्रि०। विरह वियोग घणा सहूं रे लाल ॥१३।। हो प्रि० । तु सुदाखिण कलानिलो रे लाल । हो प्रि०। तुं वछल सहजई भलो रे लाल ||१४|| हो प्रि०। परदुख कातर तुं सही रे लाल । हो प्रि० । तुम गुण पार पामुं नही रे लाल ।।१शा हो प्रि० । को नहि प्रियु तुझ सारिखो रे लाल । हो प्रि०। ‘पणि न कीयो मुझ पारिखो रे लाल ||१६|| हो प्रि० तइ मुनइ छोडी रानमइ रे लाल । हो प्रि० विण गुनहइ न गिणी गानमइ रे लाल ॥१७॥ हो नि । अपराधइ दंड दीजियइ रे लाल । हो प्रि०।। ते विण इम किम कीजोयइ रे लाल ॥१८॥ हो प्रि० । अपराध जेहनउ जाणीयउ रे लाल । हो प्रि० । पांच धीजे परमाणिय रे लाल ॥१६॥ हो प्रि० । १-"जगाद जानकी दिव्य पचक स्वीकृतं पया प्रविसामि वन्हो बलते भक्षयाम्यथ तदुलान" तुला समाधि रोहामित तदा कोस पिवाम्य च गहासि जिह्वयाफाल क तुत्परो चतेवद युग्म पद्मचरित्रे नवम सर्गे Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) आगि पाणी धीज जागता रे लाल । हो प्रि० । संदेह मनना भागता रे लाल ||२०|| हो प्रि० । ते धीज तईन कराविया रे लाल । हो० मुझ तजतां प्रेम नाविया रे लाल ॥ २६ ॥ हो० तई तो कठोर हियो कीयो रे लाल । हो० तई मुझनइ विछोहउ दीयो रे लाल ॥ २२ ॥ हो० जो वन माहे सीह मारता रे लाल । हो० तउ तेहनइ कुण वारता रे लाल ॥ २३ ॥ हो० ध्यान भंडइ हुं मुंई थकी रे लाल। हो० दुरगति जाती हुँ ठावकी रे लाल ।। २४ ।। हो। तई कीधो तेन को करइ रे लाल । हो० पणि खटी विण किम मरइ रे लाल ।। २५ ।। हो० दोस किसो देउं तुज्झनई रे लाल । हो० दैव रूठो एक मुज्झनई रे लाल ॥ २६ ॥ हो० आपदा पड्यां न को आपणो रे लाल । हो० कुण गिणइ सगपण घणो रे लाल || २७ ॥ हो. दुखु समुद्रमई तइ धरी रे लाल । हो० पणि पूरव पुण्य करी रे लाल ॥ २८ ॥ हो. पुंडरीकपुरनो धणी रे लाल । हो० मिलियो परिवाधव तणी रे लाल || २६॥ हो० तिण राखी रूडी परइ रे लाल हो० वलि सुग्रीव आणी घरइ रे लाल ॥ ३० ।। हो० Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) धीजकरुं कहइ आकरो रे लाल | हो. निरमल करूं पीहर सासरो रे लाल ॥ ३१॥ हो. एती बात सीता कहइ रे लाल। हो. रामचन्दइ सहु सरदही रे लाल ।। ३२ ॥ हो. पहली ढाल पूरीथई रे लाल । हो० समयसुंदर आरति गई रे लाल ॥ ३३ ॥ हो. सवेगाथा ॥४३॥ दहा ८ आँखे आंसू नाखतो, राम कहइ सुमनेह ।। तुं कहइ ते साचो सहू, तिणमई नहि सन्देह ॥ १ ॥ हुँ जाणुं छु ताहरो, सील सुद्ध कुल सुद्ध। प्रेमघणो मुझ उपरई, ए सहु बात प्रसिद्ध ॥ २ ॥ पणि तुम अपजस ऊछल्यो, किणही कमें विशेप । ते न सकुं श्रवणे सुणी, नयणे न सकु देखि ॥ ३ ॥ तिणमइ तुझनइ परिहरी, करुणा नाणी चित्त । दोस नही को ताहरड, तुं छइ सील पवित्त ॥४॥ जिम अटवी संकट टल्यो, सीलइ तणइ परभावि' । तिम जस थास्यई ताहरउ, धीरज तणइ समावि ॥५॥ वलती आगिमइ पइसिन, नीसरि तुं निस्संक । हेमतणी पर हे प्रिए, करि आपउ निकलंक ॥ ६ ॥ तुझ कलंकपिण ऊतरई, मुझनइ आणंद पूर। . लोक कहइ धनधन्य ए, बाजई मंगलतूर ।। ७॥ १-समावि Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) एहवा वचन श्रीरामना, साभलि सीता नारि । हरख सुं आगि ना धीजनो, कीधउ अंगीकार ॥ ८॥ सर्वगाथा ||५|| ढाल बीजी || राग मारुणी ॥ ' गलियारइ.साजण मिल्या । मारुराय । दो नयणां दे चोट रे । धणवारी लाल । हसिया पण बोल्या नहीं। मारूराय । काइक मनमोहे खोट रो११ धगवारी लाल । आन रहर रंगमहलमइ । मा०|| ए गीतनी ढाल ।। हिव श्रीराम हुकम करइ । सीतानारि । निज पुरुषां नइ एह रे । धन सीता नारि । जावो खणावो वावडी । सीता नारि ।। सउ हाथ दीरघ तेहरे ॥ १ ॥ धन सीतानारि । धीज करइ जे आगिनी । सीता नारि ।। आ० ।। अगरचन्दनने इंधणे। सी० । पूरी काठी भरीज रे । पू० । आगि लगावो चिहुंगमा । सो० सीता करिस्य धीज रे ॥२॥ ध० राम कह्यो ते तिम कियो । सी० सेवके सगली सवील रे । ध० ते वात सगले साभली। सी० वात परंता न ढील रे ॥३॥ ध० धी० हा हा रव करतो थको। सी० लोक आयो मिलि तेथि रे । ध० आणि जिहा झाले बलई। सी० सीता ऊभी जेथि रे॥४॥ ध० धी० लोक कहई राम सांभलो । सी० धीज अजुगतो आम रे । ध० काइ करावा माडियो । सी० सीतासीलई अभिराम रे ॥५॥ ध० धी० के इत्युक्त्वा खानयद्रामो गर्तहस्त शतत्रयं । पुरुपत्रयं दध्र च पूरयच्चंदनैघनैः। १६७। (पद्मचरिते हमे सर्गे) १६ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४२ ) सील गुणे रही जीवती । सी० अटवी संकट माहि रे । ध० ए परतीति नाणी तुम्हें । सी० राखो सीतानइ साहि रे ॥६॥ ध० सिद्धारथ पणि आवीयो। सी० मुनिवर कहतो निमित्त रे । ध० रांमप्रतई एहवो कहइ । सी० सीतासील पवित्त रे ॥ ७॥ ध० धी० जउ पातालि पइसइ कदे। सी० मेर जिहा सुर कोडि रे। ध० समुद्र कदे सोखीजियइ । सी० तो सीतानइ खोडि रे ॥८॥ ध० धी० जउ झूठो बोलु कदे । सी० तो मुझनइ नीम सात रे । ध० पांच मेरे देव वादिनइ । सी० पारणो करूं परभात रे ॥ १।। ध० धी० ते पुण्य मुझनइ म थाइच्यो । सी० झूठ कहुं जउ कोइ रे ।ध० मनवचने कायाकरी । सी० सीता महासती होइ रे ॥ १०॥ ध० धी० ए बातनो ए पारिखो। सी० ए भाखु छु निमित्त रे । ध० अगनि माहे बलिस्यइ नही। सी० जलण हुस्यइजलझत्ति रे ।।११।। घ० सिद्धारथ वाणी सुणी। सी. विद्याधर ना वृद रे। ध० । कहइ सहुको तइ भलो कियो । सी० साच कह्यो सुखकंद रे॥१२॥ ध० सकलभूषण श्रीसाधनइं। सी० उपसर्गथया असमान रे। ध० तिण अवसरि तिहा ऊपनो । सी० निरमल केवलग्यान रे।।१३।। ध० ते मुनिवरनई वादिवा । सी० आविनइ इंद्रमहाराज रे। ध० बात सीतातणी सांभली। सी० धीजना मांड्या साज रे ॥१४॥ ध० हरणेगसेपी नइ कह्यो। सी० इन्द्र तेडीनइ एम रे।ध०। धीज करावण मांडियो। सी० कहउ सीतानइ केमरे ॥१५ ध० त्रिकरण शुद्ध सीता सती । सी० तेहनइ करे तुं सहाज रे ।धा हुँ जावु छु उतावलो । सी० मुनि वादण महा काज रे ॥१६।। ध० Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) इन्द्र आदेश लेई करी। सी० हरिणेगमेपी देवरे धि०) तुरत सीता पासे गयो। सी० सीतानी करिवा सेवरे ॥१७|ध० तेहबई राम ने सेवके । सी० आवीनइ कह्यो एमरे ध० वावि लगाया ईधणा । सी० ढीलि करो तुम्हे केमरे ।।१८।। ध० वलती आगि देखी करी । सी० राम थयो दिलगीर रे ।ध० हाहा कष्ट मोटो पड्यो । सी० किम सहिसइ ए सरीर रे॥१६|| ध आगि नही कदे आपणी। सी० दुसमन जिम दुखदाय रे धिन कलंक उतारयो जोउयइ। सी० बीजो न सुझड उपाय रे ॥२०॥ ध० लोक तो बोक समा कह्या । सी० कुण राखड मुख साहि रे ।ध०॥ अपजस अणसहती थकी। सी० सीता वली आगी मांहि रे ।।२।। हाहा कदाचि सीता वली। सी० तो वलि कदि देखीस रे ।ध०। जो सूधी धीजई करी । सी० तउ लहिस्यइ सुजगीस रे ॥२२॥ ध० रामनई एम विमासतां । सी० आगि बधी सुप्रकास रे।ध०॥ झालो माल मिली गई। सी० धूम छायो आकास रे ।।२३।। ध० धग धग सवद बीहामणो। सी० अगनिनो ऊछल्यो ताम रे। एक गाऊनो चांद्रणो। सी० चिहुँदिसि थयो ठाम ठाम रे ॥२४।। ध० वाय डंडुल' वायोवली । सी० जे वाली करई खंभरे ।ध०। कायरना काप्या हिया। सी० सुननर पाम्या अचंभ रे ।।२।। ध० तिण वेला आवी तिहा । सी० सीता वावडी पासि रे ।ध०। स्नान करी परिघल जलइ । सी० अरिहंत पूजी उल्हासि रे।।२६।। ध० सिद्ध सकल प्रणमी करी। सी० आचारिज उवझाय रे। साथ नमो तीरथ धणी। सी० मुनिसुव्रतना पाय रे ॥२७॥ व० १-ददोल। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .( २४४ ) वलती आगि पासइ रही। सी० सुर नर नारी समक्षि रे।ध० सीता कहइ सुणिज्यो तुम्हे। सी० भो लोकपाल प्रतक्षि रे॥२८॥ ध० मई श्रीराम विना कदे । सी० पुरुप अनेरउ कोइ रे।ध० । मन मांहि पिण वांछ्यउ हुवइ । सी० रागइ साम्हो जोयो होइ रे ।।२।। तउ आगि मुझ नइ बालिज्यो। सी० नहितर सीतल थाउ रे। ध० आगि नही केहनी सगी । सी० नहि सगो डंडुला वाय रे ॥