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( २१४ ) चालि नगर तुं माहरइ रे, दुखु जलंजल देहि। जिनध्रम करि बइठी थकी रे, नरभवनो फल लेहि ॥५शापि०) पछइ करे तुं ताहरइ रे, जे मनि मांना तेह। सीता वाधव जाणि नई रे, इम बोलइ सुसनेह ॥५२॥पि०॥ हे वांधव तुं माहरउ रे, मई तुम सरणो कीध । वज्रजंघ नृप पालखी रे, तुरत अणावी दीध ।।५३।।पि०|| पइसारो सवलो करी रे, पुडरीकपुर माहि। सीता आंणी आवासमई रे, अंगइ अधिक उछाह ॥४ापि०॥ वीजी डाल पूरी थई रे, आठमा खंडनी एह । समयसुन्दर कहि कारिमो रे, अस्त्री पुरुष नो नेह ।।५।।पिता
सर्वगाथा || १३१ ॥
दूहा १५ नगर लोके सीता तणो, देखी रूप उदार । अचरजि पामी चित्त मई, बोलइ विविध प्रकार ||१|| के कहइ गुण अवगुण तणों, भेद न जाणइ राम । दुरलंभ देवा नई जिका, ते सीता तजी आम ||२|| पुण्यहीन पामी थकी, भोगवि न सकइ लच्छि। रतन रहइ किहाँथी घरे, आवणहार अलच्छि ॥३॥ के कहइ अस्त्री एहवो, रे रे दैव सुणेइ । जर द्यइ माग्यो रूप तो, तो सीता सरिखो देव ॥४॥ दूषण संभावीजतो, नहि छइ इण मई कोइ । पिण दुसमण किणही दीयो, आल इसो छिद्र जोइ ॥५॥