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( २१५ ) वनजंघ राजा घणो, दोधो आदर मान । स्नान मन्जन भोजन भला, संतोषी सुविधान ॥६॥ . महुल दीयो रहिवा भणी, धण कण रिद्धि समृद्धि । दासी दास दीया घणा, रहइ तिहा सुप्रसिद्ध ||७|| भाग्यवंत जायइ जिहा, रान वेलाउल तेथि। पुण्य किया पहड़इ नहीं, सुख लहइ सीता एथि ।।८।। हिव कृतांत मुख सारथी, सीता नई वन छोडि । रांमचंद आगइ कही, बात सहू कर जोडि ||६|| नदी लाघि जिम ऊतरया, जिम छोडी वन माहि । जिम मुरछाणी जिम थई, वली सचेत निरुछाह ॥१०॥ रोती मृग रोवरावीया, वलि तुझ नइ कह्यो एम ।। सीता ना मुखथी कहुं, झूठ कहुं तो नेम ।।११।। जेम परीक्षा विण कीया, मुझ नइ छोड़ी रन्न । तिम मत छोडे कंत तु, श्री जिन धरम रतन्न ॥१२॥ वलि अपराध अजाणती, मई कोइ कीधो होइ। मिलियइ कइ मिलियइ नही, प्रीतम खमिजो सोइ ॥१३॥ रामचंद इम साभली, सीता तणा वचन्न । गुण ग्रहतो गहिलो थयो, रामचंद नो मन्न ||१४|| वज्राहत धरणी पड्यो, मूर्छागत थयो राम । विरह विलाप करइ घणा, थयो सचेतन जाम ।।१।।
सर्वगाथा ॥१४॥