३०॥ ध० इम सीता कहती थकी। सी. समरंती नोकार रे ।ध०॥ जितरइ सीता उतावली । सी० पइसइ आगि ममारि रे ।।३१।। ध० तितरइ बाय थंभी रह्यो। सी० छूटा पाणी प्रवाह रे धि० लोक सहूनइ देखतां । सी० ऊंचो वाध्यो अथाह रे ॥३२॥ ध० , लोक लागा जल बूडिवा। सी० हूयो हाहाकार रे ।धा विद्याधर ऊडो गया। सी० भूचर करइ ते पोकार रे ॥३३॥ ध० राखि राखि सीता सती। सी० तुं सरणो तुं त्राण रे।ध०) . इम विलाप लोकातणी। सी० सीता सुणत प्रमाण रे॥३४॥ ध० करि करुणा निज पांणि सु। सी० थंभ्यो पाणि प्रवाह रे ध०) वावि रही पाणी भरी। सी. उलट्यो अंगि उछाह रे ॥३॥ , लोक लागा सहु देखिवा । सी० खुशी थका ते वाविरे ध। निरमल नीर भरी तरी । सी० हंस सेवा करि आवि रे ॥३६।। मणिमय बरडी मोकली। सी० पावडी कनक प्रकार रे ध० वावि विचि कीयो देवता । सी० सहस कमल दल सार रे॥३७॥ सिंहासन मांड्यो तिहां । सी० सीता वइसारी आणि रे ।धा . आभ्रण वस्त्र पहिराविया सी० लखमी बइठी जाणि रे ॥३८॥ ध० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) देवता वाई दुदु भी । सी० कीधी कुसुमनी वृष्टि रे ।ध० । सूधी सूधी सीता सती। सी० कहइ सहु को अभीष्ट रे ॥३६।। ध० नाटक माड्यो देवता । सी० करई सीता गुण प्राम रे धि०॥ सील सीताना सारिखो। सी० नहि जगमइ किणठाम रे ॥४०॥ध० सतीयां मो सीता लही। सी० रेखा जगत प्रसिद्ध रे । ध० । आगिमई पइसि दीखाडीयो। सी० साच जीणइ सुविसुद्ध रे ।।४१ चमतकार उपजावियो । सी० सुरनर नइ पणि जेण रे । ध० कीधा कुल वे ऊजला । सी० निरमल सील गुणेण रे ।।४२|| ध० सोभ चडावी रामनई। सी० पुत्रनई कीधो प्रमोद रे । घ० लखमण लाधो पारिखो। सी० थयो आणंद विनोद रे ।।४३।१० तेहवइ कुश लव आवीया। सी० आणिंद अंगि न माय रे १० सीताना चरणो नम्या । सी० हीयडइ भीड्या माय रे ।।४। घ० सीतानी महिमा करई। सी० देवता राम ते देखि रे। ध अति हरखित हुतो कहइ । सी० पामी प्रीति विशेषि रे।४५॥ घ० हे प्रिये तुझ थायो भलो । सी० तुं जीवे चिरकाल रेः ध० सुख भोगवइ निज कंत सु। सी० राजरिद्धि सुविसलारे ॥४६॥ ध० एक गुनह ए माहरो। सी० खमि तुं सदाखिण भारि रे । ध० आज पछी हु नहि करूं। सी० अपराध इण अवतारि रे ॥४७॥ध० थासुप्रसन हसि बोलि तुं। सी० तू मुझ जीव समान रे। ध० सोलह सहस अंतेतरी। सी० ते माहि तुं परथान रे ।। ४८॥ ध० तुझ आगन्या लोपुं नही। सी० म विनवर श्रीराम रे। ध० पणि सीता मानइ नही । सी० कहई मुम ध्रम सुं काम रे ॥४ाध० Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४६ ) नवमा खंडतणी भणी । सी० बीजी ढाल विसाल रे । ध० समयसुदर करई वंदना । सी० सीतासतीनइ त्रिकाल रे ।।५०|| १० सर्वगाथा ||१०|| दहा १३ कहई सीता प्रीतम सुणो, तुम्हे कह्यो ते तेम । पणि हुँ भोगथी उभगी, चित्त अम्हारो एम ।। १ ।। ऐमई लपटाणी हुती, पहिली तुम्ह सुं कंत ।। णितई मुझनइ परिहरी, ते साभरई वृतांत ।। २ ।। तुछ सुखु संसारना, दुखु घणो दीसंत । सरव मेरु पटतर, कहो मन किम हीसंत ।। ३ ।। तिणनापुरिसे परिहस्यो, कुटम्बतणो प्रतिबंध' । अंतकलि दुख ऊपजई, प्रीतम प्रेम सम्बन्ध ॥४॥ हा हा तावो करई', जउ पहिलो प्रति प्रेम । छाड्यो हुन तो मुज्झनउ, ए दुख पड़ता केम ॥५॥ भोग घणेहीभोगवे, जीवनइ त्रिपति न होइ ।। सुपन सारीपासुख ए, दुरगति दुख द्यइ सोड ॥६॥ ते सुखनहि चक्रे तिनइ, जे सुख साधनइ जाणि । मई मनि वाल्योमाहरो, म कहिसि मुझनइ ताणि ।। ७ ॥ इम कहती सीता रती, कीधो मस्तक लोच' । केस क्लेस दूर क्यिा, सहु टली मननी सोच ॥ ८ ॥ १-परिबन्ध । २~ रहो। ३- इत्युक्तवा मैथिली केशानुन्चरवान स्वमुष्टिना ।। रामयंचार्पयामास शक्रस्येव जिनेश्वर. (पदमचरित्रे नवम् सर्गे) Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) राम देखि सीता तणा, स्याम भमरते केस । मूरछागत धरती पड्या, आणी मन अंदेस ॥६॥ चंदनपाणी छांटिनइ, घाल्या सीतल वाय । बहि झालि बइठा कीया, राम कहइ हाय हाय ॥ १०॥ तेहवइ तिहा आयोवही, सर्वगुप्ति मुनिराय । तिण दीक्षा दीधी तुरत, सीतानइ सुखदाय ॥ ११॥ । चरणसिरी तिहा पहुतणी, तेहनइ सुपी एह। सीता पालइ साधवी, संयम सूधो जेह ।। १२ ॥ पांचसुमति त्रिह गुपति सुं, निरमल न्यान चरित्र । साधई सीता साधवी, ईरत अनई परत ।। १३ ।। सर्वगाथा ॥११४॥ ढाल ३ ॥ राग कनडो॥ 'ठमकि-ठमकि पायनेउरी वजावइ, गजगति वाह ग० लडावइ ॥१॥ रंगली मालणि आवइ ॥' ए गीतनी ढाल ॥ रांमचंदन देखइ सीता, नयणे नीर । न० वरसीता ॥१॥ मोहि सीता नारि मेलावो, विरही राम करइ पछतावो। सीतानइ । सी० समझावो। मो० आं०॥ कुण पापी सीता गयो लेई, कुण गयो, कु० दुख देई सामो० दीखईनहीं सीता किम नयणे, बोल नहीं, बो० किमवयणे ||३|| मो० लोच कीयो केणि पाछी आणो, कुणलेणहारा, कु० पिछाणो ॥४मो० देवतणो देवदत्तण फेडु, राजा मारि उथेडु ॥५।। मो० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) धूतारो कुण गयो धूतरी, ते कहो, ते० नाम खरी । मो० । कोई अपहरि गयो कपट विशेषड, पणि हुई साधवी वेपइ ||७|मो० पाली आणि राखिसि घरमाहे, देपिसि, दे० दृष्टि उछाहे ||८|| मो० इम विलाप सुणि तिहा आवइ, लखमणि पणि ल० समझाचि ।।६।। मो० म कहि वचन एहवा तु भाई, तइतजी मुज्झतउ भउजाई ॥१०॥मो० हिव वेखास किया क्या होई, थूकि गिलइ, थू० नहि कोई ॥१शा मो० धन सीता जिण संयम लीघो, दुखु जलंजलि दीधो ॥१॥ मो० आप तरई अवरानई तारई, कठिन क्रिया, क० व्रत धार।।१३।।मो० एहन हिव परणाम करीजई, भव समुद्र, भ० तरीजई ॥१४॥मो० इम रामचंद भणी समझायो, राम संवेग, रा० मइ आयो ॥१।। मो० कुश लव खेचर साथइ लेई, लखमण राम, ल० एवेई ।।१६।। मो० गजि चडि गया मननइ उल्लासइ, सकलभूपण, स० मुनि पासइ ।।१७।। नवमा खंडतणी ढाल त्रीजी, सुणत सभा सहुरीमी ।।१८। मो० समयसुंदर कहइ सीता साची, वेद पुराणे रे वाची ।।१।। मो० सर्वगाथा ॥१३॥ दहा १० सकलभूषण श्री केवली, साथ गुणे अभिराम । पंचाभिगमन साचवी, तेहनइ कियो प्रणाम ||१|| आगइ वइठा आविनइ, लखमण राम सकोइ । तिहा बइठी थकी ओलखी, सीता साधवी होइ ॥२॥ तेहवइ केवली देसना, देवा सांडी तेथि। लखमण राम सुग्रीव सहु, परपदा वइठी जेथि ।।३।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) राग द्वप वाह्या थका, विषय सुख आसक्त। अस्त्री काजई अधमनर, धा मारइ आरक्त !|४|| माहो माहे मारिनइ, मूढ भमई संसारि । दुख देखइं दुरगति गया, पाडता पोकार ||५|| राग द्वेष मुंकी करी, सुधो आदरइ धम्मै । । पाप अढारइ परिहरई, भाजइ मिथ्या भर्म ॥६॥ संयम पालई तप तपई, साधनइ श्रावक जेह । पुण्यं तणई परभाव थी, सुभगति पामइ तेह ||७|| इत्यादिक ध्रम देसणा, सुणि परिहरि परमाद। , प्रसन विभीषण नृप करइ, भगवन करउ प्रसाद ।।८। राम अनइ लखमण तणइ, रावण सुं रण एम । सीता सम्बन्धइ थयो, कहउ ते कारण केम् ।। . सकलभूषण श्री केवली, भाषइ न्यान अनन्त । रांम अनई रावण तणो, पूरव भव विरतंत ॥१०॥ सर्वगाथा ॥१४॥ ढाल ४ ॥ राग हुसेनी धन्यासिरी मिश्र ॥ दिल्ली के दरबार मइ , लख आवई लख जाइ। एक न आवई नवरगखान, जाकी पघरी ढलि-ढलि जावइवे ॥१॥ नवरंग वइरागीलाल । ए गीतनी ढाल । क्षेमपुरी नगरी हुँतो, व्यापारी नयदत्त ।। तास सुनंदा भारिजा, सुविवेक कला सुपवित्त वेशा Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) पूरव भव सुणिज्यो एम, राग द्वेप छइ पाडुया । विढवानो लेजो नेम वे ॥ पू० आ० ।। पुत्र थया वे तेहनइ, धनदत्त अनइ वसुदत्त । तेथि वसई विवहारियो, वलि बीजोसागरदत्त वे ॥२॥पू० रतनामा तसु भारिजा, कन्यारूपड करि रंभ। गुणवती नामइ गुणभरी, देखता थायइ अचंभ वे ||३|| पू० बाप दीधी वसुदत्त नइ, गुणवती कन्या एह । द्रव्यतणइ लोभइ करी, माता वलि दीधी तेहवे ॥