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( १५५ ) लखमणनी रक्षा करइ, जीहो सहु सावधान रहइ सुविशेष के। आवि रावण तिहाँ दुखकरइ, बांधव पुत्र वे वाधिया देखि के ॥४०॥ हां कुंभकरण हा वाधवा, जीहो इन्द्रजित पुत्र हा मेघनाद के । मो जीवतइ तुम्हें वाधीया, जीहो धिग मुझनइ पड्यो करइ विपवाद के धिग विलसित विधाता तणो, जीहो जिण मुझनईदुख एवडउ दीध के जउ कदाचित लखमण मुंयो, जीहो तुउ करिस्य का ए किसुं सीध के ॥ बांधव पुत्र वाधे थके, जीहो परमारथ थकी हुं वाधीयउ नेटि के। रांवण चिंतातुर थको, जीहो कहइ परमेसर संकट मेटि के ॥४३॥ रा० तिण अवसरि वात भिली, जोहो सीतापणि करई दुखु विलाप के। लखमण सकति सुं मारियो, जीहो पृथिवी पड्यो माहरइ पोतई पाप के करुणसरि आक्रंद करई, जीहो दीन दयामणी वचन कहइ एम के। हुँ हीन पुण्य अभागिणी, जीहो माहरई कारज थयो दुःख केम के ।४५॥ हे लखमण जलनिधितरी, जीहो आवियो हुँ निज बाधव काजि के। ए अवस्था (हिव) पामीयो, जीहो बांधवनइ कुण करिस्य सहाजि के। है है हु वालक थकी, जीहो काइ मारी नहीं फिट करतार के। जेहना पग थकी मारीयो, जीहो मुझ प्रियु नइ जीव प्राण आधार के 1. हे देवर तुम्हनइ देवता, जीहो राखिज्यो सुगुरु तणी आसीस के।। सील सतीयां तणो राखिज्यो, जीहो जीविज्यो लखमण कोडि वरीस के इणपरि सीता रोती थकी, जीहो राखी विद्याधरे बांभीस दे के। तुज्म देठर मरिस्यइ नहीं, जीहो वचन अमगल मात न कहेइ के ||४|| छठ्ठा खंडनी पाचमी, जीहो ढाल मोटी कही एणि प्रकार के। समयसुदर कहई हुं स्यु करूं, जोहो गहन रामायन गहन अधिकार के
।। सर्वगाथा ३५६ ॥