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( १६६ ) नगर ढंढेरो फेरियो, वलि वरतावी अमारोजी। आविल तप जप आखडी, हुक्म कीयो तसु नारोजी ।। तसु नारि मंदोदरि नगरी, माहि धरम करावए । दिन आठ सीम लगी अहिसा', सील वरत पलावए । वलि कहई जे कोइ पाप करिस्यई, तेह ऊँचउ टेरित। जाणिज्यो गूदरिस्य नहीं को, नगर ढ ढेरो फेरइ ।।१७|| लोक सको लंका तणो, लागो करिवा धर्मोजी। लोक थकी लह्यो बानरे, रावण विद्या नो मर्मोजी ।। रावण विद्या नो मर्म लाधो, जउ विद्या ए सीझिस्य। तो देवता पिण एहनइ का, सही संग्राम न जीपिस्य। ते भणी लंका माहि जई नई, त्रास उपजावा घणो । बहू रूपिणी विद्या न सीमइ, लोक सको लंका तणउ ॥१८॥ वलिय विभीषण इम कहइ , अवसर वारू एहोजी। देहरई श्रीशातिनाथ नई', बइठउ रावण तेहोजो ॥ बइठउ ते रावण जाइ झालो, पछइ को न सकइ ग्रही। श्रीराम कहई तु सुणि विभीपण, बात कहइ साची सही ।। पणि जुद्ध कीधा विण न मारु, वलि विशेपइ देहरई। पणि करिसि कोई उपाय बीजो, वलिय विभीपण इम कहई ॥१६॥ सुग्रीवादिक मुकिया रावण, क्षोभ निमित्तो जी। लंका नगर माहे गया, सेना सजी विचित्रो जी।
१-दिन आठ लगइ एहवु करावी २-मेहल सिइ