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[४०] संवत् १६६१ में चैत्र कृष्ण ५ को भगवान् पार्श्वनाथ का स्तवन वनाया। १६६२ से सागानेर आए और दान-शील-तप-भावनासंवाद'१३ की रचना की। इस ग्रन्थ में धर्म के इन चार प्रकारों से होनेवाले लाभों और दृष्टांतों का संवाद रूप मे वणन करते हुए अन्त में भगवान् महावीर के मुख से चारों का समझोता कराया गया है। यह रचना सुन्दर और कवित्वपूर्ण है। ___सं० १६६२ मे घघाणी तीर्थ मे बहुत सी प्राचीन प्रतिमाएँ प्रकट हुई जिनका माघ मास मे दर्शन कर इन्होंने एक ऐतिहासिक स्तवन १४ बनाया। इसका सार नीचे दिया जाता है
'सं० १६६२ ज्येष्ठ शुक्ल ११ को दूधेला तालाब के पास खोखर के पीछे भूमि की खुदाई करते समय भूमिगृह निकला। जिसमें जैन
१३--जैन-स्तवन आदि के कई संग्रहात्मक ग्रंथों में यह प्रकाशित हो चुका है। ऐसी सवाद सज्ञक अन्य रचनायों के विषय में लेखक का 'जैन-सत्यप्रकाश', वर्ष १२ अंक १ में प्रकाशित लेख द्रष्टव्य है।
१४-यह स्तवन घघाणी तीर्थ-समिति की ओर से मुनि ज्ञानसुदरजी के प्राचीन जैन इतिहास में प्रकाशित हुया था। घंघाणी जोधपुर रियासत में प्राचीन स्थान है। किसी समय यह बड़ा समृद्धिशाली नगर रहा होगा, जिसके भग्नावशेष आज आज भी यहाँ विद्यमान हैं। समयसुदरजी द्वारा उल्लिखित प्रतिमाएँ अव प्राप्य नहीं है, किन्तु दशवीं शती की एक विशाल धातु-मूर्ति अव भी उल्लेखनीय है। कुछ वर्ष पूर्व इस स्थान की खुदाई में पद्रहवीं शती की एक जैन प्रतिमा निकली थी, जो जैन उपाश्रय में रखी हुई है। अन्वेषण करने पर यहाँ प्राचीन शिलालेख आदि प्राप्त होने की समावना है।