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( १६५ ) वलि हुँ जाणुं विमानथी, धरती पडी धसकाय । झवकि जागी नइ हुँ झलफली, कहउ मुझ कुण फल थाय ॥शासी०॥ राम कहइ सुणि ताहरइ, पुत्र युगल हुस्यड सार । पणि तुं पडी जे विमान थो, ते कोइ असुभ प्रकार ॥४॥ सो०॥ ते तू उपद्रव टालिवा, करि कोइ धरम उपाय | प्रियु पासइ इम सांभली, सीता चिंतातुर थाय ॥५॥ सी०॥ सीता मन माहे चितवई, अहो मुझ दुख नउ अंत । अजि लगि देखो आयइ नहीं, पोतइ पाप दीसंत ॥ ६ ॥ सी० ॥ रे देव का तूं केडर पड्यो, कुण मइ कीयो अपराध । त्रिपतउ न थयो रे तुं अजो, वन्दि पाडी दुख दाध ।। ७ ।। सी० ॥ अथवा स्यउं दोस देवनो, अपणा करमनो दोस । भव माहे भमतां थकां, सुख तणो किसो सोस ।। ८॥ सी० ।। इम मन माहे विमासतां, आयो मास वसंत। छयल छवीला रंगई रमई, गुणियण गीत गायंत ।। ६ ।। सी० ॥ केसर ना करइ छांटणा, ऊडई अबल अवीर। लाल गुलाल उछालियई, सुन्दर सोभइ सरीर ॥ १० ॥ सी० ।। नरनारी तरुणी मिली, खेलइ फूटरा फाग । मील नीर खंडोखली, रमलि करइ धरि राग ।। ११ ॥ सी० ॥ लखमण राम तिणइ समइ, क्रीडा करण निमित्त । अन्तेउर परिवार ले, पहुता वाग पवित्त ।। १२ ।। सी० ॥ सीता सुं रमइ रामजी, विसल्या सुं वासुदेव । एक सीता सेती मोहीया, राम रमइ नितमेव ॥ १३ ॥ सी०