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[ ६६ ] नहीं रहना है, अयोध्या से मेरा आना केवल धीज करके अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिए ही हो सकता है अन्यथा मेरे लिये धर्म ध्यान के अतिरिक्त दूसरा कोई प्रयोजन अवशिष्ट नहीं है। सुग्रीव द्वारा यह शर्त स्वीकार करने पर सीता उनके साथ आकर अयोध्या के उद्यान में ठहरी।
सीता-शील की अग्नि परीक्षा दूसरे दिन प्रातःकाल अन्तःपुर की रानियों ने आकर सीता का स्वागत किया। राम ने आकर अपने अपराधो की क्षमायाचना की। सीता ने चरणों में गिर कर कहा प्रियतम! आपको मैं क्या कहूं। आप पर दुख कातर, दाक्षिण्यवान् और कलानिधि है, संसार में आप अद्वितीय महापुरुप है, पर मुझ निरपराधिनी को विना परीक्षा किये आपने रण में छोड़ दिया। अग्नि, पानी आदि पाच प्रकार की परीक्षाएं करा सकते थे, पर ऐसा न किया और मुझे अपने भाग्य भरोसे अटवी में ढकेल दिया। वहां मुझे हिंस्र पशु मार डालते तो मैं आर्त रौद्र ध्यान से मरकर दुर्गति मे जाती। किन्तु आपका इसमे कोई दोष नहीं, मेरे प्रारब्ध का ही दोष है । मेरा आयुष्य प्रबल था। पुंडरीकपुर नरेश ने भ्राता के रूप में आकर मेरी रक्षा की और आश्रय दिया । अव सुग्रीव मुझे यहा लाया है तो मैं कठिन अग्निपरीक्षा द्वारा अपने उभयकुल को उज्वल करूंगी। राम ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा-मैं . जानता हूं कि तुम गंगा की भांति पवित्र हो पर अपयश न सहन कर सकने के कारण ही मैंने तुम्हारा त्याग किया। अब तुम नि:संकोच । जलती अग्नि में प्रविष्ट होकर अपने को निष्कलंक प्रमाणित करो।