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[ २३ ] होकर उदासीन रहने लगा। अन्त में मर कर गरुडाधिप देव हुआ। अणुधर एक वार अज्ञान तप करता हुआ कौमुदीनगर आया.। वहाँ का राजा वसुधारा तापस का भक्त था किन्तु उसकी रानी शुद्ध जिनधर्म परायणा थी। एक दिन राजा को तापस की प्रशंसा करते देख रानी ने कहा- ये अज्ञान तपस्वी है, सच्चे साधु तो निग्रंथ होते हैं। राजा ने कहा-तुम असहिष्णुता से ऐसा कहती हो । रानी ने कहापरीक्षा की जाय। रानी ने अपनी तरुण पुत्री को रात्रि के समय तापस के पास भेजा। उसने नमस्कार पूर्वक तापस से निवेदन किया कि मुझे माता ने निरपराध घर से निकाल दिया है, अब आपके शरणागत हूँ, कृपया मुझे दीक्षा दें। अणुद्धर उसके लावण्य को देख कर मुग्ध होकर काम प्रार्थना करने लगा। कन्या ने कहा-यह अकार्य मत करो! मैं अभी तक कुमारी कन्या हूं। यदि तुम्हें मेरी
चाह है तो तापस-धर्म त्याग कर मेरी मां से मुझे मांग लो। इसमें . कोई दोष की बात नहीं है। तापस कन्या के साथ हो गया, वह उसे किसी गणिका के यहाँ ले गई। तापस गणिका के चरणों में गिर कर बार-बार पुत्री की माग करने लगा, राजा ने गुप्त रूप से सारी घटना स्वयं देख ली और उसे बांध कर निभ्रंछना पूर्वक देश से निकाल दिया। राजा ने प्रतिबोध पाकर श्रावक-धर्म स्वीकार कर लिया। लोगों में निन्दा पाता हुआ तापस कुमरण से मर कर भव भ्रमण करने लगा। एक बार उसने फिर मानव भव पाकर तापसधर्म स्वीकार किया और काल करके अनलप्रभ नामक देव हुआ। उसने पूर्व भव का वैर याद कर हमारे को उपसर्ग किया है। यह वृतान्त सुन कर सीता, राम, लक्ष्मण ने केवली भगवान की भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति की।