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[ ३८ ] 'वाचक'-पद-कश्मीर विजय कर लाहौर वापस आने पर सम्राट् ने श्रीजिनचंद्रसुरि से वा० महिमराज को 'आचार्य' पद देने का अनुरोध किया। सं० १६४६ फाल्गुन कृष्ण १० से अष्टाह्निका महोत्सव आरम्भ हुआ और उसमें फाल्गुन शुक्ल २ को वा० महिमराज को 'आचार्य' पद देकर उनका नाम 'जिनसिंहसूरि प्रसिद्ध किया गया। इसी महोत्सव मे श्री जिनचन्द्रसूरि ने जयसोम तथा रत्ननिधान को 'उपाध्याय' एवं समयसुन्दर तथा गुणविनय को 'वाचक' पद से अलंकृत किया। इसका उल्लेख 'कर्मचन्द्र-वंश प्रबंध और 'चौपाई१२ में इस प्रकार पाया जाता है
तेषु च गणि जयसोमा रलनिधानाश्च पाठका विहिता। गुणविनय समयसुंदर गणि कृती वाचनाचार्या ॥ ६२ ।। वाचक पद गुणविनव नइ, समयसुदर नइ दीघउ रे ।
युगप्रधान जी नइ करइ, जाणि रमायण सीधउ २।। ग्रन्थ-रचना और विहार-सं० १६५१ से गढ़ाला ( नाल )-मंडन श्री जिनकुशलसूरि के दर्शन कर उनका भक्तिगर्भित अष्टक द्रुतविलंवित छन्द में बनाया और इसी वर्प स्तम्भन पार्श्वनाथ-स्तव' की
१०-द्रष्ट० नेमिदत्त काव्यवृत्ति की प्रस्तावना।
११-इसका मूल ओमाजी ने हिन्दी अनुवाद सहित थार्टपेपर पर छपवाया था, पर वह प्रकाशित न हो सका। मुनि जिन विजय ने इसे वृत्ति के साथ छपवाया है। - १२-जन राससग्रह माग ३ तथा ऐतिहासिक जैन गुर्जर काव्य-सचय में प्रकाशित।