४॥ पू० तिण नगरी विवहारियड, वल अन्य हुँतो श्रीकंत । ब्राह्मण मित्र जइ कह्यो, वसुदत्त नइ विरतंत वे ॥शा पू० बात सुणी नइ कोपियउ, निजकर लीधर करवाल । प्रहार दियउ श्रीकंत नइ, वसुदत्तइ जइ ततकाल वे ॥६।। पू० श्रीकंतइ पणि ले छुरी, मरतइ मारि तसु पेटि । इम बेऊ विढता थकां, मारी ता मुया नेटि, बे ॥७॥ पू० बे वनमइ गज ऊपना, देखी नई जाग्यो कोप। एकएकनई मारियो, तिहापणि थयो बिहुंनोलोप वे ॥८॥ पू० महिप वृषभ वानर थया, द्वीपी मृग अनुक्रमि जेह । माहोमाहि विढीमुंया, सहु क्रोधतणा फल तेह वे 18|| पू० इम जलचर थलचर भवे, भमते दीठा बहु दुखु । वयर विरोध महाबुरा, किहाथी पामीजइ सुखु वे ॥१०॥ पू० हिव धनदत्त भाई हुँतो, ते बांधव तणई वियोग । अति दुखियो भमतो थको, सहतो संतापनई सोग वे ॥११॥ पू० Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) साध समीपइ ते गयो, तिहा साभल्यो धर्म विचार । व्रत पाली श्रावक तणा, ते पहुतो सरग मझार वे ||१२|| पू० देवतणा सुख भोगवी, महापुर नगरी अवतार । नाम पदमरुचि ते थयो, तिहां सेठ तणो सुत सार वे ॥१३।। पू० गोयलमइ गयो एकदा, तिहा मरतो एक वलह । देखीनई संभलावियो, तेहनइ नोकार सवद वे ॥१४॥ पू० . नउकारना परभाव थी, ते बलद जीव तिण ठाम । राजा छत्रपती भलो, तसु छनछिन्न ए नाम वे ॥१५।। पू० श्रीकाता तसु भारिजा, ते वृषभ थयो तसु पुत्र । नामई वृषभ सभावते, आचार विचार विचित्र वे ॥१६॥ पू० कुंयरपणइ गोयलि गयो, तिहा दीठी तेहिज ठाम । जातीसमरण ऊपनो, ते साभत्यो ठामनइ गाम वे ॥१७॥ पू० भूप त्रिषा जे तिहां सही, मुझनइ दीधो नउकार । बोधि बीज तिहा पामीयो, पणि किण कीधउ उपकार वे ॥१८॥पू० (पिण) तेहनइ ऊलखिवा भणो, मडाव्यउ देहरउ तेण । पूरव भव चीतराचियो, अपणो सगलो कुमरेण वे ॥१६।। पू० निज सेवकनइ इम कह्यो, जे देखइ ए चित्राम। परमारथ कहइ पाछिलो, ते मुझनइ कहिज्यो ताम वे ॥ २० ॥ ते सेवक ततपर थका, रहइ देहरा मांहे नित्त । कुमर पदमरुचि आवियो, तिहा वंदन करण निमित्त वे ।। २१ ।। घणीवार चित्रामनइ, ते पदमरुचि रह्यो जोइ। नउकारजदीधो तेहनइ, ए राजा वृपभ तिकोड वे ॥२२॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) जातीममरण पामीयो, तिण बलदतणो अवतार । नृप कुमरनइ चीतरावियो, म चिंतवर चित्तमझार वे ।। २३ ।। तेहवइ तिण पुरुषा तिहां, ते दीठ सेठ अमूह । राजा कुमरनइ जई कहो, ते आयो गजआरूढ वे } २४ ॥ जिन प्रतिमा प्रणमीकरी, निरख्यट ते पदमकुमार। उपगारी गुरु जाणिनई, प्रणम्यो चरणे त्रिणबार वे ॥२५॥ प्रणमंतो तिणवारियो, तुं राजकुमर नरराय । कुंमर कहई तूं माहरई, गुरु धरमाचारिज थाय वे ॥२६॥ तुझ प्रसाद तिरजच हुं, थयउ छत्रपतिनो पुत्र । तुं कहई ते हिंव हुं करु', तुं परउपगार पवित्र वे ।। २७ ।। कहर श्रावकनउ धर्मकरि, जिम पामइ भवनिस्तार। आवकनो ध्रम आदत्यो, ते पालइ निरतीचार || २८॥ श्रावकनो ध्रम पालिनई, ते विहु कीधा काल । बीजइ देवलोकि ऊपना, ते वे सुर सुविसाल वे ॥२६॥ पदमरुची तिहाँ थी चवी, नंद्यावत गामनारद । नंदोसर खेचर तणो, थयोनदन नयणाणंद वे ॥३०॥ राजलीला सुख भोगवइ, संयम लीवो अतिसार । चउथइ देवलोकि ऊपनो, लहो देवतणो अवतार वे ।। ३१ ।। महाविदेह मड अवतस्यो, तिहां थी चविनउ ते तत्र । क्षेमपुरी नगरी भली, तिहां विपुलवाहून, नो पुत्र वे ॥ ३२॥ श्रीचन्दकुमर सोहामणो, बहु भोगवइ सुख संपत्ति । तिण अवसरि तिहां आवीया, श्रीहरि समाधिगुपत्ति वे ॥ ३३ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) तसु पांसइ भ्रमसाभली, तसु आयोमनि वयराग । संयममारग आदस्यो, तपरि कीधो तनु त्याग वे ॥ ३४॥ पांचमइ देवलोक ऊपनो, ते इन्द्रपण आणंद ।। दससागरनइं आयुषई, आगइ अपछरना वृन्द वे ॥३५॥ तिण अवसरि ते गुणवती, कन्याना वयर विशेषि । वसुदत्त श्रीकंत वे जणा, हरिणादिभवे देखु देखि वे ॥ ३६॥ . भवमाहे भमता थका, किणही ते पुण्य प्रभावि। नगर मृणालतणो धणी, वनजंवू सरल सभाव वे ॥ ३७॥ हेमवती तसु भारिजा, हिवतेहनी कुखि तेह । श्रीकंतनो जीव अवतस्यो, अमिधान सयंभू जेह वे ॥ ३८॥ प्रोहित एक तिहाँ वसई, शिवसमे दयाल सदोव । श्रीभूत नामइ' सुत थयो, ते वसुदत्त तणो ते जीव वे ॥ ३६ ।। जिनधरमी श्रीभूत ते, तिणरइ घरि सरसति नारि । गुणवती कन्या जे हुती, ते लहि मृगली अवतार वे॥४०॥ भूरि संसार माहे भमी, वलि आची नरभव तेह। तिहाँथी मरिथई हाथिणी, खूती तसु कादम देह वे ॥४१॥ चारण श्रवण मुनीसरई, मरती दीधो नउकार। श्रीभूतिनी पुत्री थई, नउकारनी महिमा सार वे ॥ ४२ ।। मां बाप दीधो तदा, वेगवती अभियान । एक दिवन तिहां आवियो, अतिमलिन वस्त्र परिधान वे ॥४३॥ हीला करती साधनी, बापइ वारी ततकाल । पूजनीक एक साधछ', ए जीवदया प्रतिपाल वे ॥४४॥ १-सुत थयो तेहनो। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) वापवचन सुणि उपसमी, करिवा माड्यो ध्रमसार। रूपवन्त देखी करइ, प्रारथना राजकुमार वे ॥४५ ।। मिथ्यामति ते मोहियो, तिण तेहनइ वापन देइ । सयंभु कुमर कामी थको, ते कुमरीनइ निरखेड चे ॥ ४६॥ एक दिवस तिहां जाइनई, रातई मार्यो श्रीभूति । ते कन्या बाछइ नहीं, तो पणि लागोथई भूत वे ।। ४७ ॥ वेगवती रोती थकी, तिण भोगवी अधमकुमार। तिण सराप दीधो तिहां, तुं सुणि वात विचार वे ।। ४८ ॥ मास्यो वापतई माहरो, मुझनई तइ कीधो एम । ताहरी मारणहु हुज्यो, जनमंतरि वयर ल्यु जेम वे ||४६ !! इम कहती मुंकी तिणई, मनमइ आयो संवेग। संयम मारग आदस्यो, धमकरंता टाल्यो उदेग वे ॥ ५० ॥ तपजप करिनइ ऊपनी, ते बंभ विमाणा देवि । भव अनेक भमतो थको, ते सयंभुकुमर तिण देव वे ॥ ५१ ।। करमतणइ उपसम करी, तिण लाधो नरभव सार। विजयसेन मुनिवर तणइं, पासइंसुण्यो धरम विचार वे ।। ५२ ॥ दीक्षा ले नइ चालियो, समेतसिखरनी जात्र । कनकप्रभ मारग मिल्यो, विद्याधर ऋद्धिनो पात्र वे ।। ५३ ।। रिद्धि देखि अति रुयडी, नीयाणो कीधो एह । ध्रमनो फल छ तो हुज्यो, मुझ एहवी रिद्धिनइ देह वे ।। ५४ ।। मुगति सुं काम कोइ नहीं, इम कागणि हारी कोडि | त्रीजइ देवलोकि ऊपनो, पणि नेटि नियाणा खोडि वे ।। ५५ ।। १-तिण Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) तिहां थी चविनइ ते थयो, राणो रावण परिसिद्ध । धनदत्तनोजी पाचमई, सुरलोकि हुँतो समृद्ध वे ॥ ५६ ।। ते तिहा चविनइ थयो, दसरथ नंदन श्रीराम । श्रीभूतिजीव देवी हुँतो, ते बभविमाणा नाम वे ।। ५७ ।। ते चविनइ सीता थई, श्रीरामचन्दनी नारि ।। सीलगुणे सलहीजीयइ, जे सगला ही संसारि वे ।। ५८ ।। गुणवती भवि भाई हुँतो, गुणधर एहवइ अभिधान । सीतानो भाई थयो, भामण्डल विद्यावान वे ॥ ५६ ।। वसुदत्तनइ वांभण हुँतो, जे यज्ञवल्क वलि तत्र । राय विभीषण तुंथयो, ते जाण प्रवीण बिचित्र वे ॥६॥ प्रतिवूधो नउकार थी, तिहा बलद 'तणो' जे जीव । उपगारी सहुनईथयो, ते राजा तु सुग्रीव वे ॥६१।। इम पूरव भव वयर थी, ए सीता नारि निमित्त । मरण थयो रावण तणो, ए करमनी वात विचित्रवे ॥६३|| सीतावेगवती भवई, जे साधनइ दीधो आल। सती थकी सिरि आवियो, ते कलंक सबल चिरकाल वे ||३| वलि तिण कलंक उतारिया, ते साधतणो सुध भावि । सुजस वली सीता लह्यो, ते धीजतणइ प्रस्तावि ॥६॥ सकलभूपण इम केवली, कह्या करमना कठिन विपाक । कलंक न दीजई केहनइ, बरजय मारि नइ हाक वे ॥६॥ नवमा खंड तणी भणी, ए चउथी मोटी ढाल । समयसुदर कहब साभलो, हिव आगलि बात रसाल वे ॥६६॥ सर्वगाथा ॥ २०६|| - - HRT Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) दहा ६ केवली वचन सुणी करी, सहु पांम्या संवेग । लव कुश कुमर कृतांतमुख, ल्यइ दीक्षा अतिवेग ||१|| लखमण राम विभीपणादिक विद्याधर वृन्द । सीता पासि जई करी, प्रणमड पय अरविंद ।।