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( १६४ ) माहरो महातम अधिक जाण', इन्द्र नेण हरावियउ । मत करइ राम संग्राम मुझ सुं, इम आलोची मुंकियर ॥६|| पंचमुख पणि गिरवर रहते, गजी न सकइ कोयोजी। तउ दसमुख किम गजियइ, राम विमासी जोयोजी ।। विमास नई तु मुकि माहरा, सुभट पुत्र सहोदरा । तु सासहि सीता माहरइ घरि, मेल करि सुमनोहरा ॥ लंकातणा दो भाग देस्यु, दूत वचन न सरदह्यो। राम कह्यो ते सुणिज्यो सहू को, पंचमुख पणि गिरवर रह्यो ॥१०॥ राज सुं काम कोई नहीं, अन्य रमणि नहि कामोजी । तुम पुत्रादिक छोडिस्यु, द्यइ सीता कहइ रामोजी ।। कहइ राम तेहवइ दूत वोल्यो, म करि राम तुंगव ए। तु जुद्ध करतो सहिय हारिसि, राज सीता सर्व ए। ए दूत ना दुरवचन साभलि, भामंडल कोप्यो सही। काढ़ियो खडग प्रहार देवा, राज सुं काम कोई नहीं ॥११॥ लखमण आडउ आवियो, दृत न मारइ कोयो जी। दूत निभ्र छी नासीयो, ले गयो माम गमायो जी ।। गयो दूत मांम गमाइ सगली, वात रावण नइ कही। जीवतउ राम कदे न मु कइ, सीतान जाणे सही। ए तत्व परमारथ कह्यो मई, त्रुटिस्यइ अति ताणीयो। ताहरई आवई चिन्त ते करि लखमण आडो आवियो ।।१२।। रावण एम विमासए, पणि मन माहि उदासोजी। जउ वयरी हुं जीपिस्यु, तर पिण पुत्र नो नासोजी ।।