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[ ४८ । १६९२ में भी ये खंभात ही में रहे और वैशाख मास में अपने शिष्य मेघविजय-सहजविमल के लिये 'रघुवंश' काव्य पर 'अर्थलापनिका वृत्ति' वनाई। १६९३ में अहमदावाद में सहजविमल लिखित 'सन्देह दोलावली' के पाठ पर सस्कृत पर्याय लिखे। इसी वर्ष यहाँ 'विहरमान वीसी' के पदों की रचना की।
१६६४ का चातुर्मास्य जालोर में हुआ। वहां इनका आषाढ़ सुदी १० का लिखा 'श्री जिनचन्द्रसूरि गीत' हमारे संग्रह में है। इसी वर्ष वहाँ इन्होंने 'वृत्तरत्नाकर' छन्द-प्रन्थ पर वृत्ति तथा 'क्षल्लककुमार चउपई की रचना की। १६६५ में 'चंपक श्रेष्टि चउपई' बनाई और 'सप्तस्मरण' पर 'सुखबोधिका' वृत्ति लिखी, जिसका संशोधन इनके शिष्य वा० हर्षनन्दन ने किया। इसके बाद आँकेठ ग्राम (पालनपुर से पांच कोस) आए, जहाँ 'गौतमपृच्छा चौपाई, की रचना की। यहां से 'प्रल्हादनपुर' भाकर 'कल्याणमन्दिर वृत्ति लिखी।
शेप जीवन-वृद्धावस्था एवं तज्जन्य अशक्ति के कारण विहार करते रहना संभव न था, अतः १६६६ में ये अहमदावाद गए
और वहीं शेष जीवन व्यतीत किया, पर साहित्य-रचना पूर्ववत् करते रहे। सं० १६६६ में उन्होंने 'दंडकवृत्ति', और व्यवहार-शुद्धि पर 'धनदत्त चौपई' की रचना की। पैंतालीस आगमों में जिन-जिन साधुओं के नाम पाए जाते हैं उनकी वंदना के रूप मे १६६७ में साधुवंदना' बनाई और उसी समय ऐरवत क्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन रचे। इसी संवत् मे फा० शु० ११ को वहीं संखवाल नाथा भार्चा धन्नादे ने परिमाण व्रत ग्रहण किये।