२।। निज अपराध खमाविनइ, वादी आणंद पूर । । आप आपणे घरि सहु गया, भोगवइ राज पडूर ।।३।। हिव ते सीता साधवी, पालई संयम सार। सूत्र सिद्धांत भणइ गुणइ, पालई पंचाचार ॥४॥ करइ वेयावच नइ विनय, किरिया करइ कठोर तपइ वली तप आकरा, ब्रह्मचर्य पणि घोर ॥॥ । सूधउ संयम पालिनई, अणसण कीधो अंति । पाप आलोई पडिकमी, सरणा च्यार करंति ॥६॥ काल करीनइ ऊपनी, सीता धरि सुभध्यान । देवलोकि ते बारमइ, बावीस सागर मान ॥७॥ एहवइ लखमण राम ते, नगर अयोध्या माहि । प्रेमइं लपटाणा रहई, भोगवा राज उछाहि ।।८।। मनह मनोरथ पूरता, प्रजा तणा प्रतिपाल। सुख भोगवता तेहनइ , गयो घणो तिहां काल ll सर्वगाथा ॥ २१८॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) ढाल ५ ॥ राग गउडी जाति जकडीनी । "श्री नउकार मनि ध्याईयइ ॥ एगीतनी ढाल ।। एक दिन इन्द्र कहइ इसउ, देवता आगइ किवारो। मोहिनी जीपतां दोहिली, सहु करमा सिरदारो जी ।। सिरदार सगला करम माहे, मोहिनी वसि जे पड्या। ते जाणता पिण धर्म न करइ, नेह बंधण मइ अड्या ।। संसार एह असार जीवित, चपल जल विदु जिसो। संपदा संध्याराग सरिखी, एक दिन इन्द्र कहइ इसउ ।।१।। मरणो तो पगमई वहई, कारिमी काया एहो जी। विपयारस लुबधा थका, पोपइ करिमी देहो जी ॥२॥ कारंमी देह समारि सखरी, नरनारी राता रहइ । पणि धन्य ते जे छोडि माया, सुद्ध संयम नइ ग्रहइ ।। वलि विषय सुख थी जेह विरम्या, धन्य धन्य सको कहई। चक्रवर्ति सनतकुमारनी परि, मरणो तो पगमई वहई ॥२०॥ इन्द्र वचन इम साभली, इ द्राणी कहइ एमोजी। वारवार कहउ तुम्हे, दोहिलो छोडतां प्रेमोजी ।। छोडता दोहिलो प्रेम प्रीतम इन्द्र कहर साभलि प्रिया । नगरी अयोध्या माहि लखमण राम बाधव निरिखीया ॥ ए प्रेम लपटाणा रहइ जीवइ नही (जिम) जल माछली। ते विरह छोडई प्राण अपणा इन्द्र वचन इम सांभली ॥३॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) इंद्रना वचन सुणी करी, कौतुक आणी चित्तोजी। तुरत अयोध्या नगरमई, दो देवता संपत्तो जी ।। संपत्त दो देवता तिहा कणि रामनई घरि आवीया । देवनी माया केलवी नइ अंतेउर रोवराविया ।। ते करउ हाहाकार सगली रामनी अंतेउरी। हा राम प्रीतम किण हस्यो तुं इन्द्र ना वचन सुणी करी ॥४॥ हाहाकार लखमण सुणी, धाई आयो पासो जी। कहइ मुम वांधवकिणहत्यो, राणी रोयइ उदासो जी।। उदास राणी केम रोयइ इम कहतो लखमण तदा । वाधव तणो अति दुख करतो पड्यो जाणि हण्यो गदा ॥ अण बोलतो रह्यो आंखि मीची मुयो' जाण्यो भणी। पछताव करिवा देवलागा हा हा कार वचन सुणी ॥५॥ अविचास्यो अम्हे कीयो, ए कौतुकनो कामोजी। अम्हे लखमणना मरणना, हेतु थया इण ठामो जी ।। इण ठामि लखमण मरण पास्यो पाप लागो अम्ह भणी। हासा थकी ए थई वेषासी वात वाधी अति घणी ।। १-भवेस्मिन्मेव सुदत्त जीवो भूल्लक्ष्मणोऽनुजः । तत्राप्य मुख्य कौमारेमुघागाच्छरदा शत ||१|| शतत्रय मडलित्वे चत्वारिंशतु दिग्जये । वकादश सहस्रासाद्धराज्येऽन्दष्टि च ||२|| द्वादशाब्द सहस्राणि सर्वमायुरितिक्रमा। ययाविर तस्यैव केवल नरकावहम् ॥२॥ इति पद्मचरित्रे दशमस लक्ष्मणायु.॥३॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) हुणहार वात टलइ नहि जिण जीवे जेह निबंधीयो । ते सुखु नइ दुखु लहइ तिमहिज अविचार्यों अम्हे कीयो ||६|| इम चितवतां वहुपरी जीवाढण असमत्थो जी । देव गया देवलोकमई जिहाथी आया तेथो जी ॥ आया जिहाथी तेणि अवसरि मिली सहु अंतेवरी । अम्ह कंत स्नेहकरी रीसाणो मनावइ पाए परी ॥ जे किrs भोली को काइ ते खमिज्यो किरपा करी । करि जोडि करिनइ पगे लागी इम चितवता बहु परी ||७|| इण परि विविध वचन कह्या, सहु अंतेउरी तासो जी मृतक कलेवर आगलइ, निफल थयो ते निरासो जी ॥ नीरास सहु अंतेवरी थई, तिण समइ तिहां आविया | श्रीराम हाहा रव सुणी नइ, पासेवाण पूछाविया ॥ आज का बदन विछाय दीसह, सहोदर अवचन रह्या । किण सव्यो मुझ प्राणवल्लभ इण परि विविध वचन का ||८| 1 किम साम्ह जोवर नही, किम ऊठई नही आजो जी । किम कोप्यो मुझ ऊपर, किम लोपी मुझ लाजो लो || किम लाज लोपी माहरी इम कही सिर सु चुंवियो । वोलि तु बाधव वाह झाली, हीयासेती भीडियो || को कियो मुझ अपराध खमि तुं, तुझ विना न सकुं रही । मुझे प्राण छूट तुम पाखइ किम साम्हर जोवइ नहीं ॥ ६ ॥ राम मुयो जाणी करी, लागो वज्र प्रहारो जी । सडि पड्यो धरणीतलई, मूर्छित थयो निरधारो जी ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरधार सीतल पवन योगई चेतना पामी वली। मोहिनी करम सनेह जाग्यो ऊठियो वलि झलफली ।। , आपणा हाथ सुं देह फरसी चिकिच्छा करि बहु परी। वलि मुंयो जांणिनईथयो मुरछित रामई मुयो जाणी करी ॥ १० ॥ वलि रामइ चेतन लही, करिवा माड्या विलापो जी। हा बछ हा वांधव मुझ, मुझनइ देहि अलापो जी ।। अलाप मुझनइ देहि तुम बिण, प्रांण छूटई माहरा। बोलावि मुझनई कही बाधव विरह न खमुं ताहरा ॥ लखमण अजी तुं किम न बोलइ, किम रह्यो तुं हठ ग्रही। ' इम रामचन्द विलाप कीधा वलि रामइ चेतन लही ।। ११ ।। इम हाहारव सांभली, लखमण केरी नारो जी। एकठी मिली आची तिहा, करई आक्रंद पोकारो जी।। पोकार करता हीयो फूटइ, हार नोडइ आपणा । आभरण देहथकी उतारइ, झरई आंसु अतिघणा ।। वलि पडड धरती दुखु करती, थई आकुल व्याकुली । हा नाथ हा प्रीतम गयो किहां इम हाहारव सांभली ।। १२॥ हे प्रियु का दीसइ नही, निरसत नयणाणंदो जी। द्यइ दरसण दसरथसुत, राघव वंस दिणदो जी।। दिणद सुदर रूप ताहरो सूरवीरपणो किहां । गुण ताहरा केथेन दीसई, प्राणजीवण जग इहां ॥ किम अपहत्यो तुझनइ ते कुण छई देवता पापी सही। इणपरि विलाप अनेक कीधा हे प्रियु कां दीसइ नहीं ॥ १३ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम राजन छोडीयो, व्याप्यो मोहिनी कर्मो जी। जीवरहित लखमणतणो, देह आलिंगइ पड्यो भर्मो जी। पड्यो भर्म देह उपाडि ऊंचर, वइसारई खोलइ वली। करजोडी वीनति करइ एहवी, वात करि मुझ सुं मिली। पणि ते कलेवर केम बोलइ रामनो सूनो हियो। मोहिनी करम विटंब सगलो राम राजन छोडीयो ॥ १४ ॥ एहवी वात सुणी सहु, ते विद्याधर राजो जी। सुग्रीवराय विभीपण, प्रमुख मिली हितकाजो जो ॥ हित काज ते आया अयोध्या, राम नइ प्रणमी करी । करन वीनती तुं मुंकि मृतकनर सोग चिता परिहरी ।। तुं जाणि बांधव मुयो माहरो अथिर आऊपो बहु । तिण धरम उद्यम करि विशेषइ एहवी वात सुणी सहु ।। १५ ।। राय विभीपण इम कहइ, सुणि श्रीराम निसंको जो। सहुनइ मरणो साधरण, कुण राजा कुण रंको जी ।। कुण रंक तीर्थ कर किहा गणधर किहां चक्रवति किहा। वासुदेवनइ बलदेव छत्रपति कुण मुयो नहि कहि इहा ।। जउ तुम्ह सरिखा महापुरुष पणि एम सोगातुर रहइ । तर अवर माणस किसी गणणा राय विभीषण इम कहइ ।।१६।। तिणकारणि सोग मुकिनड, करउ लखमण संसकारो जी। एह वचन सुणी कोपीयो, राम कहइ अविचारोजी ।। अविचार राम कह सुणो रे दुष्ट पापिष्टो तुम्हे । चलो आपणो कुटम्ब बालो कहुं छं तुम्हनइ अम्हे ।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) ऊठिनइ आपे जाइसां कोई न कह कुवचन बकिनइ । तिण देसिनइ परदेस भमस्या तिण कारण सोग मूकिन३ ।। १७ ।। इम खेचर निभरंछिया, ले लखमणनी देहो जी। कांधइ घाली नीसस्यो, वलि वइसात्यो तेहो जी॥ वइसारि मज्जण पीढ ऊपरि अनेरी ठामई जई। न्हदरावीयो जल कनक कलस कलेवर सुसतइ थई ।। वलिवस्त्र उत्तम सखर आभ्रण लखमणनइ पहिराविया । भोजन भला मुखमाहि घाल्या इम खेचर निभ्रंछिया ।। १८॥ इणपरि राम सेवा करइ, लखमण मृतकनी नित्तो जी। मोहनी करम वाह्यो थको परिहा राज कलत्तो जी॥ परिहा राजकलत्र सगला मास छ गया जेहवई। संवुक खरदूपण तणो लह्यो वयर अवसर तेहवइ ।। तेहनापुत्रादिक विद्याधर कटक करिनइ नीसरह । ततखिण अयोध्या नगरि आवई इण परि राम सेवा करइ ।।