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और शिव की ६५ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई । इनमे मूलनायक पद्मप्रभु, पार्श्वनाथ, चौबीसटा, चौमुखजी, २३ अन्य पार्श्वनाथजी की प्रतिमाएँ जिनमें दो कायोत्सर्ग मुद्रा की थीं, एवं १६ अन्य तीर्थंकरों की - कुल ४६ जन तीर्थं कर प्रतिमाएँ थीं। इनके अतिरिक्त इंद्र, ब्रह्मा, ईश्वर, चक्रेश्वरी, अंबिका, कालिका, अर्धनारीश्वर, विनायक, योगिनी, शासन-देवता और प्रतिमाओ वनवानेवाले चंद्रगुप्त, संप्रति, विन्दुसार, अशोकचन्द्र तथा कुणाल, इन पांच नृपतियों की प्रतिमाएँ एवं कंसाल जोड़ी, धूपदान, घण्ट, शंख, भृंगार, उस समय के मोटे त्रिसटिए आदि प्राचीन वस्तुएँ निकलीं। इनमें पद्मप्रभु की सपरिकर सुन्दर मूर्ति महाराज संप्रति की बनवाई हुई और आर्य सुहस्तिसूरि द्वारा प्रतिष्ठित थी। दूसरी, अर्जुन पार्श्वनाथ की, प्रतिमा श्वेत सोने (प्लाटिनम ) की थी, जिसे वीर सं० १७० में सम्राट चंद्रगुप्त ने वनवा - कर चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु से प्रतिष्ठित कराया था ।'
सं० १६६३ का चातुर्मास्य वीकानेर में हुआ । यहाँ कार्तिक शुक्ल १० को ‘रूपकमाला' नामक भाषा - काव्य पर संस्कृत मे चूर्णि वनाई, जिसका संशोधन श्रीजिनचन्द्रसूरि के शिष्य श्री रत्ननिधान ने किया । इनके द्वारा चाटसू में चैत्र पूर्णिमा १६६४ की लिखी इस चूर्णि की प्रति पूना के भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट में हैं । सं० १६६४ में ये आगरा आए और 'च्यार प्रत्येकबुद्ध चौपाई १५ की रचना की । इनका रचा आगरा के श्री विमलनाथ का स्तवन भी उपलब्ध है ।
१५ - यह पहले भीमसी माणक की ओर से प्रकाशित हुई थी, फिर 'आनंद काव्य - महोदधि' के सातवें मौक्तिक में श्री देसाई के लेख के साथ प्रकाशित हुई है।