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सउ पुत्र नो पणि नास थासइ, कहर किसी पर कीजीयइ । सुरंग देई सुत आणीजै, तर पणि कुजस लहीजीयइ ।। बहुरूपिणी साधिन्यु विद्या, करिसुतसु अरदास ए। हुँ देवता नई अजेय थास्यु, रावण एम विमास ए ॥१३॥ दुरजय वयरो जोपि नई, सुत आणी निज गेहोजी। सीता सुं सुख भोगवं, मनि धरी अधिक सनेहोजी ।। मनि धरी अधिक सनेह सवलो, साहिवी लका तणी । सहुपुत्र मित्र कलत्र सेती, करिसि सुख साता भणी ।। इम चितवी नई सातिनाथ नो देहरो उद्दीपिनइ । चंद्रया तोरण तुरत बाध्या, दुरजय वयरी जीपिनई ।।१४।। फूलहरो गुंथावियो, पूजा सतर प्रकारोजी। वार मुनिसुव्रत तणइ, जिन मन्दिर अधिकारोजी॥ जिन मंदिरे मंडित करावी, धरा देस प्रदेस ए । लंका तणे देहरइ दीधउ मंदोदरि आदेस ए॥ सा करइ नाटक स्नात्रपूजा, महुच्छव मंडावियो। दिन आठ सीम करई अठाई, फूलहरो गुंथावियो ॥१५॥ बाजिन तूर वजाडिया, महिमा मंडी सारोजी। नंदीसर जिमि देवता,, करइ अठाई उदारोजी ।। उदार निज गृह पासि शांति नई, देहरइ पइसइ मुदा । करि स्नान मजन लंक सामी, करि प्रणाम मन मइ तदा ।। कुट्टिम तलई लंकेस बइठो, भगति भाव दिखाडिया । देहरो फटिक रतन तणउ ते, वाजिन तूर वजाडिया ।।१६।।