१६।। राम वृतान्त ते जाणिनई लखमणनइ ठवि तेथ्यो जी। धनुप चडावि साम्हो थयो, विद्याधर रिपु जेथ्यो जी ।। रिपु जेथि कोपारुण थईनइ क्रूरदृष्टि करी यदा.। सुरवर जटायुध कृतातमुखनो कापियो आसन तदा ।। तिण आवि रामनइ दियो साहिज कटक सबलो आविनइ । आकास मारगि ले विकुरव्या राम वृतांत ते जाणिनइ ॥ २० ॥ सुर वलि चोट सबल करी, विद्याधरना वृन्दो जी। ततखिण ते नासी गया, जीतो श्रीरामचंदो जी। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचंद जीतो देव आगइ विद्याधर नर किम रहइ । ते हारि मानी गया नासी आप आपणपइ कहई ।। वलि राम प्रतिवोधण भणी उपाय मांड्यो बहुपरी। ते देव वेडं करइ उपक्रम सुर वलि चोट सबल करी ।। २१ ।। सूको सर सींचीजतो, देखाडइ ते देवो जो॥ वलद मुंयो हल जोतर्यो, कमल सिलातलि टेवो जी ।। तटिटेव घाणी माहि वेलू पीलती गिरि ऊपरई। गाडलो चाड ते देखाडइ देवता तिण ऊपरई ।। कहइ राम मूरिख तुम्हे दीसो काम ऊधो कीजतो। किम सिद्धि थास्यइ तुम्हे जोयो सूको सर सींचीजतो ॥२२॥ ते कहई सुणि महापुरुष तु, पगमइ बलती ते कोयोजी। देखई दूरि बलती सहू, हृदय विचारी जोयोजी ।। हृदय विचारी जोइनइ तुं मुयो किम जीवइ वली। का भमई मृतक उपाडि काधइ अकलि दोसइ छइ चली। तुं जाणि लखमण मुंयो निश्चय मृतकनई स्युं करिस हुँ। को लोक माहे लहइ हासी ते कहइ सुणि महापुरुप तुं ॥२३॥ राम कहइ अमंगल तुम्हे, का कहो मूरिख थायो जी। मुझ बांधव जीवइ अछ३, रह्यो मुझथी रीसायोजी ।। मुझथी रीसाय रह्यो वांधव इम कदाग्रह ले रह्यो। वलि सुर जटायुध मनि विमासई राम मानइ नहि कह्यो । वलि करू कोई उपाय बीजो राम समझइ जो किम्हे । एकनर दिखाड्यो मड लीधइ, राम कहइ अमंगल तुम्हे ॥२४॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) मृतकनइ देतो कठलीयो, राम पूछयो तेहोजी। फिट मुंडा तुजाणइ नही, किम जीमइ मडउ एहोजी ॥ किम मडो जीम कहइ ते नर मुज्झ नारी वालही। मुझथी रीसाणी ए न बोल दुसमण लोक मुंई कही। तेहना अणसहतउ वचन हुं तुम्ह पासइ आवियो। जेहवो हु तेहवो तु पणि मृतक नइ देतो कउलीयो ।।२।। सरिसा नर सरिसेण तु, राचइ कुण द्यइ सीखोजी । आपे वे डाहा घj, मइ तुझ कीधी परीखो जी ।। कीधी परीक्षा ताहरी मई हुं तुझ पासि रहिसि कहइ। रामचंद आदर घणो दीधो एकठा वेउं रहा ।। एक दिवस ते वेळ मडानइ मुंकिनइ हरिसेण सु । गया केथि केणि ठामइ अनेरइ सरिसा नर सरिसेण तुं ॥२६।। पाछे वलते साभल्यउ, देवनी माया मेल्योजी । लखमण नारि सुं बोलतो, करतो कामिनी केल्योजी॥ कामिनी करतो केलि दीठो रामनइ सुरवर कहई। तुझ बंधु महापापिष्ट माहरी नारिखं हसतो रहई। मुझ नारि पणि अतिचपल चंचल मई हिवई इम अटकल्यो। कुण काम इणसं आपण हिव पाछे वलते सांभल्यउ ||२७|| राज छोड्यों का तईआपणो, ए वांधव नइ काजो जी। वोलाया बोलइ नहीं, न गिणइ कायदो लाजोजी ।। न गिणइ ए कायदो लाल आपणो इक पखो नेहो किसो। संभारि श्री वीतराग देवनो वचन अमृत रस जिसो॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) संसार एह असार कारिमो राग सकल कुटंब तणो । स्वारथ तणो सहु को मिल्या तिण राज छोड्यो कात आपणो ॥२८ मात पिता वांधव सहू, भारिजा भगिनी पुत्रोजी। मरणथी को राखइ नही, नहि ईरत नई परत्रो जी।। ईरत परत्त राखड नहि को, करि आतमहित तुहिवई। तु छोडि राजनई रिद्धि सगली जिम लहन सुख परभवः ।। जिम तुज्झ वांधव मुंयो तिम कुण तुज्झनइ राखड़ पहू । तु चेति चेति हो चतुर नरवर मात पिता बांधव सहू ।।६।। इम सभिलता रामनई, नाठउ मोह पिसाचो जी। अध्यवसाय आयो भलो, सठ ए कहइ छइ साचो जी ।। सहु साच कहइ छइ एह मुझनई बंधु प्रेम उतारियउ । संसार दुखु मझार ए सहि मुयो लखमण जाणियउ ।। मुझ कही वात तुम्हे तिकातो माहरा हित कामना। दुरगति पडतो तुम्हे राख्यो इम साभलता राम नइ ||३०|| कुण उपगारी छउ तुम्हे, किहा थी आया एथोजी। उपगार किम मुझनइ कीयो, किम भाइ मुयो तेथोजी ।। किम भाई मुयो माहरो इम पूछता प्रगट कीयो। देवता केरो रूप कुंडल चलत आभरण अलंकियो। श्रीराम साभलि तुज्झनइ प्रतिबोधिवा आया अम्हे। कहइं आपणी ते वात सगली कुण उपगारी छठ तुम्हे ।।३।। तेह जटायुध पंखीयो, तुम नउकार प्रभावोजी। चउथंइ देवलोकि ऊपनो, सीताहरण प्रस्तावो जी ।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावि सीताहरण करई र पणि सेवक तुम्ह तणो । कृतातमुख जे हुनो तिण चारिन पाल्यो अति वणो ।। ऊपनो ए पणि तेण ठाम अवधिज्ञान प्रयुंजीयो। दीठी अवस्था एहवी तुझ तेह जटायुध पंखोयो ॥३२॥ तुलखमणनई मुयो थको, काध लीधर भमड तेहो जी। तिण तुझनइ प्रतिबोधिवा, माया केलवी एहो जी ।। केलवी माया अम्हे सगली, तुज्झनइ प्रति बूझयो। बलि कहइ तु ते करूं अम्हे, एह अवसर साचन्यो । कहइ राम मुझनइ सहू कीधो दीयो प्रतिबोध ठावको । आपणी ठामइ तुम्हे पहुचो तु लखमण नई मुयो थको ॥३३॥ लखमणनइ संसकारिनई, राम चड्यो वयरागो जी। कामनइ भोगथी उभग्यो, राजतणड करत त्यागो जी।। करइ राजरिद्धिनो त्याग चारित्र लेणनइ उछक हुयो। कहइ सत्रुधननई राजल्यइ तुं मइ दियो तुमनइ दुयो ।। हु ग्रहिसि चारित्र तप तपीनइ पाप करम निवारनई। सासता पामिसि सुखु मुगतिना लखमण नइ संसकारि नइ ॥३४॥ सधन बलतो भण, राज रूडो नहि एहोजी । तिण कारणि छोडयो तुम्हे, धइ दुख नरकनो तेहो जी ॥ घर दुख नरक नो वलिय लखमण तणो दुखु थयो घणो । तिण राजरिद्ध थकी सहोदर ऊभगो मन अम्हतणो॥ (हुँ) पणि तुम्हां सुं लेइसि चारित्र सुद्ध संवेगइ घण। श्रीराम जाण्यो जुगत कहइ छह सत्रुधन वलतो भणइ ॥३५॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) राम अनंगलवण तणइं, वेटानइ दीयो राजोजी। सुग्रीवराय विभीपण, प्रमुख खेचर शुभ काजो जी। सुभ काज खेचर राजदेई, आपणां वेटां भणी। चारित्रलेवा भणी आया उतावलि करि अतिघणी ॥ एहवई श्रावक तिहा आवी अरहदास इसु भणइ । सुनि वीनती श्रीराम मोरी राम अनंगलवण तणई ॥३६॥ श्रीमुनिसुव्रत स्वामिनो, तीरथ वरतई एहोजी । चारण श्रमण मुनीसर, सुव्रतनाम छइ जेहो जी ।। नाम छइ सुव्रत जेहन ते साधु संप्रति छड उहाँ । तासु पासि दीक्षा ल्यउ तुम्हे तो वात जुगती छइ तिहा ॥ . सावासि श्रावक तुज्झनई तई, कह्यो वचन प्रस्तावनो। दीक्षातणो महोच्छव माडियो श्री मुनिसुव्रत स्वामिनो ।। ३७ ।। सकलनगर सिणगारिया, देहरे पूजा स्नात्रो जी। अट्ठाई महुच्छव भला, नाचइ नटुया पात्रो जी ।। नाचइ ते नटुया पात्र सगलई, संघ पूजा कीजीयई। जीमाडियइ भोजन भलो परि, वस्त्र आभरण दीजीयई। अतिघणा दीननइ दान देई सुजम जग विस्तारिया। श्रीराम चारित्र लेण चाल्या सकल नगर सिणगारिया ॥ ३८ ॥ आडंबर सु आवीया, सुत्रत मुनिवर पासो जी। विधि सुं कीधी वंदना, आपणई मनमइ उलासोजी॥ उल्लास मननई रामचंदइ आदरी संयम सिरी । सुग्रीव' प्रमुख विद्याधरे पणि रामनी परि आदरी । १-शत्रुघ्न सुग्रीव विभीपण विराधित प्रमुख षोडश सहल नृपे। समं रामोवतं जगृहे सप्तत्रिंशत्सहस्राणि नारीणा नाभिश्च राम ||१|| Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) चारित्र पालइ दोष टालइ मुगति सुं मन लाविया ।। श्रीरामचंद महामुनीसर आडंबर सुं आवीया ।। ३६ ।। जीवतणी यतना करई, बोलई सत्य वचन्नो जी। अदत न ल्यई मेथुन तजई, नहि परिग्रह धनधन्नो जी ।। परिग्रह न राख नहिय, माया उकृष्टी रहणी रहइ । आतपना करइ उष्णकाला, सीतकालसी सहइ॥ कूरमतणी परिगुप्त काया, वरसालई तप आदरइ । अप्रमत्त संयम राम पाल जीवतणी यतना करई॥४०॥ सुग्रीव प्रमुख विद्याधरा, सोलसहस राजानो जी। राम सघातइ संचम लीयो, मनिधर निरमल ध्यानो जी।। मनिधरी निरसल ध्यान संयम पालतां ते तप तपई। सइनीस सहस अंतेउरी पणि लेइ संयम जप जपइ ।। सहु साधुनइ साधवी अपणो अरथ साधइ ततपरा। तरईआपनई तारई वीजानई सुग्रीव प्रमुख विद्याधरा ।। ४१ ।। सुव्रतसूरिना पचनमी, करइ एकल्ल विहारो जी' । नाना विधि अभिग्रह करइ, रहइ गिरि अटवी मझारोजी ।। अटवो मझारई तपतपतां अवधिज्ञान ते अपनो। जिणकरी जाण्यो वंधुनइ ए नरकनो दुख संपनो ।। मनचितवई लखमण सरीखो अरधचक्रो दुरदमी । भोगवी सुखुनइ पड्यो नरकइ सुत्रतसूरि ना पय नमी ।। ४२॥ १-पवन्दा गुरुपादान्ते तपस्तस वा रामः । एकाकी बने पूर्वाङ्ग श्रुतभावितः सत्रपि जहार ।। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) वसुदत्तादि पूरव भवई, मुझ हुँतो अति नेहो जी। सत्रुनइ मित्र सरिखा हिवई, तिणमई छोड्यो नेहो जी ।। मइ छोडियो हिव नेह सगलो इम विमासी उपसमइ। आहारपाणी सूझतो ल्यई गोचरी नगरी भमई ।। वलि रहई अटवी मांहि अहिनिसि अपछरा गुण संस्तवई। • • • • • • • • वसुदत्तादि पूरव भवई ।। ४३ ॥ एक दिन विहरतो आवियो, कोडि सिलातल रामो जी। करम छेदन काउगि रह्यो, एक मुगति सुं कामो जी। एक मुगतिसेती काम तेहनइ ध्यान निरंजण ध्यावए। भावना सूधी चित्त भावइ, करम कोडि खपावए ।। पांचमी ढाल ए जाति जकडी, राग गोडी वाधियो। रामनइ प्रणमइ समयसुन्दर एक दिन विहरतो आवियो ।। ४४ ।। सर्वगाथा ॥ २६२ ।। दहा ३७ कोडिसिला काउसगि रह्यो, राम निलंधी योग। सीतेन्द्र दीठो तिहां, अवधिज्ञान उपयोगि ।। १॥ प्रेमरागमनि अपनो, मढ़ विमास्यो एम । योग ध्यानथी चुकवू, रामनईहुँ जिमतेम ॥२॥ भपक श्रेणिथी पाडिनइ, नीचे नाखु राम। जातो राखुं मुगति थी, जिम मुझ सीझर काम ।। ३ ।। मुझ देवलोक उपनइ, माहरो थायइ मित्र । प्रेमई लपटोणा थका, अम्हे रहुं एकत्र ॥४॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) इम चितविनइ अत्तस्यो, सरग थकी सीतेन्द्र । कामरहित श्रीराम जिहा, तिहा आवियो अतिंद्र ॥५॥ राम ऊपरि फूलातणा, गंधोदकनी वृष्टि । कीधी सीतेन्द्र तिहा, धारी रागनी दृष्टि ।। ६ ।। सीता रूप प्रगट करी, दिव्य विकुर्वी रिद्धि । रामचद आगई कोया, नाटक वत्रीसबद्ध ॥ ७॥ नृत्य करई अपछ। तिहा, गायई गीत रसाल । हाव भाव विभ्रम करई, वारू नयन' विसाल ॥ ८ ॥ सीता कहई थावो तुम्हें, मुझ ऊपरि सुप्रसन्न । साम्हो जोवो हे प्रियू, मुखि बोलो सुवचन्न ।।६।। आलिंगन द्या आविनइ, मुमतइ अपणी जाणि । विरहानल मुझ वारि तुं, हे जीवन हे प्राण || १०॥ ए विद्याधर कन्यका, रूपडं रम्भ समान । तुझ ऊपरि मोही रही, घड तेहनई सनमान ।।११।। प्रीतम करि पाणिग्रहण, भरजोवन ए नारि । भोगवि भोग सभागिया, ल्यइ जोवन फलसार ॥ १२॥ धरम करोजइ सुखभणी, ते सुख भोगवि एह । कर आया सुख का तजी, प्रीतम पडई सन्देह ।। १३ ।। वचन सराग सीता कह्या, इम नाना परकार । वीजा नर चूकइ तुरत, वचन सुणी सविकार ॥ १४ ॥ १-विनय । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) पणि श्रीराम मुनीसरू, रह्या निश्चल काउसग । रामराय चूका नहीं, जिमि गिरि मेरु अडिग्ग ।। १५ ॥ राम क्षपक श्रेणड चडी, धस्यो निरंजन ध्यान । च्यारि करम चूरी करी, पाम्यो केवल न्यान ॥ १६ ।। केवलि महिमा सुर करई, कंचण कमल ठवेइ । पद वंदइ सीतेन्द्र पणि, त्रिह प्रदक्षिणा देइ ।। १७ ॥ करजोडीनइ गुणस्तवइ, तुं मोटो अणगार । अपराध खामइ आपणो, पगे लागि बहुबार ॥ १८॥ कमल ऊपरि वइसी करी, केवली धर्म कहे। सीतेन्द्रादिक तिहां सहु, सूधइ चित्त सुणेइ ।। १६ ।। ए संसार असार छई, दुखु तणो भण्डार । मधुविन्दू दृष्टान्त जिम, नहि को सुखु लिगार ॥ २० ॥ मोक्ष तणो मारग कह्यो, सुधो साधनो धर्म । बीजो श्रावकनो धरम, त्रीजो सगलो भ्रम ।। २१ ।। साभलिने सीतेन्द्र तु, राग-द्वष ए बेय । पापमूल अति पाडुया, दुखु नरगना देय ॥ २२ ॥ राग-द्वष छोडी करी, करि श्री जिनवर धर्म । सुखु पामइ जिम सासता, बात तणो ए मर्म ।। २३ ।। प्रतिवूधो सीतेन्द्र पणि, पहुतो सरग ममारि। केवलन्यानी पणि करई, वसुधा माहि विहार ॥ २४ ॥ अन्य दिवस सीतेन्द्र वली, दीठा उपयोग देइ । त्रीजी नरक मइ ते पड्या, लखमण रावण बेइ ॥ २५ ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) वहुली नरकनी वेदना, छेदन भेदन दुख । कुंभीपाक पचावणो, ताडन तण तिक्ख ॥ २६ ।। दयादुखु मनि उपना, हा हा करम विचित्र । कुण ठकुराई भोगवी, संकट पड्या परत्र ।। २७ ।। लखमण रावण पणि तिहां, सोचा करई अत्यंत । हा हा धरम कियो नहीं, जे भाष्यो भगवंत ।। २८ ।। अम्हनइ नरकना दुख पड्या, एतो न्यायज हो । ए लक्षण समकित तणो, सरदहिज्यो सहु कोइ ॥ २६ ॥ लखमण रावण साभलो, कहई सीतेन्द्र सुभास। । तुम्ह नइ काढी' नरग थी, सरगमाहि ले जासि ।। ३०॥ चिंतामत करिज्यो तुम्हें, सगली देव सगत्ति । देखी न स दुखिया, भली करूं भगत्ति ॥ ३१ ॥ इम कहिनइ ऊपाडिया, लखमण रावण वेइ । हाथाम जायड गली, माखण वन्हि विलेइ ।। ३२ ।। ते कहइ सुणि सीतेन्द्र तु, मुंकि मुकि अम्ह देह । अम्हे दुख पामु अधिक, तेह तणउ नहि छेह ॥३३॥ देव अनइ दानव तणो, उहा चालइ नही जोर। . नरकथकी छूटइ नही, कीधा करम कठोर ।। ३४ ॥ एह बात इमहिल अछइ, कहइ सीतापणि तोइ । समकित सूधो सरदहो, जिम निस्तारो होइ ।। ३५ ।। सीता वचन सुणी करी, बढ़ समकित थया तेह। वयर विरोध तज्या तुरत, पूरव भवना जेह ॥३६॥ १-नरक थी उद्धरी। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) लखमण रावण वे जणा, आणी उपसम सार। काल गमाडई आपणो, रहता नरक मझार ॥३७|| सर्वगाथा ||२६|| ॥राग केदारा गउडीमिश्र ॥ "वीरा हो थारइ सेहरई मोह्या पुरुष वियार । लाडण वी० ॥ए वीवाह रा गतनी ढाल ।। एक दिवस आवी करी, रामनइ प्रदक्षिणा देइ । केवली । विधिसेतो दादी करी, सीतेन्द्र प्रसन करेई ।।१।। ३० आगिल्या भव इम कहइ, श्रीरामचंद मुणिंद केoll आं० कहो सामी ए नरक थी, नीसरि उपजिस्यइ केथि केला मुगति लहिस्य किण भवइ, मिलिस्यइ वली मुझ केथि ।।२।। के० मुझन मुगति कदे हुस्वइ, ते पूज्य करो परसाद । के० श्रीराम वोल्या केवली, सीतेन्द्र सुणि तुं अतंद्र ॥३॥ के० लखमण रावण वे जणा, नरगथी नोसरि तेह । के० विजयनगर' श्रावक कुलई, अवतार लेस्यइएह ।।४।। के० नंद नारिनंदन हुस्यइ, अरहदास १ श्रोदास ||२|| के० श्रावकनो धरम समाचरी, लहि सरग लील विलास शाके० वलि देवलोक५ थी चवी, नगरी तिणइ नर होड। के० दानना परभाव थी, हुत्यइ युगलिया वलि सोइ ।।६। के० . . . १--पूर्व विदेह २-रोहिणी ३-जिनदास ४-सुदर्शन ५-प्रथम ६-विजय ७-हरिवः १८ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) जुगलिया हरिवर्पना, हुस्यई देव वलि तेह । के० तिहाथी वलि चविनइ हुस्यई, तिणनगरी नृप पुत्र एह ।।७। के० जयकंत १ जयप्रभ २ एहवा, विहुँ बांधवनो हुस्यइ नाम | के० चारित्र लेई तपतवी हुस्य, लांतक सुर अभिराम ||८|| के० इण अवसरि सीतेन्द्र तुं, सुख भोगवि सुरलोकि । के० तिहाथी चवि चक्रवति' थई, पामिसि सगला थोक ||६|| के० ते सुर लांतक थी चवी, ताहरा थास्यइ पुन । ते रावण थास्यईतिहां, इन्द्ररथ आचार पवित्र ॥१०॥ के० दृढ समकितधरि सुर हस्यइ, अपछरा करिस्यइ सेव । किणही भवि नरभव लही, थास्यई तीर्थकर देव ॥१शा के० चउसठ इन्द्र मिली करी, पूजिस्यइ पय अरविंद । के० अनुक्रमि तीरथ आपणो, प्रवर्त्तविस्यइ ते जिणिंद ॥१२॥ के० तुं चक्रवति नइ भव तिहां, चारित्र पाली सार । के० वैजयंत विमानना, सुख लहिसि तुं श्रीकार ||१३|| के० तेत्रीस सागर आउखो, भोगवि पूरू तेथि । के० तिहाथी चविनइ तुं वली, आविसि नर भव एथि ॥१४॥ रावण जीव जिणिदंनइ, तुं गणधर थाइसि मुख्य । के० करम चूरि केवल लहि, तुं पामिसि मोक्षना सौख्य ॥१।। के० लखमण नो जीव जे हुस्वइ, चक्रवर्ति सुत सुकुमाल । के० भोगरथ" नामइ भलो. ते पणि आगामी कालि ।।