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[ २४ ] गरुड़ाधिप देव ने प्रगट होकर वर मांगने को कहा। राम ने कहाकभी आपत्तिकाल में हमें सहाय्य करना। वंशस्थलपुर नरेश सूरप्रभ ने आकर राम, सीता, लक्ष्मण की बहुत सी आदर भक्ति की। राम की आज्ञा से पर्वत पर जिनालय वनवा कर रत्नमय प्रतिमा विराजमान की गई, इस पर्वत का नाम रामगिरि प्रसिद्ध हुआ।
राम का दण्डकारण्य प्रस्थान रामगिरि से चल कर राम, सीता, और लक्ष्मण दण्डकारण्य पहुंचे और कन्नरवा के तट पर बांस की कुटिया बना कर सुखपूर्वक रहने लगे। इस वन में जंगली गाय का दूध एवं अड़क धान्य, आम्र, कटहल, दाडिम, केला व जंभोरी प्रचुरता से उपलब्ध थी। एक वार दो आकाशगामी तपस्वी मुनिराज पधारे। सीता, राम, लक्ष्मण ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक आहार दान किया। देवों ने दुन्दुभिनाद पूर्वक वसुधारा वृष्टि की। एक दुर्गन्धित पक्षी ने आकर मुनिराजों को वन्दन किया जिससे उसकी देह सुगन्धित और निरोग हो गई। राम के पूछने पर त्रिगुप्ति साधु ने उसके पूर्व जन्म का वृतान्त इस प्रकार सुनाया :
जटायुध कथा प्रसंग कुण्डलपुर का राजा दण्डकी वड़ा उद्दण्ड था। उसकी रानी मक्खरि विवेकी श्राविका थी। एकबार राजा ने वन में कायोत्सर्ग स्थित मुनिराज के गले में मृतक सांप डाल दिया। मुनिराज ने अभिग्रह कर लिया कि जहाँ तक गलेमें सांप विद्यमान है, कायोत्सर्ग नहीं पारूँगा।. दूसरे दिन जब राजा ने मुनिराज को उसी अवस्था में देखा तो उसे अपने कृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुआ और वह साधु-भक्त हो गया।