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( १६६ ) पेखी सउकि प्रभावती, प्रमुख धरई मनि द्वष। सीता वसि कीयो वालहो, अम्हनइ नजरि न देख ॥ १४॥ सी० सउकि मिली मनि चींतव्यउ, ए दुख सह्यउ रे न जाय । चित्त उतारिस्यां एहथी, करि कोइ दाय उपाय ।। १५ ।। सी० ॥ रमलि करी घरि आवीया, इक दिन महुल मझारि । सउकि मिली सहु एकठी, सीता तेडी संभारि ।। १६ ।। सी० ॥ आदर मान देई करी, पूछी सीता नइ वात । कहो रावण हुँतो केहवो, दसमुख जेह कहात ॥ १७॥ सी० पदमवाडी मई बइठां थकां, सीताजी तुम्हें तेह। रावण अविसि दीठो हुस्यइं, रूप अधिक तसु देह ।। १८ ॥ सी०॥ तेहनउ रूप लिखी करी, देखाडउ अम्ह आज । कहइ सीता मइ दीठउ नही, तिणसं नहि मुम काज !! ५६ ।। सी० ॥ मइं रोती ते जोयो नही, सउकि कहइ वलि ताम । तउ पणि अंग उपांग को, जे दीठो अभिराम ॥ २० ॥ सी०॥ ते देखाडउनइ सामिनी, कहइ सीता सुविवेक । मई नीचइ मुखि निरखीउ, रावण पदयुग एक ॥ २१ ॥ सी० ॥ बीजो क्यु मई दीठो नही, तउ वलतो कहइ तेह। पग पणि अम्हनइ दिखाडि तूं, अम्हनइ मनोरथ एह ।। २२ ।। सी०॥ तव सीतायइं आलिखीया, रावण ना पग बेउ।। सोकि गई घरे आपणे, रांवण ना पग लेउ ।। २३ ।। सी० ॥ अन्य दिवस मिली एकठी, कह्यो श्रीराम नई एम । तुम्ह सरिखा पणि राजवी, राचइ कारिमइ प्रेम ।। २४ । सी० ॥