१६। के." १-भरतक्षम सर्वरत्नमति नीमा २-इन्द्रायुध, मेघरथौ ३-इन्द्रायुध । ४-सीताजीवस्य पुत्र। ५- मेघरथ । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) केतलाएक भव करी, पुष्करइ त्रोजइ दीप । के० महाविदेह माहे तिहा, पुर पदम' सुरपुर जीपि ||१७|| के० तिण नगरी चक्रवति हुस्यइ, सुख पामिस्यइ तिहा सोय । के० तीर्थक्कर पणि तिण भवई, पामिस्यइ पदवी दोय ॥१८॥ के० इम केवलि वाणी सुणो, करि जोडि करि परणाम | के. हियइ अति हरषित थई, सीतेंद्र गयो निज ठाम ।।१६।। के० श्रीरामचंद मुगतइं गया, पामियो अविचल राज । के० सुख लाधा अति सासता, सारीया आतम काज ॥२०॥ के० लखमण नई रावण भणी, ए कही छट्ठी ढाल । के० समयसुंदर वंदना करई, तीर्थङ्कर नई त्रिकाल ।।२।। के० सर्वगाथा ||३२०॥ दूहा ८ हिव सीतेंद्र तिहां रहइं, सुख भोगवतो सार । वावीस सागर आउषु, पूरु करई अपार ॥११॥ तीर्थङ्कर कल्याणके, आवी करइ अनेक । उच्छव महुच्छव अतिघणा, वारू चित्त विवेक ।।२।। तिहाथी चवि नइ पामिस्यई, उत्तम कुलि अवतार । तोर्थङ्कर वसुदत्त तसु, देस्यइ दीक्षा सार ।।३।। गणधर थास्यइ तेहनो, सुर नर नई वंदनीक। सिव सुख लहिस्यइ सासता, प्रथम उहा पूजनीक ।।४।। १-रतनचित्रा। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) ए नवखंडनी वात सहु, कहीं गौतम गणधार । श्रेणिक राजा आगलिं, आणी मनि उपगार ॥५॥ परमारथ ए पीछज्यो, किणहीनो कूडो आल | दीजइ नहि, वलि पालियड,-सील वरत सुरसाल ।।६।। सीलई संकट सवि टलइ , सीलइ संपत्ति थाय । प्रह उठिनइ प्रणमीयई, सोलवंत ना पाय ।। ७ ।। सतीया माहे सलहीयई, सीता नामइं नारि । सीता सरिपो को नही, सहु जोता संसारि ।।८।। सर्वगाथा ||३२८ ढाल ७ । राग धन्यासिरी ॥ ढाल~सील कहइ जगि हु बड़ो ए संवादशतक नी वीजी ढाल अथवा पास जिणद जुहारियइ ।। ए तबननी ढाल || सीतारामनी चउपई, जे चतुर हुयइ ते वाचो रे। राग रतन जवहर तणो, कुण भेद लहइ जे काचो रे ॥१॥ सी० नवरस पोष्या मई इहां, ते सुघडो समझी लेज्यो रे। जे जे रत पोष्या इहा, ते ठाम दीखाडी देज्यो रे ।। २।। सी० के के ढाल विषम कही, ते दूपण मति घो कोई। स्वाद सावूनी जे हुयइ, ते लिहंगट कदे न होइ रे ।। ३॥ सी० जे दरबारि गयो हुस्याई, ढुंढाडि सेवाडिनई दिल्ली रे। गुजराति मारुयाडि मइ, ते कहिस्यइ ढाल ए भल्ली रे ॥४॥ सी० Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) मत कहो माटी का जोडी, बाचन्ता स्वाद लहेस्यो रे । नवनवा रस नवनवी कथा, साभलता सावासि देस्यो रे ।।शासी० गुण लेज्या तुणियण तणो, मुझ मसकति साम्हो जोड्यो रे । अणसहता अवगुणत्रही, मत चालणि सरिखा होज्यो रे ।।६।। सी० आलस अभिमान छोडिनई, सुधी प्रति हाथे लेई रे। ढाल लेज्या तुम्हे गुरु मुखइ, बलि रागनो उपयोग देई रे ।जासी० सखर सभा माहे वाचियो, विजणा मिली मिलतईसादईरे। नरनारी सहु रीभिस्यई, जस लहिम्यो सुगुरु प्रसाद रे।।८।। सी० आदर मान घणो हूम्यई, वलि न्यान दरसणनो लाभो रे। वाचणहारा तणो जम, विस्तरिस्य जिम जल आभो रे ।।।। सी० नवखण्ड पृथिवी ना कह्या, तिण चउपई ना नवखण्डो रे। वाचणहारानो तिहां, पसरो परताप अखण्डो रे ॥ १० ॥ सी० सीतारामनी चउपई, वाचीनइ ए लाभ लेज्यो रे। साभलणहारानइ तुम्हें, कांइ सोलवरत सुंस देज्यो रे ॥ ११ ॥ सी० जिन सासन शिवसासनई, सीताराम चरित सुणीजइ रे। भिन्न २ सासन भणी, का का वात भिन्न कहीजई रे ।।१२।। सी० जिन सासन पणि जू जुया, आचारिजना अभिप्रायो रे । नीता कही रावण सुता, ते पदमचरित कहनायो रे ।। १३।। सी० पणि वीतराग देवइ कह्यो, ते साचो करि सरिदहिज्यो रे। सीताचरित थी मई कह्यो, माहरो छेहडो मत अहिज्यो रे ॥१४॥ हु मतिमूढ किसु जाणुं, मुझ वाणी पणि निसवादो रे। पणि जे जोडमइ रस पड्यो, ते देवगुरुनो परसादो रे ।।१।। सी० Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) हुँ सीलवंत नहीं तिसो, मुझ पोतइ बहु ससारो रे। पणि सीलवंतना सलहता, मुझ थामी सही निस्तारो रे ॥१६॥ सी० चपल कवीसरना कह्या, एक मननइ ए वचन एवेई रे । कविकल्लोल भणी कहइ, रसना वाह्या पणि केई रे ।। १७ ।। सी० अछो अधिको मइ कह्यो, कोई विरुध वचन पणि होई रे। तो मुझ मिच्छामि दुकडं, संघ साभलिज्यो सह कोई रे ॥२८॥सी० त्रिहि हजारनइ सातसइ, माजनइ ग्रन्थनो मानो रे। लिखतां नइ लिखावतां, पामीजइ न्यान प्रमाणो' रे॥१४।। सी० । श्री खरतरगच्छ माहिदीपता, मेड़तानगर मझारो रे । गोत्र गोलछा गहगहइ सामग्रीमइ सिरदारो रे ।।२०।। सी० नगर थटइ घणो नामगउ, अतवार घणउ दरवारउ रे। गुरुगच्छ ना रागी घण, उत्तम घरनो आचारो रे ।। २।। सी० पुत्ररतन रायमलतणा, ते ल्यइ लखमी नउ लाहो रे। अमीपालनइ नेतसी, भलउ भत्रीज राजसी साहो रे ।।२२।। सी० सीतारामनी चउपई, एहनइ आग्रह करि कीधी रे। देसप्रदेस विस्तरी, ज्ञान बुद्धि लिखवंता लीधी रे।। २३ ।। सी० श्री खरतरगच्छ राजीया, श्रीयुगप्रधान जिनचन्दो रे। प्रथम शिष्य श्रीपूज्यना, गणिसकलकंद सुखकंदो रे ॥ २४ ॥ सी० समयसुंदर शिष्य तेहना, श्री उपाध्याय कहीजइ रे। तिण ए कीधी चउपई, साजण माणस सलहोजइ रे ॥२५सी० वर्तमान गच्छना धणी, भट्टारक श्री जिनराजो रे । जिनसागरसूरीसरू, आचारिज अधिक दिवाजो रे ॥२६।। सी० १-प्रधानो रे। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) ए गुरूनइ सुपसाउलई, ए चउपई चडी प्रमाणो रे । भणतां सुणता वाचतां, हुयइ आणंद कोडि कल्याणो रे ।।२७|| सी० सर्वगाथा ॥३५५|| इति श्री सीताराम प्रवधे सीतादिव्यकरण १ सीतादीक्षा २ लक्ष्मणमरण ३ रामनिर्वाण ४ लखमण रावण सीतागामिभवपृच्छा वर्णनोनाम नवमः खण्डः समाप्त. प्रथम खंडे ढाल ७ गा० १४६ द्वितीय खंडे ढाल ७ गा० १६२ तृतीय खंडे ढाल ७ गा० १६८ चतुर्थ खंडे ढाल ७ गा० २२८ पंचम खंडे ढाल ७ गा० २४८ षष्ठ खंडे ढाल ७ गा० ४४४ सप्तम खंडे ढाल ७ गा० ३१२ अष्टम खडे डाल ७ गा० ३२३ नवम खंडे ढाल ७ गा० ३५५ सर्वढाल ६३ सर्वगाथा ॥२४१७॥ ग्रन्थ संख्या ३७०४ [कवि के स्वय लिखित पत्र १११ की प्रति ( अनूप सं० लाइब्रेरी ) से मिलान किया।] ॥ इति सीताराम चउपई सपूर्णाजज्ञे ।। प्रति लेखनप्रशस्ति :-सवत् १७३८ वर्षे कार्तिक मासे शुक्ले पक्षे २ तिथी बुधवासरे श्री कान्हासर मध्ये मट्टारक श्री जिनचदसूरि विजयमानराज्ये । श्री सागरचदसूरि सतानीय वा० श्री सुखनिधान गणि तच्छिष्य प० श्री श्री श्री १०८ गुणसेनगणिगजेन्द्राणामन्तेवासी प० यशोलाभ गणिनालेखि । वाच्यमान चिरनद्यात् भद्र भूयात् । तैलाद्रक्षे जलाद्रक्षेलक्षे शिथिल वधनात् । परहस्तगता रक्षेदेव वदति पुस्तिका ||१|| श्री पार्श्वनाथ प्रसादात् श्री जिनकुशलसूरि प्रसादाच्छ्योस्तु Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीताराम चौपई में प्रयुक्त देसी सूची बुण्ड १ ढाल देसी पृष्ठ १-साहेली आवउ मरीयउ राग सारंग २ २-पुरंदर री विसेपाली, या श्री जिन बदन निवासिनी ३-सोरठ देस सोहासणउ साहेलडी ए देवा तणउ निवास, (गजसुकुमाल चौढ़ानी ) । सोभागी सुंदर तुम बिनघड़ीय न जाय ४-घरि आव रे मन मोहन धोटा ५-नणनल वींदली री । है-राग-गउड़ी जकडी नी विसेपाली ७-जाति नाटक वेलिनी राग-आसावरी खण्ड २ १-कउयइ पूजि पधारिस्यइ २-(१) जत्तिनी, (-) तिमरी पासइ वडलू गाम, या (३) जंबूद्वीप पूरव सुविदेह (प्रत्येक बुद्धना खं० ३ ढा० ८) २६ ३-राग आसावरी सिंधड़ मिश्र चरणाली चामड रणि चढ़इ, चख करी राता चोलो रे विरती दाणव दल विचि, घाउ दीयइ घमरोलो रे च० ३० ४-वरसाल साभरइ, अथवा-हरिया मन लागो ३३ ५-चेति चेतन करि, अथवा-धन पदमावती (प्रत्येक बुद्धना खंड ३ ढा०८) ६-ओलगड़ी नी राग-मल्हार ७-थांकी अवलू आवइजी १ 222 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) . खण्ड ३ १--जिनवर स्यं मेरउ चित्त लीणउ राग रामगिरी ४५ अम्हनइ अम्हारइ प्रियु गमइ, काजी महमद ना गीतनी ढाल २-राजमती राणी इणि परि बोलइ, नेसि विण कुण धुंघट खोला ३-सुण मेरो सजनी रजनी न जावद रे, या । पियुडा मानउ बोल हमारउ रे । ४-ढाल चंदायणानी पण दूहे दूहे चाल राग केदार गड़ी ५--मेरा साहिव हो श्री शीतलनाथ कि ६-ईडरियै २ टलगाणइ आबू उलग्यउ आ० ७-नाहलिया म जाए गोरी र३ वणहटइ खण्ड ४ १-वेसर सोना की धरि दे वे चतुर सोनार वे० ____ वेसर पहिरी सोना की रंझे नंदकुमार वे० २-जा जा रे वांधव तु वडउ ( ए गुजराती गीतनी) अथवा-वीसारी मुन्हें बालहइ तथा हरियानी ३-देखो माई आसा मेरई मन की लफल फली रे आनंद संगि न माय ४--दिव श्रीचंद सकल वन जोतुं, राग गउडी ५-~-वाज्यउ वाज्यउ मादल कउधोंकार ए गीतनी जाति महिमा नइ मनि बहु दुख देखी बोल्यउ मित्र जुहार ६-जंबूद्वीप मझार म० ए सुबाहु संधिनी ढाल । ७-कपूर हुवइ अति ऊजलोरे वलि रे अनुपम गंध Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) ६१ ६४ खण्ड ५ १-आवउ जुहारो रे अझारउ पास, मननी पूरई आस ८६ २-सुणउरे भविक उपधान चूहां विण, किम सूझइ नवकारजी अथवा-जिणवर सुं मेरो मन लीनो ३-तोरा नउं रंज्यो रे लाखीरण जाती तोरा कीजइ म्हांका लाल दारू पिअइजी, पडवइ पधारउ म्हाका लाल लसकर लेज्योजी तोरी अजव सूरति म्हाको मनड़उ रंज्यो रे लोभी लंज्योजी ४-सहर भलो पणि साकड़ो रे, नगर भलो पणि दूरि रे हठीला वयरी नाह भलो पणि नान्हड़ो रे लाल आयो २ जोवन पूरि रे ह० लाहो लइ हरपालका रे लाल एहनी ढाल, नायकानी ढाल सरीखी छ पण आकणी लहरकत छ। १७ ५-माझि रे वावी वीर गोसाई ६--इम सुणि दूत वचन्न कोपिउ राजा मन्न ( मृगावती चौ० खं० २ ढा० १०) १०७ ७-उल्लालानी अथवा-भरत थयो ऋषिराया रे। अथवा जगि छइ घणाइ घणेरा, तीरथ भला भलेरा खण्ड ६ १-भणड मंदोदरी दैत्य दसकध सुणि ए गीतनी अथवा-चव्यउ रण जूझिवा चंडप्रद्योत नृप (वीजा प्रत्येक बुद्धना खंडनी ढाल ) १०३ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) २-लंका लीजइगी, सुणि रावण, लंका लीजगी। __ ओ आवत लखमण कउ लसकर, ज्युं धन उमटे श्रावण १२६ ३-पद्धड़ी छदनी १३७ ४-राग सोरठ जाति जांगड़ानी १४५ ५-खेलानी १५१ ६-प्रोहितीयारी अथवा संघवीरी १५७ ७-श्रावण मास सोहामणउ एचउमासिया, ए गीतनी राग मल्हार खण्ड--७ १-छांनो नइ छिपी नइ वाल्हो किहा रहिउ २-हो रंग लीया हो रंग लीया नणद ३-रे रंग रत्ता करहला, मो प्रोउ रत्तउ आणि । हुँ तो ऊपरि काढिनइ, प्राण करू कुरवाण। १। सुरंगा करहारे मो प्रीउ पाछठ वालि, मजीठा करहा रे ए गीतनी ढाल १७६ ४-जानी एता मान न कीजीयइ ए गीतनी, राग बंगालु १८२ ५-सिहरां सिरहर सिवपुरी ( मधुपुरी) रे गढा वड़ गिर नारि रे राण्या सिरहरि रुकमिणी रे, कुंयरा नन्द कुमार रे! कंसासुर मारण आविनइ, प्रल्हाद उधारण रास रमणि घरि आज्यो। घरि आज्यो हो रामजी, रास रमणि घरि आज्यो। १८४ ई-वधावारी राग-मल्हार १८६ ७-आंवो मउरयो हे जिण तिणइ १६४ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) मण्ड ८ १-अमा म्हाकी चित्रालंकी जोइ अमा म्हाकी मारुडइ मइ बासी को साद सुहामणो रे लो, ए गीतनी १६६ २-झांखर दीवा न वलइ रे, कालरि कमल न होउ। छोरि मूरिख मेरी वाहडिया, मीया जोरजी प्रोति न जोइ । जन्हइया वे यार लवासिया, जोबन जासिया बे, वहुर न आसिया। ए गीतनी ढाल। ए गीत सिध मांहे प्रसिद्ध छ। २०६ 3-नोखारा गीतनी जाति ( मारवाड़ ढुंढाड़ मई प्रसिद्ध छइ ) राग-मल्हार २१६ ४-चउपईनी। ५-कोई पूछो वांभण जोसी रे, हरिको मिलण कद होसी रे राग तिलंग धन्यासिरी। २२५ ६.-सूबरा तू सुलताण, वीजा हो वीजा हो थारा सुंबरा ओलगू हो ए गीतनी ढाल जोधपुर, नागोर, मेड़ता नगरे प्रसिद्ध छ २२७ ७--अम्मा मोरी मोहि परणावि हे अम्मा मोरी जेसलमेर जादवां हे। जादव मोटा राय, जादव मोटा राय हे अम्मां मोरी कडि मोडी नइ घोड़े चढे हे। ए गीतनी ढाल-राग खंभायती सोहलानी । २३४ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) खण्ड ६ १-तिल्ली रा गीतनी ढाल मेडतादिक नगरे प्रसिद्ध छ।। २३५ २-गलियारे साजण मिल्या मारुराय, दो नयणी दे चोट रे धणवारी लाल । हसिया पण वोल्या नहीं मारुराय, काइक मन मांहि खोटरे। आज रहठ रंगमहल मई मा० ए गीतनी ढाल २४१ ३-ठमकि ठमकि पाय नेउरी वजावइ, गज गति बाह ग० लुडावइ रंगीली ग्बालणि आवइ ए गीतनी ढाल २४७ ४-दिल्ली के दरबार मई लख आवइ लख जाइ। एक न आवइ नवरंग खान जाकी पथरी ढलि ढलि जावइ वे नवरंग वइरागी लाल । ए गीतनी ढाल २४६ ५-श्री नउकार मनि ध्याय राग गउडी जाति जकडीनी २५७ ६-राग केदारा गौड़ी मिश्र वीरा हो थारइ सेहरइमोह्या पुरुप वियार लाडणवी० ए विवाह रा गीतनी ढाल ७-सील कहइ जगि हुं बड़ो ए संवादशतक नी वीजी ढाल अथवा-पास जिणंद जुहारीयइ ए तवननी ढाल २७६ ___ २७३ - Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हे शुद्धि-पत्रक पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पक्ति यशुद्ध शुद्ध १६ वालॅ वारू ४२ १७ तुम्हें __७ १६ मघुपिंगल मधुपिंगल ५३ २० विटवा विढवा १६ ७ सेता सेती ५४ १० कायउ चकचर कीयउ चकचूर १७ २२ पुण पणुं ६२ २१ धजण धूजण १६ ४ ज्याणउ आण्यउ ६४ १५ वित्त वित्त ___२० १ वदी वदी ६४ २१ पूपिणि रब पिणि पूरव २१ २ धर घर ६४ २१ निण मदिर जिण मदिर २३ ११ जूजुय जूजुया ७७ १६ अंगिनी अगिनी २६ ५ नदी मउ नदी नउ ७६ १३ बांधव २६ १६ धरि घरि ८० ४ भभी २७ ३ वलियउ वलियउ ८० १३ वोपे वापे २७ ४ वाप वाप ८६ १२ त्रिहि त्रिहि २७ ६ नाणा नाणी ८६ ७ त्रिणहि त्रिहि २८ ११ हीयमउ हीयडउ ८६ १५ वरनइ वरजइ २८ १३ वैसाखउ वैसात्य ६० ६ वलि वलि ३० १ वेटा वेटा ६५ ४ पालउ पाल्यउ २८ १२ अय ध्या बयोध्या ६५ २० उदा लीधा उदालीया ३१ ११ किवा किंवा ६६ १२ भभइ भमइ ३६ १५ नीसरया नीसख्या ६६ १२ मइरे मइजी ३६ १६ याये यापे १०० ८ विद वाघव LE1991 ममी बिंद Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध वलि झूमइ महेशास्त्र फीटी घरि माणस [ २८७ ] उ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ०२ ४ विपलाप विलाप १७१ १ वाल ०२ १५ दीठा दीठो १७६ १६ झूमइ ०२ १८ मुझनइ मुझनइ १७७ १ महेशस्त्र ०३ ४ भझारि ममारि १८५ ११ फाटी ०५ २१ सोम्हो साम्हो २२३ ७ धरि -१६ १० मठो झूठो २२८ १२ माणास :१७ २१ वास्यो वाखो २२८ २१ सग्रीव २१७ २२ गर्व गर्व २२६ १५ चकचर १२२ १२ कोद्र दलावइ कोद्रव २३१ ६ गोत्रमई दलाव १२४ १५ अगति अगनि २४२ ६ थाइच्यो १४१ २१ विरोध विरोध २४५ ५ मो १४१ २२ गव गर्व २६२ १ चकिनइ १४३ ५ विलंव लिंव २६८ ६ आतपना सुग्रीव चकचूर गोत्रमई थाइज्यो मा चूकिनइ यातापना Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभयजैन ग्रन्थमाला के महत्वपूर्ण प्रकाशन : १-ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह २-बीकानेर जैन लेख संग्रह ३-युगप्रधान जिनदत्तनूरि ४-दादा जिनकुशलसूरि ५-समयसुदर कृति कुमाजली • ७-ज्ञानमार ग्रंथावली २५० सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के प्रकागन : १-विनयचंद कृति कुमुमाञ्जलि २-पद्मिनी चरित्र चउपई ३-धमवर्द्धन ग्रंथावली ४-समयसुंदर रास पंचक ५--जिनराजसूरि कृति कुसुमाञ्जलि ६-जिनहर्प ग्रंथावला श्रीमद् देवचंद्र ग्रन्थावली च उपाश्रय कमेटी प्रकाशन : १-चौवीसी वीसी स्तवन २-अष्ट प्रवचन माता सज्झाय ३-पंच भावनादि सझाय संग्रह प्रेस मे ४-शात सुधारस ५ - राई देवसी प्रतिक्रमण ६-पूजा संग्रह २)५० ७ -दादा गुरुदेव की पूजा १२ प्राप्ति स्थान : नाहटा ब्रदर्स ४, जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता-७ )३१ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- _