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: ३६ ] रचना की जिसमें चौवीस तीर्थङ्करों और चौवीस गुरुओं के नाम समाविष्ट हैं। सं० १६५२ का चौमासा खंभात में किया और विजयदशमी के दिन 'श्रीजिनचन्द्रसूरि गीत' बनाया, जिसकी कार्तिक शुक्ल ४ की स्वयं कवि द्वारा लिखित प्रति उपलब्ध है। सं० १६५३ में आपाढ़ शुक्ल १० को इलादुर्ग में रचित एवं कवि की स्वलिखित 'मंगलवाद' की तीन पन्ने की प्रति जैसलमेर के खरतरगच्छ पंचायतो भंडार मे विद्यमान है। सं० १६५६ मे वे जेसलमेर आए
और वहां अक्षय-तृतीया के दिन सतरह रागों मे 'पाश्चेजिनस्तवन' की रचना की। सं० १६५७ में श्री जिनसिहसूरि के साथ चैत्र कृष्ण ४ को आवू और अचलगढ़ गए। वहां से शत्रुजय और फिर अहमदावाद आए। सं० १६५८ का चातुर्मास्य यहीं किया और विजयदशमी के दिन यहीं 'चौबीसी' की रचना की। इसी वर्ष मनजी साह ने यहीं अण्टापद तीर्थ की रचना कराई, जिसका उल्लेख कवि ने 'अष्टापदस्तवन” में किया हैं। यहाँ से पाटण आए। यहाँ सं० १६५६, चैत्र पूर्णिमा की इनके हाथ की लिखी नरसिंहभट्ट-कृत श्रवण-भूपण ग्रंथ की प्रति हमने यति चुन्नीलाल के संग्रह मे ३०-३५ वर्ष पूर्व देखी थी। अब यह प्रति श्री मोतीचन्द खजानची के संग्रह में है। ___सं० १६५६ का चातुर्मास्य खंभात मे हुआ और वहां विजयदशमी के दिन 'शांव प्रद्य म्न चौपाई' की जो इनकी 'रास चौपाई आदि वड़ी भाषाकृतियों में सर्वप्रथम रचना है। इन्होंने इस चौपाई मे इसे प्रथम अभ्यास रूप रचना वतलायी है--
सगति नही मुझ तेहवी, बुद्धि नहीं सुप्रकास । वचन विलास नही तिस्यठ, ए पणि प्रथम अभ्यास ॥