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लोक प्रससा सहु करइ, धन ए साध महत । उतकृष्टी रहणी रहइ, जिन सासन जयवत ॥३॥ दुख जाय इ मुख देखता, नाम थकी निस्तार । वछित सीझइ वादतां, ए मोटउ अरणगार ॥४॥
[ सर्न गाथा २७ ।
२ ढाल बीजी
ढाल-पुरंदर री विसेषाली वेगवती ते बाभणी, महामिथ्यामति मोही रे। साध प्रससा सही नही, जिनसासन नी द्रोही रे ॥१॥ साध नइ बाल कूडउ दीयउ, पाप करी पिंड भार्यउ रे । फिट २ लोक माहे थई, हाहा नर भव हार्यउ रे ।।२।। सा०॥ वेगवती मन चितवइ, ए मूरिख लोक न जाणई रे । बांभरण नइ मानइ नही, मु ड नइ मूढ बखाणइ रे ॥३॥ सा०॥ ए पाखंडी कपटीयउ, लोक नइ भामइ घालइ रे। सिव सासन खोटइ करइ, ते को नहिं जे पालइ रे ॥४॥ सा०॥ तउ हुँ एह नइ तिम करूं, जिम को लोक न मानइ रे । पाल देउ कोई एहवउ, जिमि सह को अपमानइ रे ॥।॥ सा०॥
वेगवती इम चितवी, गइ लोकां नइ पासइ रे। स्त्री सेती व्रत भाजतउ, मइ दीठउ इम भासइ रे ।।६।। सा०॥
• श्री जिनवदन निवासिनी ए देशी