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( १६७ ) लपटाणा प्रेम जेहसुं, जिण तुम्हनई वसि किद्ध । ते सीता तुम्हे जाणीज्यो, रावण नई प्रेम विद्ध ॥२५॥ सो० ॥ राम कहइ किम जाणियइ, अस्त्री कहई सुणि देव । रावण ना पग माडिनइ, ध्यान धरई नितमेव ।। २६ ।। सी०॥ दीठी वार घणी अम्हे, पणि चाडी कुण खाई। आज कही अम्हे अवसरई, अणहुंती न कहाय ॥ २७॥ सी०॥ अस्त्री चरित विचारियई, अस्त्री चंचल होइ । अन्य पुरुष सुं क्रीडा करइ, चित्त अनेरडठ कोइ ।।२८ ॥ सी० ॥ अन्य पुरुप सुं साम्हो जोवइ, अनेरा नो ल्यइ नाम । दूषण द्यइ अवरां सिरई', कूड कपट नो ए ठाम ॥२६|| सी० ॥ जो ए वात मानो नहीं, तो देखो पग दोय । राम विमास्यु ए किम घटइ, दूधमा पूरा न होइ ।। ३० ।। सी० ॥ किम वरसइ आगि चन्द्रमा, किम चालइ गिरि मेर । किम रवि पच्छिम अगमइ, किम रवि राखइ अंधेर ॥३१॥ सी० ॥ जो सीता पणि एहवी, तब स्त्री केहो वेसास । ते भणी सउकि असांसती, कहइ छइ कूडी लबास ॥ ३२|| सी० ॥ पणि ए सीता सती सही, राम नइ पूरी प्रतीति । सातमी ढाल पूरी थई, समयसंदर भली रीति ॥ ३३॥ सी० ॥ सातमो खंड पूरो थयो, साते ढाल रसाल। समयसुदर सीलवंतना, चरण नमइ त्रिण्हकाल ॥ ३४ ॥ सी०॥
सर्वगाथा ॥३१२॥ इति श्री सीताराम प्रवन्धे रावणवध, सीतापश्चादानयन । श्रीरामलखमणायोध्याप्रवेश, सीताकलंकप्रदान वर्णनोनाम सप्तम खण्ड।।